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________________ २४ श्री वैराग्य शतक चन्द्र थकी अंगार झरे ने वासीदे सांबेलुं जाय, पण सुकृत विण गतनरभव ते पाछो चेतन नहीं ज पमाय विवेचन-सूर्य पूर्व दिशामां ऊगे छे ने पश्चिममां अस्त थाय छे. तेने बदले - पश्चिममां ऊगे ने पूर्वमां आथमे. बधा मर्यादा छोडे छे. पण समुद्र पोतानी मर्यादा मुक्तो नथी. ए पण मर्यादा छोडीने भरत वगेरे क्षेत्रोने पलाळी नाखे. मरी जाय पण सिंह खड न खाय, ए घास पण खावा मांडे. अमृत-झरतो चंद्रमा आगना भडका ने अंगारा वरसावा लागे. कचरो काढता वासीदामां खांडवानुं मोटुं सांबेलुं पण हाल्युं जाय. पण अनंत पुण्ये मळेल मानव जन्म धर्म कर्या सिवाय-सुकृत मेळव्या वगर-सदाचार पाळ्या विना, परोपकार केळव्या वगर गुमावाय तो फरी ए मळे नहि. अपार भवचकमां एनो पत्तो पामवो मुश्केल थई पडे, माटे पुण्य करणी करवामां निशदिन प्रयत्नशील रहे. (१३) इति मानवजन्मदुर्लभतावर्णनोऽधिकारः अथ नरकदुःखवर्णनोऽधिकारः (१४) चेतनने चेतवणी शाने मान धरे छे चेतन केम हसे छे थई मस्तान, कनककामिनी झंखे शाने व्यसन विषे थईने गुलतान, कनकक
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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