________________
श्री वैराग्य शतक
११३ काबुमां राख ! पारका रूप जोवाथी मनोविकार वधवा सिवाय बीजुं तारा हाथमां कांई आवतुं नथी. आ पतंगीयानी दशा जो केवू मनोहर देखाय छे. जरा चपटी वगाडीये के अडीये तो तरत ज ऊडी जाय छे, आकाशने पण अवाजथी गजावे ने पोताना पंचरंगे रम्य बनावे छे पण ए दीवानी ज्योति जोईने भान भूले छे. ए लालने पीळी शिखामां मोहाय छे. एमां पोताना देहने होमी दे छे मरण पामे छे. माटे हे चेतन ! तुं शा माटे नयनने वश थाय छे ! तारी आंखथी महात्माओना दर्शन कर, सारूं सारूं दर्शन कर, नासिका पर आंख स्थिर कर-ध्यान धर पण रूपमां न फसा. नहि तो तारी पण पतंगीया जेवी दशा थशे. माटे आंख पर काबु मेळव (८७) (८८) मृग अने सर्पो-कर्णेन्द्रिय वश बनी
दुःखमां पडे छे.
(शार्दूल विक्रीडित) रहे गाढनिकुंजमां विहरवू निर्भीक थईने वने, सहेवू ना कदीए कटुवयणने, ना देखq दुष्टने, जे'हने तेह मृगो य श्रोत्र वशथई खोवे अरे प्राणने, ने सर्पो य थई सुशब्दरसिको, केवा पडे बन्धने.
विवेचन-कान अने मनने गाढ संबंध छे. कान द्वारा पेसता शब्दो सीधा मन उपर असर करे छे, पांचे इन्द्रियोमां