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________________ श्री वैराग्य शतक - विवेचन-सम्यक्त्व दर्शन-बोधि देवगुरुने धर्म उपर श्रद्धा सत्तत्व पर आत्म विश्वास ए अपूर्व चीज छे, जेनी जगत्मा जोड नथी. जेनो महिमा चिन्तामणि रत्न कामकुंभ, कल्पतरु, कामधेनु करतां केइ गुण अधिक छे. एना महिमा जेटलो मोटो छे तेवी तेनी प्राप्ति पण मुश्केल छे. ए वस्तु रमतमां मळती नथी. ते मेळववा माटे आत्माए प्रबल पुरुषार्थ फोरववो जोईए मोहनो सखत सामनो करवो पडे छे. अनादि-अनंत काळथी निगोदमां भमतां भमतां बादर एकेन्द्रियमां-पृथ्वी, पाणी, अग्नि वायु, वनस्पतिमां असंख्य काळ रखडी, बेइन्द्रिय-तेईन्द्रिय-चउरिन्द्रियमांसंख्याता काळसुधी भ्रमण करी. तिर्यंच पंचेन्द्रियना पशुपंखी आदिना भवो करी-मनुष्यभव पामे, ते पाम्या पछी पण आर्यदेश, आर्यकुल, सद्गरुनो योग, धर्मनुं श्रवण वगेरे ज्यारे थाय ने तेना उपर रुचि जागे ! त्यारे आत्मा समकित पामे, पण समकित पामे एटले तेनो बेडो पार ! समकित पाम्या पछी अवश्य अर्ध पुदगल परावर्तमां ते मोक्ष मेळवे. समकित पाम्यो एटले ए परमपद- पगथीयुं चडतां शिख्यो. कदाच पडी जाय तो फरीथी चडे पण तेने चडतां आवडी गयुं एटले ते छेवटे छेक पहोंचवांनो ज. समकित मेळववा माटे पडती मुश्केलीओनो अने तेना प्रभावनो कहेतां पार आवे तेम नथी. एक जीभथी तो ए गाई शकाय ज नहि. जगत्ना जीव मात्र समकित पामो. पामीने तेने अक्षय करो
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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