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________________ ६८ श्री वैराग्य शतक द्वीप समुद्रो - नदी - तळाव, द्रह, सरोवर पर्वत वगेरे छे ने अधो लोकमां सात नारकी भवनपति - व्यन्तर वगेरेना आवास आदि छे. आ लोकनी कल्पना वैशाख संस्थाने ऊभेला, पुरूषना जेवी छे, ते आ प्रमाणे : बन्ने पग पहोळा करी ने केड पर हाथ राखीने स्थिर रहेल पुरुषनुं संस्थान - वैशाख कहेवाय छे. तेना पगथी मांडी केड सुधी, नारक आदि अधो लोक आवे. केडने स्थाने मध्य लोकने तेथी उपर ऊर्ध्व लोक आवे. आ लोक अनादि अनंत छे पण परिवर्तन शील होवाने कारणे उत्पत्तिवाळो स्थिर ने विनासी पण कहेवाय छे. आ लोकना स्वरूपनो विचार करतां आत्मा कर्म खपावी लोकान्त मेळवे छे, केवळ ज्ञानिओ मोक्ष जतां पहेलां आयुष्य करतां शेष कर्म विशेष होय ते समुद्घात करी, आत्म प्रदेशोथी लोकने भरी दे छे. आ लोकना विचारमां सर्व विचारणाओ समावी शकाय छे. आ लोकनुं विस्तारथी स्वरूप जाणवानी इच्छावाळाए क्षेत्रसमास संग्रहणी - सूत्र, लोक प्रकाश, वगेरे शास्त्रो ऊंडाणथी समजवा-भणवा भलामण छे. (४७) (४८) बारमी बोधिदुर्लभ भावना प्रथमनिगोद पछी स्थावरता त्रसता पंचेन्द्रियताहोय, मनुष्यपणुं पामीने धर्मश्रवणथी समकित पामे कोय. सुरमणिसुरघट सुरतरुमहिमाएनी पासे अल्पगणाय, बोधिरननी दुर्लभता ते एकजीभथी केम कहाय.
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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