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श्री वैराग्य शतक
द्वीप समुद्रो - नदी - तळाव, द्रह, सरोवर पर्वत वगेरे छे ने अधो लोकमां सात नारकी भवनपति - व्यन्तर वगेरेना आवास आदि छे. आ लोकनी कल्पना वैशाख संस्थाने ऊभेला, पुरूषना जेवी छे, ते आ प्रमाणे : बन्ने पग पहोळा करी ने केड पर हाथ राखीने स्थिर रहेल पुरुषनुं संस्थान - वैशाख कहेवाय छे. तेना पगथी मांडी केड सुधी, नारक आदि अधो लोक आवे. केडने स्थाने मध्य लोकने तेथी उपर ऊर्ध्व लोक आवे. आ लोक अनादि अनंत छे पण परिवर्तन शील होवाने कारणे उत्पत्तिवाळो स्थिर ने विनासी पण कहेवाय छे. आ लोकना स्वरूपनो विचार करतां आत्मा कर्म खपावी लोकान्त मेळवे छे, केवळ ज्ञानिओ मोक्ष जतां पहेलां आयुष्य करतां शेष कर्म विशेष होय ते समुद्घात करी, आत्म प्रदेशोथी लोकने भरी दे छे. आ लोकना विचारमां सर्व विचारणाओ समावी शकाय छे. आ लोकनुं विस्तारथी स्वरूप जाणवानी इच्छावाळाए क्षेत्रसमास संग्रहणी - सूत्र, लोक प्रकाश, वगेरे शास्त्रो ऊंडाणथी समजवा-भणवा भलामण छे. (४७)
(४८) बारमी बोधिदुर्लभ भावना
प्रथमनिगोद पछी स्थावरता त्रसता पंचेन्द्रियताहोय, मनुष्यपणुं पामीने धर्मश्रवणथी समकित पामे कोय. सुरमणिसुरघट सुरतरुमहिमाएनी पासे अल्पगणाय, बोधिरननी दुर्लभता ते एकजीभथी केम कहाय.