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________________ ६७ - श्री वैराग्य शतक (४७) अगीयारमी लोकस्वरूप भावनाकटिपर स्थापित हस्तप्रसारितपाद पुरूषना जेवो जेह, षड्द्रव्यात्मक लोक अनादिअनन्तस्थिति धरनारो तेह. उत्पत्तिव्यय ध्रौव्य युक्त ते ऊर्ध्व अधोने मध्य गणाय, लोकस्वरूप विचार करतां उत्तमजनने केवल थाय. - विवेचन-लोक एटले चौद. राजलोक-जीव अने पुदुलने रहेवानुं स्थान. जीव अने पुदुलना परिभ्रमणनी मर्यादा, लोकनी बहार जीव के पुद्गुल न जइ शके, ते बन्नेने चालवामां, स्थिर करवामां, रहेवामां ने नवाजुना ओळखवामां सहाय करनारा, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय ने काळ ते पण लोकमांज अलोकमां तो केवळ आकाश, ने ते पण अनंत-अपार, न कोइ तेमां जइ शके के रही शके एवं. देखीती बधी धमाल लोकमां, एक राज पहोळी ने चौद राज लांबी सनाडी ते पण लोकमां ते लोकना त्रण विभाग ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, ने अधोलोकबीजा शब्दोमां कहीए तो स्वर्ग-मृत्यु ने पाताळ, तेमां ऊर्ध्वलोक सात राजमां कांईक अल्प-ऊंचो ने वधारेमां वधारे पांच राज पहोळो. मध्य लोक १८०० योजन ऊंचो अने एक राज पहोळो, अधो लोक सात राज ऊंचो ने वधारेमां वधारे सात राज पहोळो. ऊर्ध्वलोकमां बार देवलोक. नवग्रैवेयक पांच अनुत्तर सिद्ध शिला वगेरे छे. मध्य लोकमां असंख्य
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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