SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री वैराग्य शतक वैराग्य शतकनी प्रस्तावना . अनादि काळथी आ जीव सुख मेळववाना प्रयत्नो करतो आव्यो छे. कर्म बंधनने कारणे संसारमा भटके छे. अने हजु संवर निर्जरा उच्च प्रकारनी नहि करे तो भटकशे. उच्च प्रकारनो संवर अने उच्च प्रकारनी निर्जरा करवा माटे आ जीवे जीवनमां वैराग्यभाव प्रगट करवो परम आवश्यक छे. ज्यां सुधी जीवनमां वैराग्य न प्रगटे भवभीरुता न आवे त्यां सुधीनी बधीये साधना अधुरी ज रहेवानी छे. माटे वैराग्यनी साधना करवी ते मनुष्य जीवन माटे परम उपयोगी छे. आ वैराग्यनी साधना बे प्रकारे थई शके छे. एक तो वैराग्यवाळा पुस्तक वाचनथी अने बीजी वैरागी आत्माना संसर्गथी आ बनेमां जेम आ काळमां वैरागीनो संसर्ग मुश्केल छे पण अशक्य नथी, तेम वैराग्यना पुस्तको मळवा मुश्केल छे पण अशक्य नथी. तेम आ ज्यारे वांचो छो त्यारे वैराग्यनुं पुस्तक तमारा हाथमां छे. ते वैराग्यना पुस्तकमांथी जीवनमा वैराग्य लाववा प्रयत्न करजो. ___ आ पुस्तकमां १०० लोको वैराग्यना छे अंने ते शासनसम्राट पूज्यपाद आचार्य श्री विजय नेमिसूरीश्वरजी महाराजना पट्टधर पूज्यपाद आचार्य श्री विजय अमृतसूरिजी महाराजे पोताना संयम अवस्थाना पूर्व रजा.
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy