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________________ ९४ श्री वैराग्य शतक बारणा पासे आव्यो त्यारे ! तेने मनमां विचार आव्यो, के आंधळा माणसो केम चालता हशे ! हुं ए प्रमाणे चाली शकुं के नहि ? एटले आंख मीचीने चालवा लाग्यो. एटलामां ए खुल्लु द्वार चाल्युं गयुं ने पुनरपि-पुनरपि (फरी फरी) एनो ए ज चक्रावो एने रह्यो. माटे हे चेतन ! तुं आ नरजन्म पामी आंधळानु अनुकरण न करतो. नहि तो तारो अंतज नहिं आवे. आ उघाडु बारणुं छे. नीकळी जा संसारमाथी ने सुखी था. संयम लई शिवपदने पाम (६९) (७०) कुटुंबिओ कोई कामना नथी. एमां जीवन गुमावq ए तद्दन निष्फळ छे. बहु जातिओमां भ्रमण करतां सर्व संबंधो कर्यां. माता पिता बंधु पणे तुज सर्व सत्त्वो सांपड्या, पण कोईथी अद्यापि तुज रक्षण कदीए नव थयु. हे जीव ! तारूं जीवन सवि एळे गयुं एळे गयुं. विवेचन- हे आत्मन् ! तुं कुटुंबना मोहे,माता पिताभाईभाडं-पुत्र पत्नी आदि परिवारना रागे संसारमा पड्ये रहेतो हो. तो ते राग छोडी दे. ए तारो मिथ्या मोह छे. दरेक जीव तारा कुटुंबि संबंधी छे. तुं अनंतकाळथी भमे छे ने दरेकनी साथे कोईने कोई संबन्धथी जोडायो छे. ए कोई तारा कोईपण काममां नथी आव्या उलटुं एना संबंधने लईने तुं दुःखना खाडामां गबडी पडयो छे. एनी पलोजणमां तुं
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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