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________________ श्री वैराग्य शतक ए सर्व स्थानोमां अन्नती वार चेतन आथड्यो, कर धर्म मानव-जन्महीरो आज तुज हाथे चडयो. विवेचन-आ जीवने उत्पन्न थवानां स्थळ चोराशी लाख छे. तेने चोराशी लाख जीवायोनि कहेवामां आवे छे. 'सात लाख' प्रतिक्रमणमां बोलाय छे तेमां एनी गणत्री करावी छे. ए सर्व स्थानमां दुःख ने दुःख ज छे, वास्तविक सुख तो कोई स्थळे नथी अनंत काळथी परिभ्रमण करतो आ अहं ममेतिमन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत् । अयमेव हि नञ्पूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित् ॥ जीव ए दरेक स्थाने अनंत वखत जन्म्ये ने मर्यो छतां तेनो छुटकारो न थयो फक्त मानवजन्म ज एवो छे के ज्यांथी आ जीव जन्म-मरणना चक्रावामांथी छुटी शके छे. मुक्त बने छे, सर्व संकटनो अंत लावे छे, नरजन्म चिंतामणि तुल्य छे. माटे ए जन्म पामीने हे चेतन ! तुं धर्म कर, मूर्ख ब्राह्मणनी जेम कागडाने उडाववामां ए रत्नने न फेंकी दे, विषयो कागडा जेवा छे, तेमां आ जन्म न गुमाव. एक मोटा अंधारीया महेलमां एक जणने पूरेल, ते महेलने चोराशी लाख बारणा हता. एक द्वारज एवं हतुं के: - ज्यांथी ए बहार नीकळी शके, बाकी बधा बंध हतां. अंदर पूरायेल प्राणीने त्यां खूब दु:ख हतुं एटले ए बहार नीकळवा घणां फांफां मारे पण मार्ग , मळे, तेने एक द्वार खुल्लुं छे तेनी खबर पडी बधे बारणे भमतो भमतो खुल्ला
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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