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________________ श्री वैराग्य शतक १११ कांटा भराई जई मरण पामे छे, ए मरण पामेला माछलानी स्थिति पण जोई न शकाय एवी होय छे. आ बधां दुःखमां कारण कोई होय तो ते एक जीभ ज छे. माटे हे जीव ! जीभने वश न थतो पण जीभने वश राखजे तो सुखी थईश (८५) ( ८६ ) नासिका वश कमळ बन्धमां बंधातो भमरो. झंकारना शब्दे करी दिग्देश जेह गजावतो, पुष्पोतणा रस चूसतो चालाक शीघ्रगति छतो. ते मधुप बन्धन पुष्पनुं गजकर्णनी लातो सहे, जो नासिकाने वश पडीने झुरी झुरीने मरे. विवेचन - हे आत्मन् ! घ्राणेन्द्रियने पराधीन ! नासिकाने वश-सुगन्धमा लोलुप बनीने तुं घणा कष्टमां पडे छे. जे भमरो गुंजारव करी दशेदिशा झंकारथी भरी देतो, सहजपण अवाज थाय तो एकदम उडी जतो पुष्पोना पराग रस चुसीने आनंद पामतो एज भमरो सांज सुधीमां पुष्पनी गंधमां- कमळनी सुवासमां आसक्त बनी त्यांनो त्यां चोटी रहे छे. सूर्य आथमे छे ने कमळ बीडाई जाय छे. तेना कोशमां- बंधमां भ्रमरो पुराई जाय छे नीकळी शकतो नथी. विचार करे छे के रात जशे ने सवार पडशे. सूर्य उगशे ने कमल खीलशे एटले हुं उडी
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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