SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० श्री वैराग्य शतक २७ ३१ मुखमा लाडु मुकतां, वंशमां कोण न थाय, मुख लेपे मीठो ध्वनि, मृदंगथी पण थाय. शोक भराये चित्तमां, रोवुं हितकर थाय, ज्युं छलकातां सरतणां, खुल्लां द्वार कराय. क्रोडो यत्न करो भले, जाति स्वभाव न जाय, सींचो छो'ने दूधथी, नींब न मधुरो थाय २९ सज्जन दूर गये छते, दुर्जन बहु देखाय, सूर्य चन्द्रनां अस्तमां, खजुवो ज्युं मलकाय. योग्यात्माने ऋद्धिओ, स्वयं स्वाधीन थाय. जेम नदीओ विनव्या विना, उदधि आधीन थाय. घर देखाड्यं लुब्धने, दुःखनुं कारण थाय, विश्वामित्र वशिष्ठनी, धेनु, लेवा धाय., ३२ वखते विमला वारता, होय बाल समीप, सूर्य प्रकाशी नव शके, तेह प्रकाशे दीप. ३३ प्राय असार पदार्थनो, अति आडंबर होय, कांसानो रणकार जे, ते शुं कनके जोय. पर संपत्ति देखीने, दाजे दुर्जन दील, टाणे तरुवर सौ फळे, शुं न सूकाय करीर. स्वयं सही दुःख अन्यने, शान्ति आपे संत, ताप सही पण पान्थने, तरुवर शान्त करंत. गुरु कर्मीने धर्मनी, करणी नीरस जणाय, खाखरानी खीसकोलीओ, आंबांने नव च्हाय. २८ ३० ३४ ३५ ३६ ३७
SR No.022142
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
PublisherDhurandharsuri Samadhi Mandir
Publication Year1959
Total Pages172
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy