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श्री वैराग्य शतक
॥ ॐ अहँ नमः ॥ परमार्हत श्री कुमारपाल-भूपाल विरचित आत्म-निंदाद्वात्रिंशिकानो अनुवाद.
(हरिगीत छंद)
सर्वे सुरेंद्रोना नमेला मुकुट ते'ना जे मणि, तेना प्रकाशे झळहळे पदपीठ जे तेना धणी, आ विश्वनां दुःखो बधाये छेदनारा हे प्रभु ! जयजय थजो जगबंधु ! तुम एम सर्वदा इच्छु विभु !
(२)
वीतराग हे कृतकृत्य भगवन् ! आपने शुं ? विनवू, हुँ मूर्ख छु महाराज जेथी शक्तिहीन छतां स्तवं,
शुं अथिवर्ग यथार्थ स्वामिनुं स्वरूप कही शके, पण प्रभो ! पूरी भक्ति पासे युक्तियो ए ना घटे.
हे नाथ ! निर्मल थई वस्या छो आप दूरे मुक्तिमां तोये रह्यां गुण ओपता मुज चित्तरूपी शुक्तिमां, अति दूर एवो सूर्य पण शुं आरसीना संगथी, प्रतिबिंब रूपे आवीं अहिं उद्योतने करतो नथी ?
प्राणि तणां पापो घणां भेगा करेला जे भवे,