Book Title: Updeshmala
Author(s): Dharmdas Gani, Dinanath Sharma
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन बोर्डिंग ग्रंथमाला-१६ धर्मदासगणि कृत उपदेशमाला समीक्षात्मक संपादन एवं अध्ययन डॉ. दीनानाथ शर्मा शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर 'दर्शन', शाहीबाग, अहमदाबाद-३८० ००४. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन बोर्डिग ग्रंथमाला-१६ धर्मदासगणि कृत उपदेशमाला [समीक्षात्मक संपादन एवं अध्ययन ] डॉ. दीनानाथ शर्मा प्रकाशक. शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर 'दर्शन', शाहीबाग, अहमदाबाद-३८० ००४. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशमाला [समीक्षात्मक संपादन एवं अध्ययन] डॉ. दीनानाथ शर्मा प्रकाशक शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर 'दर्शन', शाहीबाग, अहमदाबाद- ३८० ००४ © शारदाबेन एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर प्रथम आवृत्ति, अगस्त सन् २००० नकल ५०० कीमत : १००/ मुद्रक नवप्रभात प्रिन्टिंग प्रेस घीकांटा रोड, अहमदाबाद Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher's Note We feel immense pleasure to publish the Upadeśamālā of Dharmadāsagaṇi (4th-5th cent. B. C.). The work, being a poem, composed in Prakrit, has been highly celebrated in Jain religious literature Even today as the Garland of Instructions, it is chanted by Jain monks, nuns and house-holders. That is the reason why not only hundreds of Mss. but also thirty two commentaries on it of the Upadeśamālā available in different libraries and Bhandaras, have been composed and copied till today. Most of them have been published also. Besides, almost thirty four instructive treatises are composed on the pattern of this work. But unfortunately the Mss. of the work bears a number of lapses and variations in its readings. In the present edition, effort has been made to establish the correct form of reading, restoring to collective base of old palm leaf and paper Mss. as well as to linguistics, grammar and prosody. We are presenting this book in the hands of inquisitive readers just with a view to providing an aid to their knowledge. The work has been edited by Dr. Dinanath Sharma, ás a part of his Ph. D. thesis. This is the outcome of his deep understanding of the subject and his long time research experience. III Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Institution is pleased to express its hearty gratitude to him. Our thanks are also due to Shri Sudeshbhai Shah, who composed it and to Shri Naranbhai Patel, who corrected the proofs. Since it was the financial assistance of Shri Sharadaben Educational Research Centre, that enabled the book to come into being, we are also thanks to it. Jitendra B. Shah Ahmedabad 4-8-2000 IV Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ मुख उपदेशमाला जैन औपदेशिक साहित्यविधा का प्राचीनतम ( लगभग १५०० वर्ष पुराना ) और एक श्रेष्ठ प्राकृत ग्रंथ है । इसमें चतुर्विध संघ के आचार से सम्बन्धित उपदेश संगृहीत हैं । इस ग्रंथ में एक विशिष्ट शैली का निर्माण किया गया है जिसे बाद में अनेक जैनाचार्यों ने अपनाया और इस प्रकार के कई ग्रन्थ लिखे गये । यहाँ पर सरल पद्यों में विविध औपदेशिक विषयों को लेकर उपदेश देने के साथ-साथ उस विषय के दृष्टान्त के रूप में जैन पुराणों में प्रसिद्ध कथाओं की एक माला - सी गुँथी गई है । ये दृष्टान्त उस लेखक के समय तक प्रचलित हो गये थे । नित्य स्वाध्याय करनेवाले और व्याख्यान करनेवाले साधुओं को भी इसके पद्यों को कण्ठस्थ करना सहज था । इसके पठन से पाठ करनेवाले और सुननेवाले के सामने इन दृष्टान्तों की कथाएँ उपस्थित हो जाती थीं । इसलिए यह साधुओं और श्रावकों दोनों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ और इसका प्रचलन भी बहुत बढ़ा । उपदेशमाला के आधार पर २४ औपदेशिक ग्रन्थ लिखे गये, इस ग्रन्थ की ३२ बृहद् और लघु टीकायें भी लिखी गयी हैं । इसके आठ विभिन्न संस्करण अब तक प्रकाशित हो चूके हैं । जिनमें उपमितिभव - प्रपंचा - कथा नामक प्रसिद्ध महाकथा के रचयिता महान् जैनाचार्य सिद्धर्षि की हेयोपादेया टीका, उसका गुजराती अनुवाद, रत्नप्रभसूर की दोघट्टी टीका, उसका गुजराती अनुवाद और रामविजय की टीका तथा उसका हिन्दी अनुवाद सम्मिलित है । १ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन सभी संस्करणों को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि मूल पाठ में कहींकहीं पर व्याकरण, छन्द की या दोनों की त्रुटियाँ हैं । इसलिए उपदेशमाला के समीक्षात्मक सम्पादन की आवश्यकता प्रतीत हुई । इस शोधप्रबन्ध के प्रणयन में मैं सर्वप्रथम अपने परम पूज्य गुरु डॉ. के. आर. चन्द्रा (रीडर एवं विभागाध्यक्ष, प्राकृत पालि विभाग । गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदाबाद एवं मन्त्री, प्राकृत जैनविद्या विकास फण्ड, अहमदाबाद ।) के प्रति श्रद्धावनत हूँ जिन्होंने इस महत्त्वपूर्ण कार्य को पूर्ण करने में न केवल सस्नेह मार्गदर्शन दिया वरन् एक अभिभावक के रूप में भी अपनी अच्छी भूमिका निभायी, उन्होंने अपनी संस्था से आर्थिक सहायता, उचित सलाह एवं प्रोत्साहन देकर मेरा उत्साहवर्धन किया । अत: मै पुन: श्रद्धेय गुरुवर के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता अर्पित करता हूँ। मैं परमादरणीय विद्वद्धर्य पं० दलसुखभाई मालवणिया और डॉ. हरिवल्लभ चू. भायाणी के प्रति नतमस्तक हूँ जो मेरे लिए सतत स्नेहपूर्ण उचित मार्गदर्शन, साहस एवं प्रेरणा के स्रोत रहे । मैं डॉ. रमणिक शाह (व्याख्याता, प्राकृत पालि विभाग, गुजरात युनिवर्सिटी एवं मन्त्री, प्राकृत विद्यामण्डल, अहमदाबाद) के प्रति हार्दिक कृतज्ञ हूँ जो मेरे एम.ए. और इस पीएच.डी. के लिए अपनी संस्था से छात्रवृत्तियाँ अविलम्ब स्वीकृत करते रहे और मेरा उत्साहवर्धन करते रहे । आवश्यकतानुसार उन्होंने मुझे मार्गदर्शन भी दिया । मैं श्री चन्द्रकान्तभाई कडिया (गृहपति, कस्तूरभाई लालभाई बोर्डिंग हाउस, नवरंगपुरा, अहमदाबाद) के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिनके द्वारा स्वीकृत की गयी छात्रवृत्ति पर ही मेरा पूरा शोध-कार्य निर्भर रहा । श्री बख्तावरमल जी बालर (अध्यक्ष, प्राकृत जैन विद्या विकास फण्ड) के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ, जिनका सहयोग और प्रोत्साहन मुझे प्राप्त होता रहा है । पाटण श्री कानजीभाई पटेल (आचार्य, साइंस, आर्ट्स एण्ड कामर्स कॉलेज, पाटण), श्री अशोकभाई शाह (व्याख्याता, प्राकृत विभाग, आर्ट्स कॉलेज, पाटण एवं ट्रस्टी, श्री हेमचन्द्राचार्य ज्ञानभण्डार, पाटण) को मैं अपनी कृतज्ञता अर्पित करता हैं जिनके संयुक्त सहयोग से मैं उपरोक्त ज्ञान भण्डार की उपदेशमाला की ताड़पत्रीय हस्तप्रतों के पाठान्तर ले सका । परमपूज्य मुनि श्री शीलचन्द्र विजय जी महाराज के प्रति आभार व्यक्त Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हुए उनकी वंदना करता हूँ जिनके कृपापात्र से खम्भात ज्ञानभण्डार की उपदेशमाला की ताड़पत्रीय हस्तप्रतों के पाठान्तर लेने के लिए ज्ञानभण्डार के ट्रस्टी श्री चम्पकमाई से अनुमति मिल गयी । एतदर्थ मैं उन सबका आभारी हूँ । डॉ. एस. डी. लड्डू साहब (निदेशक, भण्डारकर ऑरिएण्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पूना) ने मुझे पूना भण्डार की उपदेशमाला की कागज की हस्तप्रत की झेरोक्ष उपलब्ध करायी और श्री रमेश डी. मालवणिया (पुत्र पं. श्री दलसुख मालवणिया) ने पूना भण्डार की उपदेशमाला की ताड़पत्र की हस्तप्रत की माइक्रो फिल्म उपलब्ध करायी अत: वे दोनों धन्यवाद के पात्र हैं । पूज्य जोहरीमल जी पारख धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने मुझे जैसलमेर भण्डार की ताड़पत्र की झेरोक्ष भेजकर मेरा सम्पादनकार्य पूर्ण करवाया । मैं शारदाबहेन चीमनभाई रिसर्च एज्युकेशनल ट्रस्ट एवं उसके निदेशक डॉ. जितेन्द्रभाई शाह के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने इस शोधप्रबन्ध को प्रकाशित कर मुझे अनुगृहीत किया । अन्त में एक बार पुन: उन समस्त महानुभावों के उपकार को स्मरण कर कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ जिनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लाभान्वित हुआ हूँ । संगणक की मर्यादा या मेरी ही अनभिज्ञता से शोधप्रबन्ध में किसी प्रकार की त्रुटि रह गई हो तो मनीषीपाठक उस पर अपने सुझाव सहित मेरा ध्यान आकृष्ट करें ताकि आगामी संस्करण में उन्हें दूर किया जा सके - इसी अभ्यर्थना के साथ दिनांक : १, अगस्त २००० विद्धच्चरणचञ्चरीक दीनानाथ शर्मा प्राकृत पालि विभाग भाषा साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी अहमदाबाद-९. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १. आमुख २. भूमिका (१) हस्तप्रत परिचय (२) उपदेशमाला के समीक्षात्मक सम्पादन की आवश्यकता (३) सम्पादन पद्धति (४) उपदेशमाला में गाथाओं की संख्या (५) भाषाशास्त्रीय अध्ययन (६) छन्दयोजना (७) धर्मदासगणि का समय (८) विषयवस्तुगत अध्ययन ३. उपदेशमाला ४. परिशिष्ट (१) गाथानुक्रमणिका (२) सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका हस्तप्रत परिचय वैसे तो भारत के विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों में उपदेश-माला की ताड़पत्र और कागज की बहुत-सी प्रतें हैं लेकिन प्रस्तुत सम्पादन के लिए उनमें से आठ ही प्रतें चुनी गई हैं जिनमें सात ताड़पत्र की और एक कागज की प्रत है । इनमें सर्वाधिक प्राचीन जैसलमेर (वि. सं. ११९२) की एकमात्र ताड़पत्रीय हस्तप्रत है । इन सभी हस्तप्रतों का परिचय उनके कालक्रमानुसार नीचे दिया जा रहा है - ताड़पत्र की प्रतियाँ १. जै : केटलोग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मेन्युस्क्रीप्ट्स, जैसलमेर कलेक्शन । प्रकाशक : एल. डी. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी, अहमदाबाद । ग्रन्थ सं० ३६, सन् १९७२, पृ. ५८, प्रति नं. १५६(४१). लम्बाई : साढ़े पन्द्रह इंच, चौड़ाई: सवा दो इंच । प्रत्येक पत्र में ६-७ पंक्तियाँ, प्रत्येक पंक्ति में ३४ अक्षर । लेखन समय वि० सं० ११९२, पत्र संख्या ३१, गाथा संख्या ५४१ । प्रति में मंगलाचरण की पहली गाथा और छठा पत्र गायब है अतएव १६ गाथाएँ (३७-५२) नहीं हैं । इसके अक्षर स्पष्ट एवं सुवाच्य हैं । पूरी प्रति एक ही व्यक्ति द्वारा लिखित है । इस सम्पादन में प्रयुक्त ताड़पत्रों में यह सर्वाधिक प्राचीन है । अन्य प्रतों की तुलना में जहाँ छन्द की मात्रा त्रुटित मिलती है वहाँ इसके पाठ उसकी पूर्ति करते हैं । इसके पाठ भाषा की दृष्टि से प्राचीन और मौलिक हैं । इसमें मध्यवर्ती अल्प-प्राण व्यंजनों का लोप कम है । इसमें पुंलिंग Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमा एकवचन के लिए जहाँ-जहाँ - ओ प्रत्यय मिलता है उसके बदले में कुछ प्रतों में कहीं-कहीं पर - उ प्रत्यय मिलता है । यथा अविणीओ (२७) इत्यादि। २. खं १ : केटलोग ऑफ पाम-लीफ मेन्युस्क्रीप्ट्स इन द शान्तिनाथ जैनभण्डार, कैम्बे, पार्ट १, जनरल एडिटर बी. जे. सांडेसरा, प्रकाशक : ओरिएण्टल इन्स्टीट्यूट बरोडा; ग्रन्थांक १४९, सन् १९६१, प्रति नं. १२०(१) । लम्बाई : १४ इंच, चौड़ाई : १.७ इंच । प्रत्येक पत्र में ४-५ पंक्तियाँ, प्रत्येक पंक्ति में लगभग २६ अक्षर हैं । लेखन समय १२वीं वि० शती उत्तरार्ध पत्र संख्या ४५, गाथा संख्या ५४२ । प्रारम्भिक दो पत्र नहीं हैं । कहीं-कहीं पत्रों के टूटने से पाठ क्षत हो गये हैं । यह हस्तप्रत “जै” के बाद सबसे पुरानी है । मौलिकता की दृष्टि से इसके पाठ विश्वसनीय भी हैं । इसमें पुंलिंग प्रथमा एक वचन के "-ओ" प्रत्यय के लिए - ओ ही मिलता है । ३. खं २ : केटलोग ऑफ पाम-लीफ मेन्युस्क्रीप्ट्स इन द शान्तिनाथ जैन भण्डार, कैम्बे, पार्ट १, जनरल एडिटर बी. जे. सांडेसरा, प्रकाशक : ओरिएण्टल इन्स्टीट्यूट बरोडा; ग्रन्थांक १४९, सन् १९६१, प्रति नं. ८८(१) । लम्बाई : १६ इंच, चौड़ाई : २.२ इंच । प्रत्येक पत्र में ४-५ पंक्तियाँ, प्रत्येक पंक्ति में लगभग २७ अक्षर हैं । पत्र संख्या ५०, लेखन समय वि. सं. १२९०, गाथा संख्या ५४२ । इसकी स्थिति अच्छी है । इसके पाठ शुद्धता की दृष्टि से ठीक हैं यद्यपि कहीं-कहीं परवर्ती पाठ उपलब्ध हैं । यथा निरोणामो (२७) कोइ (३१) इत्यादि । १. खं ३ : केटलोग ऑफ पाम-लीफ मेन्यूस्क्रीप्ट्स इन द शान्तिनाथ जैन भण्डार, कैम्बे, पार्ट १, जनरल एडिटर बी. जे. सांडेसरा, प्रकाशक : ओरिएण्टल इन्स्टीट्यूट बरोडा; ग्रन्थांक १४९, सन् १९६१, प्रति नं. १०१(१) । लम्बाई : १३.२ इंच, चौड़ाई : २.२ इंच । प्रत्येक पत्र में ४-५ पंक्तियाँ, प्रत्येक पंक्ति में २८ अक्षर हैं । पत्र संख्या ६४, लेखन समय वि० सं० १३०८, गाथा सख्या ५४१ । ___ प्रथम पत्र में श्री कृषभदेव का सुनहरे पीले रंग का छोटा-सा एक चित्र है, जिसकी आकृति १.७" ग २.२" है । यह प्रति प्राचीन और परवर्ती दोनों तरह के पाठों को लिए हुए है । उदाहरण : कुविओ (३६), धरेज (३५) इत्यादि । ५. पा १ : “ए डिस्क्रीप्टिव केटलोग ऑफ पाटण मेन्युस्क्रीप्ट्स इन द जैन भण्डार्स ऐट पत्तण" नं. १, संघवी पाडा, प्रकाशक : गायकवाड़ ओरिएण्टल इन्स्टिट्यूट, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरोडा १९३७, भाग १, सम्पादक : लालचन्द भगवानदास गांधी । प्रति नं. २०६(२), पृ. २३, लम्बाई १४ इंच, चौडाई २ इंच । पत्र संख्या १६(३१४६) । प्रत्येक पत्र में ४-५ पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्ति में २६ अक्षर । लेखन समय वि० सं० १३२६ । गाथाएँ ५४४ । यह प्रत पाटण भण्डारों में प्राप्त होनेवाली उपदेशमाला की सभी हस्तप्रतों में सर्वाधिक प्राचीन है । वैसे इसके पाठ बहुत प्राचीन नहीं हैं फिर भी इसकी विश्वसनीयता बनी हुई है । ६. पा २ : “ए डिस्क्रीप्टिव केटलोग ऑफ पाटण मेन्युस्क्रीप्ट्स इन द जैन भण्डार्स ऐट पत्तण" नं. १, संघवी पाडा, प्रकाशक : गायकवाड़ ओरिएण्टल इन्स्टीट्यूट, बरोडा १९३७, भाग १, सम्पादक : लालचन्द भगवानदास गाँधी । प्रति नं. १६१(२), पृ. ३३, लम्बाई १२.५ इंच, चौडाई २ इंच । पत्र संख्या ५६ । प्रत्येक पत्रमें ३-४ पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्ति में २५ अक्षर । लेखन समय - अज्ञात । गाथाएँ ५४४ । इसके पाठ परवर्ती हैं । क्वचित् प्राचीनता दृष्टिगोचर होती है । उदाहरण : परवर्ती-धरिज (३५), प्राचीन-वेसो (४५) ७. पू १ : डिस्क्रिप्टिव केटलोग ऑफ द गवर्नमेण्ट कलेक्शन ऑफ मेन्युस्क्रीप्ट्स । प्रकाशक : भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना १९५२, भाग १८, पृ. ३७१ । प्रति नं. २३३, लम्बाई १२.५ इंच, चौडाई २ इंच । पत्र संख्या ५७। प्रत्येक पत्र में ४-५ पंक्तियाँ, प्रत्येक पंक्ति में लगभग ३७ अक्षर । लेखन समय - अज्ञात । पुरानी, गाथा संख्या ५४४ । इस प्रत के पाठ अपना प्राचीन रूप लिये हुए हैं, इसलिए विश्वसनीय है । इसकी स्थिति अच्छी है । अक्षर सुवाच्य हैं और किसी पत्र में कोई क्षति नहीं है । कागज की प्रति ८. पू २ : डिस्क्रीप्टिव केटलोग ऑफ मेन्युस्क्रीप्ट्स इन द गवर्नमेण्ट मेन्युस्क्रीप्ट्स लाइब्रेरी, संकलनकर्ता - एच. आर. कापड़िया । प्रकाशक : भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना १९४०, पृ. १५३, प्रति नं. ७३५, लम्बाई १२ इंच, चौडाई ४.७५ इंच । पत्र संख्या १२(२४-३५) । प्रत्येक पत्र में १४१५ पंक्ति, प्रत्येक पंक्ति में ५२-५८ अक्षर । लेखन समय अज्ञात । पुरानी, गाथाएँ ५४४ । पाठ कुछ-कुछ ठीक हैं । पाठों में अर्वाचीनता परिलक्षित होती है । अक्षर सुवाच्य हैं और प्रतियों में कोई क्षति नहीं है । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशमाला के समीक्षात्मक सम्पादन की आवश्यकता ___ उपदेशमाला जैन औपदेशिक साहित्य का प्रथम और एक श्रेष्ठ ग्रन्थ है । इसमें चतुर्विध संघ-श्रमण श्रमणी और श्रावक श्राविकाओं के आचार से सम्बन्धित उपदेश संगृहीत हैं । यह ग्रन्थ जैन समाज में बहुत सम्मानित रहा । इसी का आधार लेकर बाद में लगभग २४ औपदेशिक ग्रन्थ लिखे गये । इसकी उपयोगिता का ही परिणाम है कि इस पर लगभग ३२ बृहद् और लघु टीकाएँ लिखी गई । इस पर सबसे पहली टीका जयकीर्ति ने प्राकृत भाषा में संवत् ९१३ में लिखी उसके बाद सिद्धर्षिगणि ने संवत् ९६२ में संस्कृत भाषा में हेयोपादेया नाम की बृहद् और लघु टीका लिखी। टीकाओं में यह प्रमुख मानी जाती है । इस ग्रन्थ के निम्नलिखित आठ विभिन्न संस्करण निकल चुके हैं१. उपदेशमाला सटीका (हेयोपादेया (सिद्धर्षि) टीकाकार : श्रीमत् सिद्धर्षिगणि, प्रकाशक : हीरालाल हंसराज, १९३७. २. उपदेशमाला (बालावबोध अन्वय सहित) (बालाव.) मुद्रक : रणछोड़लाल गंगाराम, अहमदाबाद युनाइटेड प्रीन्टिंग एण्ड जनरल एजेंसी कं. लि. माना की हवेली के मध्य सं० १९३४. ३. उपदेशमाला भाषान्तर (मूल गाथाएँ, उन गाथाओं का और श्री रामविजयगणि की सम्पूर्ण टीका का गुजराती अनुवाद) (भावन०) प्रकाशक : श्री जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर सं० १९६६. ४. श्री उपदेशमाला टीका - श्री रामविजयगणि (रामवि०) पंडित श्रावक हीरालाल ___हंसराज (जामनगर वाला). सं. १९६६. ५. उपदेशमाला प्रकरण - (शाह कुं०) प्रकाशक : शाह कुँवर जी आनन्द जी जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर । ६. उपदेशमाला सटीका – रत्नप्रभसूरि (रत्नप्र.) धनजीभाई देवचन्द जवेरी, ५०-५४ मीरझा स्ट्रीट, मुंबई-३. सं. २०१४. ७. उपदेशमाला (रामविजय की टीका का हिन्दी अनुवाद) (पद्मवि०) अनुवाद : मुनि पद्मविजय, प्रकाशक : श्री निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन संघ, दिल्ली सन् १९७१. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. प्रा० उपदेशमाला दोघट्टी नो गूर्जरानुवाद ( गूर्जर ० ) अनुवादक : हेमसागरसूर, प्रकाशक : आनन्द हेमग्रन्थमालावती धनजीभाई देवचन्द जवेरी, ५० -५४ मीरझा स्ट्रीट, मुंबई - ३. सन् १९७५. इन प्रकाशित संस्करणों में से किन्हीं में उपदेशमाला के मूलपाठ में व्याकरण की गलतियाँ हैं तो किन्ही में छन्द की । कोई भी ऐसा संस्करण नहीं है जिसमें सभी गाथाएँ व्याकरण और छन्द की दृष्टि से सही हों । उदाहरण के लिए प्रत्येक संस्करण में से कुछ गाथाएँ इस प्रकार निर्दिष्ट की जा सकती हैं : संस्करण नं० १ (सिद्धर्षि) में व्याकरण की दृष्टि से गाथा नं. १०४, १०६, १०८, १०९ और ११० में त्रुटियाँ हैं । छन्द की दृष्टि से गाथा नं. १०४ में और दोनों (भाषा और छन्द) दृष्टियों से गाथा नं. १०३ और १०७ में त्रुटियाँ हैं । संस्करण नं. २ ( बालाव० ) में व्याकरण की दृष्टि से गाथा नं. १०३, १०६ और १०९ में; छन्द की दृष्टि से १०४, १०७ और ११० में तथा दोनों दृष्टियों से १०४, १०६ और १०९ में त्रुटियाँ हैं । संस्करण नं. ३ ( भावन० ) में व्याकरण की दृष्टि से गाथा नं. १०६, १०९ और ११० में और छन्द्र की दृष्टि से गाथा नं० १०४, १०७ और ११० में त्रुटियाँ हैं । संस्करण नं. ४ ( रामवि० ) में व्याकरण की दृष्टि से गाथा नं १०३, १०५, १०६ और १०९ में; छन्द की दृष्टि से गाथा नं० १०४ और १०९ में तथा दोनों दृष्टियों से गाथा नं. १०४, १०७, १०८ और १०९ में त्रुटियाँ हैं । संस्करण नं. ५ ( शाह कुं० ) में व्याकरण की दृष्टि से गाथा नं. १०३, १०९ और ११० में, छन्द की दृष्टि से १०४ और १०७ में तथा उभय दृष्टियों से १०५ और १०९ में गलतियाँ हैं । संस्करण नं. ६ ( रत्नप्र०) में व्याकरण की दृष्टि से गाथा नं. १०३, १०९ और ११० में; छन्द की दृष्टि से १०४ और १०७ में तथा दोनों दृष्टियों से गाथा नं. १०५ में त्रुटियाँ हैं । संस्करण नं. ७ (पद्मवि० ) में भाषा की दृष्टि से गाथा नं. १०३, १०६, १०९ और ११० में; छन्द की दृष्टि से १०४ और १०७ में तथा उभय दृष्टियों से १०३ और १०८ में त्रुटियाँ हैं । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्करण नं. ८ ( गूर्जर० ) में व्याकरण की दृष्टि से गाथा नं. १०३ और १०५ में; और छन्द की दृष्टि से गाथा नं. १०४ में त्रुटियाँ हैं । उपरोक्त त्रुटियों की स्पष्टता नीचे गाथानुसार की जा रही है । यह केवल उदाहरण के तौर पर है । जिससे प्रस्तुत सम्पादन की विशेषता जानी जा सकती हैसं० पा० = संशोधित पाठ सं० पा० संस्करण १. सिद्धर्षि. २. बालाव० ४. रामवि० ५. शाह कुं० ६. रत्नप्र० ७. पद्मवि ८. गूर्जर ० - ५. शाह कुं० ६. रत्नप्र० ७. पद्मवि ८. गूर्जर ० नरयगइगमणपsिहत्थए कए तह पएसिणा रन्ना । सं० ० पा० अमरविमाणं पत्तं तं आयरियप्पभावेणं । संस्करण गमण पतं हत्थाए हथ्थ्यए १० आयरिअ आयरिअ आयरिअ आयरिअ रणा रण्णा रण्णा रण्णा रण्णा १०३ अ १०३ ब Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. पा. – धम्ममइएहि अइसुंदरेहि कारणगुणोवणीएहिं । संस्करण १. सिद्धर्षि -मइएहिं -सुंदरेहिं २. बालाक. -मइएहिं -सुंदरेहिं ३. भावनं. -मइएहिं ४. रामवि. -मइएहिं -सुंदरेहिं -गुणोवणिएहिं -मइएहिं ६. रत्नप्र. -मइएहिं -सुंदरेहिं ७. पद्मवि० ८. गूर्जर -मइएहिं -सुंदरेहि ५. शाह कुं. -मइएहिं -सुंदरेहि -सुंदरोहिं अयरिउ सं. पा. - पल्हायंतो य मणं सीसं चोएइ अयरिओ । संस्करण १. सिद्धर्षि पलायंतो ब्व २. बालाव. भावनं. चोएई ४. रामवि० पल्हायंतोए मणं ५. शाह कुं. ६. रत्नप्र. चोएई चोएई Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. भावन. तुरमणि सं. पा. - जीयं काऊण पणं तुरुमिणिदत्तस्स कालियजेण । संस्करण २. बालाव. जीअं तुरमणि कालिअजेण जीअं कालिअजेण ४. रामवि० काहिलअजेण ५. शाह कुं० जीअं काउण कालिअजेण ६. रत्नप्र० जीअं काउण कालिअजेण ७. पद्मवि० जीअं कालिअजेण ८. गूर्जर. कालिअजेण तुरमणि तुरमणि सं. पा. - अवि य सरीरं चत्तं न य भणियमहम्मसंजुत्तं ।। संस्करण २. बालाव. भणि ३. भावन० अ भणिअ ४. रामवि० अचि ५. शाह कुं. ६. रत्नप्र. भणि भणि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहतो सं. पा. - फुडपागडमकहेंतो जहट्ठियं बोहिलाभमुवहणइ । संस्करण १. सिद्धर्षि जहटियं २. बालाव. - कहंतो जहडिअं ३. भावन. __- कहतो जहडि ४. रामवि० - कस्तो जहढ़ियं ५. शाह कुं. ___ - कहतो जहडिअं ६. रत्नप्र. जहठ्ठियं ८. गूर्जर . श्री. सं. पा. – जह भगवओ विसालो जरमरणमहोअही आसि । संस्करण भगवउ २. बालाव. ७. पद्मवि. ८. गूर्जर विसाली -महोदही आसी आसी १०७ अ सं. पा. – कारुण्णरुण्णसिंगारभाव-भयजीवियंतकरणेहिं । संस्करम २. बालाव. कारुन्नरुन्न -जीविअंत३. भावन. कारुन्नरुन्न -जीविअंत Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. रामवि० ५. शाहकुं० ६. रत्नप्र० ७. पद्मवि० सं० पा० संस्करण - १. सिद्धर्षि. २. बालाव. साहु ३. भावन. ४. रामवि ० ५. शाह कुं० ६. रत्नप्र० ७. पद्मवि० ८. गूर्जर ० सं० पा० संस्करण १. सिद्धर्षि २. बालाव. ३. भावन. कारुन्नरुन्न कारुन्नरुन्न साहू अवि य मरंती न य नियनियमं विराहेंति । अमरंति अमरंति अमरंति अमरंति अमरंति अनरंत अ - अमरंत १४ -जीविअंत -जीविअंत -जीविअंत -जीविअंत अ निअनिअमं विराहिंति विराहंति विराहंति विराहंति विराहंति विराहंति विराहंति विराहंति निअनिअमं निअनि अमं निअ निअनिअमं निअनि अमं निअनिअमं निअनिअमं अप्पहियमायरंतो अणुमोयंतो य सुग्गइं लहइ । अणुमोअंतो अणुमोतो अणुमोतो १०७ व अ १०८ अ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. रामवि० ५. शाह कुं० ६. रत्नप्र० ८. गूर्जर ० सं० पा० संस्करण २. बालाव० ३. भावन० ४. रामवि० ५. शाह कुं० ६. रत्नप्र० ७. पद्मवि सं० पा० संस्करण २. बालाव. ३. भावन० ७. पद्मवि अप्पा रहकारदाणअणुमोयगो मिगो जह य बलदेवो ।। - दाणं अणुमोअंतो अ अणुमोअंतो अ अणुमोअंतो अ अणुमोतो अ पूरणेन पूरणेन पूरणेन जं तं कयं पुरा पूरणेण अइदुकरं चिरं कालं । १५ अणुमो अगो अणुमो अगो अणुमोयंतो अणुमोअगो अणुमो अगो दामो -दूकरं चिरकालं १०८ व जह बलदेवो १०९ अ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करिंतु सं. पा. - जइ तं दयावरो इह करेंतो तो सफलयं हुंतं । संस्करण १. सिद्धर्षि करिंतु २. बालाव. ३. भावन. करिंतु ४. रामवि० करिंतु सफलियं हतं शाह कुं. दयावरो रत्नप्र. ७. पद्मवि० करिंतु हुँतं ८. गूर्जर दयावरे करिंतु करिंतु करिंतु ११० अ सं. पा. – कारणनीयावासे सुटुयरं उजमेण जइयव्वं । संस्करण १. सिद्धर्षिः -वासी २. बालाव. सूठुयरं ३. भावन. -वासी ४. रामवि __-नीआ- सूटुअरं शाहकुं० -वासी ६. रत्नप्र. -वासी -वासी ८. गूर्जर० -वासी जईयव्वं जईयव्वं जईअव्वं ७. पद्मवि. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० पा० संस्करण १. सिद्धर्षि. २. शाह कुं० स्पष्टीकरण --- जह ते संगमथेरा सपाडिहेरा तया आसि । पाठ अभिप्रेत है जब गाथा नं. १०३ के पहले पाद में - " गइगमण " कि संस्करण नं. ४ में - " गइमण" पाठ है जो गलत है । " पडिहत्था " पाठ संस्करण नं. १ में और " पडिहथ्थए” पाठ संस्करण नं. २ में मिलता है जो भाषाकीय दृष्टि से गलत है । संस्करण नं. में "रन्ना" के बदले में "रणा" है, संस्करण नं. ५,६ और ८ में . "रण्णा" है और ७ में " रन्नो" है । इनमें "रणा" और "रन्नो” बिल्कुल गलत हैं क्योंकि इनका अर्थ के साथ तालमेल नहीं बैठता है । - ११० ब इसी गाथा के दूसरे पाद में संस्करण नं. ७ में "तं" शब्द नहीं है जिससे छन्द और अर्थ बाधित होता है । संस्करण नं. ५, ६ और ८ में आयरिअ शब्द मिलता है । इसमें अन्तिम वर्ण में "य" श्रुति का अभाव है । आसी आसी गाथा नं. १०४ के पहले पाद में धम्ममइएहिं अइसुंदरेहिं पाठ संस्करण नं. १,२,३,४,६,७ और ८ में मिलता है इससे गाथा छन्द के लिए अपेक्षित मात्राओं से कुछ अधिक मात्राएँ हो जाती हैं । संस्करण नं. ५ में दोनों अनुस्वारों को अनुनासिक में बदलकर इसका परिहार किया गया है । संस्करण ४ में " गुणोवणिएहिं" पाठ मिलता है जो भाषा और छन्द दोनों दृष्टियों से गलत है । इसी गाथा के दूसरे पाद में "पल्हायंतो " शब्द के लिए संस्करण नं १ “पल्लायंतो' शब्द प्राप्त होता है जिसका कोई अर्थ नहीं बैठता । संस्करण नं. ४ में "य" के बदले "ए" पाठ मिलता है और "पल्हायंतो " से जोड दिया गया है जिसके कारण उसका कोई अर्थ नहीं स्पष्ट हो रहा है । इसी पाद में "चोएई" पाठ संस्करण नं. ३, ५ और ६ में मिलता है । इससे छन्द बाधित होता है । संस्करण नं. २ का " आयरिउ" पाठ भाषा को छिन्न करता है । १७ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा नं. १०५ के पहले पाद में संस्करण नं. २,३,५,६ और ७ में "जीअं" पाठ है, जिसमें "य" श्रुति का अभाव है । संस्करण नं. ५ और ६ में "काउण" पाठ व्याकरण और छन्द दोनों दृष्टियों से गलत है । संस्करण नं. २,३ और ७ में "तुरमणि" पाठ है और ६ में "तुरमिणि" । जबकि शुद्ध पाठ "तुरुमिणि" है। संस्करण नं. २,३,४,५,६,७ और ८ में "कालिअजेण" पाठ है । इसी गाथा के दूसरे पाद में संस्करण नं. ४ में "अवि" के बदले में "अचि" पाठ है । "य" की जगह "अ" पाठ संस्करण नं. ३ और ५ में उपलब्ध है और उसी पाद में "भणिअ-" पाठ संस्करण नं. २,३,५ और ७ में मिलता है, होना चाहिए "भणिय-" । गाथा नं. १०६ के पहले पाद में सभी संस्करणों में - "कहंतो" पाठ मिलता है । प्राचीन होने के कारण - “कहेंतो" पाठ उचित है । “जहट्ठियं" के बदले में संस्करण नं. १ और ४ में "जहट्टियं" तथा २ और ३ में “जहडिअं" पाठ मिलता है जो ध्वन्यात्मक परिवर्तन की दृष्टि से गलत है । इसी गाथा के दूसरे पाद में संस्करण नं. २ में "भगवउ" पाठ व्याकरण और छन्द दोनों दृष्टियों से अनुपयुक्त है । संस्करण नं. ७ का “विसाली" पाठ व्याकरण की दृष्टि से गलत है । संस्करण नं. ७ में “महोदही" मिलता है जो किसी भी हस्तप्रत में नही मिलता । गाथा नं. १०७ के पहले पाद में संस्करण नं. ४ में कारुन रुण पाठ मिलता है जो गलत है। इसी गाथा के दूसरे पाद में संस्करण नं. २ में “साहु" पाठ से छन्दोभंग होता है । संस्करण नं. २,३,४,५,६ और ८ में "मरंति" पाठ मिलता है । छन्द बिठाने के लिए “मरंती" पाठ स्वीकार किया गया है । संस्करण नं. ७ में मरंति शब्द है ही नहीं । संस्करण नं. १ में "न य" के बाद "अ" अतिरिक्त जोड़ा गया है जिसका कोई औचित्य नहीं है । संस्करण नं. २,३,४,५,६,७, और ८ में "विराहंति" और १ में "विराहिति" पाठ स्वीकृत है । प्राचीन पाठ "विराहेंति" होना चाहिए । गाथा नं. १०८ के पहले पाद में संस्करण नं. ४ में "अप्पाहियमायरंतो" पाठ है जो छन्द और अर्थ की दृष्टि से गलत है । १८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी गाथा के दूसरे पाद में संस्करण नं. ४ में -दाण- की जगह “दाणं" पाठ स्वीकृत है । उसी संस्करण में "अणुमोयंतो" पाठ है जबकि होना चाहिए अणुमोयणो । संस्करण नं. ७ में दाणमणुमोयणो करके सन्धि कर दी गयी है । इसी पाद में संस्करण नं. ४ में "य" अव्यय नहीं होने से छन्दोभंग हो रहा है । गाथा नं. १०९ के पहले पाद में संस्करण नं. २ मे "अइदूकरं चिरकालं" पाठ स्वीकृत है । यहाँ- "दूकरं" शब्द प्राकृत भाषा की दृष्टि से गलत है और "चिरकालं" से छन्द नहीं बैठता है । सही पाठ है "चिरं कालं" । संस्करण नं. २,३ और ७ में "पूरणेण" के बदले पूरणेन पाठ मिलता है । इसी गाथा के दूसरे पाद में “दयावरो" पाठ की जगह संस्करण नं. ४ और ५ में क्रमश: “दयावरे" और "दयवरों" पाठ हैं, जो गलत हैं । उसी पाद में सभी संस्करणों में “करिंतु" पाठ स्वीकृत है जो सन्दर्भ के अनुसार व्याकरण की दृष्टि से गलत है, होना चाहिए "करेंतो" । संस्करण नं. ४ में "सफलयं" के बदले "सफलियं" पाठ है जो गलत है और “हुँतं" के बदले “हंतं" पाठ भी गलत है । गाथा नं. ११० के पहले पाद में "कारणनीयावासे" पाठ उपयुक्त है जबकि संस्करण नं. १,३,५,६,७, और ८ में "कारणनीयावासी" पाठ बैठता है । “सुटुयरं" के बदले 'सूठयरं" पाठ संस्करण नं. २ में प्रयुक्त हैं । संस्करण नं. ४ मे "सुडअरं" पाठ है जो ध्वन्यात्मक परिवर्तन की दृष्टि से गलत है । संस्करण नं. २ और ३ में जइयव्वं के बदले “जईयव्वं' पाठ स्वीकृत है जिससे छन्दोभंग होता है। सम्पादन पद्धति सम्पादन में पाठों की मौलिकता का ध्यान रखा गया है । पाठान्तरों को नीचे फूटनोट में दे दिया गया है । कहीं-कहीं हस्तप्रतीय पाठों के अनुस्वार और "ए" से छन्द नहीं बैठता वहाँ पर अनुस्वार को "*" में और “ए” को ह्रस्व ऍ में बदल दिया गया है । इसके अतिरिक्त कुछ अन्य शब्दों को भी जहाँ आवश्यक हुआ है, बदलकर उक्त चिह्न से दर्शाया गया है । पाठान्तरों की संख्या से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है । उक्त चिहन यदि दो बार लगातार आता है तो फुटनोट में वह उसी क्रम से दो बार दिया गया है । वैसे तो जैसलमेर की प्रत को मुख्य आधार बनाया गया है लेकिन कहीं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं उसके भी पाठ अनुपयुक्त होने के कारण छोड़ दिये गये हैं और उनकी जगह पर दूसरी प्रतों के पाठ स्वीकृत किये गये हैं । कहीं-कहीं कुछ प्रतों के पाठ या तो छिन्न हैं या हैं ही नहीं । उन्हें "क्षत" से दिखाया गया है । इसमें हेयोपादेयावृत्ति और दोघट्टिवृत्ति के भी पाठभेद लिये गये हैं । उपदेशमाला में गाथाओं की संख्या उपदेशमाला की गाथाओं की संख्या के विषय में निश्चितरूप से कुछ कहना कठिन है, क्योंकि भिन्न-भिन्न हस्तप्रतों में उनकी भिन्न-भिन्न संख्या है । जैसलमेर भण्डार की ताड़पत्र की प्रत में (जो मेरे द्वारा उपयोग में ली गयी ताड़पत्रों की प्रतों में सर्वाधिक प्राचीन है ) ५४२ गाथाएँ हैं । खम्भात भण्डार की उपदेशमाला की प्राचीनतम हस्तप्रत (उपयोग में ली गयी प्रतों में यह द्वितीय प्राचीनतम हस्तप्रत है ) में ५३९ गाथाएँ हैं । शेष सभी में ५४४ गाथाएँ हैं । ५४२वीं गाथा का दूसरा पाद इस प्रकार है " गाहाणं सव्वाणं पंचसया चेव चालीसा ।। " सिद्धर्षिगण ने अपनी हेयोपादेयावृत्ति में १ से ५३९ तक की गाथाओं की ही व्याख्या की है । रत्नप्रभसूरि ने अपनी दोघट्टीवृत्ति में ५३९ गाथाओं की व्याख्या करने के बाद शेष चार गाथाओं ( ५४३ तक) को धर्मदासगणि द्वारा अपने शिष्यों को कही गई उपदेशमाला की प्रशस्ति कहा है । जहाँ तक विषयवस्तु का सम्बन्ध है वह केवल ५३९ गाथा तक है उसके बाद ५४०वीं गाथा उपसंहार के रूप में है । इसके बाद की गाथाओं का कोई औचित्य नहीं लगता है, वे प्रक्षिप्त-सी लगती हैं । अत: उपदेशमाला की ५४० गाथाएँ ही मूलत: होनी चाहिए । भाषाशास्त्रीय अध्ययन भाषाशास्त्र के मुख्य मुद्दों के अनुसार ही उपदेशमाला का भाषाकीय अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जिनमें मुख्यतः ध्वनि परिवर्तन और नाम एवं क्रियापदों की रूपरचना पर विशेष बल दिया गया है । २० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यवर्ती व्यंजन मध्यवर्ती अल्पप्राण एवं महाप्राण व्यंजनों के कुल प्रयोगों का २१.६% यथावत है; १६.६% घोष; ६१.६% लोप एवं . २% द्वित्व हुआ है । घोष होनेवाले व्यंजनों में केवल क और प हैं । अन्य किसी भी अघोष व्यंजन चाहे वह अल्पप्राण हो या महाप्राण, का घोषीकरण नहीं हुआ है । क का उसके कुल प्रयोगों का ३५.३% घोषीकरण हुआ है और प का उसके कुल प्रयोगों का ९३.७% घोषीकरण पाया जाता हैं' । क के घोषीकरण के इस प्रमाण को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उपदेशमाला पर एक जैनकृति होने के कारण अर्धमागधी का प्रभाव है क्योंकि अजैन महाराष्ट्री ग्रन्थों में घोषीकरण इतने प्रमाण में नहीं मिलता । यथावत् घोष* लोप द्वित्व अल्पप्राण ध्वनि परिवर्तन तालिका नं. १ सम्पूर्ण अल्पप्राण एवं महाप्राण व्यंजनों के परिवर्तन की स्थिति कुल प्रयोग ५४४ ४१७ १५५० ६ * एक भी महाप्राण का घोषीकरण नहीं हुआ है I मध्ववर्ती अल्पप्राण व्यंजनों (क, ग, च, ज, त, द, प, य, व ) में जो व्यंजन अ आ स्वरयुक्त हैं और उनके पहले भी अ आ ही स्वर हैं वे व्यंजन यदि लुप्त हुए हैं तो उन सभी अवशिष्ट अ आ की "य" श्रुति हुई है । जो व्यजन अ आ स्वरयुक्त तो हैं लेकिन उनके पहलेवाला स्वर अ आ के अतिरिक्त इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ में से कोई एक है उनका भी यदि लोप हुआ है तो प्रतिशत २१.६% १६.६% ६१.६% .२% २१ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hr orm 150 ल अवशिष्ट अ आ की प्राय: "य" श्रुति हुई है, यथा परियच्छति = परिगच्छति (८३) अगीय - अगीत (४०७) उज्जुयं - ऋजुकम् (३९३) पूया - पूजा (४९२) अचेयणो - अचेतन: (३५९) ओ = लोयं - लोचम् (३५६) अ आ के सिवाय अन्य स्वरों के बाद उद्वृत्त अ आ की जो य श्रुति हुई है वह कुल य श्रुतियों का ५३.७% है । इसके विपरीत कुछ ऐसे भी परिवर्तन हैं, जिनमें इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ स्वर पूर्व में होने पर अवशिष्ट अ आ यथावत् रहते हैं । ऐसा परिवर्तन य श्रुति की कुल संख्या का .४% (कुल ४ बार) है । द्रष्टव्य हैउअहि - उदहि (१०६, २१९) बुन्बुअ - बुबुद (२०८) मेअज - मैतार्य (३३३) तालिका नं. २ कुल अल्पप्राणों की "य" श्रुति की स्थिति कुल प्रयोग प्रतिशत ४५.९% ५३.७% ४२४ अ आ के बाद अवशिष्ट अ आ की "य" श्रुति अ आ के अतिरिक्त अन्य स्वरों के बाद अवशिष्ट अ आ की य श्रुति अ आ के बाद अतिरिक्त अन्य स्वरों के बाद अवशिष्ट अ आ यथावत् .४% योग २२ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह प्रवृत्ति पू. आचार्य श्री हेमचन्द्र नियम के प्रतिकूल जाती है । उनके अनुसार अ आ स्वर के बाद ही अल्पप्राण व्यंजन का लोप हो तो अवशिष्ट अ आ की "य" श्रुति होती है और कभी-कभी अवशिष्ट अ आ के पहले "इ" स्वर के होने पर भी "य" श्रुति होती है । वैयाकरण वररुचि इस विषय में मौन हैं और व्याकरणकार चण्ड ने "य" श्रुति का संकेत तो दिया है लेकिन वह इतना स्पष्ट नहीं है । नाट्यशास्त्र के कर्ता आचार्य भरत ने भी "य" श्रुति का आंशिक संकेत दिया है ।' पालि भाषा में वैसे "य" श्रुति के कुछ इका-दुक्का उदाहरण हमें मिल जाते है। निय (निज) सुत्तनिपात; आवेणिय (आवेणिक), विनयपिटक; अपरगोयान (अपरगोदान) बौधिवंश; खायित (खादित) जातक । इतना ही नहीं अशोक के एवं उसके परवर्ती शिलालेखों से भी इस "य" श्रुति की पुष्टि होती है१. अशोक के अभिलेख अनावुतिय (अनायुक्तिक) धौलीपृथक्, जौगड़ पृथक् । - उपय (-उपग) धौली, कालसी, शाहबाजगढी, मानसेरा, गिरनार । कम्बोजय-(कम्बोज) रय(राजन्) समय (समाज) शाहबाजगढ़ी । २. खरोठी शिलालेख (अ) सहयर (सहचर) के. आइ. एच० (२) महरय (महाराज) के १३ प्रथम शताब्दी ई. पूर्व (ब) संवत्शरय (संवत्सरक) के १३, प्रथम शती ई. स. (स) अव्यय च = य में परिवर्तित के ८६ द्वि० श. ई. स० (द) महरय (महाराज) के १३ पूय (पूजा) के २, के ८०, के ८८, प्र. श. ई. पू. से तृतीय प्र. श. ई. स. तक उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि "य" श्रुति का प्रचलन बहुत पहले से था और उसके लिए पूर्ववर्ती अ आ का होना जरूरी नहीं था । २३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञा प्रथमा विभक्ति :- पुंलिंग - अकारान्त प्रथमा, एक वचन के लिए सामान्यतया - ओ विभक्ति का ही प्रयोग हुआ है लेकिन कुछ शब्दों में निम्नलिखित विभक्तियाँ पायी जाती हैं ● ए = ९ बार उदाहरण - उज्जुयसीले (उद्यतशील: ) २५७ अगीए ( अगीत: ) ३९५ रायणिए (रात्निक : ) ३९५ उ = कारउत्ति (कारक इति) ६६ यहाँ - ओ का ही - उ हुआ है क्योंकि संयुक्त से पहले आता है । एकवचन अकारान्त एकवचन के लिए प्राय: नपुंसकलिंग विभक्ति प्रयुक्त हुई है, लेकिन दो शब्दों में नपुंसकलिंग के लिए - ओ विभक्ति का प्रयोग देखा जाता है, यथा अप्पफलो (अल्पफलम् ) ८१.८२. - रूप परिवर्तन - बहुवचन - बहुवचन में सामान्यतया - आणि और -आई विभक्तियाँ पायी जाती हैं जो कि कुल प्रयोग का क्रमशः २८.६% और ५८.९% प्रतिशत है । एक आइ (खेत्ताइ ( क्षेत्राणि) ४९७) प्राप्त होती है जिससे उपदेशमाला पर परवर्ती काल का प्रभाव प्रकट होता है । विभक्ति द्वितीया विभक्ति इसमें पुं०, स्त्री में सामान्य विभक्तियों का प्रयोग हुआ है नपुं० द्वि० ब० व० के लिए भी सामान्यतया - आणि और आई विभक्तियां प्रयुक्त हैं लेकिन कुछ विशेष विभक्तियां इस प्रकार हैं - - ए अंतरे ( अन्तराणि) ३३७, ३३७ = उवगरणे ( उपकरणानि ) ४४७ २४ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयाकरण शिरस् शब्द को नपुं० ही मानते हैं लेकिन यह अकारान्त ही प्रयुक्त होता है, लेकिन यहाँ पर पुंलिंग की तरह ही प्रयुक्त हुआ है । तृतीया विभक्ति पुं० नपुं. अकारान्त एकवचन के लिए -एण और -एणं विभक्तियाँ क्रमश: १०९ और १८ बार (८५.८% और १४.२%) प्रयुक्त हुई हैं । इकारान्त पुं० के लिए - णा विभक्ति नरवइणा ( नरपतिना ) ११३ व्यञ्जनान्त पुं० और नपुं० शब्दों की निम्न विभक्तियाँ पायी जाती हैं - - - मणसा ( मनसा ) ४४५ परसिणा (प्रदेशिना ) १०३ अप्पणा ( आत्मना ) २३८ तवेण (तपसा) १८४, ३३१ तवेणं (तपसा ) ४४ स्त्रीलिंग एकवचन की सामान्य विभक्ति - ए पायी जाती है । इसे अतिरिक्तइ विभक्ति के कुछ उदाहरण निम्नवत् हैं विजाइ (विद्यया ) ३३१ परिपालणाड़ (परिपालनया ) ४२९ बुद्धि (बुद्ध्या ) ४१४ - कुले (कुलानि ) ३६३ सिरे (शिरांसि ) ५१८ आ णा एण एणं = = चतुर्थी विभक्ति अकारान्त एकवचन के लिए आए विभक्ति अट्ठाए (अनर्थाय ) ३६९ अट्ठा ( अर्थाय ) ४४७ २५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्स विभक्ति- सिवगस्स (शिवकाय) २६५ पुत्तस्स (पुत्राय) १४५ बहुवचन में - ण विभक्ति - जईण (यतीभ्य:) २३८ । सामान्यतया महाराष्ट्री में चतुर्थी विभक्ति के लिए षष्ठी विभक्ति का ही प्रत्यय प्रयुक्त होता है लेकिन उपदेशमाला में प्रयुक्त -आए प्रत्यय उस पर अर्धमागधी के प्रभाव को सूचित करता है । उसकी भाषा को जैन महाराष्ट्री कहना अधिक समीचीन होगा । पंचमी विभक्ति अकारान्त एकवचन के लिए - आओ विभक्ति सामान्यतया प्राप्त होती है। -आउ प्रत्यय, जो कि क्वचित् है, का उदाहरण द्रष्टव्य है - सलिलाउ (सलिलात्) २० । आ विभिक्ति भी प्राय: प्रयुक्त है । बला (बलात्) २२४, ४४८ - आएसा (आदेशात्) ५०५ सामन्ना (श्रामण्यात्) २५२ इत्यादि । षष्ठी विभक्ति पुं० नपुं॰ के अकारान्त शब्दों के अतिरिक्त उकारान्त एवं व्यंजनान्त शब्दों के लिए भी -स्स विभक्ति के प्रयोग १३ बार मिलते हैं - स्वरान्त - साहुस्स (साधो:) ४७० व्यंजनान्त - विउस्स (विदो:) ३३९ गिहिस्स (गृहिण:) ३५२ सप्तमी विभक्ति पुंलिंग नपुंसकलिंग (स्वरान्त या व्यंजनान्त) शब्दों के एकवचन में प्राय: - ए और -म्मि विभिक्ति का प्रयोग प्राप्त होता है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउए (आयुषि) १९३ अद्धाणे (अध्वनि) ४०२, २०३ -म्मि विभक्ति स्वरान्त - तिक्वम्मि (तीक्ष्णे) ६० उजमम्मि (उद्यमे) ४२२ स्त्रीलिंगी - आ - इ -ई कारान्त शब्दों के लिए निम्नलिखित विभक्तियाँ प्राप्त होती हैं ए = सोगईए (सुगत्याम्) ४२६ इ : निक्वेवणाइ (निक्षेपणायाम्) २९९ य - वाणारसीय (वाराणस्याम्) १७ विभक्ति रहित शब्द द्वितीया विभक्ति - पाय (पादौ) ३६० तृतीया विभक्ति - अणापुच्छा (अनापृच्छया) ३७६ सप्तमी विभक्ति दुभिक्ख (दुर्भिक्षे) ४०२ सर्वनाम प्रयमा विभक्ति (अ) उत्तम पुरुष प्रथमा विभक्ति एकवचन के लिए केवल अहं शब्द ही प्राप्त होता है । (ब) मध्यम पुरुष एकवचन के लिए तुम (त्वम्) ३७७ और तं (त्वम्) ४६४ एक एक बार प्राप्त होते हैं । (स) अन्य पुरुष नपुं. एकवचन के लिए इणं और इमं रूप विशेष तौर पर मिलते हैं जिनका अनुपात २ : १ है । इसके अतिरिक्त इयं २०८ रूप मिलता है जो शब्द-कोश में तो मिलता है लेकिन डॉ. पिशल इस सम्बन्ध में मौन हैं । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीया विभक्ति अस्मत् शब्द के तृतीया विभक्ति एकवचन के लिए मए (मया) १९२ और मे ( मया ) ४८० दो रूप प्राप्त होते हैं ।" षष्ठी विभक्ति - उत्तम पुरुष में मम के लिए क्रमशः मम, मे और मज्झ प्राप्त होते हैं जिनमें मज्झ रूप परवर्ती है यह प्राचीन नाटकों में नहीं मिलता है । मध्यम पुरुष में तव के लिए तुह १६४ प्राप्त होता है । यह भी परवर्ती काल का रूप है प्राचीन रूप तव, ते, तुज्झ आदि आगम ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । " पुं० नपुं० अन्य पुरुष तत् शब्द का षष्ठी एकवचन का रूप क्रमश: तस्स, ( तस्य) से ( तस्य), ते ( तस्य ) । स्त्रीलिंग षष्ठी ब० व。 के लिए ताण ( तासाम्) १७४ शब्द प्राप्त होता है। जबकि प्राचीन प्राकृत में तेसं मिलता है । ताण से यह सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ की प्राकृत परवर्ती काल की है । सप्तमी विभक्ति अन्य पुरुष एकवचन के लिए निम्नलिखित विभक्तियाँ पायी जाती हैं - म्मि, -हिं, - म्हिं, -स्सिं इनमें से - म्हिं, कहिं (कस्मिन्) ७६ और -स्सिं अस्सिं (अस्मिन्) १८५ - ये दो विभक्तियां पालि भाषा की तरह प्राचीन हैं । अर्द्धमागधी में - स्सिं का लोप हो गया । - म्हिं का उल्लेख व्याकरण में नहीं है । -म्मि, -हिं, -म्हिं और -स्सिं विभक्तियों का अनुपात क्रमश: इस प्रकार है लिंगव्यत्यय इस प्रकार मिलता है प्रथमा विभक्ति २ : ८ : १ : १ नपुंसक के लिए पुंलिंग पंचसया (पञ्चशतानि ) ५४२ २८ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणा (स्थानानि) ३९६, ३८२ एए (एतानि) ३८२ बहुया (बहूनि) ३८७ द्वितीया विभक्ति उवगरणे (उपकरणानि) ४४७ अंतरे (अन्तराणि) ३३७ कुले (कुलानि) ३६३ सिरे (शिरांसि) ५१८ विभक्ति व्यत्यय इस प्रकार मिलता है - तृतीयार्थे सप्तमी अट्ठिएसु (अस्थिभिः) १९८ विष्पमुक्केसु (विप्रमुक्तैः) १९८ रयणागरेसु (रत्नाकरैः) ३५१ तेसु (तै:) १९८ उपरोक्त व्यत्यय की पुष्टि हेमचन्द्र भी करते हैं।२ । पंचम्यर्थे द्वितीया अहियं (अहितात्) ४४८ । धम्मपद में भी ऐसा प्रयोग मिलता है । हेमचन्द्र में ऐसा व्यत्यय नहीं दर्शाया गया है । पंचम्यर्थे षष्ठी सहस्साण (सहस्रेभ्यः) २६४ वसहीणं (वसतिभ्य:) ५६ पंचम्यर्थे सप्तमी कारणे (कारणात्) ८९ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसएसु (विषयेभ्यः) २०४ हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में इस व्यत्यय का भी उल्लेख नहीं है । क्रियापद सामान्यतया वर्तमानकाल परस्मैपद अन्य पुरुष एकवचन के लिए -इ प्रत्यय पाया जाता है लेकिन अपवादरूप कुछ अन्य प्रत्यय भी प्राप्त होते हैं, यथा ए - भंजए - भनक्ति (२९४) | निच्छए - नेच्छति (३२५) सोहए - शोधयति (३६०) आत्मनेपद के लिए -ए प्रत्यय के अतिरिक्त -इ प्रत्यय भी प्रयुक्त हुआ है, यथा ए = बुज्झए - बुध्यते (३१) इ = अभिरमइ - अभिरमते (३६६) सहति - सहते (६५) कर्मणि प्रयोग के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैंए = तीरए - तीर्यते (५११) अणुगम्मए - अनुगम्यते (१३) इ - तीरइ - शक्यते (१८९, ३२२) वर्तमानकाल परस्मैपद और आत्मनेपद के मध्यम पुरुष के एकवचन में -सि प्रत्यय ही प्राय: प्रयुक्त हुआ है । आत्मनेपद में उसका -से प्रत्यय केवल एकबार प्रयुक्त हुआ है, यथा – बुज्झसे - बुध्यसे (२०८) ___ उत्तम पुरुष में -मि प्रत्यय प्रयुक्त है । अस्मि जब सन्धियुक्त हो तो उसके लिए -मि और -म्हि प्राप्त होते हैं, यथामि सुट्ठिओमि - सुस्थितोऽस्मि (३८५) ३० Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिओम पतितोऽस्मि (२५६) म्हि = दिक्खिओम्हि - दीक्षितोऽस्मि (२२) भविष्यत् काल के रूप सामान्यतया -स्स और - हि जोड़कर बनाये गये हैं । कुछ अन्य प्रयोग इस प्रकार के भी मिलते हैं वोच्छामि - वक्ष्ये (१) लम्भिहिसि लप्स्यसे (५२२) कभी-कभी एक काल के प्रत्यय अन्य काल के लिए भी प्रयुक्त मिलते हैंलप्स्यसे (२९२) लब्भिसि ( वर्तमान काल ) भूतकाल के लिए सी - सि प्रत्ययों के प्रयोग मात्र दस ही प्राप्त होते हैं जो अस् और कृ धातुओं तक ही सीमित हैं, यथा कासी - अकार्षीत् (१४६) आसी - आसीत् ( १७, ३५) आसि - आसीत् (४४, ५३, १०६, १५१ ) प्रयोग बहुवचन के लिए भी हुआ है आसन् (११०) इसका आसि विधिलिङ् अन्य पुरुष के लिए प्राय: ज और -ज्जा प्रत्यय ही पाये जाते हैं, ए प्रत्यय वाले रूप भी प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं भवे भवेत् (३४१, ३९७) करे - कुर्यात् (२५८) देसे - देशयेत् (४०६ ) निखिवे - निक्षिपेत् (४८४) -ज्ज प्रत्यय मध्यम पुरुष एकवचन के लिए भी प्रयुक्त हैं - हवेज - भवे: ( २२७) ३१ कुछ - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञार्य - अन्य पुरुष एकवचन में -उ प्रत्यय प्रायः प्रयुक्त है - कीरउ - क्रियताम् (४८१) मध्यम पुरुष एकवचन में -हि प्रत्यय और प्रत्ययहीन प्रयोग दोनों समान मात्रा में उपलब्ध होते हैं, जैसे भणाहि - भण (४२९) जाण - जानीहि (३९३, ४५२, ५०५) इत्यादि क्रियातिपत्ति में अन्य पुरुष एकवचन के लिए -अंतो और बहुवचन के लिएअंता प्रत्यय का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है, जैसे(१) करेंतो - अकरिष्यत् (१०९, ४५९) (२) पावेंता - अप्राप्स्यन् (२८१) (३) एकवचन के लिए -अंतो के बदले नपुं० -अंतं प्रत्यय भी एक बार प्रयुक्त है हुंत - अभविष्यत् (१०९) उपरोक्त उदाहरण उ. मा. की निम्नलिखित गाथाओं में प्रयुक्त हैं(१) आजीवग- गणनेया रजसिरिं पयहिऊण जमाली । हियमप्पणो करेंतो न य वयणिजे इह पडतो ।।४५९।। (२) तिरिया-कुसंकुसारा निवायवहबंधभारणसयाइं । न वि इहयं पाता परत्थ जइ नियमिया होता ।।२८१ ।। (३) जं तं कयं पुरा पूरणेण अद्रुक्करं चिरं कालं । जइ तं दयावरो इह करेंतो तो सफलयं इंतं ।।१०९।। कृदन्त पूर्वकालिक कृदन्त के प्रत्ययों में सामान्य रूप से -ऊण और -ऊणं प्रत्यय ४४ बार प्रयुक्त हुआ है । इनके सिवाय कुछ अन्य प्रत्यय निम्नवत् हैं (१) -इत्तु = आयणित्तु = आजाणित्तुं - आज्ञाय (२१४) (२) -इत्ता = भणित्ता - भणित्वा (५०७) (३) -इया = अविकत्तिया - अविकर्त्य (११२) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) इय = परिक्खिय - परीक्ष्य (२९९) भविय : भूत्वा (१०१) चिंतिय - चिन्तयित्वा (२८६) (५) अ = पप्प = प्राप्य (१३९, २२८) उपरोक्त प्रत्ययों में से प्रारम्भिक तीन प्रत्यय -इत्तु, -इत्ता और -इया प्राचीन हैं जो अर्धमागधी में भी मिलते हैं । अन्तिम प्रयोग पप्प (प्राप्य) भी एक अवशिष्ट प्राचीन प्रयोग है जो आचारांग (१.२.३.६), स्थानांग (१८८), उत्तराध्ययनसूत्र (१०१७, १०१९), पण्णवणा (५२३, ५४०, ५४१, ६६५, ६६७, ७१२, ७८१), दशवैकालिक-नियुक्ति (६४९, ५.८; ११, ६५३.१) जैसे आगम ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है । पूर्वकालिक कृदन्त के लिए हेत्वर्थक कृदन्त का प्रत्यय -उं ११ बार प्रयुक्त हुआ है जो कि कुल प्रयोग का १५.३ प्रतिशत है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं- दाउं -दत्वा (१९४, २९९, ३९९, ४९९, ५१०) ; छड्डेउं - छर्दयित्वा (५०९) इत्यादि। सभी प्रत्ययों का प्रतिशतांक निम्न तालिका से स्पष्ट हो जायेगाऊणं ऊण ता तु इया इय अ उं प्रतिशत ६१.१ १२.५ १.४ १.४ १.४ ४.२ २.७ १५.३ पूर्वकालिक कृदन्त के लिए हेत्वर्थक -उं प्रत्यय का प्रयोग वसुदेवहिंडी और पउमचरियं में भी क्रमश: ३% और २०% है१४ । हेत्वर्थक कृदन्त के लिए प्राय: -उं प्रत्यय का प्रयोग मिलता है । इसके लिए पूर्वकालिक कृदन्त का -ऊण प्रत्यय ५ बार प्रयुक्त हुआ है जो कुल प्रयोग का ३०% है, यथा काऊण - कर्तुम् (१५८, ३४४) तोसेऊण - तोषयितुम् (१८९) वोत्तूण - वक्तुम् (३३) अहियासेऊण - अतिसोढुम् (३४६) ३३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे ही प्रयोग वसुदेवहिण्डी और पउमरियं में भी क्रमश: ६% और १०% मात्रा में मिलते हैं। छन्द योजना उपदेशमाला में छ: गाथाओं को छोड़कर शेष सभी गाथाएँ गाथा छन्द में हैं। छ: गाथाओं में चार (१३९, १८४, १८५, ३४१) अनुष्टुप् छन्द में हैं, एक (२०८) रथोद्धता और एक (४२६) विपरीत-आख्यानकी छन्द में है । गाथा छन्द इसकी परिभाषा इस प्रकार है – गौ षष्ठो जोन्लौ वा पूर्वेऽर्धेऽपरे षष्ठो लार्या गाथा'५ । इसे जाति या आर्या भी कहते हैं । इसके गण मात्रानुसार नियमित किये जाते हैं । इसमें चार मात्राओं का एक गण होता है । गाथा के प्रथम पाद में तीस मात्राएँ होती हैं और द्वितीय पाद में सत्ताइस मात्राएँ होती हैं । प्रथम पाद का छठवां गण या तो जगण होता है या चारों लघु मात्राएँ । दूसरे पाद का छठां गण एक लघु मात्रा का होता है । दोनों पादों के अन्त में दो-दो मात्राओं के तीन गण होते हैं । उदाहरण - नमिऊण जिणवरिंदे इंदनरिंदच्चिए तिलो यगुरू । उवएसमालमिणमो वुच्छामि गुरूवएसेणं ।। । ।। अनुष्टुप् छन्द श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम् । द्विचतुः पादयोईस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ।।१६ यह आठ अक्षरोंवाला समचतुष्पद है । इसके सभी पादों में छठां अक्षर गुरू तथा पाँचवां अक्षर लघु होता है । सातवाँ अक्षर दूसरे तथा चौथे पाद में हस्व होता है और पहले और तीसरे पाद में दीर्घ होता है, यथा पत्थ रे णा ह ओ की वो । प त्य रं ड कु मि च्छ इ ।। ३४ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मि गा रि ओ स रं प प्प । स रु प्प त्तिं वि म ग इ ।।१३९।। रयोद्धता - रनरल्गा रथोद्धता । इस समचतुष्पद छन्द के प्रत्येक पाद में ११ अक्षर होते हैं । प्रत्येक पाद में क्रमश: रगण, नगण, रगण, लघु और गुरु होते हैं, यथा संझरा गजलबुब्बुओवमे जीविए य जलबिंदु चंचले ।। जोवणे य नइ वेगसन्निभे । पावजीव किमियं न बुज्झसे ॥२०८।। विपरीत आख्यानकी - व्यत्यये विपरीतादि: । व्यत्यये इति भोजे जतजगगाः। युजि ततजगगा: विपरीतादिर्विपरीताख्यानकीत्यर्थ:१८ । अर्थात् प्रथम और तृतीय पाद में क्रमश: जगण, तगण, जगण और दो गुरु तथा द्वितीय और चतुर्थ पाद में क्रमश: तगण, तगण, जगण और दो गुरु होते हैं । एक पाद में कुल ११ अक्षर हैं, यथा - जहाखरो चंदण-भार-वाही । भारस्स भागी न हु चंदणस्स ।। एवं खु नाणी चरणेण हीणो । नाणस्स भागी न हु सो गईए ।।४२६ ।। इसमें जितने भी पद्य गाथा (आर्या) छन्द में हैं उनमें से कोई भी प्राचीन आर्या छन्द में नहीं है जिसके विषय में प्रो. आल्जडर्फ ने चर्चा की है। इस दृष्टि से भी यह ग्रन्थ भगवान् महावीर के काल का नहीं हो सकता । धर्मदासगगि का समय जैन परम्परा के अनुसार धर्मदासगणि भगवान् महावीर के द्वारा दीक्षित माने जाते हैं । लेकिन उनके समय के बारे में कुछ आधुनिक विद्वानों के मन्तव्य इस प्रकार हैं, मोरिस विण्टरनित्ज़ का कहना है - Another early work is Uvaesamala-Garland of ३५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Instructions, a didactic poem in 540 prakrit Stanzas, containing moral instructions for layman and monks by Dharmadasa who according to tradition is said to be a younger contemporary of Mahavira. This is scarcely possible, as the language of Uvaesamala corresponds to the later Jaina Maharastri." इसी प्रकार मुनि जिनविजय जी कहते हैं " ग्रन्थना केटलाक व्याख्याकारोए तो तेमने खास भगवान् महावीर स्वामिना ज एक हस्तदीक्षित शिष्य तरीके उल्लेख्या छे अने ए रीते ए प्रकरणनी रचना महावीर स्वामीना समयमां ज थएली होवानी मान्यता प्रकट करी छे परन्तु ऐतिहासिक दृष्टिए तेम ज प्राकृत भाषाना स्वरूपना तुलनात्मक वगेरे दृष्टिए ए ग्रन्थ तेटलो प्राचीन तो सिद्ध नथी थतो कारण के एमा भगवान् महावीरना निर्वाण बाद केटलाय सैका पछी थएला आर्यवज्र आदि आचार्योनो पण प्रकटरूपे उल्लेख थलो मळे छे तेथी इतिहासज्ञोनी दृष्टिए ए ग्रन्थ विक्रमना ४था ५मां शतक दरम्यान के तेथीय पछीना एकाध सैकामां रचाएलो सिद्ध थाय छे. २२ २२११ डॉ. जगदीश चन्द्र जैन का भी यही मन्तव्य है - "जैन परम्परा के अनुसार धर्मदासगणि महावीर के समकालीन बताये गये हैं लेकिन वे ई० स० की चौथी पाँचवीं शताब्दी के विद्वान् जान पड़ते हैं १३ । - अब उपदेशमाला में उल्लिखित कुछ नामों पर विचार किया जायगा जिससे यह स्पष्ट हो जायगा कि धर्मदासगणि भ० महावीर के काल के थे या नहीं । ग्रन्थ में कालकाचार्य और उनके भानजे दत्त नाम के ब्राह्मण राजा का उल्लेख है । कालकाचार्य नाम के चार आचार्य हुए हैं । उपरोक्त कालकाचार्य प्रथम कालकाचार्य थे - ऐसा मुनि श्री कल्याणविजय जी का मानना है । उन कालकाचार्य का समय वीरनिर्वाण ३०० से ३३५ तक माना गया है : ( अर्थात् ई० पू० लगभग तीसरी शताब्दी) । • કૈ दूसरा उल्लेख मंगू आचार्य का मिलता जो " वलभी युगप्रधान पट्टावली" के अनुसार रेवतीमित्र के उत्तरवर्ती हैं २५ । रेवतीमित्र का समय ईसापूर्व दूसरी सदी है । २६ अत: मंगू ईसापूर्व दूसरी सदी के बाद के ठहरते हैं । तीसरा उल्लेख वज्रस्वामी का है । उनका समय आवश्यक निर्युक्ति" के अनुसार वी० नि० ४९६ से ५८४ तक है ( अर्थात् ईसा की प्रथम शताब्दी) । ३६ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरोक्त तथ्यों से यह तो निश्चितरूप से स्पष्ट हो जाता है कि धर्मदासगणि भ. महावीर के समय के नहीं थे और उनकी पूर्व सीमा ई. स. प्रथम शताब्दी भी निश्चित हो जाती है । उपदेशमाला पर सर्वप्रथम वृत्ति जयकीर्ति की संवत् ९१३ की मिलती है। अत: यह उनकी उत्तर सीमा हई । इस प्रकार धर्मदासगणि पहली और नौंवी सदी के बीच के होने चाहिए । लगभग ९०० वर्ष के इस अन्तर को कम करने के लिए कोई अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है । अत: इसकी भाषा का विश्लेषण कुछ अंश में उपयोगी हो सकता हैभाषाकीय विश्लेषण __ वसुदेवहिण्डी और पउमचरियं ईसा के प्रारम्भिक शताब्दियों की रचनायें मानी जाती हैं । अत: उनकी भाषा के स्वरूप के साथ उपदेशमाला की भाषा का तुलनात्मक अध्ययन उसकी (उ० मा.) रचना के समय को निर्धारित करने में कछ अंश में सहायक हो सके, इस दृष्टि से यहाँ पर कुछ मुद्दे प्रस्तुत किये जा रहे हैं डॉ. के. आर. चन्द्रा२९ ने वसुदेवहिण्डी और पउमचरियं की प्राकृत भाषा का एक नमूने के रूप में तुलनात्मक अध्ययन किया है । उसी को आधार बनाकर उपदेशमाला के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन नीचे दिया जा रहा है तीनों ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन ध्वनि परिवर्तन वसुदेवहिण्डी, पउमचरियं और उपदेशमाला में मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों की यथावत् स्थिति, उनका घोषीकरण और उनका लोप इस प्रकार है वसुदेवहिण्डी पउमचरियं उपदेशमाला (प्रतिशत) (प्रतिशत) (प्रतिशत) यथावत् ३४.७ ३२.२ २०.७ घोषीकरण १८.८ लोप ५७.४ द्वित्व ६.२ ३७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथावत ८० महाप्राणों की स्थिति इस प्रकार है - वसुदेवहिण्डी पउमचरियं उपदेशमाला (प्रतिशत) (प्रतिशत) (प्रतिशत) २० २८.६ "ह" में परिवर्तन द्वित्व उपरोक्त तालिका के अनुसार उपदेशमाला में वसुदेवहिण्डी और पउमचरियं की अपेक्षा अल्पप्राण व्यंजन यथावत् कम हैं और घोष और लोप ज्यादा हुए हैं । जबकि दूसरी तालिका के अनुसार महाप्राण की यथावत् स्थिति वसुदेवहिण्डी से कम तथा पउमचरियं से कुछ अधिक है और "ह" में परिवर्तन वसुदेवहिण्डी से ज्यादा और पउमचरियं से कम है । रूप रचना सप्तमी एकवचन की विमक्ति उपदेशमाला में पुंलिंग नाम शब्दों के लिए दो विभक्तियाँ - "ए" और "-म्मि" मिलती हैं जिनका तुलनात्मक प्रयोग पउमचरियं के साथ इस प्रकार दर्शाया जा सकता है वसुदेवहिण्डी पउमचरियं उपदेशमाला (प्रतिशत) (प्रतिशत) (प्रतिशत) -ए विभक्ति -म्मि सर्वनाम अस्मत् के तृतीया एकवचन के लिए “मए" और "मे" की स्थिति उपरोक्त तीनों ग्रन्थों में इस प्रकार मिलती है वसुदेवहिन्डी पउमचरियं उपदेशमाला (प्रतिशत) (प्रतिशत) (प्रतिशत) २० २२.५ ७७.८ २२.५ २२.२ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्मत् शब्द के ही षष्ठी एकवचन के रूप मम, मे, मज्झ और मह की स्थिति उपरोक्त ग्रन्थों में इस प्रकार है मम मे मज्ज मह ते te तव तज्झ तुझं तुमं तुहं तुह वसुदेवहिण्डी (प्रतिशत) उपरोक्त तालिका के अनुसार षष्ठी एकवचन के रूपों में "मज्झ" का प्रयोग वसुदेवहिण्डी में सबसे कम और उपदेशमाला में सबसे अधिक है । मध्यम पुरुष में षष्ठी एकवचन के लिए उपरोक्त ग्रन्थों में विभिन्न रूपों की स्थिति इस प्रकार है तेसिं ताणं - ताण ४७.५ ४०.० १०.० २.५ प्रयोग इस प्रकार है वसुदेवहिन्डी (प्रतिशत) ७८.७ ७.१ ७.१ ०.० ७.१ पउमचरियं (प्रतिशत) २.५ ३२.५ ३०.० ३५.० वसुदेवहिण्डी (प्रतिशत) ८९ ११ पउमचरियं (प्रतिशत) १४.२ ०.० ६२.० ९.६ १४.२ उपदेशमाला (प्रतिशत) पउमचरियं (प्रतिशत) १२.५ ५०.० ३७.५ ० अन्य पुरुष में षष्ठी विभक्ति एकवचन के लिए तेसिं और ताणं- ताण का उपदेशमाला (प्रतिशत) ० ० ० ० १००२० उपदेशमाला (प्रतिशत) १०० पूर्वकालिक कृदन्त के लिए अन्य प्रत्ययों के साथ - साथ हेत्वर्थ कृदन्त ( - उं) ३९ ८८.९ ११.१ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यय का प्रयोग इस प्रकार है वसुदेवहिण्डी (प्रतिशत) पउमचरियं (प्रतिशत) उपदेशमाला (प्रतिशत) ० ० ऊण (उणं) ७६ ७१.८ ७३.६ हेत्वर्थ उं प्रत्यय १५.३ हेत्वर्थ कृदन्त के लिए पूर्वकालिक कृदन्त का प्रयोग तीनों ग्रन्थों में निम्नवत् पाया जाता है वसुदेवहिण्डी (प्रतिशत) पउमचरियं (प्रतिशत) उपदेशमाला (प्रतिशत) ० ० पूर्वकालिक प्रत्यय (ऊण (ऊणं) त्ता इस प्रकार सप्तमी की परवर्ती काल की विभक्ति -म्मि का प्रयोग वसुदेवहिण्डी से उपदेशमाला में अधिक है । सर्वनाम अस्मत् तृतीया एकवचन के रूप मए और मे का प्रयोग भी वसुदेवहिण्डी से उपदेशमाला में अधिक है तथा अस्मत् के षष्ठी एकवचन के परवर्ती रूप “मज्झ" का प्रयोग उपदेशमाला में वसुदेवहिण्डी की तुलना में तीन गुने से भी अधिक बार हुआ है । युष्मत् षष्ठी एकवचन के लिए उपदेशमाला में केवल "तुह" का ही प्रयोग है । जबकि वसुदेवहिण्डी में यह कुल प्रयोगों का ७.१ प्रतिशत है और पउमचरियं ४० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे १४.२ प्रतिशत । इसके लिए अन्य रूप ते, तव तुज्झ तुज्झ, तुम, तुहं तुह हैं । पूर्वकालिक और हेत्वर्थ कृदन्तों का एक दूसरे के लिए प्रयोग प्राचीन नहीं है । इस प्रकार के प्रयोग परवर्ती काल में प्रचलित हुए हैं । उनका एक दूसरे के लिए प्रयोग वसुदेवहिण्डी, पउमचरियं और उपदेशमाला में इस प्रकार मिलते हैं उपदेशमाला में पूर्वकालिक कृदन्त के लिए हेत्वर्थ प्रत्यय ( उ ) का प्रयोग वसुदेवहिण्डी से पांच गुना अधिक है परन्तु पउमचरियं में उसका प्रयोग उपदेशमाला से अधिक हुआ है । उपदेशमाला में हेत्वर्थ कृदन्त के लिए पूर्वकालिक कृदन्त का प्रयोग भी वसुदेवहिण्डी से पाँच गुना और पउमचरियं से तीन गुना अधिक है । ३२ इस प्रकार उपदेशमाला की भाषा वसुदेवहिण्डी की भाषा से थोड़ी परवर्ती काल की लगती है और पउमचरियं की भाषा के लगभग समान है । वसुदेवहिण्डी का समय पाँचवीं शताब्दी और पउमचरियं का भी पाँचवी शताब्दी । लेकिन डॉ० के० आर. चन्द्रा ने भाषा के आधार पर वसुदेवहिण्डी को पउमचरियं से पहले की रचना मानी है । इस दृष्टि से भी उपदेशमाला पाँचवीं सदी के पहले नहीं जाती है । दासान्त नामों की परम्परा (जैसे जिनदास, संघदास आदि) भी छठीं -सातवीं सदी में प्रचलित हुई मालूम होती है । अत: इन सभी दृष्टियों से इसका समय ईसा की छठीं सातवीं शताब्दी के लगभग ही ठहरता है । विषयवस्तुगत अध्ययन गुरुमहिमा : ग्रन्थारम्भ में भगवान महावीर और ऋषभदेव की वन्दना के पश्चात् आचार्य धर्मदासमणि गुरु महिमा का वर्णन करते हैं । जिस प्रकार राजा का आदेश शिरोधार्य होता है उसी प्रकार गुरुजनों के उपदेश को भी शिरोमान्य रखकर सुनना चाहिए, क्योंकि गुरु सर्वोपरि होता है । गुरु बुद्धिमान् आगमवद् धीर गम्भीर और उपदेशक होता है । वह अपरिश्रावी होता है अर्थात् वह किसी बात को किसी और से नहीं कहता । गुरु पर सन्देह करनेवाला पश्चात्ताप करता है । गुरुवचन को विशुद्धभाव से सुननेवाला सुखी होता है । ( ८-११) श्रमण प्रधानता : गुरुमहिमावर्णन के बाद श्रमण की प्रधानता बतलाते हुए आर्या चन्दना का उदाहरण प्रस्तुत किया गया हैं जिन्होंने वरिष्ठ साध्वी होने के बावजूद एक दिन के दिक्षित साधू दमक की वन्दना की । इसी प्रकार के अनेक दृष्टान्त साधु प्रधानता के लिए प्रस्तुत किये गये हैं । (१२-१८) असंयमी के लिए शिक्षा है की यदि वह वेशधारी साधू है और संयमपालन ४१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं करता तो धर्म से उसकी रक्षा नहीं हो सकती । कभी कभी ऐसा भी होता है कि वेश से धर्म की रक्षा होती है । तब वेशधारी को यह संवेदना होती है कि वह साधु वेशधारी है और इसलिए उसे धर्माचरण करते हुए तप, संयम का पालन करना चाहिए । (११-२२) आत्मा आत्मा को जानती है और आत्मा से ही धर्म स्वरूप निश्चित होता है । आत्मा को जैसा सुखावह हो धर्म वैसा ही हो जाता है । जिस-जिस भाव जिसजिस समय में जीव में कर्मप्रवेश होता है उसी उसी प्रकार के शुभ अशुभ कर्म बँधते हैं । (२३-२४) दीर्घकालीन दुःख से मलिन जीवों को सुखदायी धर्मोपदेश देना कठिन है क्योंकि हजारों उपदेशो से भी उसे बोध नहीं हो सकता । (३०-३१) कुछ लोग साधनासम्पन्नता होने पर भी उसका त्याग करते हैं और कुछ लोग साधन नहीं होने पर उसकी इच्छा करते हैं । ऐसा भी होता है कि घोर दुष्ट भी धर्म के प्रभाव से बोध प्राप्त करते हैं । लोक में (जैन धर्म में) फुल की प्रधानता नहीं है । हरिकेशबल का कौनसा फूल था जिन के तप से देवता भी डर गये थे और उनकी पूजा करते थे। यह तो प्रत्येक व का पना कर्म है कि वह नट की भाँति अपना रूप और वेश बदला करता है। तप से जीव उत्कर्ष की पराकाष्टा तक पहुँच सकता है । जैसे वसुदेव, जिनसे विद्याधारी और राजकुमारीयां प्रेमवश उनको पाने की इच्छा करने लगी थीं । वास्तव में वे साधू हैं, धन्य हैं कुकृत्य से विरह हो धीरतापूर्वक व्रत रूपी तलवार की धार पर चलते हैं और उत्कृष्टता की चरमसीमा तक पहुँच जाते हैं। वही शिक्षित, गुणी, ज्ञान और आत्मदृष्टा है जो विपत्ति में पडकर भी दुष्कर्म नहीं करता । अपमानित होकर भी वह दूसरों का अपमान नहीं करता । सुख-दुःख में समुद्र की तरह गम्भीर बना रहता है । जो व्यक्ति जैसे-जैसे प्रमाद करता है वह उसी प्रकार कषायों से ग्रस्त होता है । शीत, उष्ण, क्लेश आदि को जो सहता है उसे ही धर्मप्राप्ति होती है । धो धैर्यशाली होता है उसे ही तपश्चर्या प्राप्त होती है । साधु तो क्या गृहस्थ भी धर्म कों ४२ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानकर उसमें दृढवती हो जाते हैं, जैसे-सागरचन्द्र । रागदेष : जो सम्यक्त्व प्राप्त नहीं करता या प्राप्त करके जो संविग्न नहीं होता और विषयसुख में ओतप्रोत हो जाता है तो इसमें रागद्वेष का दोष है । जो अनेक गुणों के नाशक सम्यक्त्व चारित्रगुण के नाशक रागद्वेष के वश में नहीं होते उनका समर्थ शत्रु भी कुछ बिगाड नहीं सकते । धिकार है कि जीव रागद्वेष की अनिष्टता को जानते हए भी उसे अपनाता है । यदि रागद्वेष न होतो किसी को भी दु:ख नहीं होगा और सुख से आश्चर्य नहीं होगा । ____ कषाय : कषाययुक्त जीव वडवानल की तरह तपसंयम को जला देता है । कर्कशवाणी से एक दिन का तप नष्ट होता है । परनिन्दा करनेवाला एक मास के तप को नष्ट करता है । शाप देनेवाले का एक वर्ष कर तप नष्ट होता है और हिंसा करनेवाला सम्पूर्ण तप का नाश करता है । वध, अपमान, परधन नाश आदि जघन्य कर्म फलदायी हैं। परीषह : सच्चे साधू आक्रोश डॉठंट फटकार, उत्पीडन, अपमान, निन्दा आदि सह लेते हैं । निर्दोष रूप से मार खा कर भी जो प्रतिकार नहीं शकते, आर्भबूत होकर भी जो प्रतिशाप नहीं देते और सहन कर लेते हैं वे वास्तव में सहस्रमल्ल हैं । माता, पिता, भाई, पत्नी, पुत्र, मित्र ये सब अनेकविध भय वैमनस्य आदि का निर्माण करते हैं । अच्छे तपस्वियों की पूजा, प्रणाम, सत्कार विनय आदि से शभकर्म भी नष्ट हो जाते हैं जो मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है । साधुओं के अभिनन्दन, वन्दन, नमस्कार आदि गुणों से चिरसंचित कर्म क्षीण हो जाते हैं। दुष्ट, ऊंट, घोडा, बैल और मतवाला हाथी - ये सब दमनकारी हैं लेकिन निरंकुश आत्मा को इनमें से कोई भी दमित नहीं कर सकता । वस्तुत: आत्मा का ही दमन करना चाहिए क्योंकि आत्मा को दमित करने के बाद ही इहलोक और परलोक में सुखी हुआ जाता है। पापप्रमाद के वशीभूत जीव सांसारिक कार्यो मे तत्पर दुःख से कभी मुक्त नहीं हो सकता और सुख से कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। जिस प्रकार सम्पन्न व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को ही सम्पूर्ण धर्मफल मानता है उसी प्रकार भूखंजीव पापकर्म को सबकुछ मानकर उसी में लीन रहता है और दुःखी Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता है । इसलिए यह अपेक्षित है कि जीव जन्म-जरा-मरण से उत्पन्न दु:ख को जाने, सोचे और विषयों में लिप्त न रहकर उनसे होनेवाले दुःख से बचे । कर्म आस्रवों को जानकर उनसे अपनी आत्मा को बचाकर सिद्धगति को प्राप्त करें । जीवन जल की बूँद और सन्ध्याराग की तरह नश्वर है । यौवन नदी प्रवाह की तरह तेजी से चला जानेवाला है फिर भी पापी जीव समझता नहीं । भव्यजीव का लक्षण यही है कि वह विषयासक्त नहीं होता क्योंकि जाति, कुल, रूप, बल पुत्रलाभ, ऐश्वर्य - ये सब संसार में अनेक अशुभ कर्मों का बन्ध कराते हैं । जिनशासन में विनय का बहुत महत्त्व है । विनीत व्यक्ति संयमी होता है । विनयरहित व्यक्ति के लिए धर्म कहाँ और तप कहाँ । विनयी व्यक्ति सुशोभित और यशस्वी होता है । इसके विपरीत अविनयी जिनवचन के ज्ञान से रहित, दर्शनहीन और संयमहीन व्यक्ति यदि तप भी करे तो वह व्यर्थ होता है । जो षड्जीव निकाय, महाव्रत पालनरूप यतिधर्म की यदि रक्षा नहीं कर सकें तो उसके धर्म का क्या प्रयोजन ? कर्णप्रिय अमृतबिन्दु जैसे जिनवचन रूप उपदेश को पाकर आत्महित करना, महावत पालन का करना और अपने तथा पराये का अहित नहीं करना धर्मपालन में श्रेयस्कर है । जो यह करता है वह देवतुल्य पूजनीय होता है । अर्चन द्विविध है भावार्चन और दव्यार्चन । भावार्चन उय विहारता का नाम है और द्रव्यार्चन जिनपूजा है । भावार्चन से भ्रष्ट हुआ साधू द्रव्यार्चन में लीन रहता है । जो अर्चनरहित होकर केवल शरीर सुख का ध्यान रखता है उसे ज्ञानप्राप्ति नहीं होती और इसलिए सद्गति भी नहीं होती । बहुमूल्य जिनमन्दिर बनवाने वाले से भी अधिक फलदायी तपसंयम होता है । यदि मूलगुण और उत्तर गुणों को धारण नहीं कर सकते तो श्रावक बने रहना श्रेयस्कर है । जिनेन्दों की आज्ञा का पालन ही आचरण पालन है उसके भंग होने पर क्या भंग नहीं होता । इसके अन्तर्गत उपदेशमाला की टीका में प्राप्त कथानकों की तुलना आगम और उनकी नियुक्ति, चूर्णि, टीका और भाष्य के कथानकों से की गई है । कथानकों में जहाँ भेद आता है उनको फुटनोट में उनके सन्दर्भ के साथ दिया गया है जहाँ कथानक समान हैं वहाँ फुटनोट में केवल सन्दर्भ दे दिये गये हैं । कथानक इस प्रकार हैं - ४४ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. चन्दनबाला जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कौशाम्बी नाम की नगरी थी, एक बार चन्दनबाला अपने अनुयाइयों के साथ कौशाम्बी के चोराहे से गुजर रही थी । काकन्दी नगरी से आया एक दरिद्र व्यक्ति ने उसे सड़क पर आते हुए देखा । उस व्यक्तिने चन्दनबाला के पास खड़े एक वृद्ध से चन्दनबाला के बारे में पूछा । उसने बताया चम्पानगरी में दधिवाहन नामक राजा था। उसकी वसुमति नाम की पुत्री थी । एक समय किसी वैमनस्य के कारण कौशाम्बी के राजा शतानीक ने विशाल सेना के साथ दधिवाहन पर आक्रमण कर दिया । घोर युद्ध के पश्चात् पराजय की आशंका से दधिवाहन मैदान छोड़कर भाग गया । शतानीक की सेना ने चम्पानगरी को खूब लूटा और वसुमति को किसी पुरुष ने अपहृत कर लिया" । उसे एक सेठ के हाथ बेच दिया । एक दिन वसुमति सेठ के चरण धो रही थी । सेठ ने उसके केशकलापों को पकड़ रखा था ताकि वे जमीन पर न जायँ । यह देखकर मूला सेठानी को उनके एक दूसरे का प्रेमी होने की शंका हुई और उसने वसुमति को घर से बाहर निकालने की ठान ली । एक दिन सेठ की अनुपस्थिति में सेठानी ने वसुमति के बाल मुड़वाकर हाथपैर बाँधकर तलघर में डाल दिया । सेठ यह सब जानकर बहुत दुःखी हुआ । उसी समय भगवान् महावीर अपने कर्मों का क्षय करने के लिए वसुमति जैसी हालतवाली लड़की की खोज में वहाँ आये । भगवान् को देखकर वसुमति धन्य हो गयी और उसने अपने हाथ से उड़द के बाकुले भिक्षा के रूप में दिये । तत्पश्चात् वसुमति के सभी बन्धन टूट गये और पाँच दिव्य प्रकट हुए । देवताओं ने वसुमति का नाम चन्दनबाला रखा । इन्द्र ने शतानीक राजा को चन्दनबाला का परिचय दिया और उसकी रक्षा करने को कहा । जब भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ तब चन्दनबाला ने उनसे साध्वी दीक्षा ग्रहण की और उनकी प्रथम शिष्या हुई । वही चन्दनबाला सुस्थिताचार्य ४५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से निकटवर्ती उपाश्रय में वंदन करने जा रही है । इस प्रकार वृद्ध पुरुष चन्दनबाला का वृत्तान्त सुनकर बहुत खुश हुआ । वह भिखारी भी उस उपाश्रय में गया । गुरु महाराज अपने ज्ञान से जाने गये कि वह भिखारी मुक्ति पाने वाला है अत: उसे उपदेश दिये जिससे उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । चारित्र दृढ़ करने के लिए उसे साधू साध्वियों के उपाश्रय में भेजा गया । वह अकेला ही चन्दनबाला के उपाश्रय में गया । चन्दनबाला ने उसका बहुत सम्मान किया जिससे उसको साधुओं के विनय की महानता का ज्ञान हुआ । चन्दनवाला ने उसको संघ की महत्ता तथा साधु जीवन की भव्यमहिमा को समझाया जिससे वह संयम में स्थिर हो गया ।। मृगावती उसकी मुख्य शिष्या थी । उसको गलत ढंग से डाँटने से चन्दनवाला को पश्चात्ताप हुआ जो उसके केवलज्ञान का कारण बना । २. सम्बाधन राजा ___ सम्बाधन वाराणसी का राजा था । उसकी एक हजार रानियाँ थीं लेकिन किसी को पुत्र नहीं था । उसने पुत्र प्राप्ति का हर सम्भव प्रयास किया । संयोगवश एक बार उसकी पटरानी को गर्भ रह गया । पुत्रोत्पत्ति के पहले राजा चल बसा । सूना राज्य देखकर शत्रुओं ने उस पर हमला किया लेकिन नैमित्तिक के कहने पर कि पटरानी के गर्भ के प्रभाव से उन्हें हारना पड़ेगा, वे वापस लौट गये । गर्भकाल पूर्ण होने पर उसका जन्म हुआ, उसका नाम अंगवीर्य रखा गया। ३. मरत चक्रवर्ती ___ अयोध्यानगरी में ऋषभदेव जी के बड़े पुत्र" भरत प्रथम चक्रवर्ती २ बन गये। उनके पिता ऋषभदेव जी ने संयम ग्रहण के समय अपने सौ पुत्रों को उनके नाम से अंकित देश दे दिये । एक समय यमक और समक दो पुरुष बधाई देने के लिए उसके दरबार में मये । यमक ने ऋषभदेव के केवलज्ञान की सूचना दी और समक ने शस्त्रागार में चक्ररत्न उत्पन्न होने की। भरत अपनी दादीमाँ मरुदेवी को साथ लेकर पिताश्री की वन्दना करने चल Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिये । वहाँ जाकर ऋषभदेव की माँ मरुदेवी का मोह दूर हो गया और दीक्षित होकर मोक्ष को प्राप्त हुई । भरत प्रभु का वन्दन करके तथा श्रावक धर्म स्वीकार करके अयोध्या आये और चक्ररत्न का उत्सव किया । आठ दिन बाद चक्ररत्न पूर्व दिशा में चला । भरत राजा ने भी छ: खण्ड पर विजय पाने के लिए प्रस्थान किया । भरत ने पूर्व समुद्र के किनारे अट्रम तप किया । मन में मगधदेश का ध्यान करके बाण छोड़ा । वह बाण मगधदेश की सभा में सिंहासन से टकराकर जमीन पर जा गिरा। भरत का नाम पढ़कर मगधदेव ने आत्मसमर्पण कर दिया । उसके बाद आकाश में चक्र के पीछे सेना चल दी । उसने दक्षिण में वरदामदेव को जीता । पश्चिम में प्रभासदेव को जीता उत्तर दिशा में चक्र चला । वैताढ्य पर्वत के पास अट्ठम तप करके भरत ने कृतमालदेव का ध्यान किया । एक देव ने प्रकट होकर तमिस्रा गुफा का दरवाजा खोला । भरत ने सैन्यसहित उस गुफा में प्रवेश किया । रास्ते में निम्नगा और उन्निम्नगा दो नदीयों को पार कर वे गुफा से बहार निकले । वहाँ म्लेच्छ राजाओं पर विजय पायी । वहाँ से चलकर एक नदी के किनारे पड़ाव डाला वहाँ नौ निधान प्रकट हुए १. नैसर्प, २. पाडुक, ३. पिंगल, ४. सर्वरत्न, ५. महापद्म, ६. काल, ७. महाकाल, ८. माणवक, ९. शंख ।। ये गंगा मुख में रहनेवाले थे । आठ पहिए, आठ योजन ऊँचे, नौ योजन चौड़े और बारह योजन लम्बी मंजूषा के आकार के होते हैं । भरत चक्रवर्ती ने आठ दिन का महोत्सव किया । गंगादेवी के साथ उसने एक हजार साल तक सुखोपभोग किया । उसके बाद वह आगे बढ़ा । उसने वैताढ्य पर्वत के नमि और विनमि विद्याधरों को जीता । ६. इस तरह भरत चक्रवर्ती साठ हजार वर्ष तक दिग्विजय कर अयोध्या वापस आया । इस प्रकार रहते हुए भरत चक्रवर्ती को कई लाख वर्ष व्यतीत हुए । एक दिन जब वे दर्पण में अपना सौंदर्य देख रहे थे कि उनके हाथ की अंगुली से अंगुठी जमीन पर गिर पड़ी और उनकी शोभा कम हो गयी फिर उन्होंने सभी आभूषण उतार दिये और बिलकुल शोभारहित हो गये । तब उन्हें शरीर की असारता का ज्ञान हुआ और वे राज्यसुख छोड़कर संयम अंगीकार किये । केवलज्ञान के बाद मोक्ष को प्राप्त हुए । ४७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. प्रसन्नचन्द्र राजर्षि पोतनपुर में प्रसन्नचन्द्र नामक धार्मिक राजा था" । एक समय सध्या की क्षणिक लालिमा को देखकर वह संसार की क्षण भंगुरता का विचार करने लगा और वह अपने बालपुत्र को गद्दी पर बिठाकर प्रब्रजित हो गया । एक बार महावीर स्वामी उस नगरी में पहुँचे । देवों ने समवसरण की रचना की । राजा श्रेणिक भगवान् का आगमन जानकर उनकी वन्दना के लिए आया । दुर्मुख ने प्रसन्नचन्द्र की सबके सामने शिकायत की इस राजा ने अपने पाँच वर्षीय अबोध पुत्र को गद्दी पर बिठाकर प्रव्रज्या ग्रहण की है । शत्रुओं ने इसके राज्य को हड़पने के लिए आक्रमण कर दिया है। यह सुनकर राजर्षि को क्रोध आया और उसने मानसिक युद्ध करना शुरू कर दिया राजा श्रेणिक प्रसन्नचन्द्र की वन्दनादि करके भगवान् महावीर की वन्दना करने चल दिए । उपदेशपूर्ण होने पर राजा श्रेणिक ने भगवान् से प्रसन्नचन्द्र के विषय में अनेक प्रश्न किये । भगवान् ने उनके प्रत्येक प्रश्न का जवाब देते हुए प्रसन्नचन्द्र को केवलज्ञान होने की बात बताई । भगवान् से आश्वस्त होकर राजा अपने स्थान को लौट गया । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि बहुत समय तक केवली अवस्था में रहकर अन्तत: मोक्ष को प्राप्त हुए । ५. बाहुबलि का दृष्टान्त छ: खण्डों पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद भरत ने ९८ भाइयों को बुलाया ( बाहुबलि को छोड़कर) सभी भाईयों ने राज्य छीन जाने के भय से पिताजी ( ऋषभदेव ) को इस बात से अवगत कराया । ऋषभदेवजी ने राज्यलक्ष्मी की क्षणभंगुरता का उपदेश दिया । उपदेश सुनकर सभी भाइयों ने दीक्षा ग्रहण कर ली । भरत ने उनके पुत्रों को उनका राज्य सौंप दिया । बाहुबलि पराजित नहीं था, इसलिए चक्ररत्न आयुधशाला में प्रवेश नहीं कर रहा था । सुषेण सेनापति ने यह बात भरत को बताई । भरत ने बाहुबलि को बुलाने के लिए दूत भेजा, परन्तु उसने आने से इन्कार कर दिया । इस पर भरत ने बाहुबलि पर चढ़ाई कर दी । बारह वर्ष तक युद्ध चलता रहा । इन्द्र ने युद्ध विराम के लिए भरत से कहा लेकिन उसने चक्ररत्न के आयुधशाला में प्रवेश न करने के कारण युद्ध ४८ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराम से इन्कार कर दिया । फिर उन्होंने बाहुबलि से युद्ध विराम की बात कही लेकिन उसने भी इन्कार कर दिया । तब इन्द्र ने दोनों भाइयों को आपस में लड़ने को कहा सेनाओं से नहीं । दोनों तैयार हो गये । भरत को पाँच प्रकार के युद्ध में पराजय मिली, उसने नाराज होकर चक्र छोड़ा । लेकिन सगोत्र पर चक्र नहीं चलता, इसलिए चक्र प्रदक्षिणा करके वापस चला गया । बाहुबलि को उज्वल विचार आया। उसने प्रव्रज्या ले ली। ६. सनत्कुमार का दृष्टान्त सनत्कुमार चक्रवर्ती छह खण्ड के साम्राज्य का अधिपति हस्तिनापुर नगर में रहता था । एक दिन इन्द्र ने उसके रूप की प्रशंसा देवताओं से की । दो देवता वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाकर उसे देखने गये । वे उसे आभूषणरहित देखकर ही मुग्ध हो गये और सिर हिलाने लगे । सनत्कुमार स्वयं अपनी प्रशंसा उनसे करने लगा । वे ब्राह्मण सनत्कुमार की बात सुनकर चले गये और फिर जब वह आभूषण धारण कर राजसभा में आया तब आये । वे राजा का ही हीन रूप देखकर दुःख व्यक्त करने लगे । चक्री के हीनता का प्रमाण पूछने पर उन दोनों ने कहा – “चक्रवर्ती ! ताम्बूल का पीक जमीन पर थूको । यदि उस पर मक्खी बैठे और मर जाय तो समझना आपका शरीर विषमय है और उसमें सात महारोग उत्पन्न हो गये हैं ।" ___ ब्राह्मणों की बात सुनकर चक्री को शरीर की अनित्यता पर विश्वास हो गया। उन्होंने संयम धर्म स्वीकार कर लिया और विकृतिजनक पदार्थों का त्याग कर रोगों से पीड़ित होने पर भी मायारहित होकर भूमण्डल पर विचरण करने लगे । इन्द्र ने अपने दरबार में फिर उनकी प्रशंसा की । फिर दो देवों ने ब्राह्मण के रूप में सनत्कुमार के पास आकर उसका इलाज करने को कहा । मुनि ने अनित्य शरीर के रोग का इलाज करने के अलावा कर्मरोग का इलाज करने को कहा । दोनों देव आश्चर्यचकित हो गये और अपना असली रूप बतलाकर देवलोक वापस लौट गये । मुनि सनत्कुमार भी सात सौ वर्ष तक रोग पीड़ा का अनुभव कर एक लाख वर्ष तक निर्दोष चारित्र का पालन कर तीसरे देवलोक में उत्पन्न हुए । उसके बाद महाविदेह में मनुष्यजन्म प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करेंगे५२ । ७. ब्रह्मदत्त चक्री किसी गाँव में सरल स्वभावी चार म्वाले रहते थे । गर्मी की दोपहरी में जब Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे जंगल में गाय चराते हुए एकत्रित होकर बातें कर रहे थे । उसी समय तीव्र प्यास से त्रस्त साधू जंगल में रास्ता भूल जाने के कारण वहाँ पेड़ की छाया में आकर बैठे। ग्वालों ने मुनि की वेदना को समझकर पानी की चारों तरफ तलाश की । पानी न पाकर गाय का दूध को ही मुनि के मुँह में डाला जिससे वे होश में आ गये । मुनि ने उनको सरल स्वभावी जानकर उपदेश दिया जिससे उन सबने विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की और चारित्र का पालन करते हुए मुनि के साथ विहार करने लगे । कुछ समय बाद उनमें से दो शिष्यों ने चारित्र की विराधना की और दूसरे दोनों मुनि चारित्र की आराधना कर उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त हुए । चारित्र की विराधना करनेवाले दो शिष्य मरकर देवगति को प्राप्त हुए । वहाँ से एक दासी के वहाँ जन्मा । बड़ा होकर वह भी दास का काम करने लगा । एक बार वर्षाकाल में दोनों खेत की रखवाली कर रहे थे । उनमें से एक दोपहर को वृक्ष के नीचे सोया हुआ था । उसे सांप ने डंस लिया । दूसरे ने सर्प को गाली दी अत: उसको भी डॅस लिया । मरकर दोनों ने मृग रूप में जन्म लिया। एक बार किसी शिकारी ने दोनों का शिकार कर लिया । वहाँ से वे हंस की योनि में जन्मे । एक दिन किसी शिकारी ने उन्हें जाल में फंसाकर मार डाला। फिर वे काशी में किसी चाण्डाल के वहाँ जन्मे । उनका नाम चित्र और संभूति रखा। उस नगर के राजा का नमुचि नामक प्रधान था जो पटरानी से वैषयिक सम्बन्ध रखता था । जब राजा को इसका पता चला तो उसने चाण्डाल को बुलाकर उसे वध्यभूमि में मार डालने का हुक्म दिया । परन्तु चाण्डाल को दया आयी और उसने गुप्त रूप से उसे अपने घर अपने बच्चों को पढ़वाने के लिए लाया । चित्र और संभूति दोनों थोड़े से समय में शास्त्रों में पारंगत हो गये । कुछ समय पश्चात् नमूचि ने चाण्डाल की पत्नी को फंसा लिया । चाण्डाल को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने उसे मारने के लिए बाहर निकाला । चित्र और संभूति ने उसे स्वयं मारने के लिए कह कर पिताजी से छुड़ा लिया और वध्यभूमि की और ले जाकर छोड़ दिया । नमुचि वहाँ से भगकर हस्तिनापुर के राजा सनत्कुमार के यहाँ सेवक बनकर रहने लगा । चित्र और सम्भूति संगीतकला में अत्यन्त प्रवीण थे । वे नगर के चौराहों पर गीत गाया करते थे । युवतियाँ उन पर मुग्ध हो गयीं । लोगों ने उन दोनों के खिलाफ राजा से शिकायत की जिससे उनको नगर से निर्वासित कर दिया गया । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र और सम्भूति दोनों इस निर्वासन से क्षुब्ध होकर आत्महत्या करने के लिए एक पर्वत से गिरने ही वाले थे कि एक साधु ने उन्हें रोका । वे मुनि के पास आये और अपनी आपबीती सुनायी । साधु ने उन्हें उपदेश दिया जिससे वे विरक्त होकर चारित्र का पालन करते हुए विहार करने लगे । एक बार हस्तिनापुर नगर में मासक्षमण के पारणे के लिए मिक्षार्थ घूम रहे सम्भूति मुनि को नमूचि मन्त्री देखकर पहचान गया । अपने दुश्चरित्र के भण्डाफोड़ के डर से नमूचि ने एक नौकर से उसे तिरस्कारपूर्वक बाहर निकलवा दिया । इससे सम्भूति को क्रोध आया और उन्होंने अपनी तेजोलेश्या से पूरे नगर में आतंक फैला दिया । चक्रवर्ती सनत्कुमार ने मुनि के चरणों मे गिरकर क्षमा मांगी । उस समय चित्रमुनि अपने भाई के पास आये और सबको शान्ति का उपदेश दिया। सम्भूति का क्रोध शान्त हो चुका था । राजा ने नमूचि की करतूत जानकर उसने देश से निकाल दिया । तत्पश्चात् दोनों मुनि वन में जाकर आमरण अनशन करने लगे । एक बार सनत्कुमार तथा उसकी पटरानी उनका वंदन करने आयी । सुनन्दा पटरानी चित्रमुनि का वंदन करके सम्भूति का वंदन कर रही थी । सम्भूति को उसके केशकलाप देखकर राग उत्पन्न हो गया । अनशन पूर्ण कर वे दोनों स्वर्ग गये । आयुष्य पूर्ण कर चित्रमुनि पुरिगतालनगर में एक सेठ के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । सम्भूति कांपिल्यनगर में ब्रह्मदत्त नाम का बारहवाँ चक्रवर्ती हुआ । ___ एक बार जब वह राजसभा में बैठा था, एक फुल का गुच्छा देखते ही उसे जाति स्मरण हुआ । उसने मन में विचार किया कि वह भ्राता कहाँ है, जिसके साथ मेरा पाँच जन्मों का सम्बन्ध है । उससे मिलने के लिए उसने आधी गाथा बनायी । "अश्वदासो मृगो हंसो मातंगावमरो तथा ।" उसने नगर में घोषणा करवाई कि जो कोई इस गाथा को पूर्ण करेगा उसकी मनोकामना पूरी की जायेगी । उस समय तक चित्र का जीव संसार से विरक्त हो चुका था । वह भी जाति स्मरण के कारण अपने भाई से मिलने के लिए कांपिल्यनगर पहुँचा । वहाँ रहट चलानेवाले व्यक्ति के मुख से यह आधी गाथा सुनकर मुनि ने उत्तरार्ध गाथा पूर्ण की - "एषा नौ षष्टिका जातिरन्योन्याभ्यां वियुक्तयो:" - राजा को जब यह मालूम हुआ तो वह बेहोश हो गया। राजा मुनि का वंदन करने सपरिवार चल दिए । मुनि ने राजा को उपदेश Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया और पूर्वजन्म के नियाण की बात बताई और आर्यकर्म करने को कहा – राजा ने मुनि की बात न मानकर उसको ही घर चलने को कहा । मुनि ने उसे बहुत समझाया पर उसे वैराग्य नहीं उत्पन्न हुआ । अन्त में हारकर चित्रमुनि वहाँ से दूसरी जगह विहार करने चले गये और केवली होकर मोक्ष पाये । ब्रह्मदत्त पूर्वभव में नियाण करने से सातवें नरक का अधिकारी बना" । ८. उदायीनृप के हत्यारे का दृष्टान्त पाटलीपुत्र नगर में कोणिक राजा का पुत्र उदायी राजा राज्य करता था । उसने किसी का राज्य छीन लिया था । उसके वैरी राजा ने अपनी सभा में घोषणा करवाई कि - "जो उदायी राजा को मारकर आयेगा, उसे मैं इच्छानुसार इनाम दूंगा।" यह सुनकर कोई नौकर उदायी को मारने के लिए पाटलिपुत्र आया । अनेक उपाय करने के बावजूद भी जब वह सफल नहीं हुआ तो उसने राजा को विश्वास में लेने के लिए धर्मगुरु से मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली । धर्मगुरु को राजा बहुत मानता था । उसने आचार्य आदि के मन को अपने विनीत गुणों से वशीभूत कर लिया । उदायी राजा अष्टमी और चतुर्दशी के दिन एक अहोरात्र भर का पौषध करता था । आचार्य उसे धर्मोपदेश देने के लिए निकटवर्ती पौधशाला में जाते थे । एक दिन नवदीक्षित ने भी साथ जाने के लिए गुरुजी से कहा । लेकिन गुरुजी ने उसे अपने साथ नहीं लिया । इसी तरह वह बारह वर्ष तक साथ जाने का प्रयत्न करता रहा, लेकिन गुरुजी ने उसे नहीं जाने दिया । एक बार उसे गुरुजी ने अपने साथ ले ही लिया । रात को जब आचार्य और राजा निद्राधीन हो गये तब उस कुशिष्य ने राजा के गले पर छूरी फेर दी और भाग गया५ । राजा के शरीर का खून आचार्य के संथारे तक पहुँचा जिससे वे जग गये। वे परिस्थिति को भाँप गये और कुशिष्य को दीक्षा देने के प्रायश्चित्त के लिए उसी छूरी से अपने को मार डाला और वे दोनों मरकर देव बने । उस नौकर ने अपने राजा से जाकर अपने साहस की सारी बातें बतायीं लेकिन राजा को उससे धृणा हो गयी और उसने उसे देश निकाला दे दिया । ९. जासा सासा का दृष्टान्त वसन्तपुरनगर में अनंगसेन नामक एक स्त्रीलंपट सुनार रहता था । उसकी ५२ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच सौ सुन्दर पत्नीयाँ थीं६ । वह उन्हें कभी बाहर नहीं जाने देता था । एक बार वह अपने मित्र के वहाँ भोजन करने गया । उस दिन सभी स्त्रियों ने सुअवसर देखकर श्रृंगार इत्यादि करके एक साथ मनमानी क्रीड़ा करनी शुरू कर दी । इतने में सोनी अपने घर आया । उसने स्त्रियों की चेष्टा देखकर एक स्त्री को मार डाला जिससे शेष सभी स्त्रियों ने मिलकर उसे मार डाला और स्वयं भी आग लगाकर मर गयीं । प्रथम जो स्त्री मरी थी उसने गाँव में किसी सेठ के यहाँ पुत्र रूप में तथा स्वर्णकार के जीव ने उसी घर में पुत्री रूप में जन्म लिया । वह पूर्वजन्म की कामासक्ति के कारण जन्मते ही रुदन करती थी। किसी समय उसके भाई का हाथ उसकी योनि पर लग जाने से वह चूप हो गयी । अब यही उसे चूप करने का उपाय था । पिता के मना करने पर जब वह नहीं माना तो उसने उसे घर से निकाल दिया। वह (पुत्र) चोरपल्ली में रहते-रहते ५०० चोरों का स्वामी बन गया । एक बार उसने अपने ही गाँव में डाका डाला और उस कामासक्त कन्या को ले आया । वह उन सबकी पत्नी बनी । एक दिन उस चोर ने उसकी सुविधा के लिए दूसरी पत्नी को ले आये । उसे अपने विषयसुख में रुकावट समझकर उसने कुँए में गिरा दिया । पल्लीपति को जब इस बात का पता चला तो उसे अपने बहन की शंका हुई । शंका समाधान के लिए बह भगवान महावीर के पास गया और वंदन करके पूछा - "भगवान ! या सा सा सेति" भगवान ने कहा - "सा सा सेति" यह सुनकर उसे वैराग्य हो गया । भगवान महावीर ने गौतम स्वामी के पूछने पर उपरोक्त पहेली को समझाया – उन्होंने कहा – पल्लीपतिने पूछा - जो मेरी बहन थी वह वही है । तब मैंने कहा - हाँ जो तेरी बहन थी वही तेरी पत्नी है । १०. मृगावती कौशाम्बी नगरी में भगवान महावीर पधारे । उनके वन्दनार्थ सभी देव और असुरों सहित सूर्य और चन्द्र भी आये । आर्या चन्दनबाला भी मृगावती को साथ लेकर उनके वन्दनार्थ आयीं । चन्दनबाला आदि साध्वियां प्रभु को वंदन कर वापस उपाश्रय में आ गयीं परन्तु मृगावती सूर्य के प्रकाश के कारण दिन जानकर काफ़ी रात तक समवसरण में बैठी रही । सूर्य और चन्द्र के वापस चले जाने के बाद अन्धकार फैल गया, तब मृगावती जल्दी से उठकर उपाश्रय में आयी । चन्दनबाला ने उसे बहुत उपालम्भ दिया । मृगावती ने बहुत पश्चात्ताप किया और अपने विलम्ब का कारण Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताया । वह रातभर आत्मनिन्दा ही करती रही । मृगावती को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। संयोगवश एक सांप चन्दनबाला के हाथ के पास से होकर गुजर रहा था । मृगावती ने उसे केवलज्ञान से देखकर चन्दनवाला का हाथ संथारे पर कर दिया, जिससे चन्दनवाला जग गयी । पूछने पर मृगावती ने हाथ हटाने का कारण बता दिया और अपने केवलज्ञान को भी बताया । चन्दनबाला ने उससे बहुत क्षमा मांगी और उसके चरणों पर पड़ी । इस प्रकार आत्मनिन्दा से चन्दनबाला को भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ । ११. जम्बूस्वामी की कथा एक बार श्रमण भगवान महावीर विहार करते हुए राजगृहनगर में पधारे । राजा श्रेणिक उनकी वन्दना के लिए वहाँ आये तथा साथ में एक देव भी आया । देव को उसका स्वरूप पूछने पर उन्होंने कहा – “आज से सातवें दिन तुम आयुष्य पूर्ण करके मनुष्य जन्म प्राप्त करोगे ।" यह सुनकर वह देव वापस लौट गया । राजा श्रेणिक के पूछने पर कि वह देव कहाँ और किसके वहाँ जन्म लेगा, उन्होंने बताया- यह देव इसी राजगृह नगर में जम्बू नाम का अन्तिम केवली होगा । राजा के उसके पूर्व जन्म के बारे में पूछने पर भगवान् ने कहा - जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सुग्रीव नामक गाँव में राबड़ और रेवती नामक दम्पति रहते थे । जिनके दो पुत्र, भवदेव और भावदेव थे । भवदेव ने समय पर दीक्षा ग्रहण कर ली । एक बार भवदेव विहार करते-करते अपने गाँव आये । नवविवाहित भावदेव उनके दर्शनार्थ गया, उसे भी वैराग्य हो गया । भवदेव ने जीवन पर्यन्त वह चारित्राधन किया । उनकी मृत्यु के बाद स्त्रीप्रेम याद आने के कारण भावदेव अपने गाँव आया । संयोग से वह अपनी ही नवदीक्षिता पत्नी नागिला को यह रहस्य बताया । उसकी पत्नी ने उसे सुन्दर उपदेश देकर चारित्र में दृढ़ किया । नागिला का जीव एक जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेगा । भावदेव तीसरे देवलोक के देव बना । तत्पश्चात् वह जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र के पद्मरथ राजा के यहाँ वनमाला की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ । युवक शिवकुमार ने पाँच सौ कन्याओं से विवाह किया । एक दिन वह किसी मुनि से धर्मोपदेश सुनकर माता-पिता से मुनिदीक्षा लेने की अनुमति मांगी । अनुमति न मिलने पर वह घर में ही तप और पारणा इत्यादि करने लगा । बारह वर्ष की तपस्या के बाद वह प्रथम देवलोक में विद्युन्माली नामक ५४ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव बना । इसके बाद पाँचवें भव में वह देव राजगृहनगर में ऋषभदत्त सेठ के यहाँ धारिणी देवी के यहाँ पुत्ररूप में पैदा हुआ । जम्बूकुमार नामक इस बालक ने सभी कलाओं का अध्ययन किया । आठ कन्याओं से उसकी शादी हुई । सुधर्मा स्वामी का धर्मोपदेश सुनकर उसे वैराग्य हो गया । लेकिन उसके माता-पिता एवं पत्नियों ने उसे बहुत समझाया । उसी समय प्रभव नामक चोरों के सरदार ने अपने साथीयों के साथ जम्बू के घर में डाका डाला । वे सामान ले जा रहे थे कि जम्बू के पंच परमेष्ठी नमस्कारमन्त्र के कारण वे सब स्तम्भित हो गये । चोरों के सरदार ने जम्बूकूमार से छुड़वाने के लिए बहुत विनती की और विद्याओं के आदानप्रदान के लिए आग्रह किया। जम्बूकुमार ने कहा मेरे पास कोई विद्या नहीं है । मैं मधुबिन्दु पुरुष के समान दुःख पाना नहीं चाहता । इसलिए मुझे मुनिदीक्षा लेनी है । प्रथम के पूछने पर उन्होंने मधुबिन्दु पुरुष के दुःख की बात कही अपने साथियों से बिछुड़े हुए एक आदमी को एक जंगली हाथी मारने के लिए दौड़ा । भाग कर वह एक कुँए में लटकती वटवृक्ष की शाखा से लटक गया। लेकिन नीचे दो अजगर मुँह फाड़े खड़े थे । उस शाखा में मधुमक्खियों का छत्ता था। मधुमक्खियां उसे काट रही थीं । उस शाखा को दो चूहे कुतर रहे थे । उसे महान् संकट में देखकर किसी विद्याधर ने उसे अपने विमान में बैठ जाने के लिए कहा लेकिन मधुबिन्दुओं की लालच होने से थोड़ी देर रुकने को कहा । बहुत देर के बाद जब वह नहीं आया तो वह विद्याधर चला गया । बाद में वह मूर्ख पछताने लगा । इस प्रकार जम्बूकुमार को बहुत समझाया । प्रभव के पूछने पर कि आपने जवानी में ही पुत्रादि को क्यों छोड़ दिया, उन्होने कहा इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि एक ही जन्म में १८ रिश्ते नाते जुड़े हैं । उन्होंने इसे खोलकर समझाया मथुरा नगरी में कुबेरसेना नामकी एक वेश्या रहती थी । एक बार उसके कबेरदत्त और कुबेरदत्ता नाम के जुड़वे पैदा हए । वेश्या ने किसी स्वार्थवश दोनों को नामांकित अंगूठी अंगुली में पहनाकर एक पेटी में रखकर नदी में बहा दिया । वह पेटी बहती हुई शोरीपुर पहुँची जहाँ से दो सेठ उसे अपने घर ले गये । जवान होने पर दोनों सेठों ने उन दोनों की शादी कर दी । एक बार चोपड़ खेलते समय कुबेरदत्ता Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने अपने पति की अंगुली में नामांकित अंगूठी देखकर उसे अपना भाई होने का अनुमान लगा लिया । तत्पश्चात् उसने साध्वी दीक्षा ले ली । बाद में उसे अवधिज्ञान प्राप्त हो गया । इधर कुबेरदत्त किसी कार्यवश मथुरा गया था जहाँ कुबेरसेना वेश्या (अपनी माता) से फँस गया फलत: पुत्रोत्पन्न हुआ । कुबेरदत्ता को अवधिज्ञान से इस अनर्थ का ज्ञान हो गया । वह दोनों को प्रतिबोध देने के लिए मथुरा पहुँची । जिस समय वह नवजात बालक रो रहा था उस समय साध्वी जी उसे चूप कराते हुए अपने साथ उसे छ: रिश्ते को इस प्रकार बताया तु मेरा पुत्र, भतीजा, भाई, देवर, चाचा और पौत्र है । तेरे पिता मेरे पति, पिता, भाई, पुत्र, श्वसुर और नाना लगते हैं । तेरी माता मेरी भाभी, सौत, माता, सास, पुत्रवधु तथा नानी लगती है । यह सुनकर कुबेरसेना को पापमय जीवन से वैराग्य हो गया । इसलिए हे प्रभव ! ऐसे रिश्ते तो अनेक जुड़ते हैं और जुड़ेंगे । उन्होंने पुत्र से सद्गति प्राप्त होने के विषय में कहा कि ऐसा कोई नियम नहीं है । इसके लिए उन्होंने महेश्वरदत्त की कथा कही जो इस प्रकार है विजयपुर में महेश्वरदत्त नामक सेठ, जिसका महेश्वर नामक पुत्र था । मृत्यु के समय सेठ ने अपने पुत्र से श्राद्ध के दिन भैंसे के मांस से परिवार को तप्त करने को कहा । मरकर महेश्वरदत्त भैंसा बना और उसकी माता भी मर गयी जो उसी घर में कुतिया बनी । महेश्वर ने अपनी व्यभिचारिणी पत्नी के साथ रतिक्रीड़ा करते उसके यार को देख लेने से मार डाला जो मरकर उसके पुत्ररूप में जन्मा जो उन दोनों को बहुत प्रिय था । महेश्वर श्राद्ध पर उसी भैंसे को मारकर लाया और सबको तृप्त किया । भिक्षा के लिए जा रहे धर्मघोष मुनि इस वृत्तान्त को जानकर मुस्कुराते हुए बोले “मारितो वल्लभः, पिता पुत्रेण मशितः । जननी ताड्यते सेयं, अहो मोह विजृम्भितम् । यह श्लोक सुनकर महेश्वर ने विरक्त होकर श्रावकधर्म को स्वीकार कर लिया। यह सुनकर प्रभव ने जम्बूकुमार से कहा - आप मेरे परिवार के लोगों को छोड़ दीजिए, मैं भी आप ही के साथ मुनिदीक्षा ग्रहण करूंगा। अपने पति की दीक्षा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की बात सुनकर जम्बू की प्रथम पत्नी बोली प्रभव ! यदि तुम्हारे कहने से जम्बूकुमार दीक्षा ले लेंगे तो उनको उस किसान की तरह पछताना पड़ेगा जिसने मिश्रित मालपूए के लिए अनाज के लहलहाते खेत को काटकर ईख बोया और ईख नहीं उगी तो अत्यन्त दु:खी हुआ । जम्बूकुमार ने कहा पछताना उसे पड़ता है जो लौकिक सुख की आशा करता है । जिसे अलौकिक सुख चाहिए उसे पछताना नहीं पड़ता । लौकिक सुख चाहने वाला उस कौए के समान अनर्थ पाता है जिसने मांस के लालच में मृत हाथी के गुदे में प्रवेश किया और ग्रीष्मकाल में जब गुदा बन्द हो गया तो वह भी उसी में बन्द हो गया । बरसात में गुदाद्वार खुलने से जब बाहर निकला तो चारों तरफ पानी ही पानी देख वहीं मर गया । यह सुनकर दूसरी पत्नी ने कहा अतिलोभ से मनुष्य उस बन्दर की तरह दु:ख पाता है जो अपनी पत्नी बन्दरी के साथ किसी वृक्ष पर आनन्दपूर्वक रहता था। एक दिन वह एक देवाधिष्ठित तालाब में गिरा और मनुष्य बन गया । बन्दरी भी तालाब में कूदी और सुन्दर स्त्री बन गयी । एक बार मानवरूपी बन्दर ने कहा यदि मैं उस तालाब में फिर से गिरूं तो देव बन जाऊँ, उसकी पत्नी ने उसे बहुत समझाया पर वह नहीं माना और कूद पड़ा जिससे फिर वह बन्दर हो गया । उसकी पत्नी को अकैली देख कोई राजा अपने यहाँ ले गया और वह बन्दर किसी मदारी के हाथ में पड़ गया । किसी समय मदारी बन्दर को नचाते हुए राजा के महल में पहुँचा जहाँ बन्दर अपनी पत्नी को देख कर बहुत पछताया । - जम्बूकुमार ने कहा जिसने अनेक देवलोक का सुख भोगा है उसे लौकिक सुख से क्या जैसे कि अंगारदाहक तृप्त नहीं था । अंगारदाहक एक बार कोयला बनाने जंगल में गया । प्यास लगने पर बर्तन में रखा कुल पानी पीकर सो गया । स्वप्न में वह समुद्र और नदियों का पानी भी पी गया फिर भी जब उसे तृप्ति नहीं मिली तो वह छोटी तलैया में पड़ा गन्दा पानी पीने गया । जब समुद्र के जल से उसे तृप्ति नहीं मिली तो तालाब के गन्दे पानी से कैसे मिल सकती है । इस पर तीसरी ने कहा बिना विचारे काम करने पर नूपुरपण्डिता के समान पछताना पड़ता है । राजगृहनगर में देवदत्त नामक एक सुनार अपने पुत्र देवदिन्न और व्यभिचारिणी पुत्रवधू दुर्गिला के साथ रहता था । एक दिन देवदत्त अपनी पुत्रवधू ५७ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को परपुरुष के साथ सोया देख चुपके से उसके दांये पैर का नूपुर निकाल लिया । जगने पर दुर्गिला परिस्थिति को भाँप गयी । वह उस पुरुष को भगाकर अपने पति को लेकर अशोकवृक्ष के नीचे सो गयी । थोड़ी देर बाद अपने पति को जगाकर श्वसुर द्वारा नूपुर चुराये जाने की बात कही, जिससे नाराज होकर देवदिन्नि ने अपने पिता को बहुत डाँटा । पिता द्वारा सही बात कहने पर वह दुर्गिला अपने को सत्य प्रमाणित करने के लिए पड़ोसियों को लेकर प्रभावक पक्ष के पास चल दी । रास्ते में वह पुरुष पागलों का-सा वेष बनाये हुए आया और दुर्गिला से चिपक गया । लोगों ने उसे पागल समझकर छोड़ दिया । मन्दिर में उसने कहा - हे देव ! यदि मैंने अपने पति और इस पागल के सिवाय किसी परपुरुष को स्पर्श किया हो तो मुझे सजा दो । यक्ष विचार करने लगा । इसी बीच दुर्गिला उत्तर की राह देखे बिना यक्ष की जांघों के बीच से होकर निकल गयी । जिससे लोगों को विश्वास हो गया और देवदत्त निन्दा का पात्र बना। इस पर जम्बूकुमार कहने लगे - भरतक्षेत्र में कुशवर्धन नामक गाँव था जिसमें विद्युन्माली और मेघरथ नामक दो विप्रभ्राता रहते थे । एक बार किसी कार्यवश वे जंगल में गये वहाँ एक विद्याधर ने उन्हें मातंगी विद्या सिद्ध करने की विधि बतायी और कहा कि साधना के समय यह मातंगी देवी तुमसे सम्भोग की प्रार्थना करेगी। ____ यदि तुम अविचलित रहोगे तो विद्या सिद्ध होगी, वरना नहीं । विद्या की साधना में विद्युन्माली असफल और मेघरथ सफल रहा । मेघरथ को बहुत-सा धन मिला । इस प्रकार जो कामभोगों से अविचलित रहता है वही सुखी होता है । चौथी पत्नी बोली – यदि आप अपना आग्रह नहीं छोड़ेंगे तो अतिलोभ के कारण आपको कौटुम्बिक की भाँति पछताना पड़ेगा । वह खेत से पक्षियों को भगाने के लिए शंख बजाया करता ता । किसी समय कुछ चोर गाय चूराकर उसके खेत के पास में लाए । शंख की आवाज़ से वे चोर भग गये, कौटुम्बिक सभी गायों को लाया और बेच दिया । यह घटना तीन बार हुई जिससे वह धनी हो गया । चौथी बार उसकी बदमाशी समझकर उसे मार डाला । जम्बू बोले - तुम्हारी बात सच है । जो अतिकामी होता है उसे तृषातुर बन्दर की तरह दुःखी होना पड़ता है, जो पानी की भ्रान्ति से कीचड़ में गिर गया। कीचड़ से लथपथ उसका शरीर ठंडक महसूस करने लगा । लेकिन उसकी पिपासा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त न हुई । धूप में जब उसका कीचड़ सूख गया तब उसे अत्यन्त पीड़ा हुई । इसलिए मैं विषयसुख रूपी कीचड़ में लिपटना नहीं चाहता । पाँचवीं पत्नी बोली – स्वामिन् ! अतिलोभ से सिद्धि और बुद्धि की तरह अकल मारी जाती है । किसी गाँव में बुद्धि और सिद्धि नाम की दो वृद्धाएँ रहती थीं । बुद्धि प्रात:काल भोलक यक्ष की आराधना किया करती थी । प्रसन्न यक्ष के प्रकट होने पर उसने पेट भर रोटी वरदान स्वरूप मांगा । यक्ष के कथनानुसार वह राजमठ के पीछे से एक सुवर्ण मुद्रा ले जाती थी । इस प्रकार वह सुखी हो गयी। सिद्धि ने कपटपूर्वक बातें करके बुद्धि के सुखी होने का रहस्य जान लिया । उसने भी उस यक्ष की आराधना की और प्रसन्न यक्ष से बुद्धि से दो गुना वर माँगा । फलत: उसे दो सुवर्ण मुद्राएँ मिलने लगी । इस प्रकार सिद्धि ने बुद्धि के अनिष्ट के लिए अपनी एक आँख फुड़वा ली जिससे बुद्धि ने अपनी दोनों आँखे फुड़वाईं । इस पर जम्बूकुमार ने जवाब देते हुए कहा - तुम्हारे कथनानुसार अजातिवान् को उन्मार्ग होता है तो मैं वसन्तपुर के जितशत्रु राजा के उस जातिवान् घोड़े की भाँति कदापि उन्मार्ग पर नहीं जाऊंगा जिसे राजा ने जिनदास श्रावक के यहाँ धरोहर रूप में रखा था । चोरों ने उसे उन्मार्ग में ले जाना चाहा लेकिन वह राजमार्ग के सिवाय अन्य मार्ग पर नहीं जाना चाहता था । फलत: सेठ ने जगकर घोड़ा वापस ले लिया और माफी मांगने पर घोडे को छोड़ दिया । छठी ने कहा - स्वामिन् आपका अत्यन्त हठ ठीक नहीं है । बुद्धिमान पुरुष को ब्राह्मण पुत्र की तरह गधे की पूंछ पकड़े नहीं रहना चाहिए । उसने बताया किसी गाँव में एक ब्राह्मण का मूर्ख और जिही लड़का था । मां के कथनानुसार उसने गांठ बांध ली थी कि किसी वस्तु को पकड़कर छोड़ना नहीं चाहिए । एक बार उसने किसी भाग रहे गधे की पूँछ पकड़ ली । गधे के द्वारा लात से मारे जाने तथा लोगों के समझाने पर भी वह नहीं माना और अपने हठ के कारण दु:ख सहता रहा । जम्बूकुमार ने भी उसी सन्दर्भ में एक कहानी कही जो इस प्रकार है कुशलस्थपुर में एक क्षत्रिय के यहाँ एक घोड़ी थी, जिसकी सेवा में एक नौकर था । नौकर घोड़ी के खाने को स्वयं खा जाता था । खाना न मिलने से घोड़ी कुछ ही दिनों में मर गयी और एक वैश्या के यहाँ पैदा हुई जो बड़ी होकर वैश्या Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनी । उधर नौकर मरकर ब्राह्मण के घर जन्मा और पूर्वजन्म के ऋणानुबन्ध के कारण उसी वैश्या के वहाँ नौकरी करने लगा । घर का सारा काम खत्म कर लेने पर ही उसे खाना मिलता था । इस प्रकार पूरी जिन्दगी उसने उसका कर्ज चुकाने में बिताया। मगर मैं उसकी तरह भोगों की आशा का दास बनकर घर में अब जिन्दगीभर नहीं रहूँगा । इस पर सातवीं पत्नी ने कहा – नाथ ! यदि आप हमारा कहना नहीं मानते तो मासाहस पक्षी की तरह आपको कष्ट उठाने पड़ेंगे, जिसका वृत्तान्त इस प्रकार हैकिसी जंगल में मासाहस नाम का एक पक्षी सोए हुए शेर के मुँह में प्रवेश करके दाढ़ों में छिपे हुए मांसपिण्ड को चोंच से बाहर निकालता था और कहता था - "ऐसा साहस मत करो" वह हमेशा यही करता और कहता था । पक्षियों ने उसे समझाया मगर वह माना नहीं । एक दिन जब वह मुँह में घुसा था तभी शेर जग गया और उसे खा गया । यह सुनकर जम्बूकुमार ने कहा – मृत्यु से रक्षा धर्म के सिवाय और किसी से नहीं हो सकती । सुनो एक दृष्टान्त - सुग्रीवपुर में जितशत्रु राजा का सुबुद्धि नामक मन्त्री ने अपने जीवन में नित्यमित्र, पर्वमित्र और प्रणाममित्र, तीन मित्र बनाया । एक बार मन्त्री से भारी अपराध हो गया राजा ने उसे प्राणदण्ड देने की सोच ली । मन्त्री प्राणरक्षा के लिए भगकर नित्यमित्र के पास गया । लेकिन नित्यमित्र ने उसे छिपाने से इनकार कर दिया । पर्वमित्र के पास भी निराश होकर वह प्रणाममित्र के पास गया जहाँ उसे पूर्ण संरक्षण प्राप्त हुआ । बाद में अपराध झूठ साबित हुआ और उसे मृत्युदण्ड से मुक्ति मिल गयी । अर्थात् विपदा में एकमात्र प्रणाममित्र धर्म ही संरक्षण देता है । अत: मैं धर्म की उपेक्षा नहीं करूँगा । अन्त में आठवीं पत्नी जयश्री ने कहा – स्वामिन् ! आप कपोल कल्पित कथाओं से उस ब्राह्मणपुत्री की भाँति हमें क्यों ठगते हैं । सुनिए, भरत क्षेत्र में लक्ष्मीपुर नगर के नयसार राजा को संगीत, कथा, नाटक, पहेलियां इत्यादि का बहुत शौक था । वह प्रतिदिन नगर के लोगों से बारी-बारी से कहानी सुनता था । एक बार एक मूर्ख एवं कहानी सुनाने में असमर्थ ब्राह्मण की बारी आयी । उसकी चतुर कन्या ने राजा को कहानी सुनाने का आश्वासन दिया । उसने राजा से अपने अनुभव ६० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की कथा कही – मेरी युवावस्था में किसी ब्राह्मण कुमार से मेरी सगाई हुई, वह मुझे देखने आया । माता-पिता की अनुपस्थिति के कारण मैंने उसे वहीं पर गाड़ दिया, माता-पिता भी नहीं जान पाये । इस कहानी से राजा बहुत प्रसन्न हुआ और कन्या को पुरस्कृत किया । जम्बूकुमार ने कहा - तुम लोग बुद्धिमती होते हुए भी अहितकारी बात करती हो । मैं ललितांग की तरह मोह में फँसना नहीं चाहता सुनो - एक बार ललितांगकुमार वसंतपुर के शतप्रभ राजा की व्यभिचारिणी रानी रूपवती के साथ सहवास कर रहा था कि राजा के आने की खबर मिली । रानी ने उसे पाखाने के गन्दे कुँए में डाल दिया और राजा के साथ आमोदप्रमोद करती हुई उसे बाहर निकालना भूल गयी । बहुत दिन बाद वर्षाऋतु में जब वह बाहर निकला तो उसने कामवासना के चक्कर में न पड़ने की ठान ली । फिर एक बार उसी रास्ते पर जाते हुए उसने रानी के द्वारा बुलाये जाने पर साफ इन्कार कर दिया और सुखी हुआ । इस प्रकार की कथाओं से जम्बू ने अपनी पत्नियों को निरुत्तर कर दिया । जम्बू के साथ उनकी पत्नियाँ, माता-पिता तथा साथियों सहित प्रभव चोर ने भी धूमधाम से जैनेन्द्री दीक्षा सुधर्मा स्वामी के पास अंगीकार किये । १२. चिलातिपुत्र क्षितिप्रतिष्ठित नगर में यज्ञदेव नामक अनेक शास्त्रों में पारंगत एक ब्राह्मण रहता था । एक बार उसने प्रतिज्ञा कर ली कि विवाद में जो उसे जीत लेगा, वह उसका शिष्य बन जायेगा । उसने अनेक प्रतिवादियों को शास्त्रार्थ में जीत लिया लेकिन एक छोटे से साधु से हार गया । उसका शिष्य बन मुनि धर्म की दीक्षा धारण कर महावतों का पालन करने लगा । यद्यपि उसे मलपरीषह असह्य लगता था, लेकिन चारित्र नाश के भय से शरीर प्रक्षालन नहीं करता था । संयोग से भिक्षा के लिए वह अपनी पत्नी के यहाँ पहुँचा । पत्नी ने मोहवश उस पर सम्मोहन प्रयोग किया, जिससे उसका शरीर दुर्बल हो गया । अशक्तता के कारण उसने आमरण अनशन किया और देवलोक को प्राप्त हुआ । उसकी पत्नी भी पश्चात्ताप के कारण साध्वी दीक्षा ली और मरकर देवलोक पहुँची । देवलोक का आयुष्य पूर्णकर वह राजगृहनगर के धनावह सेठ की चिलाती नामक दासी से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ और उसकी पत्नी धनावह सेठ की सुसमा नामक पुत्रीरूप में पैदा हुई । एक दूसरे से बहुत प्यार ६१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते थे और बड़े होने पर एकान्त में मिला करते थे । सेठ से यह देखा न गया और उसने चिलातिपुत्र को घर से निकाल दिया । चिलातीपुत्र जाकर चोरों में शामिल हो गया और कुछ दिनों बाद उनका सरदार बन गया । एक दिन वह सब चोरों के साथ धनावह के यहाँ चोरी करने आया और सुसमा को भगाकर ले जाने लगा । धनावह सेठ ने अपने पुत्रों सहित उसका पीछा किया जब चिलातिपुत्र ने सुसमा को लेकर तेज भागना कठिन समझा तो उसने उसका सिर काट और उसे ही लेकर भग गया । धनावह सेठ यह देखकर वापस लौट आया । चिलातिपुत्र सिर लेकर पागलों की तरह इधर उधर घूम रहा था कि उसने एक ध्यानस्थ मुनि को देखा । उनसे उसने अपना धर्म पूछा । मुनि से धर्मोपदेश सुनकर प्रवज्या ग्रहण की । कर्मक्षय कर मरणोपरान्त देव बना । १३. श्री दंढगकुमार की कया । ढंढणकुमार अपने पूर्वजन्म में पाँच सौ हलधरों का अधिकारी था । उसने हलधरों तथा बैलों को आहार पानी के बिना सता सताकर इतना पाप किया कि मरकर चिरकाल तक अनेक भवों में भटकता रहा । तत्पश्चात् वह द्वारिका नगरी में कृष्ण वासुदेव के यहाँ ढंढणारानी की कुक्षि में पैदा हुआ । जवान होने पर धूमधाम से उसकी शादी हुई । एक बार भगवान अरिष्टनेमि के अपने शिष्य-समुदाय सहित द्वारिका नगरी पहुँचने पर ढंढणकुमार आदि के साथ कृष्ण वासुदेव उनके वन्दनार्थ पहुँचे । मुनि से धर्मदशना सुनकर ढंढणकुमार ने दीक्षा ग्रहण कर ली और विहार करने लगे । एक दिन भगवान् अरिष्टनेमि ने यह रहस्योद्घाटन किया कि पूर्वजन्म के अन्तरायकर्मों के कारण उसे शुद्ध आहार नहीं मिलता है । भगवान् के सलाह देने पर कि तुम दूसरे मुनि के द्वारा लाये गये आहार को ग्रहण मत करो, उन्होंने संकल्प किया कि जब तक अन्तराय कर्म का क्षय नहीं हो जाता, मैं स्वयं लाया हुआ आहार ही ग्रहण करूँगा । समभावपूर्वक भूख प्यास सहते हुए उन्हें बहुत समय बीत गया । एक बार श्रीकृष्ण वासुदेव वन्दनोपरान्त भगवान अरिष्टनेमि से उत्कृष्ट आराधना करनेवाले साधु का नाम पूछे । भगवान से ढंढणमुनि का नाम सुनकर उनके वन्दनार्थ वे हाथी पर आरूढ होकर चल दिये । रास्ते में ढंढणमुनि को देखकर नीचे उतरे और भक्तिभावपूर्व उनकी वन्दना की । उनको वन्दना करते देख एक वणिक ने महापुण्य के लाभार्थ भक्तिभावपूर्वक उनके पात्र में लड्डू दिये ।। स्वाभाविक रूप से प्राप्त आहार जानकर ढंढणमुनि के पूछने पर कि क्या Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज मेरा अन्तराय कर्म समाप्त हो गया, मुनि ने रहस्य खोलते हुए उसे कृष्ण वासुदेव की लब्धि से प्राप्त बताया न कि अन्तराय कर्म के समाप्त होने पर । यह जानकर वे मोदकों को चूर-चूर करते हु उन्हें निरवद्य स्थान में प्रतिष्ठापन करने चल दिए । फलस्वरूप उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुए । १४. स्कन्दकाचार्य 2 श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा एवं पटरानी धारिणी के स्कन्दकुमार नामक पुत्र एवं पुरंदरयशा पुत्री थी । पुरन्दरयशा कुम्भकारकटक नगर के दण्डकराजा के यहाँ ब्याही गयी थी । जिसका पालक नामक पुरोहित था । एक बार आवश्यक कार्य से राजा के द्वारा भेजे जाने पर पालक जितशत्रु के दरबार में आया और धर्मचर्चा के दौरान स्कन्दकुमार के द्वारा निरुत्तर कर दिया गया । पालक वहाँ से वापस आया और बदला लेने की ताक में रहने लगा । एक बार श्रावस्ती नगरी में मुनिसुव्रत स्वामी के वैराग्यमय उपदेश सुनकर स्कन्दकुमार ने मुनिदीक्षा अंगीकार कर ली । बाद में उन्हें सकल सिद्धान्त का ज्ञाता जानकर भगवान ने ५०० साधुओं का आचार्य बना दिया। एक बार भगवान की आज्ञा लेकर अपनी बहन और बहनोई को प्रतिबोध देने के लिए स्कन्दकाचार्य अपने ५०० शिष्यों के साथ कुम्भकारकटक नगर पहुँचे । पालक पुरोहित उन्हें आते हुए जानकर वैर की भावना से उनके रहने योग्य वनभूमि में गुप्तरूप से अनेक हथियार गड़वा दिये । मुनि का आगमन जानकर राजा और नागरिक उनके दर्शनार्थ आये, धर्मोपदेश हुआ, सब आनन्दित हुए । दृष्टपालक ने राजा से एकान्त में कहा स्वामिन् ! यह तो पाखण्डी है । यह आपको जीतने के लिए आया है। उसने गाड़ा हुआ हथियार भी दिखाया जिससे राजा को विश्वास हो गया । राजा ने पालक को ऐच्छिक सजा देने का आदेश दिया । वह कोल्हू में एक - एक साधू को पेखाने लगा । ४९९ शिष्य पेर दिये गये बाकी एक छोटे शिष्य को पेरने ही जा रहा था कि स्कन्दाचार्य ने उसे मना किया, परन्तु वह नहीं माना और पेर दिया । इससे आचार्य ने नियाण किया कि मैं पालक राजा और पूरे नगर का विनाशक बनूँ । वे मरकर अग्निकुमार निकायदेव बने । उधर गिद्ध के द्वारा महल के आंगन में गिराये गये खून से लथपथ रजोहरण को देखकर पुरन्दरयशा घटना को भाँप गयी । उसने पालक को बहुत धिक्कारा और स्वयं साध्वी दीक्षा लेकर साधना करने लगी । अग्निकुमार निकायदेव बना स्कन्दकाचार्य का जीव अवधिज्ञान से कुम्भकारकटक नगर को देखा । देखते ही क्रोधान्ध होकर राजा, पालक सहित सारे प्रदेश को भस्म कर ६३ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाला। इसी से उस प्रदेश को दण्डकारण्य कहते हैं । १५. हरिकेशबल मुनि की कया किसी समय मथुरा नगरी का शंख नामक राजा मुनिराज का उपदेश सुनकर मुनिदीक्षा ग्रहण कर लिया । विहार करते हुए वे हस्तिनापुर शहर में जाने लिए सोमदेव पुरोहित से रास्ता पूछे । द्वेषी सोमदेव के द्वारा बताये गये गुप्त मार्ग पर सहजभाव से चलकर वे निर्विघ्न पार हो गये । इससे पुरोहित बहुत प्रभावित हुआ और मुनि की प्रार्थना कर उनसे मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली और चारित्राराधन करने लगा । कभीकभी वह अपनी ब्राह्मण जाति का अभिमान प्रकट करता था । मरकर देव बना । वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर कर्मबन्ध के कारण बलकोट नामक चाण्डाल और उसकी पत्नी गौरी के यहाँ हरिकेशबल नाम से पुत्र में रूप पैदा हुआ६ । उसके शरारती स्वभाव के कारण बालकों ने उसे अपनी मण्डली से निकाल दिया । एक बार एक सर्प निकला, लोगों ने मार डाला । उसी समय दूसरा दो मुँहवाला विषहीन सर्प निकला। लोगों ने उसे नहीं मारा । इन घटनाओं से हरिकेशबल को प्रेरणा मिली कि मनुष्य के कर्म ही उसके सुख और दुःख के कारण होते हैं । चिन्तन करते हुए उसे अपने पूर्वजन्म का ज्ञान हुआ । फलत: उसने उत्तम गुरु के पास मुनि दीक्षा ग्रहण कर विभिन्न तप करता हुआ विहार करने लगा । एक बार वे वाराणसी के तिन्दुकवन के तिन्दुक यक्षायतन में कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े थे कि यक्ष की पूजा करने आयी वाराणसीराज की राजकुमारी सुभद्रा ने उन्हें देखकर उनका बहुत अपमान किया । यह देखकर मुनि की तप:शक्ति से प्रभावित उस यक्ष से न रहा गया । उसने उसे पागल बना दिया। बहुत झाड-फूंक के बाद जब ठीक नहीं हुआ तब यक्ष ने स्वयं प्रकट होकर सारी बात बताई । उसने कहा यह राजकुमारी यदि उस मुनि की दासी बनकर सेवा करे तो ठीक हो जायेगी । इस बात से सहमत होकर राजकुमारी ने मुनि से विवाह के लिए आग्रह किया । पहले तो मुनि ने अस्वीकार किया लेकिन यक्ष के प्रभाव से शादी कर ली और बाद में छोड़ दी । राजा को यह जानकर बहुत दुःख हुआ । राजा ने उसे यज्ञ यागादि करनेवाले पुरोहित रुद्रदेव को समर्पित कर दिया । एक बार दोनों पति-पत्नी बहुत ब्राह्मणों के साथ यज्ञ कर रहे थे कि हरिकेशबलमुनि ने उसी यज्ञ मण्डप में प्रवेश कर भिक्षा माँगी । ब्राह्मणों ने उन्हें भोजन नहीं दिया उल्टे उन्हें तिरस्कृत भी करने लगे। मुनि ने बार-बार आग्रह किया । ब्राह्मणों ने उन्हें मारना शुरु कर दिया । यह देखकर यक्ष ने उन ब्राह्मणों को मारकर घायल कर दिया । सुभद्रा भी घटनास्थल ६४ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर पहुँची । मुनि को पहचानकर सबको उनका परिचय दिया। उसके सबकी तरफ से क्षमा माँगने पर मुनि ने कहा कि उन्हें कोई क्रोध नहीं था । मुनि के कथनानुसार सबने यक्ष से क्षमा माँगी तथा मुनि की स्तुति कर शुद्ध आहार भिक्षा में दिया जिससे देवों ने पाँच दिव्य प्रकट किये । यज्ञमण्डप में सबने मुनि के उपदेश सुने और श्रावक धर्म स्वीकार किया । हरिकेशबल मुनि ने महाव्रतों का सम्यक् आराधन किया और केवली होकर मोक्ष को प्राप्त हुए । १६. वज्रस्वामी की कथा । तुम्बनवन गाँव का धनगिरि नामक एक कुशल व्यापारी ने अपनी गर्भवती पत्नी सुनन्दा को छोड़कर मुनिदीक्षा अंगीकार कर लिया । पुत्रजन्म की बधाई देने आये हुए सुन्द के सम्बन्धी कहने लगे यदि इसके पिता दीक्षा न लेकर गृहस्थ में रहते को वे भी धन्यवाद के पात्र होते यह बात सुनकर बालक वज्र मन ही मन सोचने लगा । जाति स्मरण ज्ञान से उसने पूर्वजन्म में अनुभूत मुनि धर्म का स्वरूप जान लिया । उसने दीक्षा लेने की सोच ली । माता के मोहजाल से छूटने के लिए उसने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया । छः महीने बाद माता ने झुंझला कर बालक को भिज्ञार्थ आये हुए धनगिरि की झोली में रख दिया । गुरुदेव की आज्ञानुसार इन्कार न कर सकने के कारण वे बालक को गुरु के पास लाये । दीक्षा योग्य न होने के कारण आचार्य ने साध्वियों के उपाश्रय में भिजवा दिया । वहाँ पालने में सोते-सोते उसने ११ अंग तथा अनेक सिद्धान्तों का अध्ययन कर लिया । बालक की माँ सुनन्दा पुत्र का मुँह देखने प्रतिदिन उपाश्रय जाया करती थी । एक दिन उसने धनगिरि से पुत्र को पुनः घर ले जाने की माँग की । धनगिरि मुनि ने देने से इन्कार कर दिया । मामला राजदरबार में गया । राजा ने फैसला सुनाया – इस बालक को दोनों बुलायें जिसके पास यह स्वयं चला जायेगा । बालक उसके पास रहेगा । ऐसा करने पर बालक अपने पिता के पास गया । क्रमशः ८ साल का होने पर वज्रकुमार को मुनि दीक्षा दी गयी । सुनन्दा ने भी संयम अंगीकार किया । वज्रमुनि के योग्य होने पर गुरु के द्वारा आचार्यपद तथा पूर्वजन्मीय मित्रदेव के द्वारा वैक्रिय लब्धि और आकाशगामिनी विद्या मिली । एक बार वे पाटलिपुत्र पधारे जहाँ धनावह सेठ की पुत्री रुक्मिणी उन्हें देखकर मोहित हो गयी और उनसे शादी करने का निश्चय कर लिया। धनावह सेठ ने आचार्य से इस बात का निवेदन कया । आचार्य ने शादी करने से इन्कार कर दी लेकिन बहुत आग्रह देखकर उसे अपने मार्ग का अनुसरण करने की ६५ - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलाह दी । रुक्मिणी ने वैसा ही किया और चारित्र की सम्यक् आराधना करके देवलोक पहुंची और वज्रस्वामी भगवान महावीर के निर्वाण के ५८४ वर्ष बाद ८८ साल की उम्र में अपना आयुष्य पूर्ण कर देवलोक पहुँचें । १७. नन्दीषेण की कथा ९ I मगधदेश के नन्दी गाँव में चक्रधर नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी सोमिला के साथ रहता था । दोनों नन्दीषेण नामक पुत्र को जन्म देकर चल बसे उसका पालन पोषण उसके मामा के वहाँ हुआ । उसका शरीर इतना बेडौल था कि उसे सब घृणा करते थे । उस समाज से ऊब कर उसने अपने मामा से परदेश जाने का प्रस्ताव रखा लेकिन मामा ने अपने ही यहाँ रहने को कहा और अपनी किसी पुत्री से शादी कर देने का आश्वासन दिया । लेकिन कोई भी पुत्री उससे शादी के लिए तैयार नहीं हुई । इस दुःख से विरक्त होकर नन्दीषेण कर्मदोष को दूर करने मामा के यहाँ से चल दिया । उसे रत्नपुरी के एक उपवन में स्त्री पुरुष को कामक्रीड़ा करते देखकर अपने बाधक दुष्कर्मों के प्रति ग्लानि हुई । उसने आत्महत्या करने का निर्णय ले लिया, वहाँ उसे एक मुनि ने रोका और अमृतोपम उपदेश देकर मुनि दीक्षा अंगीकार करायी । वह प्रतिदिन ५०० साधुओं की सेवा किया करता था । जिससे उसकी प्रशंसा देवलोक में पहुँची । दो देव उसके परीक्षार्थ आये । एक रोगी साधु का वेश बनाकर बाहर उद्यान में लेट गया और दूसरा मुनि का रूप धारण कर नन्दीषेण के पास गया और अपने गुरु के अतिसार रोग से पीड़ित होने की खबर दी । यह सुनकर नदीषेण खाने के लिए हाथ में लिए हुए कौर रख दिए और देवमुनि के साथ चल दिए, वहाँ पहुँचकर मुनि ने मल साफ करने के लिए पानी लाने को कहा । नगरी में बहुत घूमने पर उन्हें प्रासुक जल मिला । उन्हें रुग्णमुनि ने बहुत डाँटा लेकिन उन्होंने क्रोध किये बिना उनकी सफाई की और उपाश्रय में ले जाने का निवेदन किया । चलने में कष्ट होने के कारण नन्दीषेण उन्हें अपने कन्धे पर बिठाकर चल दिए । रास्ते में रुग्णमुनि ने नदीषेण की शरीर पर विष्टा कर दी और डाँटने लगे कि जल्दी-जल्दी चलने से मुझे कष्ट हो रहा है । नन्दीषेण क्षमायाचना करते हुए धीरे-धीरे चलने लगे। इस सेवाभाव से दोनों देव बहुत प्रसन्न हुए और अपने असली रूप में आकर उन्हें धन्यवाद दिया और अपने स्थान को लौट गये । देवप्रभाव से नन्दीषेणमुनि के शरीर पर गोशीर्षवन्दन का लेपन हो गया था । १२ हजार वर्ष तक चारित्र पालन करके अन्तिम समय में उन्होंने निदान किया कि आगामी जन्म में मैं नारी वल्लभ बनूँ । आयुष्य पूर्ण ६६ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर ८ देवलोक पहुँचे । वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर सौरीपुर के अन्धकविष्णु राजा की सुभद्रारानी से वसुदेव नामक पुत्र रूप में उत्पन्न हुए । समुद्र विजय आदि ९ वसुदेव में सबसे बड़े भाई थे । पूर्वजन्म के निदान के कारण उनका शरीर सुडौल और आकर्षक था । कुलांगनाएं उन पर आकर्षित हो जाती थीं । नागरिकों ने राजा से उसकी शिकायत की और उसको बाहर घूमने से मना कर दिया । एक बार गर्मी के मौसम में शिवादेवी के द्वारा दिए गये शीर्षचन्दन को कटोरे में भरकर समुद्र विजय के लिए ले जाती दासी के हाथ से छीनकर वसुदेव ने अपनी शरीर में लगा लिया । इस पर दासी ने ताना मारते हुए कहा "इन्हीं हरकतों से बन्दी बनाये गये हो ।" वसुदेव कुछ विश्वस्त लोगों से इस तरह की पिछली घटनाओं को सुनकर चुपके से अकेला निकला और मरघट से एक मुर्दे को लाकर नगर के दरवाजे के पास जला दिया और लिख दिया कि वसुदेव यहाँ जलकर मर गया । इससे समुद्र विजय को बहुत दुःख हुआ। वसुदेव १२०० वर्षो तक पर्यटन करता रहा । उसने ७२००० कन्याओं के साथ पाणिग्रहण किया । राजकुमारी रोहिणी के स्वयंवर में कुबडा का रूप लेकर गया। फिर भी राजकुमारी ने उसी के गले में माला डाली । यादव कुमारों ने नीच समझकर युद्ध किया । युद्ध में अपना पराक्रम दिखाकर उसने अपना स्वरूप प्रकट किया । इससे समुद्रविजय को आनन्द हुआ । वह स्वजनों सहित सौरीपुर आया और देवक राजा की पुत्री देवकी से शादी किया । देवकी की कुक्षि से श्रीकृष्ण, वासुदेव पुत्र हुए और उनके पुत्र शाम्ब और प्रद्युम्न हुए। इसीलिए वसुदेव हरिवंश के पितामह कहलाते हैं । १८. गजसुकुमाल मुनि की कया द्वारका नगरी में राजा श्रीकृष्ण वासुदेव अपनी माता देवकी के साथ रहते थे । एक बार भगवान अरिष्टनेमि के वहाँ आने पर लोग उनके उपदेश सुनने गये तथा हर्षित होकर घर लौटे । भदिलपुर के एक साथ मुनि धर्म में दीक्षित ६ मुनि भ्राता भगवान् से अनुमति लेकर छठतप के पारणे के लिए दो दो के समूह में नगरी में भिक्षार्थ गये। उनमें से प्रथम गुट के दो मुनि महारानी देवकी के यहाँ पहुँचे । देवकी ने प्रसन्न होकर उन्हें मोदक भिक्षा में दिये । उनके बाद दूसरा और फिर तीसरा गुट आया । देवकी ने सबको एक ही समझकर आश्चर्यपूर्वक पूछा - क्या द्वारका नगरी के लोगों में धर्मभावना की कमी आ गयी है । मुनिद्धय ने अपने एक समान छ: भाई सहोदर भाई होने की बात बताई । देवकी को विचार करते-करते बचपन में मुक्तक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि की कही हुई बात याद आयी कि मेरे आठ अद्वितीय सुन्दर पुत्र होंगे । उसने शंका समाधान के लिए भगवान् से पूछा । भगवान् ने बताया – ये छहों तुम्हारे ही पुत्र हैं । तुम्हारे प्रसव के समय कंस के भय से एक देव नागाधिपति की नवप्रसूता पत्नी सुलसा के पास रख देता था और उसके मृत बच्चों को तुम्हारे पास रख देता था । युवावस्था में उन छहों ने मेरे पास दीक्षा ले ली । आज पारणे के दिन मेरी आज्ञा से तीन गुटों में विभक्त होकर भिक्षार्थ गये थे और संयोग से तुम्हारे पास पहुंचे। पुत्र सम्बन्ध होने के कारण तुम्हें वात्सल्य उमड़ा था । यह बात सुनकर देवकी को मातृकर्म करने का शोक हुआ । वह चिन्तित रहती थी । कृष्ण के माता से उसके दुःख का कारण पूछने पर उसने सारी आपबीती बता दी । कृष्ण ने माता की चिन्ता दूर करने के लिए हरिगमैषि देव की आराधना की । देव ने ज्ञान में देखकर कहा कि तुम्हारी माँ को एक पुत्र होगा लेकिन युवावस्था में विरक्त हो जायेगा । रानी गर्भवती हुई, स्वप्न में सिंह देखा । काल पूर्ण होने पर सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । गजसुकुमार नामक इस बालक ने युवास्था में भगवान् अरिष्टनेमि के वैराग्यमय वचन सुनकर मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली । वह १२वीं प्रतिमा अंगीकार कर महाकाल श्मशान में कायोत्सर्ग में स्थित हो गया । संयोगवश सोमिल नामक ब्राह्मण ने, जिसकी कन्या से उसकी शादी होने वाली थी, प्रतिबोध की भावना से उसके मस्तक पर कपड़ा बांधकर आग लगा दिया। मुनि ने सहजभाव से ताप सह लिया और केवलज्ञानी होकर मोक्ष को प्राप्त हुए । दूसरे दिन श्रीकृष्ण के लघु भ्राता के विषय में पूछने पर भगवान् ने सब कुछ बता दिया । श्रीकृष्ण ने घातक का नाम पूछा - भगवान ने कहा जो तुम्हें देखकर भय के कारण गिर जाय और मर जाय वही उसका घातक है । श्रीकृष्ण वापस लौट रहे थे कि सोमिल सामने से आता हुआ मिला वह गिरा और मर गया । ऋषि हत्या के फलस्वरूप वह मरकर सातवें नरक में पहुँचा । १९. स्थूलिमद्र __ पाटलिपुत्र में नन्द राजा के ब्राह्मण मन्त्री शक्डाल एवं उसकी पत्नी के दो पुत्र - स्थूलिभद्र और श्रीयक" तथा यक्ष आदि सात पुत्रियाँ थीं । एक दिन मित्रों के साथ वन के सुन्दर दृश्यों को देखने गया युवक स्थूलिभद्र कोशा वैश्या पर मोहित होकर उसके श्रृंगारशाला में गया । वह आनन्द करता हुआ वहीं रहने लगा और पिता के बुलाने पर भी नहीं आया । १२ वर्ष तक रहकर उसने श्रृंगारशाला में बहुत धन खर्च किया यहाँ तक कि पिता की षड़यंत्र से मृत्यु होने पर भी नहीं आया । ६८ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ने श्रीयक को अपना मन्त्री बनाना चाहा लेकिन उसने छोटा होने के नाते इन्कार कर दिया । फिर राजा ने स्थूलिभद्र को बुलाने के लिए एक नौकर भेजा । स्थूलिभद्र को पिता की मृत्यु से बहुत दुःख हुआ । उसने राजा से विचार ने के लिए कुछ समय मांगा । पिता की मृत्यु तथा लोगों की स्वार्थपरता के कारण उसे वैराग्य हो गया । वे मुनिवेश धारण करके राजा को इसकी सूचना देकर संभूतिविजय के पास मुनिदीक्षा ग्रहण कर लिए । उधर कोशा वैश्या को इससे बहुत दुःख हुआ । कुछ दिन गुरुदेव से आज्ञा लेकर स्थूलिभद्र चातुर्मास करने के लिए कोशा वैश्या के यहाँ ही आये । कोशा ने उत्तेजनात्मक हाव-भाव, व्यंग एवं बात से उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु असफल रही । बल्कि वह भी उपदेश सुनकर श्रावक धर्म अंगीकार कर वराङ्गना बनी । स्थूलिभद्र मुनि के तीनों गुरुभ्राता अलग-अलग स्थानों पर चातुर्मास बिताकर आचार्य के पास पहुँचे । आचार्य ने स्थूलिभद्र के कार्य को सबसे ज्यादा महत्त्व दिया । इधर कोशा वैश्या के यहाँ राजा की आज्ञा से एक बाण चलाने में निपुण रथकार आया । उसने गवाक्ष में बैठे-बैठे आम के पेड़ में लगे पके आम के गुच्छे को बाण से तोड़ कर कोशा को भेट किया । यह देखकर कोशा ने आंगन में सरसों के ढेर पर सूइयां खड़ी कर उसकी नौक पर फूल रखवाया और उस पर नृत्य किया । रथकार के प्रशंसा करने पर कोशा ने स्थूलिभद्र की प्रशंसा की और उनका परिचय दिया । स्तुतिमय वचन सुनकर रथकार ने भी स्थूलिभद्र के पास मुनिदीक्षा ग्रहण की । स्थूलिभद्र महावीर निर्वाण से २१५ वर्ष पश्चात् ९९ वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हुए। २०. सिंह गुफावासी मुनि __पाटलिपुत्र" में आचार्य सम्भूतिविजय के शिष्य सिंहगुफावासी मुनिने स्थूलिभद्रमुनि से ईर्ष्यावश दूसरा चौमासा कोशा वैश्या की बहन उपकोशा के यहाँ बिताने की गुरु से आज्ञा मांगी । गुरु के बहुत समझाने पर भी जब वे नहीं माने तो गुरु ने आज्ञा दे दी । उपकोशा ने उन्हें स्थान दिया । उपकोशा को जब मुनि की ईर्ष्या का पता चला तो उसने विशेष हाव-भाव से उनका ध्यान विचलित किया। अन्त में सिंहगुफावासी मुनि विचलित होकर उससे कामवासना तृप्त करना चाहे । उपकोशा ने रत्नकम्बल की मांग की । वे रत्नकम्बल लाने के लिए नेपाल नरेश के पास गये । किसी तरह रत्नकम्बल लेकर वे उपकोशा के पास वापस आये उसे भेंट की । उपकोशा उससे पैर पोंछकर गन्दे जगह पर फेंक दिया । मुनि नाराज हुए । ६९ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकोशा ने उन्हें बहुत धिक्कारा । मुनि वहाँ निरुत्तर और लज्जित होकर क्षमा मांगे और स्थूलभद्रमुनि के पास आये । उनसे भी क्षमा याचना कर उनकी प्रार्थना की । फिर गुरुजी के पास गये और क्षमा याचना कर अपने कुत्सित विचार पर पश्चात्ताप किये । पुन: महाबत ग्रहण कर शुद्ध हुए और सुगति के अधिकारी बने । २१. पीठ महापीठ मुनि की कथा महाविदेह क्षेत्र में व्रज्रनाभ नामक चक्रवर्ती सम्राट ने राज्य-ऋद्धि छोड़कर मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली । उसके बाहु, सुबाहु, पीठ, महापीठ नामक चार भाइयों ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली । बाहुमुनि ५०० साधुओं का आहार लाता था और सुबाहु उनकी सेवा करता था । पीठ महापीठ विद्याध्ययन करते थे । गुरु के मुँह से बाह और सुबाहु की प्रशंसा सुनकर वे पीठमहापीठ उनसे घृणा करने लगे । इस प्रकार उन दोनों ने अशुभ कर्मों का बन्ध कर लिया । चारित्रपालन करने से पाँचों देवरूप में उत्पन्न हुए । वहाँ से वज्रनाभ ऋषभदेव, बाहु, सुबाहु क्रमश: भरत और बाहुबली तथा पीठ और महापीठ अशुभ कर्मों के कारण ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी के रूप में जन्म लिये । २२. तामलितापस की कथा तामलिप्ती नगर में तामिल नामक सेठ ने अपने पुत्र पर घर का बोझ छोड़कर मुनिदीक्षा ली और नदी के किनारे कुटिया बनाकर रहने लगा । उसने साठ हजार वर्ष तक दुष्कर अज्ञान तप किया और अन्त में अनशन किया । उस समय बलिचंचा की राजधानी के असुरों ने तामलितापस से निवेदन किया कि आप नियाण करके हमारे स्वामी बनें । तीन बार कहने पर भी उन्होंने अंगीकार नहीं किया और नियाण भी नहीं । कष्ट सहन के फलस्वरूप आयुष्य पूर्ण कर ईशान देवलोक में इन्द्ररूप उत्पन्न हुए और वहाँ ही सम्यक्त्व प्राप्त किया । २३. श्री शालिमद्र शालि नामक गाँव की धन्या नाम की एक दरिद्र विधवा अपनी आजीविका के लिए अपने पुत्र संगम को लेकर राजगृही नगरी में रहने आयी । वह सम्पन्न घरों का कामकाज करती तथा संगम गायों को चरा कर गुजारा चलाता था । किसी त्यौहार के दिन संगम के खीर मांगने पर माता की विवशता देखकर पड़ोसी सेठानियों ने उसे ७० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खीर की सामग्री दे दी । धन्या ने खीर बनाई और कहकर बाहर चली गयी कि ठंडी होने पर खा लेना । वह खीर को ठंडी कर रहा था कि एक मुनि उसके पास भिक्षार्थ आये । उसने थाली में निकाली खीर मुनि को दे दी । मुनि के जाने के बाद संगम की माँ ने बची हुई खीर भी संगम को दे दी । वह झटपट खा गया । माँ को उसके भूखा रहने पर बहुत अफसोस हुआ । ज्यादा खा लेने के कारण संगम के पेट में पीड़ा हुई वह उसी रात को चल बसा और गोभद्रसेठ की पत्नी भद्रा सेठानी के यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । भद्रा ने स्वप्न में शालिधान के खेत देखा था । जिससे पुत्र का नाम शालिभद्र रखा । उसने ३२ कन्याओं से शादी की । गोभद्रसेठ ने मुनिदीक्षा ली और मरकर देवलोक में देव बना । पुत्रस्नेह के कारण गोभद्र का जीव अपने पुत्र और बहओं को ९९ पेटी कपड़े तथा आभूषण भेजता था । शालिभद्र की समृद्धि देखने आये श्रेणिक राजा को देखकर शालिभद्र को सांसारिक बन्धन का आभास हुआ। उसने भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की ३ । १२ वर्ष तक घोर तपस्या करके १ मास का अनशन पूर्ण किया और मरकर अहमिन्द्र देव बना । २४. अवन्ति सुकुमाल अवन्ति देश के उज्जयिनी नगरी में भद्रा नाम की धनिक पत्नी से नलिनीगुल्म विमान से आयु पूर्ण कर एक पुत्र पैदा हुआ । बड़ा होकर वह अनेक सुख भोग रहा था कि निकटवर्ती उपाश्रय के सुस्थिर मुनि से नलिनीगुल्म का वर्णन सुनकर जाति स्मरण हुआ । उसने मुनि से वहाँ जाने का उपाय पूछा, मुनि के कथनानुसार उसने मुनिदीक्षा अंगीकार की और श्मशान भूमि में जाकर कायोत्सर्ग किया । समभावपूर्वक असह्य वेदना सहन करने कारण आयुष्यपूर्ण कर नलिनीगुल्म विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ । प्रात:काल सारा वृत्तान्त जानकर भद्रा ने भी एक गर्भवती बहू को छोडकर सभी बहुओं के साथ दीक्षा ग्रहण की । गर्भवती बहू से पुत्ररत्न पैदा हुआ । बड़ा होकर उसने श्मशानभूमि में एक मन्दिर बनवाया और उसमें जिन प्रतिमा स्थापित की । महाकाल" नाम रखा गया श्मशान का । २५. श्रीमैतार्यमुनि साकेतपुर में चन्द्रावतंसक धार्मिक राजा और उसकी दो रानियाँ सुदर्शना और प्रियदर्शना थीं । सुदर्शना के पुत्र सागरचन्द्र और मुनिचन्द्र क्रमश: युवराज और उजयिनी के राजा थे । प्रियदर्शना के दो छोटे-छोटे पुत्र गुणचन्द्र और बालचन्द्र थे। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन राजा ने पौषव्रत ग्रहण के समय अभिग्रह किया कि जब तक यह दीपक जलेगा तब तक में खड़ा रहँगा । इस बात को न जानने के कारण दासी उस दीप में तेल भरती जाती थी । राजा को खड़ा-खड़ा पीड़ा होने गली । देहान्त के बाद देवलोक को गये । पिता की आकस्मिक मृत्यु से सागरचन्द्र भी राज्य से पराङ्मुख हो गया लेकिन विमाता प्रियदर्शना के कहने पर फिर राज्यभार संभाल लिया । सागरचन्द्र की कीर्ति से विमाता को डाह पैदा हो गया । एक दिन सागरचन्द्र के लिए माता के द्वारा दिया हुआ लड्डू ले जाती दासी को उसने बुलाया और लड्डु में विष मिला दिया । उस लड्डू को सागरचन्द्र ने भ्रातृप्रेम के कारण स्वयं न खाकर दो सौतेले भाइयों को खिला दिया । जहर के कारण मूर्च्छित भाइयों को मणिमन्त्र आदि से बचा लिया गया । जब दासी के द्वारा इसका रहस्योद्घाटन हुआ तो राजा ने विमाता को बहुत उपालम्भ दिया और स्वयं गुणचन्द्र को राज्य देकर दीक्षित हो गये । शास्त्रों के पारगामी सागरचन्द्र किसी समय विहार करते हुए उजयिनी नगरी में पहुँचे । वहाँ एक मुनि के कहने पर कि आपके भाई का पुत्र तथा पुरोहितपुत्र साधुओं का अपमान करते हैं, वे उनके प्रतिबोध के लिए चल पड़े । वहाँ जाने पर उन दोनों ने उनको नाचने को कहा । मुनि ने उनको बजाने के लिए कहा । वे जब बजाने के लिए तैयार नहीं हुए तो वे नाचने के लिए भी तैयार नहीं हुए । इस पर मल्लयुद्ध हुआ, दोनों राजपुत्र तथा पुरोहित पुत्र घायल हुए । राजा यह सब जानकर उस मुनि को ढूंढने निकला और कायोत्सर्ग में स्थिर मुनि के पास जाकर क्षमा मांगी और प्रार्थना करने लगे । वे दोनों को मुनि के पास लाये । मुनि ने दोनों को इस शर्त पर स्वस्थ किया कि स्वस्थ होकर दोनों मुनिदीक्षा ग्रहण करेंगे । उन्हें मुनि बनाकर वे विहार करने ले । उनमें पुरोहितपुत्र ने ब्राह्मणत्व के अभिमान के कारण नीच गोत्र कर्म का बन्धन किया। दोनों मुनि आयुष्य पूर्ण कर देव बने । दोनों ने परस्पर वचन दिया कि जो मनुष्य लोक में जन्मेगा उसे देवलोक में जन्मने वाला प्रतिबोध देगा । आयुष्य पूर्ण कर पुरोहितपुत्र राजगृही नगरी में मेहर चाण्डाल पत्नी मैती की कुक्षि में पुत्ररूप में जन्मा । चाण्डाल पत्नी ने स्नेह के कारण किसी मृतवत्सा सेठानी को अपना बच्चा दे दिया । सेठानी ने उसका नाम मैतार्य रखा । १६ वर्ष की उम्र में मित्रदेव उसे प्रतिबोध देने आया लेकिन सफल नहीं हुआ । उसकी आठ वणिक् पुत्रियों से सगाई हुई । मित्रदेव ने उसे मोहजाल से निकालने के लिए चाण्डाल पत्नी की शरीर में प्रवेश कर सारा पर्दाफाश कर दिया । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाण्डालपत्नी उसे अपने घर ले आयी । वहाँ मित्रदेव प्रकट होकर उसे चारित्र ग्रहण करने को कहा । मैतार्य ने कहा यदि सेठ मुझे फिर से अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर लें और राजा श्रेणिक अपनी कन्या दे दें तो मैं चारित्र अंगीकार कर लूंगा। देव ने उसके घर में रत्नों की विष्टा करनेवाला बकरा बाँध दिया । जिससे चाण्डाल बहुत समृद्ध हो गया । चाण्डाल ने रत्नों का थाल भरकर श्रेणिक राजा को भेंट दिया । जब राजा को इसका रहस्य ज्ञात हुआ और उसने बकरा अपने घर लाकर बाँध दिया तो बकरा दुर्गन्ध विष्टा करने लगा । राजा को मैतार्य पर विश्वास हो गया। राजा ने कथनानुसार रात भर में राजगृही नगरी के चारों ओर स्वर्णिम किला, वैभारगिरि पर्वत पर पुल, गंगा, यमुना, सरस्वती और क्षीरसागर को प्रवाहित कर दिया । उसमें स्नान कर चाण्डाल मैतार्य ने राजपुत्री से शादी की और आठ वणिक् कन्याओं से भी शादी की । मित्रदेव ने उसे पुन: चेतावनी दी । उसने सुखोपभोग के लिए १२ वर्ष की मुहत माँगी । १२ वर्ष के बाद आने पर उसकी पत्नियों ने १२ वर्ष की मुद्दत माँगी । उसके बाद मैतार्य भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण कर लिये । विहार करते हुए एक बार वे राजगृही में एक सुनार के वहाँ पधारे । सुनार उस समय सोने के जौ बना रहा था । वह भिक्षा लेने गया । इतने में एक क्रौंच पक्षी आकर स्वर्णयवों को दाना समझ एक दाना निगल गया और पैड़ पर जा बैठा । मुनि ने उसे देख लिया था । भिक्षा देने के बाद सुनार ने जौ को ढूँढने लगा। न मिलने पर उसे मुनि पर शंका हुई । पूछने पर मुनि मौन रहे । उसने उनको ही चोर समझकर उनके मस्तक पर गीला चमड़ा बाँधकर धूप में खड़ा कर दिया । चमड़े के सूख कर सिकुड़ने पर मुनि को बहुत पीड़ा हुई और वे केवली होकर मोक्ष को प्राप्त हुए। उसी समय एक लकड़हारा लकड़ियों को उसके दरवाजे पर पटका जिससे डर कर पक्षी ने विष्टा किया और वह दाना निकल आया । सुनार यह देखकर बहुत दु:खी हुआ और प्रायश्चित्त करने के लिए भगवान महावीर के पास दीक्षा अंगीकार की और अन्त में सुगति प्राप्त की । २६. वाचनाचार्य वज्रस्वामी का दृष्टान्त वज्रस्वामी ने बाल्यकाल में ही साध्वियों के मुख से ११ अंगों का अध्ययन कर लिया था । ८ वर्ष की उम्र में दीक्षित होकर गुरु के साथ विहार करते हुए वे एक गाँव के उपाश्रय में ठहरे । एक दिन जब सब साधु भिक्षाचारी को गये हुए थे, वज्रस्वामी अपने चारों ओर मुनियों की स्थापना कर उच्च स्वर से आचारांगादि की Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना देने का उपयुक्त अभिनय कर रहे थे । इतने में स्थंडिलभूमि को गये आचार्यश्री आ गये । उनका आगमन जानकर सब पूर्ववत् करके दरवाजा खोला । आचार्य स्वयं कुछ साधुओं को लेकर तथा अन्य साधुओं को वाचना देने का काम व्रजस्वामी को सोंप कर विहार करने चले गये । सभी मुनि उनकी वाचना से सन्तुष्ट थे। आचार्य के वापस लौटने पर भी उन मुनियों ने वज्रस्वामी से ही वाचना सुनने का आग्रह किया। २७. दत्तमुनि कुल्लपुर नामक नगर में श्रमण संघ में कोई स्थविर आचार्य भविष्य में पड़नेवाले महान् दुष्काल को जानकर समस्त साधुओं को दूसरे देश में भेज दिया । स्वयं वृद्धावस्था से अशक्त उसी नगरी में रहे । गुरु सेवा के लिए दत्त नामक एक शिष्य वहाँ आया। पहले उसने उस मुनि को वहाँ ही देखा था। फिर देखा तो शंका हुई कि ये मुनि उन्मार्गगामी हैं । इससे वह दूसरे उपाश्रय में रहता और भिक्षा के लिए गुरु के साथ जाता । गुरुजी उसके मन के विचार जान गये । एक बार वे उसे एक सेठ के घर ले गये जहाँ व्यंतर प्रयोग के कारण एक बच्चा रो रहा था । गुरुजी ने चुटकी बजायी और व्यंतर भाग गया । बालक चूप हो गया । सेठ ने भिक्षा में लड्डू दिये । दत्त को वह लड्डू देकर गुरुजी ने उपाश्रय में भेज दिया । स्वयं नीरस आहार लाये और आलोचना करते समय दत्त से कहा आज तुमने धात्री पिण्ड का सेवन किया है इसलिए आलोचना ठीक से करना । दत्त को शंका हुई कि गुरुजी बड़े दोष न देखकर छोटे दोष देखते हैं । इस पर नाराज होकर शासनदेवी ने इतना अन्धकार फैलाया कि उसे कुछ भी नहीं दीखता था उसने गुरुजी से प्रार्थना की । गुरुजी ने अंगुली में थूक लगाकर ऊँची की जिससे वह दीपक के समान जलने लगी । दत्त को इस पर भी शंका हुई । इस पर शासनदेवी ने कठोर शब्दों में उसे डाँटा । तब दत्त पश्चात्ताप करता हुआ गुरु के चरणों पर गिर पड़ा और पापकर्म की आलोचना कर सद्गति पाया । २८. श्री सुनक्षत्र मुनि एक समय श्रमण भगवान महावीर तथा गोशालक श्रावस्ती नगरी में पधारे। लोगों में गोशालक की सर्वज्ञ के रूप में चर्चा सुनकर गौतम ने भगवान से उसका परिचय पूछा । भगवान ने बताया – सरवण गाँव में मंखलि और भद्रा नामक पत्नीपत्नी से इसका जन्म गोशाला में हुआ था । युवावस्था में उसने मुझे चार महीने के ७४ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपवास का पारणा खीर से करते हुए देखा । मेरा शिष्य होने के लिए यह मेरे साथ ६ वर्ष तक रहा । एक समय किसी तापस का मजाक उड़ाने पर तापस ने इस पर तेजोलेश्या छोड़ी जिसे मैंने शीतलेश्या से शान्त कर दिया । इसके तेजोलेश्या प्राप्त करने का उपाय पूछने पर मैंने उसे बताया । फिर वह मुझसे अलग होकर तेजोलेश्या को सिद्ध किया और अष्टांग निमित्त का ज्ञान प्राप्त किया और इस समय अपने को सर्वज्ञ कहता हुआ फिर रहा है । भगवान की बात सुनकर चारों तरफ लोग उसका अपमान करने लगे । इससे क्रोधित होकर गोशालक ने आनन्द नामक साधू से एक दृष्टान्त कहा मालगाड़ियां लेकर व्यापार करने जा रहे कई व्यापारियों को एक जंगल में जोर की प्यास लगी । पानी की खोज करते-करते उन्हें चार बांबियां मिलीं । उनमें से एक बांबी के शिखर को तोड़ा तो निर्मल पानी मिला । वे सब तृप्त हुए और जलपात्र भी भर लिए । एक वृद्ध वणिक के मना करने पर उन लोगों ने शेष को भी फोड़ा, जिसमें क्रमश: सोना, रत्न और विषधर निकला । विषधर ने वृद्ध को छोड़कर सबको मार डाला । उसी प्रकार हे आनन्द ! मैं तुम्हें छोड़कर सबको अपने तेज से भस्म कर दूंगा । आनन्द ने यह बात भगवान को बताई । भगवान ने सब मुनियों को सावधान कर दिया । गोशालक आते ही अपना परिचय देने लगा कि वह महावीर का शिष्य गोशालक मर चुका है । मैं उसके शरीर में प्रविष्ट दूसरा जीव हूँ। गुरुभक्तिवश सुनक्षत्र में उससे कहा – नहीं, तुम वही गोशालक हो । इस पर नाराज होकर गोशालक ने सुनक्षत्र को तेजोलेश्या छोड़कर भस्म कर दिया । मरकर वह आठवें देवलोक में उत्पन्न हुआ" । सर्वानुभूति नामक शिष्य को भी ऐसा कहने पर गोशालक ने जला दिया जो बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् भगवान् ने कहा - तू वही गोशालक है अपने आपको छिपाने की कोशिश कर रहा है । इस पर नाराज होकर गोशालक ने उन पर भी तेजोलेश्या छोड़ी, लेकिन वह प्रदक्षिणा करके वापस गोशालक को ही जलाने लगी जिससे वह बड़बड़ाने लगा और महावीर से कहा - तुम आज से सातवें दिन मर जाओगे । भगवान् ने कहा मैं अभी सोलह वर्ष तक रहूँगा, लेकिन तुम आज से सातवें दिन मरोगे । सातवें दिन गोशालक मर गया । उसके कथनानुसार उसके शव को पैर बाँध कर नगर में घुमाया गया । २९. केशीगणधर और प्रदेशी राजा की कया जम्बुद्धीप, भरतक्षेत्र, केकयार्ध देश के श्वेताम्बी नगरी का दुष्ट अधर्मी राजा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे प्रदेशी था । उसका चित्रसारथी नामक शुभचिन्तक प्रधान मन्त्री था । किसी कार्यवश श्रावस्ती गया हुआ चित्रसारथी केशीकुमार का उपदेश सुन श्रावक धर्म अंगीकार कर लिया । चित्रसारथी के बुलाने पर एक समय केशीगणधर मुनियों सहित श्रावस्ती पधारे। मृगवन नामक उपवन में ठहरे । आचार्य को आया जानकर चित्रसारथी राजा प्रदेशी को शिकार खेलने के बहाने उस उपवन की ओर ले गया । थक जाने के कारण दोनों मुनि के प्रवचन सुनने लगे । राजा ने आत्मा के अस्तित्व नहीं होने के बहुत से प्रमाण दिए । लेकिन केशीगणधर ने उसका उपयुक्त प्रमाणों से खण्डन किया और आत्मा का अस्तित्व प्रमाणित किया । राजा ने उनके प्रमाणों से प्रभावित एवं सन्तुष्ट होकर श्रावक धर्म स्वीकार कर लिया । बहुत समय बाद व्यभिचारिणी पटरानी सूरिकान्ता ने राजा प्रदेशी को भोजन में विष दे दिया । भोजनोपरान्त वे पौषधशाला में आए और धर्मगुरु केशीगणधर की वन्दना कर व्रतों में लगे हुए अतिचारों की सम्यक् निन्दा की। अनशन करके समाधिपूर्वक शरीर छोड़ा । देवलोक में सूर्याभ नामक देव " बने । वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष पायेंगे । ३०. श्री कालिकाचार्य की कथा तुरमणि नगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था । उसी नगर में कालिक नामक विप्र अपनी बहन भद्रा एवं भानजा दत्त के साथ रहता था । कुछ दिन बाद कालिक ने दीक्षा ले ली । दत्त राजा की सेवा करते-करते मंत्री बन गया । बाद में उसने राजा को पदभ्रष्ट कर स्वयं राजा बन गया और यज्ञ यागादि करते हुए पशुओं की हत्या करवाने लगा । कालिकाचार्य के आगमन पर भद्रा और दत्त राजा वन्दना करने गये । आचार्य ने यज्ञ का फल नरकगति बताया " । दत्त ने पूछा यह कैसे जाना जा सकता है । आचार्य ने कहा आज से सातवें दिन घोड़े के पैर के नीचे दबने से विष्टा उछलकर तुम्हारे मुँह में पड़ेगी और बाद में तुम लोहे की पेटी में बन्द किये जाओगे । राजा के पूछने पर उन्होंने अपनी स्वर्ग की गति बतायी । राजा ने प्रमाणित न होने पर आचार्य को मार डालने की धमकी दी । उसने शहर के सभी रास्ते साफ करवा दिए और फूल लगवा दिये । स्वयं राजमहल में राजा बैठा । भ्रांति से सातवें दिन को आठवां दिन मानकर दत्त राजा घोड़े पर चढ़कर गुरु को मारने चला । रास्ते में किसी वृद्ध माली ने जोर से टट्टी लगने के कारण शौच करके फूल से ढंक दिया था । घोड़े की खूर उस पर पड़ी और विष्टा उछल कर राजा के मुँह ७६ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पड़ी, राजा विश्वस्त होकर वापस आया । जितशत्रु के सेवकों ने राजा को गिरफ्तार कर लिया और लोहे की कोठरी में डाल दिया जहाँ से मरकर सातवीं नरकभूमि में गया । श्री कालिकाचार्य चारित्राराधन कर देवलोक में गये । ३१. भगवान महावीर के पूर्व जन्म की कथा प्रथम भव में पश्चिम महाविदेह में भगवान महावीर का जीव नयसार रूप में था । किसी ग्रामाधीश के अधीन नयसार वन का अधिकारी एक दिन जंगल में लकड़ियां कटवाने गया हुआ था । दोपहर को खाना के समय आये हुए साधु को आहार पानी करा कर रास्ता बताने चल पड़ा । साधु ने उसे उपदेश देकर बोध कराया। महामन्त्र का जाप करते हुए मरकर दूसरे भव में वह देव बना । वहाँ से तीसरे भव में भरत चकवर्ती के पुत्र मरीचि के रूप में जन्मा । युवावस्था में विरक्त होकर उसने स्थविर मुनि से दीक्षा ग्रहण की । उसने अपनी कल्पना से त्रिदण्डी का अनोखा वेष अपनाया । एक बार अयोध्या में भरत के द्वारा पूछने पर कि भावी तीर्थंकर कौन है । भगवान ऋषभदेव ने उनके ही पुत्र मरीचि को बताया । इससे खुश हुए भरत ने मरीचि की वन्दना कर उनको इस बात से अवगत करा दिया । यह सुनकर मरीचि फूले न समाये और नीच गोत्र कर्म बाँध लिया । भगवान ऋषभदेव के निर्वाण के बाद उनके साधुओं के साथ विचरण करते हुए मरीचि एक बार बीमार पड़ा । शिथिलाचारी होने के कारण कोई उसकी शुश्रूषा नहीं करता था जिससे क्षुब्ध होकर उसने कपिला को योग्य शिष्य बनाया और सूत्र विरुद्ध प्ररूपणा करके कोटाकोटि सागरोपम संसार की वृद्धि की । चौथे भव में वह १० सागरोपम की स्थितिवाला देव बना । वहाँ से पाँचवें भव में कोल्लाक सन्निवेश में विषयासक्त ब्राह्मण बना और अन्तिम समय में दीक्षा लेकर आयुष्य पूर्ण किया । छठे भव में स्थूणानगरी में पुष्य नामक ब्राह्मण बना त्रिदण्डी वेष में उसका देहान्त हुआ । सातवें भव में मध्यम स्थितिवाला देव बना । वहाँ से आठवे भव में चैत्य सन्निवेश नामक गाँव में अग्निद्योत नामक ब्राह्मण बना । अन्तिम समय में त्रिदण्डी वेश धारण किया । ग्यारहवें भव में तीसरे कल्प में देव बना । बारहवें में श्वेताम्बरी में भारद्वाज नामक ब्राह्मण बना । तेरहवें में महेन्द्रकल्प में देव बना । १४वें राजगृह नगर में स्थावर नामक ब्राह्मण बना । १५वें में ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में देव बना । १६वें में विश्वभूति नामक युवक बना । विरक्त होकर सम्भूति मुनि से दीक्षित होकर गोचरी के समय गाय से आहत होकर गिर गया । अपने चचेरे भाई के तानेकशी पर उसने गाय को मरणासन्न बना ७७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया और भवान्तर में सबसे अधिक बलवान् बनने का निदान किया । १७वें भव में शुक्रदेव लोक में देव बना । १८वें पोतनपुर में प्रजापति नामक राजा की पत्नी रूप पुत्री का पुत्र वासुदेव हुआ जो त्रिखण्ड दिग्विजयी बना । १९वें में सातवें नरक का नारकी बना । २०वें में सिंह बना। २१वें में चौथे नरक का नारकी । २२वें में मनुष्य बनकर शुभकर्मों का उपार्जन किया। २३वें में महाविदेह की राजधानी भूका नगरी में धनंजय राजा और धारिणी रानी का पुत्र हुआ । प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती बना । २४वें में भरतक्षेत्र की छत्रिका नगरी में जितशत्रु राजा और भद्रा रानी का नन्दन नामक पुत्र हुआ" । उसने पोट्टिलाचार्य से दीक्षा ग्रहण कर तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया । २६वें भव में दशवें देवलोक में देव बना । वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर २६वें भव में चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में श्रीवर्धमान महावीर हुए । ३२. बलदेव मुनि, रयकार और मृग __द्वैपायन ऋषि यादव कुमारों की हरकतों से क्षुब्ध होकर आगामी जन्म में द्वारका नगरी ३ को भस्म कर देने के निदान से अग्निकुमार देव बने और द्वारका नगरी को जलाकर भस्म कर दिया । उस समय श्रीकृण और वासुदेव बचकर जंगल में चले गये । वहाँ श्रीकृण के लिए पानी की खोज में गये वासुदेव को शत्रुओं से युद्ध करते शाम हो गयी । इधर भगवान अरिष्टनेमि के मुँह से सुनकर कि उसी के हाथ से श्रीकृष्ण की मृत्यु होगी, जराकुमार" शिकार खेलने उसी वन में आ पहुँचा । उसने लेटे हुए कृष्ण के पैर के पदम् चिह्न को मृग की आंख समझकर मारा ६ । पास आने पर अपने भाई को देखकर उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ । श्रीकृष्ण के कहने पर वह भाग गया । मरकर श्रीकृष्ण अधोलोक के तृतीय धराधाम में गये । थोड़ी देर बाद पानी लेकर आये बलदेव जी पिपासा के कारण मूर्छित समझकर उन्हें कन्धे पर बिठाकर जगह-जगह घूमने लगे । उनको बिलकुल विश्वास नहीं था कि उनका भाई मर गया है । लेकिन छ: महिने के बाद वे श्रीकृष्ण को मृत समजकर छोड़ दिये । सिद्धार्थदेव ने शव को समुद्र में बहा दिया । तत्पश्चात् वे भगवान अरिष्टनेमि के शिष्य चारण मुनि से दीक्षा ग्रहण किये और उग्र तपस्या करने लगे । एक बार पारणे के लिए जा रहे उनके रूप को देखकर मोहित कोई स्त्री पानी भरने के लिए घड़े के बजाय अपने बच्चे के गले में रस्सी डालकर लटका रही थी कि उन्होंने देख लिया और रोका । उन्होंने अपने रूप को छिपाने के लिए जंगल में ही रहने का अभिग्रह किया । वे जंगल में आए सार्थवाह इत्यादि से भिक्षा लेकर निर्वाह कर लिया करते थे । जंगल ७८ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उन्होंने अनेक बाघ, सिंहों को प्रतिबोधित किया । उनके उपदेश से प्रतिबुद्ध हुआ एक मृग रात दिन उनकी सेवा किया करता था । एक दिन जंगल में एक बढ़ई किसी बड़े वृक्ष की शाखा को आधी कटी हुई छोड़कर वृक्ष के नीचे रसोई बना रहा था । मृग मुनि को लेकर वहाँ पहुँचा । बढ़ई ने उनको आहार दिया । यकायक वृक्ष की शाखा टूटकर उन तीनों पर पड़ी और वे वहीं ढेर हो गये । मरकर तीनों पंचमदेवलोक में उत्पन्न हुए। ३३. पूरगतापस की कथा विन्ध्याचल पर्वत की तलहटी में पेढाल नामक गाँव था । वहाँ का पूरण नामक सेठ अपने पुत्र को गृहभार सौंपकर दीक्षा ले लिया । पारणे के दिन वह चार खानोंवाला भिक्षापात्र ले जाता । पहले खाने का आहार पक्षियों को, दूसरे का जलचरों को, तीसरे का थलचरों को और चौथा स्वयं लेता था । इस प्रकार बारह वर्ष की तपस्या के बाद एक मास का अनशन किया । कालप्राप्त कर चमरचंचा नामक राजधानी में चरमेन्द्र हुआ । ३४. वरदत्त मुनि चम्बा नगरी में मित्रप्रभ राजा का धर्मघोष नामक मन्त्री था । उसी नगर में धनमित्र नामक सेठ और धनश्री नामक उसकी पत्नी के सुजातकुमार नामक एक सुन्दर पुत्र था । एक दिन सुजातकुमार धर्मघोष के अन्त:पुर से होकर गुजर रहा था कि मन्त्री की सभी पत्नियां उस पर मोहित हो गयीं । यह जानकर मन्त्री ने सुजातकुमार के नाम से एक कूटपत्र राजा को दिया, जिसमें सुजातकुमार को मरवा डालने की सलाह दी गई थी । राजा ने उसे स्वयं न मारकर उसको एक पत्र के साथ चन्द्रध्वज राजा के पास भेजा जिसमें लिखा था - "पत्रवाहक को आते ही मार डालना" चन्द्रध्वज राजा गुप्तचरों से रहस्य जानकर सुजातकुमार को अपने ही पास रखा और अपनी बहन चन्द्रयशा से शादी कर दी । चन्द्रयशा के संयोग से सुजातकुमार को भयंकर रोग हो गया । जिससे चन्द्रयशा पश्चात्तापपूर्वक प्रतिबद्ध हुई और मरकर देव बनी । अवधिज्ञान से पूर्वजन्म जानकर सुजातकुमार के पास आयी और योग्य सेवा करने का आग्रह किया । सुजातकुमार के इच्छा व्यक्त करने पर उसके जीव देव ने उसे निष्कलङ्कपूर्वक उसके माता-पिता के पास पहुँचा दिया । माता-पिता की आज्ञा से उसने पिता के साथ दीक्षा ग्रहण की और केवली होकर मोक्ष पाया । सुजातकुमार Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रभावित संजा धर्मघोष को देश निकाला दे दिया । उसने राजगृह नगर में स्थविर मुनि से दीक्षा ले ली । विहार करते-करते वरदत्तनगर पहुँचा वहाँ वरदत्त नामक मन्त्री ने निर्दोष आहार के रूप में खीर का बर्तन दिया जिसकी एक बूंद नीचे गिर गई । मुनि आहार लिये बिना ही चल दिये । वरदत्त मन्त्री सोच ही रहा था कि खीर की बूंद पर एक मक्खी आयी, उसे देखकर एक छिपकली आयी, उसे देखकर एक कौआ आया, कौए को देखकर एक बिल्ली आयी और उसे देखकर एक कुत्ता आया और उसे देखकर मुहल्ले के सभी कुत्ते आए । वे आपस में भौंकने लगे । इस पर घाट के नौकर ने कुत्तों को मारा। इस पर नौकर और महल्ले के लोगों में जमकर मार होने लगी । यह देखकर वरदत्त मन्त्री सोचने लगा और मुनि को धन्यवाद दिया । उसने जाति स्मरण ज्ञान से मुनिवेश धारण किया और सुसुमार नगर के नागदेव मन्दिर में कायोत्सर्गस्थ होकर खड़े रहे । उस समय सुसुमार पुर के धुंधुमार राजा की सुन्दरपुर पुत्री अंगारवती के साथ विवाह हारी हुई योगिनी ने अंगारवती का चित्र बनाकर चन्द्रप्रद्योत राजा को दिया । उसको पाने के लिए लालायित राजा धुंधुमार से अंगारवती की मांग की । इनकार करने पर उसने धुंधुमार पर चढायी कर दी । धुंधुमार ने नैमित्तिक से अपने हार या जय के बारे में पूछा । उसने कुछ बच्चों को डराया । वे बच्चे भयभीत होकर वरदत्त मुनि के पास गये । मुनि ने कहा – डरो मत तुम्हें कोई भय नहीं है । मुनि की बात सुनकर नैमित्तिक ने राजा से उनके विजय की भविष्यवाणी की । धुंधुमार और चण्डप्रद्योत में युद्ध हुआ । चण्डप्रद्योत हार गया । धुंधुमार ने उसे मेहमान समझकर अपनी पुत्री की शादी उससे कर दी। एक बार चण्डप्रद्योत के पूछने पर अंगारवती ने पिता की विजय का कारण बता दिया । वह मुनि के पास जाकर कहा - हे नैमित्तिक ! मैं आपकी वन्दना करता हूँ । मुनि को वह घटना याद आयी और वे इस दोष की आलोचना कर सद्गति पाये। ३५. चन्द्रावतंसक राजा की कया साकेतपुर का राजा चन्द्रावतंसक धार्मिक था । उसकी सुदर्शना नाम की रानी थी । एक दिन उसने अभिग्रह किया कि जब तक यह दीपक जलेगा तब तक मैं कायोत्सर्ग में स्थिर होकर खड़ा रहूँगा । दीपक के मन्द पड़ने पर राजा के अभिग्रह से अनभिज्ञ दासी उसमें तेल डाल दिया करती थी । इस प्रकार चारों पहर बीत गये Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ध्यानस्थ खड़े रहे । लेकिन सुकोमल राजा को वेदना होने लगी और देहान्त' होने के बाद वे सीधे देवलोक पहुँचे । ३६. सागरचन्द्रकुमार द्वारका नगरी के राजा श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलदेव के निषध नामक पुत्र के पुत्र का नाम सागरचन्द्र था । उसी नगर का धनसेन नामक सेठ अपनी पुत्री कमलासेना की सगाई उग्रसेन के पुत्र नभसेन के साथ की थी । किसी समय घूमतेघूमते आये नारदमुनि का नभसेन ने कोई आदर नहीं किया । जिससे वे रुष्ट होकर सागरचन्द्र के यहाँ गये और कमलासेना के रूप का वर्णन कर उसके प्रति प्रेम जगा दिया । वहाँ से कमलासेना के यहाँ जाकर उसके मन में सागरचन्द्र के रूप का वर्णन कर उसके प्रति प्रेम जगा दिया । अब दोनों एक दूसरे से मिलने के लिए आतुर हो गये । सागरचन्द्र के चाचा शाम्बकुमार ने सुरंग के रास्ते से कमलासेना को द्वारका के उद्यान में लाकर नारदमुनि की साक्षी में शुभ मुहूर्त में सागरचन्द्र का पाणिग्रहण करा दिया । कमलासेना के माता-पिता के विनती करने पर श्रीकृष्ण सेना सहित उसे ढूँढते-ढूँढते उनके पास पहुँचे । शाम्बकुमार ने सारी घटना बता दी । नभसेन भी आया, सागरचन्द्र के क्षमा माँगने पर क्षमा किये बिना वह वैर की गांठ बाँध कर चला गया । सागरचन्द्र और कमलासेना का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा ।। __एक दिन भगवान अरिष्टनेमि का उपदेश सुनकर सागरचन्द्र ने श्रावकब्रत अंगीकार किया । एक बार श्रावक प्रतिमा की आराधना के लिए श्मशानभूमि में खड़ा था कि नभसेन उसके मस्तक पर गीली मिट्टी बाँधकर अंगारा रख दिया । सागरचन्द्र को असह्य वेदना हुई और मरकर देवलोक में गया'०२ । ३७. कामदेव श्रावक की कथा उन दिनों चम्पानगरी का राजा जितशत्रु था । उसी नगरी में कामदेव नामक एक धनी व्यापारी और उसकी पत्नी भद्रा रहती थी०३ । एक बार भगवान महावीर का उपदेश सुनकर कामदेव ने श्रावक व्रत अंगीकार कर लिया । वह भलीभाँति श्रावक धर्म का पालन करता था । एक बार देवलोक में इन्द्र के द्वारा कामदेव के दृढ़ धर्म की प्रशंसा सुनकर एक मिथ्या दृष्टिदेव परीक्षार्थ कामदेव के पास आया । जब वह पौषव्रत लेकर कायोत्सर्ग में बैठा था । उसने भयंकर राक्षस का रूप बनाकर कामदेव को धर्म छोड़ने को कहा उसने उसे बहुत डराया लेकिन असफल रहा । इस प्रकार Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वह एक बार महाकाय हाथी का रूप बनाकर उसे घायल किया फिर भी असफल रहा फिर विषधर सर्प बनकर उसे हँसा " | लेकिन कामदेव विचलित नहीं हुआ । अन्त में हारकर वह अपने असली रूप में आकर उससे क्षमा माँगा और धन्यवाद देकर अपने लोक को गया । प्रात: काल होने पर कायोत्सर्ग और पौषध पारित कर वह महावीर के दर्शनार्थ गया । भगवान ने पूछा क्या यह सत्य है कि रात को किसी देव ने तुम्हें तीन उपसर्ग दिये थे । कामदेव ने सब सच सच बता दिया । कामदेव २० वर्ष तक श्रावक व्रत का पालन कर मरणोपरान्त देव बना । वहाँ से आयु पूर्ण कर उसका जीव महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध बुद्ध मुक्त होगा । ३८. द्रमक का दृष्टान्त राजगृह नगर में एक बार कोई उत्सव था जिसे मनाने के लिए सभी लोग वैभारगिरि पर जमा हुए थे । उसी समय उस नगर में आया हुआ द्रमक नामक भिक्षुक आहार के लिए घूम रहा था, परन्तु उसे कहीं भी हार नहीं मिला । इससे नाराज होकर उसने वैभारगिरि से एक शिला उन लोगों पर गिरायी । शिला को गिरते देख सब लोग इधर-उधर भागने लगे और संयोगवश वह मुनि ही शिला से दबकर मर गया । वह सातवीं नरक भूमि को प्राप्त हुआ । ३९. दृढ़प्रहारी मुनि की कथा — माकन्दी नगरी में समुद्रदत्त और समुद्रदत्ता ब्राह्मण दम्पती को एक पुत्र हुआ। वह ज्यों-ज्यों बड़ा होता था वह अधिकाधिक शैतान होता जाता था । युवावस्था में आते-आते उसके अत्याचार से ऊबकर लोगों ने राजा से उनकी शिकायत की । राजा ने उसे अपमानपूर्वक नगरी से निकाल दिया । वहाँ से वह भिल्लपति के पास पहुँचा । भिल्लपति ने उसके पराक्रम को देखकर अपना उत्तराधिकारी बना दिया और उसका नाम दृढ़प्रहारी रखा । एक दिन दृदप्रहारी बहुत से डाकुओं को साथ लेकर कुशस्थल नगर लूटने गया था । वहाँ का देवशर्मा नामक गरीब ब्राह्मण उस दिन कठिनाई से खीर बना कर नदी स्नान करने गया था । एक डाकू उनके घर में घुसा और खीर का बर्तन लेकर चल दिया । यह देखकर ब्राह्मण के बच्चे अपने पिता के पास गये । ब्राह्मण दौड़ता आया और लोहे की छड़ी लेकर उनका पीछा कीया । थोड़ी दूर पर वह डाकू मिल गया । दोनों मे लड़ाई होने लगी । दृढ़प्रहारी वहाँ आकर विप्र की हत्या कर दिया । ब्राह्मण के पीछे आयी गाय और उनकी गर्भवती पत्नी को भी उसने ८२ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार डाला । उसका हृदय विदीर्ण हो गया । उसने पश्चात्ताप किया और विरक्त होकर मुनिराज से दीक्षा ली । उसने अभिग्रह किया कि जब तक लोगों को ये चार हत्याएँ याद रहेंगी तब तक मैं आहार पानी ग्रहण नहीं करूँगा । वह अभिग्रह को स्वीकार करके उसी नगर के दरवाजे पर खड़ा हो गया । लोग उसे गालियाँ देते और पीटते थे । वह सब समभाव से सहता जाता था छ: महिने तक निराहार रहकर मार खाते रहने से उसके घाती कर्मों का क्षय हुआ और उसे केवलज्ञान हुआ । उसके बाद अनेक जीवों को प्रतिबोध देकर दृढ़प्रहारी मुनि मोक्ष को प्राप्त हुए । ४०. सहस्रमल्लमुनि कथा शंखपुर में कनकध्वज राजा का वीरसेन नामक एक सुभट था । एक बार राजा उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसे ५०० गाँव दिए लेकिन उसने इनकार कर दिया । वीरसेन नि:स्वार्थभाव से राजा की सेवा करता था । उन्हीं दिनों राजा का शत्रु कालसेन के उपद्रव से क्षुब्ध होकर राजा ने सभासदों से पूछा कौन ऐसा वीर है जो कालसेन को जिन्दा पकड़कर लायेगा । वीरसेन ने यह बीड़ा उठायी और एक तलवार लेकर चल दिया । वह सीधा कालसेन के पास जाकर युद्ध करने लगा । वीरसेन ने सबके छक्के छुड़ा दिए । कालसेन की सेना भाग खड़ी हुई । वीरसेन ने कालसेन को जिन्दा पकड़ लिया और बाँधकर राजा के सामने लाया । राजा ने वीरसेन को एक लाख सुवर्ण इनाम दिए और नाम "सहस्रमल्ल" रखा । कालसेन से राजा ने अपनी आज्ञा के अधीन चलना स्वीकार करवा कर उसका राज्य उसे वापस दे दिया । वीरसेन को राजा ने एक देश जागीरी में दे दिया। काफ़ी समय बाद सहस्रमल्ल के यहाँ सुदर्शनाचार्य पधारे । उनसे उपदिष्ट होकर राजा विरक्त होकर मुनिदीक्षा ग्रहण किये । विहार करते-करते एक बार वे कालसेन राजा के नगर के समीप खड़े थे कि कालसेन ने उन्हें पहचान लिया । बदले की भावना से उसने सहस्रमल्ल मुनि को बहुत मारा । लेकिन वे सब सहते गये । मरकर वे सर्वार्थ सिद्ध विमान नामक देवलोक में देव बने । ४१. स्कन्दकुमार की कथा श्रावस्ती नगरी में कनक केतुराजा के मलयसुन्दरी रानी तथा स्कन्दकुमार और सुनन्दा नामक पुत्र-पुत्री थे । जवान होने पर सुनन्दा की शादी कान्तिपुर नगर के राजा पुरुषसिंह के साथ हो गयी । एक बार श्रावस्ती नगरी में विजयसेनसूरि का ८३ - Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश सुनकर स्कन्दकुमार को वैराग्य हो गया और माता-पिता की आज्ञा से उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । विहार करते-करते वे एक दिन कान्तिपुर पहुँचे । वहाँ उसकी बहन सुनन्दा को उसके प्रति अति स्नेह उमड़ा । लेकिन मुनि को उस पर जरा भी आसक्ति नहीं हुई । यह देखकर राजा को शक हुआ कि सुनन्दा को उसके प्रति राग है । उसने रातोरात कायोत्सर्ग के लिए खड़े मुनि की हत्या करवा दिया । सुबह खून से लथपथ मुँहपत्ती को किसी पक्षी ने लाकर रानी के महल के आंगन में डाल दिया । जिसे देककर रानी किसी मुनि हत्या की शंका से बेहोश हो गयी । होश में आकर अपने भाई का पता लगाया । बाद में मालूम हुआ वही उसका भाई था । वह भाई के लिए बहुत रोई । राजा ने उसका मन बहलाने का बहुत उपाय किया । 1 ४२. चुलनी रानी की कथा काम्पिल्यपुर में ब्रह्म नामक राजा एवं चूलणी रानी को ब्रह्मदत्त नामक पुत्र हुआ । ब्रह्म राजा के चार मित्रनृप थे - कणेरदत्त, कटकदत्त, दीर्घराजा और पुष्पचूल । पाँचों में गाढ़ मैत्री थी । ब्रह्म राजा के मर जाने के बाद चारों मित्रों के निर्णयानुसार दीर्घराजा राजा का कार्यभार संभालने के लिए वहीं रहने लगा । कुछ दिनों बाद वह चूलणी रानी से वैषयिक सम्बन्ध स्थापित कर लिया । जब धनु नामक वृद्ध मन्त्री को इस बात का पता चला तो उसने अपने पुत्र वरधनु को बता दी और वरधनु ने ब्रह्मदत्त को बतायी । ब्रह्मदत्त राजा को अप्रत्यक्ष धमकियाँ देने लगा । दीर्घराजा डरकर रानी से उसके पुत्र को मरवा डालने का प्रस्ताव रखा । रानी ने तो पहले इन्कार किया लेकिन कामपिपासा के कारण स्वीकार कर लिया । उसने लाक्षा का एक महल बनवाया और ब्रह्मदत्त की शादी पुष्पचूल राजा की कन्या से कर दी । धनुमन्त्री परिस्थिति को भाँप गया । उसने वृद्धावस्था के कारण राजा से तीर्थ पर जाने की अनुमति माँगी । राजा शंकित होकर उसे गंगातट पर रहने का आग्रह किया । धनुमन्त्री ने गंगातट से लाक्षागृह तक सुरंग बनवा दिया और पुष्पचूल राजा को सन्देश भेजा कि वह अपनी पुत्री के बदले किसी सुन्दर दासी को भेजे । पुष्पचूल ने वैसा ही किया । ब्रह्मदत्त अपने मित्र वरधनु को साथ लेकर अपने शयनकक्ष में पहुँचा । आधी रात को लाक्षागृह में आग लगा दी गई । ब्रह्मदत घबरा गया । वरधनु से उसे दास देते हुए बैठने की जगह पर लात मारने को कहा । ब्रह्मदत्त के लात मारने पर सुरंग का द्वार खुल गया । वे दोनों दासी को वहीं सोया हुआ छोड़कर सुरंग से होकर भागे । सुरंग से निकल कर दो घोड़ों पर सवार होकर भाग गये । कुछ दूर ८४ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाकर घोड़े मर गये फिर पैदल चलकर कोष्ठक नगर में किसी ब्राह्मण के यहाँ भोजन किये । ब्राह्मण ने ब्रह्मदत्त से अपनी पुत्री की शादी कर दी । वे छिपकर सो वर्ष बाद काम्पिल्यपुर पहुँचकर दीर्घराजा को मार डाले और अपना राज्य वापस ले लिया । इसके बाद ब्रह्मदत्त छ: खण्डों पर विजय प्राप्त कर बारहवाँ चक्रवर्ती बना । एक दिन राजसिंहासन पर बैठा-बैठा फूल का गुच्छ देखकर जाति स्मरण ज्ञान हुआ । पूर्वजन्म के भाई चित्र का जीव साधू रूप में उनको प्रतिबोध देने के लिए आया । लेकिन उसको प्रतिबोध नहीं हुआ । जब जिन्दगी के १६ वर्ष बाकी थे तभी किसी ग्वाले ने उसकी एक आँख फोड़ दी । उसने इसे ब्राह्मण की करतूत जानकर सभी ब्राह्मणों की आँख निकलवाना शुरू कर दिया । इस प्रकार अनेक अशुभ कर्मों के कारण सातवें नरक का नारकी बना २०६ ४३. कनककेतु राजा की कथा तेतलीपुर नगर के कनककेतु राजा की पद्मावती नाम की पटरानी थी । राजा का तेतलीपुत्र नामक मन्त्री था । जिसकी पोट्टिला नाम की सुन्दर पत्नी थी । एक बार राजा को पुत्र हुआ । राज्यलिप्सु राजा पुत्र के हाथ कटवा डाला ताकि वह भविष्य में उसका राज्य न ले सके। इस तरह उसने होनेवाले सभी पुत्रों को अपंग बना दिया । बहुत दिनों बाद एक बार फिर पद्मावती ने शुभ स्वप्न के साथ गर्भ धारण किया और संयोग से मन्त्रिपत्नी पोट्टिला भी गर्भ धारण की । रानी ने मन्त्री को बुलाकर होनेवाले बालक की सुरक्षा का भार चुपके से सौंप दिया । पुत्रोत्पन्न हो पर मन्त्री ने उस बालक को चुपके से अपने घर ले आकर उसकी पत्नी को हुई पुत्री को लाकर रानी के पास रख दिया । राजा को सूचित किया गया कि उन्हें पुत्री हुई है । राजपुत्र कनकध्वज धीरे-धीरे मंत्री के यहाँ बड़ा होने लगा । कुछ समय बाद कनककेतु की मृत्यु हो जाने पर सामन्तों को उत्तराधिकारी की चिन्ता हुई । उस समय मन्त्री ने रहस्योद्घाटन कर कनकध्वज को राजगद्दी पर बिठा दिया । कुछ समय बाद मंत्रिपत्नी पोट्टिला अपने अशुभ कर्मों के कारण मन्त्री की अप्रिय बन गयी । उन्हीं दिनों उसके यहाँ भिक्षार्थ आई सुव्रतासाध्वी जी से उसने पति को वश में करने का उपाय पूछा । साध्वी जी ने उसे उपदेश देकर इहलोक और परलोक में सुखकर शुद्धधर्म का आचरण करने को कहा । पोट्टिला साध्वी जी की बात मानकर भागवती दीक्षा अंगीकार की । मन्त्री ने उसे धन्यवाद देते हुए कहा कि यदि देवी हो जाओ तो मुझे ८५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध देने आना । सम्यक् चारित्राराधन कर पोट्टिला देवलोक में उत्पन्न हुई । __अवधिज्ञान से पूर्वजन्मीय स्थान जानकर वह मन्त्री को प्रतिबोध देने आयी लेकिन मन्त्री को मोह के कारण प्रतिबोध उत्पन्न नहीं हुआ । देव ने अपने प्रभाव से मन्त्री के प्रति राजा के मन में घृणा पैदा कर दी। इसे क्षुब्ध होकर मन्त्री आत्महत्या करने चला । लेकिन आत्महत्या के सारे प्रयास देवप्रभाव से असफल रहे । अन्त में पोट्टिला का जीवदेव प्रकट होकर उसे दीक्षा ग्रहण की सलाह दी । दीक्षा ग्रहण कर तेतलीपुत्र घाती कमों का क्षय करके केवली हुआ । समस्त कर्मों का क्षय कर मोक्ष को प्राप्त हुआ । ११. कोगिकराजा की कया उन दिनों राजगृहनगर में भगवान महावीर का परमभक्त श्रेणिक राजा राज्य करता था । उसकी चिल्लण नाम की रूपवती पटरानी थी । चिल्लण के गर्भ में एक ऐसा जीव आया जिसका श्रेणिक के साथ पूर्वजन्म का वैर था । चिल्लण रानी को तीसरे महीने में अपने पति के कलेजे का मांस खाने का अशुभ दोहद पैदा हुआ । दोहद पूर्ण न होने के कारण कृशगात्रा रानी से राजा के बहुत पूछने पर उसने अपना अशुभ दोहद बता दिया । राजा ने यह बात अपने बुद्धिमान पुत्र अभयकुमार से कही। अभयकुमार ने दूसरे किसी जीव का कलेजा राजा के हृदय पर बांधकर रानी का दोहदपूर्ण किया । चिलण ने नवजात पुत्र को अनिष्टकारक समझकर अशोकवाटिका में लिटा दिया । दासी से जब राजा ने यह बात सुनी तो पुत्रस्नेहवश वे वहाँ से उसे उठा लाए और उसका नाम अशोकचन्द्र रखा । लेकिन एक मुर्गे ने आकर उसकी अंगुली का एक कोना काट खाया था जिससे उसको कोणिक भी कहा जाने लगा। जवान होने पर कोणिक की शादी सुन्दर राजकन्या से कर दी गयी । कोणिक के दो छोटे भाई थे हल्लकुमार और विहल्लकुमार । राजा ने जयदाद का बँटवारा करते समय इन दोनों को क्रमश: बहुमूल्य हार और सेचनक हाथी दिए । कोणिक को इससे पिता के प्रति ईर्ष्या हुई । उसने राजा को लकड़ी के पिंजरे में बन्द कर दिया और स्वयं राजा बन बैठा । कोणिक पत्नी पद्मावती ने एक दिन पुत्ररत्न को जन्म दिया। एक दिन राजा उस बालक को गोद में लेकर भोजन कर रहा था कि बालक ने पेशाब कर दिया । राजा मूत्र-मिश्रित भोजन कर रहा था । राजा ने अपनी माँ से बच्चे के प्रति उमड़ते प्रेम का कारण पूछा । माँ ने कहा इसे भी अधिक प्रेम तेरे पिता को तुझ पर था । यह सुनकर राजा अपने पिता की ओर दौड़ा । राजा ने उसे आता ८६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देख जहर खा लिया और कर्मबन्ध के कारण नरक में गए । इधर कोणिक पिता को मरा देखकर फूट-फूट कर रोने लगा कुछ समय बाद शान्त हुआ । एक बार पत्नी से उत्तेजित होकर कोणिक ने अपने भाईयों से पिता द्वारा दी गयी तीन दिव्य वस्तुओं की मांग की । उसके भाई उन चीजों को लेकर अपने नाना चेतराजा के पास गये। चेत ने सारी वस्तुस्थिति समझकर कोणिक को समझाने का प्रयास किया लेकिन वह न माना और युद्ध के लिए तैयार हो गया'१२ । युद्ध में मरकर वह नरक में गया । १५. चाणक्य की कथा चणक गाँव में चणी और चणेश्वरी नामक ब्राह्मण दम्पती रहते थे । वे जैन धर्म के अनुयायी थे । उनको एक पुत्र हुआ जिसके जन्मते ही मुँह में सभी दांत थे। अत: उसका नाम चाणक्य रखा था । एक बार एक मुनि से चणी ने उस बालक के बारे में पूछा । मुनि ने कहा दाँत के कारण यह बड़ा राजा होगा । फिर माँ ने राज्यासक्ति के पश्चात् नारकी होने के भय से उसके दाँत घिस डाले । फिर मुनि के आने पर पूछा, मुनि ने कहा अब बड़ा राजमन्त्री बनेगा । युवावस्था में आने पर उसकी शादी हो गयी । एक बार अपने भाई की शादी के मौके पर उसकी पत्नी अर्थाभाव के कारण सादे पोशाक पहनकर अपने मायके गयी वहाँ उसका किसी ने सत्कार नहीं किया । उसने दु:खी मन से घर आकर चाणक्य से सब कह दी । चाणक्य धन कमाने के लिए कुछ दिनों में पाटलिपुत्र पहुँचा और नन्दराजा से धन की याचना की । वह राजा के संमुख भद्रासन पर बैठ गया । दासी ने दूसरे आसन पर बैठने को कहा, चाणक्य ने उस पर अपना कमण्डलु रखने को कहा । दासी ने तीसरा दिखाया उस पर उसने अपना दण्ड रखा उसने चौथे और पाँचवें पर माला और यज्ञोपवीत रख दिया । इस पर दासी ने उसे धूर्त कहकर डाँटा और लात मार दी । इस पर नाराज होकर वह नन्दराजा को राजगद्दी से हटाने का संकल्प करके चल दिया। वह बचपन में मुनि के द्वारा दी गई भविष्यवाणी को याद कर राजा के लिए योग्य पुरुष की खोज में चल दिया । घूमते-घूमते वह नन्दाराजा के मयूरपालक गाँव में पहुँचा और संन्यासी बनकर भिक्षार्थ घूमने लगा । उसी समय मयूरपालक की गर्भवती पत्नी को चन्द्रपान का दोहद उत्पन्न हुआ । चाणक्य ने दोहदपूर्ण कराने का वचन दिया, इस शर्त पर कि होने वाला बच्चा उसे मिलेगा । उसने घास की झोपड़ी में रात को उस महिला को बिठा दिया और ऊपर एक आदमी को छिद्र के पास एक ढक्कन के साथ बिठा दिया । उसने महिला के सामने थाली में दूध रख दिया । थाली ८७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पड़ने वाले चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को चन्द्र समझकर सारा दूध पी गयी । इस प्रकार उसका दोहद पूर्ण हुआ । उसने बालक को जन्म दिया । चाणक्य वहाँ से धातु विद्या सीखने अन्यत्र चल दिया । आठ साल बाद वापस आया और चन्द्रगुप्त नामक उसी बच्चे को लेकर चल दिया । धातुविद्या के प्रयोग से कुछ धन इकट्ठा करके चाणक्य थोड़ी सेना एकत्रित की और नन्दराजा पर आक्रमण किया लेकिन हार गया । वह चाणक्य को लेकर भाग गया । पीछा करते हुए एक सैनिक को देखकर झट उसने साधु का वेश बनाकर चन्द्रगुप्त को तालाब में छिपा दिया और स्वयं ध्यानस्थ बैठ गया । सैनिक के पूछने पर उसने तालाब के अन्दर इशारा किया । इस पर हथियार रखकर पकड़ने जा रहे सैनिक की उसने पीछे से गरदन उड़ा दी । और चन्द्रगुप्त को लेकर आगे चल दिया । इसी तरह उसने एक और सैनिक को मार डाला । दोपहर को भूखे चन्द्रगुप्त को एक गाँव के बाहर छोड़कर स्वयं भोजन लेने चला । जल्दी के कारण दही भात खाकर आ रहे विप्रदेव के पेट से दही चावल निकाल लिया और लाकर चन्द्रगुप्त को तृस किया । वे शाम को किसी गाँव में एक बुढ़िया के यहाँ भिक्षार्थ पहुँचे । बुढ़िया ने अपने बच्चों के लिए थाली में गर्म गर्म राब परोसे थी । एक बच्चे के थाली के बीच में हाथ डालने से उसका हाथ जल गया और वह रोने लगा । उसने चाणक्य की मूर्खता का दृष्टान्त देकर उसको चुप कराया । चाणक्य को इससे बहुत बड़ी सबक मिली । वह चन्द्रगुप्त को लेकर पर्वतराज के पास गया और उससे मैत्री कर आधा राज्य देने का वचन देकर उसकी विशाल सेना के साथ नन्दराजा पर आक्रमण किया और विजयी हुआ १३ । पराजित नन्द राजा ने चन्द्रगुप्त के साथ अपनी पुत्री की शादी कर दी । नन्दराजा जाते-जाते अपने महल में एक विषकन्या को छोड़ गया | चाणक्य अनुमान से उसे दोषदूषित जानकर पर्वतराज के साथ उसका विवाह कर दिया । पर्वतराज का शरीर जहर से व्याप्त हो गया और कुछ दिनों बाद मर गया । इस प्रकार चाणक्य अपना मतलब गांठ कर मित्र को भी ठुकरा दिया । ४६. परशुराम और सुभूमचक्री सुधर्मा देवलोक में विश्वानर और धन्वन्तरी नामक क्रमश: जैन और तापस धर्मावलम्बी दो मित्रदेव आपस में धर्मचर्चा और स्वधर्मप्रशंसा किया करते थे । एक वे मृत्यु लोक में श्रेयस् धर्म परीक्षा के लिए आये । उस समय मिथिला नगरी बार ८८ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का राजा वासुपूज्य मुनि के पास मुनिदीक्षा लेने जा रहा था । उन दोनों ने अनेक प्रलोभनों से उन्हें पुन: गृहस्थ जीवन में लाने का प्रयत्न किया लेकिन वे असफल रहे। फिर वे जंगल में यमदग्नि नामक तापस के पास गये और चकवा चकवी का रूप बना उसकी दाढ़ी में घोसला बनाकर बैठ गये । चकवा ने मनुष्यवाणी में हिमालय पर्वत पर जाने की बात कही । चकवी ने उसे जाने से रोका और कहा कि आप उसी शर्त पर जा सकते हैं कि यदि आप नहीं आये ते यमदग्नि तापस का पाप आपको लगेगा। इस पर यमदग्नि नाराज होकर अपने पाप का कारण पूछे । उन दोनों ने बताया कि पुत्र के बिना गति नहीं होती है । इस पर तापस धर्मी देव हारकर जैन धर्म स्वीकार किया । उधर यमदग्नि पुत्रोत्पत्ति के लिए शादी करने चल दिए । वे कोष्ठक नगर के जितशत्रु की रेणुका नामक कन्या के साथ शादी किये । प्रथम ऋतुकाल में यमदग्नि एक चर मन्त्रित करके दे रहे थे । रेणुका ने उनसे एक और चर अपनी बहन अनंगसेना के लिए मांगा जिससे एक से ब्राह्मण पुत्र हो और दूसरी से क्षत्रियपुत्र । क्षत्रिय चर का सेवन की हुई रेणुका और ब्राह्मण चरु का सेवन की हुई अनंगसेना ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया जिनका नाम क्रमश: राम और कीर्तिवीर्य रखा गया। जवानी में राम अतिसार रोग से पीड़ित हो गया, लेकिन एक विद्याधर की दवा से ठीक हो गया । उसने राम को परशु विद्या सिखाया जिससे उसका नाम परशुराम पड़ा। एक बार उसकी माँ रेणुका ने अनन्तवीर्य के साथ सहवास से एक पुत्र को जन्म दिया। परशुराम ने इस दुश्चरित्र के कारण रेणुका सहित नवजात शिशु का वध कर डाला । इससे क्रुद्ध होकर अनन्तवीर्य ने यमदग्नि के आश्रम को छिन्नभिन्न कर डाला । इस पर परशुराम ने अनन्तवीर्य का सिर काट डाला । पितृहत्या के प्रतिशोधरूप उत्तराधिकारी पुत्र कीर्तिवीर्य ने यमदग्नि की हत्या कर डाली । इस पर परशुराम ने कीर्तिवीर्य की हत्या कर उसके राज्य को अपने कब्जे में ले लिया । कीर्तिवीर्य की गर्भवती पत्नी तारारानी किसी तरह जान बचाकर जंगल में दयावान् तापसों के आश्रम के तलघर में रहने लगी । उसने सूभूम नामक पुत्र को जन्म दिया । उधर परशुराम क्षत्रियों पर नाराज होकर सात बार पृथ्वी को निश्क्षत्रिय बनाया और उनके दाढ़ों को एकत्रिक कर एक बड़े थाल में भर कर रख दिया । एक बार परशुराम घूमते-घूमते उन्हीं तापसों के आश्रम में पहुँचा, उसके परशु से ज्वालाएँ निकलने लगीं। पूछने पर तापसों ने कहा यहाँ कोई क्षत्रिय नहीं है । एक दिन परशुराम के पूछने पर किसी नैमित्तिक ने परशुराम को बताया - जिस पुरुष की दृष्टि पड़ते ही ये दाढ़े क्षीर रूप हो जाय और Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह उन्हें खाने लगे, समझना बही आपका घातक होगा । यह सुनकर परशुराम ने दानशाला खोली और दादों का थाल एक सिंहासन पर रख दिया । इधर युवावस्था को प्राप्त सूभूम भी अपनी माँ से अपने पूर्वजों की कथा सुनकर क्रोधावस्था में हस्तिनापुर की दानशाला में आया । दानशाला में प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि दादों पर पड़ी और वे क्षीररूप में परिणत हो गये । सूभूम क्षीर खाने लगा । परशुराम उसे पहचान गया । वह परशु लेकर सूभूम पर टूट पड़ा लेकिन सूभूम की दृष्टि पड़ते ही उसका परशु निस्तेज हो गया । सूभूम ने क्षीर खाकर थाली परशुराम पर फेंका जिससे वह चक्ररत्न बन गया उसका चक्रवर्तित्व प्रकट हुआ । इसके बाद सूभूम ने एक-एक करके सभी क्षत्रियों का बदला लिया । उसने २१ बार पृथ्वी को ब्राह्मण रहित किया । चक्ररत्न के बल से भरत क्षेत्र के छहों खण्डों पर विजय पाया । एक बार वह सेनासहित लवण समुद्र से होकर जा रहा था कि चर्मरत्न के अधिष्ठायक देवों के छोड़ने से सब पानी में डूब कर मर गये। ४७. आर्यमहागिरि का गच्छत्याग आर्य स्थूलिभद्र के दो शिष्य थे.१५ - आर्यमहागिरि और आर्य सुहस्ती । उनमें बड़े शिष्य आर्यमहागिरि विशेष वैराग के कारण संयम में पुरुषार्थ करते हुए अकेले ही रहा करते थे । वे विहार के समय गाँव के बाहर ही रहा करते थे. । वे सुहस्ती के ही निश्राय में विचरण करते थे । एक बार सुहस्तीसूरि पाटलिपुत्र में वसुमति श्रावक के कुटुम्ब को प्रतिबोध दे रहे थे कि आर्य महागिरि भी वहाँ आ पहुँचे । आर्य सुहस्तीसूरि ने उनकी वन्दना की । आर्य महागिरि भिक्षा लिए बिना ही चले गये । सुहस्तीसूरि से आर्य महागिरि की महत्ता जानकर वसूभूति श्रावक ने पूरे नगर को उत्तम भोजन कराया । आर्य महागिरि ने उस आहार को अकल्पनीय जानकर ग्रहण नहीं किया । उपाश्रय में आकर उन्होंने सुहस्तीसूरि को उपालम्भ दिया और उनका गच्छ छोड़कर पृथक् विहार करने लगे । तपसंयम की आराधना करके वे देवलोक गये । ४८. श्रीमेषकुमार की कथा मगधदेश की राजधानी राजगृही नगरी में राजा श्रेणिक और उनकी पत्नी रानी धारिणी को मेघकुमार नामक एक पुत्र था । युवावस्था को प्राप्त वह ८ कन्याओं से विवाह किया और सुखपूर्वक रहने लगा । एक बार भगवान महावीर का उपदेश सुनकर उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने दीक्षा ले ली । उसका संथारा उपाश्रय ९० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के द्वार के पास था । लघुनीति के लिए आते-जाते साधुओं के पैरों की बार-बार ठोकर लगने से मेघकमार को रातभर नींद नहीं आयी । क्षुब्ध होकर उसने वापस घर जाने की सोच ली । इस विचार से प्रात: काल वह भगवान के पास गया । भगवान ने उससे पूछा – क्या रातभर कष्ट अनुभव करने के कारण घर जाने की सोचकर आये हो ? मेघकुमार के स्वीकार करने पर उन्होंने समझाते हुए कहा - वत्स ! यह कष्ट नरक के कष्ट से बहुत कम है । तुम पूर्वजन्म में हाथी रूप के कष्ट को तो याद करो। तुम हजार हाथियों के स्वामी सुमेरु प्रभ नामक हाथी थे । एक दिन दावानल से भयभीत होकर भागते हुए तुमको प्यास लगी । पानी पीने के लिए तुम एक सरोवर के दलदल में फँस गये । वहाँ तुम्हारे पूर्व शत्रु हाथियों ने अपने दाँतो से तुम्हें मारा। वहाँ से तुम विन्ध्याचल पर्वत पर ६०० हथिनियों के स्वामी बने । लेकिन वहाँ भी एक बार भयंकर आग लगने से पशुपक्षियों में भगदड़ मची । उसे देखकर तुम्हे पूर्वजन्म का स्मरण हुआ और तुम एक सुरक्षित स्थान बनाये । एक बार दावानल में तुम अपने परिवार को लेकर उसमें बैठे थे । एक खरगोश को बचाने के लिए तीन दिन तक तुम अपना पैर उठाये रहे । वहाँ असह्य वेदना सहते हुए मरकर तुम मनुष्यलोक में आये हो । तिर्यंचयोनि में जब तुम इतना कष्ट उठा सकते हो तो मनुष्य योनि का यह कष्ट तो कुछ नहीं है, यह सुनकर मेघकुमार चारित्राराधन में दृढ़ हुआ और आयु पूर्ण कर देव हुआ। वहाँ से च्यवन कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेगा। १९. सात्यकिविद्याधर विशाला नगर में चेटक राजा की दो पुत्रियाँ थीं – सुज्येष्ठा और चिल्लणा। परस्पर प्रेम के कारण दोनों ने श्रेणिक राजा से विवाह करने का निश्चय किया । लेकिन छल से चिल्लणा ने राजा श्रेणिक से शादी कर ली और सुज्येष्ठा इस धोखा से निराश होकर संसार से विरक्त हो गयी और साध्वी चन्दनबाला से चारित्र ग्रहण कर तप करने लगी । एक दिन उसे सूर्य की आतापना लेते देख पेढाल नामक विद्याधर उसकी कुक्षि से पुत्ररूप से उत्पन्न होने के लिए चारों तरफ अन्धकार कर दिया और भौरे के रूप में उसके साथ सम्भोग करके उसे गर्भवती बना दिया । गर्भकाल पूरा होने पर उसे पुत्र हुआ जिसका सात्यकि नाम रखा गया । एक दिन सुज्येष्ठा सात्यकि के साथ भगवान महावीर के वन्दनार्थ आयी थी । उस समय कालसंदीपक नामक विद्याधर के पूछने पर कि मुझे किससे भय है, भगवान् ने सात्यकि को बताया । उसने Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात्यकि को लात मार कर गिरा दिया । पेढालविद्याधर ने सात्यकि को रोहिणी विद्या दी । उस विद्या की साधना करते समय काल संदीपक ने बहुत विघ्न डाले । रोहिणीविद्या की अधिष्ठात्री देवी ने उसे रोका । विद्यादेवी ने स्वयं प्रत्यक्ष होकर सात्यकि से पूछ कर सिद्ध हुई और उसके ललाट में प्रवेश किया । उससे ललाट में तीसरा नेत्र उत्पन्न हुआ, उसने माता का ब्रह्मचर्य भंग करने वाले पेढाल को सर्वप्रथम मारा और कालसंदीपक उसके भय से त्रिपुरासुर का रूप बनाकर पाताल में जा घुसा। इसलिए अफवाह फैली कि वह ग्यारहवाँ रुद्र है । उसने भगवान महावीर से सम्यक्त्व अंगीकार किया । वह विषयसुखों का अतिलोलुप था । किसी भी स्त्री के साथ वह सम्भोग कर लेता था । एक दिन उज्जयिनी में चन्द्रप्रद्योत राजा की (पद्मावती को छोड़कर) सभी रानियों से संभोग किया, जिससे नाराज होकर राजा ने उसे मारनेवाले को इनाम देने की घोषणा करवाई । उमा नाम की वेश्या ने यह बीड़ा उठाया । उसने सात्यकि को अपने कामपाश में बाँध लिया । विद्या का रहस्य पूछने पर उसने बता दिया कि जब वह स्त्री-सहवास करता है तो विद्या को दूर रख देता है । वेश्या ने यह रहस्य राजा को बतला दिया, राजा ने वेश्या और सात्यकि दोनों को मरवा डाला। सात्यकि के शिष्य नन्दीश्वर गण ने नाराज होकर कहा - मेरे विद्यागुरु को जिस स्थिति में मारा है उसी स्थिति की मूर्ति बनाकर पूजा करो नहीं तो सबको शिला से चूर-चूर कर दूंगा । भयभीत होकर लोगों ने वेश्या के साथ-सात्यकि के सहवास की मूर्ति बनवा कर मकान में स्थापित किया । सात्यकि मरकर नरकगति में पहुँचा । ७०. श्रीकृष्ण का संक्षिप्त जीवनवृत्त एक बार नेमिनाथ भगवान के द्वारिका नगरी पधारने पर श्रीकृष्ण ने अपने परिवार, वीर, सामंतादि के साथ उनके अठारह हजार साधुओं की विधिपूर्वक वन्दना की । वे थक गये थे । थकने का कारण पूछने पर भगवान ने कहा । इससे बहुत लाभ हुआ है । इससे तुमने सातवीं नरक के योग्य कर्मों का क्षय कर दिया है । अब सिर्फ तीसरी नरक के योग्य कर्म बाकी रह गये हैं । तब श्रीकृष्ण ने फिर से वन्दना की इच्छा व्यक्त की । भगवान ने कहा अब वे भाव तुम में नहीं हैं । श्रीकृष्ण के सामंतादि के बारे में पूछने पर भगवान ने कहा इनको कोई लाभ नहीं मिला । क्योंकि वे केवल तुम्हारा अनुकरण किये हैं । बिना भाव के फल नहीं मिलता । ५१. चण्डरुद्राचार्य की कथा उज्जयिनी नगरी में ईर्ष्यालु एवं क्रोधी स्वभावी श्री चन्द्ररुद्राचार्य पधारे । एक ९२ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन वहाँ कोई नवविवाहित वणिक् पुत्र अपने मित्रों के साथ आया । उसके मित्रों ने अनेक बार मजाक में मुनि से उस नवविवाहित को अपना शिष्य बनाने को कहा । इस पर नाराज होकर जबरजस्ती मुनि ने उस वणिक् पुत्र को पकड़कर उसका सिर लुंचित कर दिया" । उसके सभी मित्र भाग चले । नवदीक्षित शिष्य ने गुरुजी से कहीं अन्यत्र चलने को कहा । गुरुजी की चलने में असमर्थता को देखकर वह उनको अपने कन्धे पर बिठाकर अंधेरी रात में चल पड़ा । ऊँची नीची जमीन पर पैर पड़ने से रुदाचार्य क्रोधित होकर उसे कोड़े मारते थे । वह सब सहता हुआ जा रहा था । उसे केवल ज्ञान प्रकट हो गया । अत: अब वह सरलता से चलने लगा । गुरुजी को जब यह ज्ञात हुआ कि नवदीक्षित साधु को केवलज्ञान हुआ है तो वे अपने किये पर बहुत पछताये और उससे क्षमा मांगी । विशुद्ध ध्यान के कारण चण्डरुद्राचार्य को भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ । केवली अवस्था में दीर्घकाल तक विचरण करके दोनों मोक्ष को प्राप्त हुए । ५२. अंगारमर्दकाचार्य किसी नगर में विजयसेन नामक आचार्य के शिष्यों ने रात को स्वप्न में पाँच सौ हाथियों से घिरा हुआ एक सूअर देखा । सुबह निवेदन करने पर गुरुजी ने पाँच सौ शिष्यों सहित अभव्य आचार्य के आने का भविष्य कथन किया । इतने में रुद्रदेव अपने पाँच सौ शिष्यों सहित आ पहुँचे । दूसरे दिन विजयसेन ने उनके पेशाब करने की जगह पर कोयले बिछवा दिए । रात को जब उनके शिष्य पेशाब करने उठे तो कोयला चरचराने से जीव हत्या की शंका से पश्चात्ताप करने लगे । रुद्रदेवाचार्य भी पेशाब के लिए उठे । कोयला चरचराने से वे और दबाने लगे और कहे ये अर्हत् के जीव दबने के कारण पुकार रहे हैं । यह सुनकर विजयसेन ने रुद्रदेव को उनके शिष्यों से बहिष्कृत करवा दिया । वे शिष्य संयम की आराधना कर देव बने । वहाँ आयु पूर्ण कर वसन्तपुर में राजा दिलीप के यहाँ पाँच सौ पुत्र रूप में जन्म लिये । एक बार वे राजपुर नगर में कनकध्वज राजा की पुत्री के स्वयंवर में गये हुए थे कि ऊँट रूप में जन्मे हुए अंगारमर्दकाचार्य को देखा । वह अधिक बोझ के कारण चिल्ला रहा था। वे उसे देखकर उसके प्रति सहानुभूति प्रकट किये और उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया । वे विचार-विमर्श करके स्वामी से उस ऊँट को छुड़ा लिया । और अन्त में वे भी विरक्त होकर सद्गति को प्राप्त हुए । 1 ९३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. पुष्पचूला की कया पुष्पभद्र नगर में पुष्पकेतु राजा और पुष्पवती रानी के जुड़वे पुत्र पुष्पचूल और पुत्री पुष्पचूला थे । दोनों के परस्पर अतिस्नेह के कारण राजा ने दोनों का एक दूसरे से विवाह करने का निर्णय लिया । रहस्यमय प्रश्न पूछ कर छल में उन्होंने नगरवासियों का भी समर्थन प्राप्त कर लिया और उन दोनों भाई-बहनों का विवाहसम्बन्ध कर दिया १८ । यह अयोग्य कार्य देखकर दोनों की माता पुष्पवती विरक्त हुई और कठोर तपस्या के फलस्वरूप मरकर देव बनी । पिता भी परलोक सिधार गये। अत: पुष्पचूल राजा और पुष्पचूला पटरानी बनकर आनन्द करने लगे । एक बार देवरूपी पुष्पवती के जीव ने पुत्र पुत्री को नरकगति से बचाने के लिए प्रतिबोध देने आयी । उसने पुत्री को रात को स्वप्न में नरक दुःख बताये । दूसरे दिन पुष्पचूला ने आचार्य से नारकीय दु:ख का स्वरूप और कारण जानकर घर वापस आई । फिर देवरूप पुष्पचूला की माँ ने उसे स्वर्ग का सुख बताया । पुष्पचूला ने उसका भी विधिवत् ज्ञान आचार्य से प्राप्त किया१९ । इससे पुष्पचूला को वैराग्य उत्पन्न हुआ । राजा ने उसे दीक्षा लेकर घर पर रहने का आग्रह किया । वह आचार्य अर्णिकापुत्र से दीक्षा लेकर शुद्ध चारित्राराधन करने लगी२० । भावी बारह वर्षीय दुष्काल से अवगत होकर आचार्य अर्णिकापुत्र सभी साधुओं को अलग दिशा में भेज कर असमर्थ होने के कारण स्वयं वहीं रहने लगे । पुष्पचूला उनकी विधिवत् सेवा करती थी । इस प्रकार उसको केवलज्ञान प्राप्त हुआ । एक बार बरसात में वह आहार लेकर आयी । आचार्य ने उसे अनुचित बताया। पुष्पचूला ने कहा – यह मेघवृष्टि अचित्त है । इस पर आचार्य उसे केवलज्ञानी समझकर पश्चात्ताप एवं क्षमायाचना करने लगे । साध्वी ने उनसे कहा कि आप भी गंगा नदी पार करते समय केवलीज्ञानी होंगे । आचार्य यह सुनकर गंगा के किनारे नाव में बैठे । उनका पूर्वजन्म का वैरी नाव डूबोने लगा। इससे भयभीत होकर नाव में बैठे अन्य लोगों ने आचार्य को ही नदी में फेंक दिया। देव ने उनके शरीर के नीचे त्रिशूल लगा दिया । विद्ध शरीर के खून से जलजन्तुओं की विराधना हो रही है । इस प्रकार पश्चात्ताप करते-करते वे केवली होकर मोक्ष को प्राप्त हुए । इस पर यह अफवाह फैली कि गंगा में स्नान करने पर मोक्ष होता है । वह स्थान प्रयागतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । ५४. अनिका पुत्र की कथा उत्तर मथुरा नगरी में कामदेव और देवदत्त दो व्यापारी मित्र रहते थे । एक ९४ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार माता-पिता की आज्ञा लेकर दोनों दक्षिण मथुरा व्यापार करने गये । वहाँ उन्हें जयसिंह नामक व्यापारी से मित्रता हो गयी जिसकी अर्णिका नामक एक बहन थी । एक दिन दोनों जयसिंह के यहां भोज पर आये । अर्णिका का लावण्य देखकर देवदत्त उस पर मोहित हो गया । जयसिंह ने दोनों की शादी इस शर्त पर कर दी कि शादी के बाद देवदत्त उसी के घर रहेगा । बहुत समय बाद अर्णिका गर्भवती हुई । देवदत्त अपने पिता का पत्र पाकर जाने को सोचने लगा । अर्णिका भी रहस्य जानकर सासससुर के पास जाने के लिए तैयार हो गयी । जाते समय रास्ते में ही अर्णिका ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अर्णिकापुत्र रखा गया । घर आकर देवदत्त ने बालक को अपने माता-पिता की गोद में रखा । बड़ा होकर अर्णिकापुत्र चारित्र ग्रहण किया और अनेक जीवों को प्रतिबोध देकर मोक्ष प्राप्त किया २२ । ५५. श्रीमरुदेवी माता की कथा जब प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव ने मुनिदीक्षा स्वीकार कर ली तब भरत राज्य का अधिकारी बना । ऋषभदेव की माता मरुदेवी भरत को हमेशा सारसंभाल करने के लिए कोशती रहती थी । वह पुत्र ऋषभ के बिना दु:खी रहा करती थी । एक दिन ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । इसकी खबर पाकर भरत राजा माता मरुदेवी को साथ लेकर समवसरण के निकट पहुँचे । माता मरुदेवी को पुत्र की उपलब्धि देखकर हर्षाश्रु उमड़ आये । मोह के कारण अपने आपको धिक्कारती हुई तथा अनित्य भावना का चिन्तन करती हुई वह केवलज्ञान को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त हुई।२३ । देवों ने उसके शरीर को क्षीर सागर में बहा दिया । ५६. सुकुमालिका दृष्टान्त वसन्तपुर नगर में राजा सिंहसेन और रानी सिंहला के दो वीरवान पुत्र ससक और भसक तथा रूपवती पुत्री सुकुमालिका थी । किसी समय ससक और भसक दीक्षा ग्रहण कर लिए । वे विहार करते-करते अपनी बहन को भी प्रतिबोध देकर दीक्षा ग्रहण करा दिये । सुकुमालिका की सुन्दरता के कारण कामुक पुरुष हमेशा उपाश्रय पर आकर जमे रहते थे । गुरुजी ने उसकी रक्षा के लिए उसके मुनिभ्राताद्वय को लगा दिया२४ । एक दिन उन दोनों की कामुकों के साथ लड़ाई हुई । यह देखकर सुकुमालिका अपने सौन्दर्य को धिक्कारती हुई उसे नष्ट करने के लिए अनशन पर बैठ गयी । अनशन के कारण एक दिन वह मूर्छित हो गयी । उसके भाइयों ने उसे मृत Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझकर वन्य भूमि में डाल दिया । शीत पवन लगने से वह होश में आयी कि उसे एक सार्थवाह मिला । सार्थवाह ने उसको उचित भोजनादि कराया जिससे वह पुन: पूर्ववत् हो गयी । सार्थवाह ने उससे विवाह का प्रस्ताव रखा । सुकुमालिका ने उसे भवितव्यता तथा सार्थवाह के उपकार को ध्यान में रखकर स्वीकार कर लिया । वह सुखपूर्वक महल में रहने लगी । बहुत समय बाद विहार करते हुए ससक और भसक उसी नगर में सुकुमालिका के वहाँ ही भिक्षार्थ आये । ससक और भसक के कुछ शंकित होने पर सुकुमालिका ने अपनी आपबीती सुनायी । भाइयों ने सार्थवाह को समझा बुझाकर सुकुमालिका को पुन: साध्वी दीक्षा दी । वह शुद्ध चारित्राराधन करके मरणोपरान्त स्वर्ग में पहुँची । ५७. मंगू आचार्य एक बार श्रीमंगू आचार्य मथुरा नगरी में पधारे । वहाँ के धनाढ्य श्रावक उनकी बहुत सेवा करते थे। वे श्रावक उनके व्याख्यान से बहत प्रभावित थे और वे भव से पार होने के लालच से उनको स्वादिष्ट आहार देते थे । आचार्य अपने आपको गौरवान्वित समझने लगे । जिससे उनके चारित्र में शिथिलता आ गयी । वे रागवश वहाँ से विहार करने भी नहीं गये । मरकर वे उसी नगरी के गन्दे नाले के पास यक्ष मन्दिर में यक्षरूप में उत्पन्न हुए।२५ । जब वे अपने पूर्वजन्म को देखे तो उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ । यक्ष अपने शिष्यों को अपना परिचय दिये और उन्हें चाटुकारिता से सावधान रहने का उपदेश देकर अदृश्य हो गये । साधु उसकी बात से शिक्षा लेकर शुद्ध चारित्राराधन किये और सद्गति में पहुँचे । ५८. गिरिशुक और पुष्पशुक का दृष्टान्त एक बार वसन्तपुर नगर का कनककेतु राजा घोड़े पर बैठकर और करने निकला । घोड़ा तेज दौड़कर राजा को घने जंगल में पहुँचा दिया । राजा विश्राम करने को सोच रहे थे कि कुछ दूरी पर मनुष्यों का शोर सुनाई दिया । राजा उसी तरफ जाने लगे । वहाँ एक पेड़ की डाली पर पिंजरे में लटकता हुआ एक तोता ऊँचे स्वर से भीलों को राजा को पकड़ने के लिए बुलाने लगा । राजा वहाँ से भगकर एक आश्रम के पास पहुँचे । जहाँ पेड़ पर पिंजरे में लटकते हुए तोते ने तापसों को राजा के सम्मान के लिए बुलाया । राजा ने उस तोते की कहानी उससे कही और दोनों के स्वभाव में अन्तर का कारण पूछा । तोते ने कहा - "हम दोनों सहोदर हैं और Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले कादम्बी की महाटवी में रहते थे । उसको भीलों ने पकड़ लिया और पर्वतीय प्रदेश में रखा, जिससे उसका नाम गिरिशुक हुआ और मुझे तापसों ने पकड़कर पुष्पवाटिका में रखा जिससे मेरा नाम पुष्पशुक है । वह भीलों के संसर्ग से मारने, पीटने, बाँधने की बातें सीखा और तापसों के संसर्ग से मैंने शुभ गुणों की बातें सीखी ।" तोते की बुद्धिमत्तापूर्ण बात से राजा प्रसन्न होकर अपने नगर को लौट गया। ५९. शैलकाचार्य और पंयक शिष्य द्वारकापुरी में श्रीकृष्ण वासुदेव राज्य रखते थे । उसी नगरी में थावच्चा सार्थवाह अपनी पत्नी और थावच्चाकुमार नामक पुत्र के साथ रहता था । थावच्चाकुमार अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ सुखोपभोग करता था । एक बार वह अरिष्टनेमि का उपदेश सुनकर दीक्षा अंगीकार किया । एक बार आचार्य थावच्चाकुमार शैलकपुर के राजा को अपने उपदेश से १२ व्रत स्वीकार कराये । वहाँ से सौगन्धिका नगरी में पधारे, जहाँ शुक पब्रिाजक के परम भक्त सुदर्शन सेठ को शौच मूलक धर्म छोड़कर विनयमूलक धर्म स्वीकार कराया । शुक पब्रिाजक ने यह जानकर थावच्चा पुत्र से धर्मचर्चा की और निरुत्तर होकर दीक्षा ग्रहण कर लिया । आचार्य थावच्चापुत्र केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त हुए । इधर आचार्य शुक अपने हजार शिष्यों के साथ शैलकपुर आकर राजा को धर्मोपदेश दिये । राजा विरक्त होकर मुनि दीक्षा ग्रहण किये । शुकाचार्य केवली होकर मोक्ष पाये । आचार्य शैलक राजर्षि के शरीर में रुखा सूखा खाने से अनेक व्याधियाँ पैदा हो गयीं फिर भी कठोर तप करते थे। विहार करते हुए वे एक बार शैलकपुर पहुँचकर अपने पुत्र मंडुकराजा को धर्मोपदेश दिया। मंडुक के कहने पर शैलकाचार्य चिकित्सा के लिए अपने शिष्यों सहित दानशाला में रहने लगे । कुछ दिनों में वे स्वस्थ हो गये । लेकिन स्वादिष्ट भोजन ने उन्हें चारित्राराधन में शिथिल बना दिया और वे विहार भी करने नहीं गये । पंथक को छोड़कर सभी शिष्य विहार करने चले गये । कार्तिक पूर्णिमा का चातुर्मासिक पर्व समाप्ति के दिन सो रहे आचार्य का पंथक शिष्य ने प्रतिक्रमण कर क्षमापना के लिए उनका चरण-स्पर्श किया । आचार्य जगकर पंथकमुनि पर बिगड़े । पंथक उनसे क्षमायाचना करने लगा । शैलकाचार्य को भी आत्मचिन्तन से पश्चात्ताप हुआ और वे विहार करते हुए चारित्र-पालन करने लगे । अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर सिद्धाचल तीर्थ पर अनशन स्वीकार करके सिद्धगति को प्राप्त किये २६ । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. नन्दीषेणमुनि नन्दीषेण के पूर्वजन्म का संक्षिप्त वृत्तात-किसी गाँव का मुखप्रिय नामक ब्राह्मण एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने के संकल्प से घर का कामकाज करने के लिए भीम नामक अपने पड़ोसी को नियुक्त किया'२७ । वह पूर्व शर्त के अनुसार ब्राह्मण के खाने से बचे हुए भोजन को साधु साध्वियों को दे देता था । इस पुण्य से वह मरकर देव बना और वहाँ से राजगृह नगर में राजा का नन्दीषेण नामक पुत्र हुआ । इधर ब्राह्मण का जीव अनेक भवों को पार करके किसी अटवी में हथिनी की कुक्षि में पैदा हुआ । हथिनियों का स्वामी यूथपति हथिनियों से जन्मे हुए (हाथी) बच्चों को मार डालता था । अत: एक हथिनी अपने बच्चे को बचाने के लिए झूठमूठ में लंगड़ाकर चलने लगी और टोले में कम रहती थी । प्रसव काल के समय उसने एक तापस आश्रम में शिशु हाथी को जन्म दिया । उसक नाम सेचनक रखा । वे तापस उसका पालन-पोषण करने लगे । हथिनी समय पाकर उसे स्तनपान करा जाती थी। इस प्रकार वह जवान हो गया । एक दिन यूथपति हाथी को उसने मूठभेड़ में मारकर स्वयं यूथपति बन बैठा । उसने सोचा जिस प्रकार मैं उस हाथी को मारकर यूथपति बना हूँ उसी प्रकार दूसरा कोई हाथी भी मुझे मारकर यूथपति बनेगा । अत: वह इस झंझट से छुटकारा पाने के लिए आश्रम की तमाम झोपड़ियों को नुकसान पहुँचाया जिससे त्रस्त होकर तापस राजा के पास गये । राजा ने सचेनक हाथी को पकड़वाने का बहुत प्रयास किया लेकिन असफल रहा । इतने में नन्दीषेण वहाँ आया । नन्दीषण ने ज्यों ही सम्बोधित करके उसकी तरफ देखा त्यों ही उसे अवधिज्ञान से पूर्वजन्म का ज्ञान हुआ और वह शान्त हो गया । नन्दीषेण उस पर बैठकर घर आया । जवान होकर नन्दीषेण पाँच सौ कन्याओं से शादी कर सुखपूर्वक रहने लगा । एक दिन महावीर स्वामी से उसने अपने प्रति सचेनक हाथी के स्नेह का कारण पूछा । उसने उनसे पूर्वजन्म की सारी घटना जानकर मुनि दीक्षा ग्रहण करने के लिए कहा । भगवान् ने केवलज्ञान से उसका भविष्य देखकर कहा - अभी तुम्हें निकाचित कर्मों का फल भोगना बाकी है उसी समय आकाशवाणी हुई, परन्तु नन्दीषेण कृतसंकल्प था । उसने मुनि दीक्षा लेकर तपस्या करने लगा २८ । एक दिन उसने काम से अपने महाव्रतों को बचाने के लिए आत्महत्या करने के लिए फंदा गले में डालने का प्रयास किया लेकिन शासनदेवी ने उसे विफल कर दिया । फिर वह पहाड़ से गिरा मगर शासनदेव ने उसे ९८ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने हाथों में लेकर समझाया कि निकाचित कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं । एक दिन नन्दीषेण पारणे के लिए एक वेश्या के यहाँ पहुँचे और धर्मलाभ का उच्चारण किया । वेश्या के अर्थलाभ कहने पर मुनि ने अपने तप: तेज से सोने की वर्षा करा दी । वेश्या ने उन्हें अपने कामपाश में बाँध लिया । परन्तु मुनि वेश्या के सुखोपभोग करते हुए भी रोज १० व्यक्तिओं को प्रतिबोध देते थे । यह उनका संकल्प था । इस प्रकार १२ वर्ष बीत गये । एक दिन ९ व्यक्तियों को ही प्रतिबेध दे पाये । बहुत कोशिश किये, उधर वेश्या खाने को बुला रही थी लेकिन वे आ नहीं रहे थे । भी उसने कहा दसवाँ आपको ही प्रतिबोधित समझ लीजिए । इस पर वे पुन: मुनिवेश धारण करके चल दिए । वेश्या के बहुत कहने पर भी नहीं रुके और पुन: मुनिदीक्षा ग्रहण कर चारित्राराधन करने लगे । मरकर देवलोक पहुँचे । ६१. कुण्डरीक और पुण्डरीक की कथा - जम्बूद्वीप के पुण्डकरिणी महानगरी में महापद्म राजा और पद्मावती रानी के पुण्डरीक और कुण्डरीक दो पुत्र हुए । एक बार महापद्म राजा पुण्डरीक को राजा तथा कुण्डरीक को युवराज पद देकर स्वयं दीक्षा ले लिए और चारित्राराधन करके केवली हुए और मोक्ष को प्राप्त हुए । कुछ समय बाद दोनों को किसी स्थविर मुनि से धर्मोपदेश सुनकर विरक्ति हो गयी । लेकिन कुण्डरीक पुण्डरीक को राज्य भार सौंपकर दीक्षा ले लिया । उग्र विहार करने से उसके शरीर में महारोग पैदा हुआ । एक बार वह पुण्डकरिणी नगरी में आया । उसके भाई ने उसकी चिकित्सा करायी । स्वादिष्ट भोजन करने से वह विहार करने नहीं जाना चाहता था फिर भी गया । लेकिन रहरह कर विषयभोग की अभिलाषा उसे सताती रहती थी । आखिर एक दिन उसने गुरुजी से पूछे बिना ही पुण्डकरिणी नगरी वापस आया और अशोकवृक्ष में नीचे चिंतातुर होकर बैठ गया । धायमाता से उसका आया जानकर पुण्डरीक उसके पास आया और उसकी अभिलाषा से अवगत होकर कुटुम्बियों से विचार-विमर्श करके उसे राजगद्दी पर बैठा दिया । पाचन शक्ति की क्षीणता के कारण गरिष्ठ भोजन से उसके शरीर में वेदना होने लगी । घृणा के कारण कोई भी उसकी सेवा नहीं करता था । इस पर वह उनसे बदला लेने की सोचता था जिससे मरकर वह सातवीं नरक का अधिकारी बना१९९ । उधर पुण्डरीक मुनि दीक्षा अंगीकार कर भोजन लिए बिना ही मुनियों के दर्शन वन्दनार्थ कृतसंकल्प होकर चल दिया । अनेक वेदनाओं को सहते १९ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए वह मुनियों के पास पहुँचा उनकी वन्दना की और तत्पश्चात् पारणा किया । इस प्रकार वह मरकर देवरूप में उत्पन्न हुआ।३० । वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर धर्मकरणी करके सिद्धगति में पहुँचा । ६२. शशिप्रमराज की कथा कुसुमपुर नगर में जितारि नामक राजा के शशिप्रभ और सूरप्रभ दो पुत्र थे। राजा अपने बड़े पुत्र शशिप्रभ को राजपद और छोटे पुत्र सूरप्रभ को युवराज पद देकर धर्माराधन करने लगा । एक बार विजयघोष सूरि का उपदेश सुकर सूरप्रभ को वैराग्य उत्पन्न हो गया । उसने शशिप्रभ से दीक्षा के लिए आज्ञा माँगी । लेकिन शशिप्रभ ने उसे बहुत समझाया कि तुम दीक्षा मत लो । आखिर उसने दीक्षा ले ही लिया और तप संयम की आराधना कर मरकर देव बना । इधर शशिप्रभ आसक्तिपूर्वक सुखोपभोग करने के कारण मरकर नारकीय जीव बना । अवधिज्ञान से सूरप्रभदेव ने अपने भाई को नरक स्थित देखकर उसके पास गया और उसे पूर्वजन्म का स्वरूप बताया जिससे उसे भी सब मालूम हो गया । वह बहुत पश्चात्ताप करने लगा और अपने भाई से कर्म बोझ हल्का करने का मार्ग पूछा । ६३. पुलिंद मील की कया एक गाँव का मुग्ध नामक व्यक्ति रोज समीपवर्ती विन्ध्याचल की गुफामें अधिष्ठित महादेव की मूर्ति की पूजा करने आता था । वह मूर्ति की सफाई करके पुष्प चन्दनादि से पूजा करता था । एक बार उसने देखा कि किसी ने उसके पुष्पादि को हटाकर धतूरा आदि के पुष्पों से शिवजी की पूजा की है । एक दिन पूजा समाप्त कर वह छिपकर बैठ गया । थोड़ी देर में देखा एक काला आदमी धनुष बाण लेकर आया और मुँह में भरे पानी से मूर्ति के एक पैर का प्रक्षालन किया । धतूरा का पुष्पादि चढ़ाकर मांस की एक पेशी रखी और नमस्कार करके जाने लगा । शिवजी ने पूछा- तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं है । उसने कहा - आपकी कृपा से कोई कष्ट नहीं है । उसके चले जाने के बाद मुग्ध मूर्ति के पास आकर बोला - शिवजी आप उस पर प्रसन्न हैं और मुझ पर क्यों नहीं । शिवजी ने कहा - तुम दोनों की भक्ति में अन्तर है । मैं उसे किसी दिन बताऊँगा । एक दिन शिवजी का तीसरा नेत्र नहीं था। मुग्ध आया और तीसरा नेत्र न देख बहुत दुःख व्यक्ति किया और रोने लगा । तत्पश्चात् वह आया और तीसरा नेत्र न देखकर बहुत दु:खी हुआ और बाण से अपनी १०० Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक आँख निकाल शिवजी के ललाट पर लगा दिया । तत्पश्चात् पूजा किया । इस पर शिवजी प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दिये और मुग्ध को उसकी “भक्ति" का अन्तर बता दिया । ६४. विद्यादाता चाण्डाल मगध देश की राजधानी राजगृही में राजा श्रेणिक राज्य करता था । उसकी चिलणा को दोहद पैदा हुआ कि वह चारों ओर कोट उद्यान वाले एक खम्भे पर टिके महल में निवास करे । राजा अभयकुमार की सहायता से वैसा बनवा दिया और उसका दोहद पूर्ण किया । उसी समय एक विद्यासिद्ध चाण्डाल की गर्भवती पत्नी को आम खाने का दोहद हुआ । चाण्डाल इस मौसम में कोई उपाय न देख अपनी विद्या की सहायता से रात को उसी महल से एक आम चुराकर अपनी पत्नी का दोहद पूर्ण किया। सुबह जब आम के गायब होने की बात अभयकुमार को मालूम पड़ी तो चोर का पता लगाने के लिए नगर के एक चौराहे पर लोगों को एकत्रित करके एक कहानी सुनाने लगा पुण्यपुर नगर के गोवर्धन सेठ की सुन्दरी नामक एक रूपवती पुत्री थी । वह प्रतिदिन योग्य वर के लिए फूल चुराकर कामदेव यक्ष की पूजा किया करती थी । एक दिन माली ने उसे पकड़ लिया और एक बार अपनी कामवासना तृप्त करने की शर्त पर छोड़ने को कहा । सुन्दरी शादी के बाद शर्त पूरा करने का वचन देकर घर चली गयी । पाँचवें दिन उसकी शादी हुई उसने सुहागरात में अपने पति को सब सुना दिया । पति ने उसे सत्यवादी समझकर जाने की अनुमति दे दी । वह आधी रात को सुसज्जित होकर चली, रास्ते में चोर और राक्षसों को फिर मिलने का वायदा करके उसके पास गयी । माली ने उसकी सत्यवादिता पर उसे छोड़ दिया । फिर वापस लौटते हुए वह राक्षस से भी अपनी सत्यवादिता के कारण मुक्त हो गयी । इस प्रकार पति भी उस पर प्रसन्न हो गया । यह कहानी कहकर अभयकुमार ने पूछा - इसमें सबसे साहसपूर्ण कार्य किसने किया । किसी ने पति को कहा, किसी ने माली को लेकिन चाण्डाल ने चोरों को साहसी बताया । इस पर अभयकुमार ने उसे पकड़कर आम चुराने की बात पूछी उसने स्वीकार कर लिया । अभयकुमार उसे राजा के पास ले गया । राजा ने उसे मृत्युदण्ड दे दिया । लेकिन अभयकुमार के कहने पर राजा ने उससे उसकी विद्या सीखी और बाद में उसे विद्यागुरु मानकर उचित सम्मान के साथ उसे धन देकर विदा किया । - १०१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. अतिस्नानी त्रिदण्डी कथा स्तम्बपुर में चण्डिल नामक एक चतुर नाई अपनी विद्या के बल से हजामत करके अपने अस्त्रों को आकाश में अधर रख दिया करता था । किसी समय एक त्रिदण्डी नाई की विद्या का चमत्कार देखकर उससे वह विद्या सीखने के लिए उसकी सेवाशुश्रूषा करने लगा । वह नाई से विद्या सीखकर घूमते-घूमते हस्तिनापुर आया और लोगों को अपनी विद्या का चमत्कार दिखाया । राजा भी देखने आये । राजा के पूछने पर उसने सरस्वती को ही अपना विद्यागुरू बताया जिससे आकाश में लटकता हुआ त्रिदण्ड जमीन पर गिर गया । सभी लोग उसका मजाक उड़ाने लगे । वह लज्जित होकर वहाँ से चला गया । ६६. कपटशप तपस्वी की कथा उज्जयिनी नगरी में अघोरशिव नामक एक धूर्त ब्राह्मण रहता था । उसकी धूर्तता एवं महापाप के कारण राजा ने उसे देश निकाला दे दिया । उसने चमार देश में जाकर चोरों से कहा यदि तुम लोग मेरी प्रशंसा लोगों के सामने करो तो तुम्हें बहुत धन दूँ । वे स्वीकार करके उसका तीन गाँव के लोगों में झूठ-मूठ का प्रचार करने लगे कि यह तपस्वी है उपवास करता है । भोले लोग उस पर विश्वस्त होकर उसे अपना सब कुछ बताने लगे । वह चोरों को उनके धन का पता बताता था और वे चोर उन्हें लूट लेते थे । एक बार चोर पकड़ा गया । राजा के सामने लाये जाने तथा मृत्युदण्ड की धमकी देने पर उसने कपटी तपस्वी तथा सभी चोरों का भेद बता दिया । राजा ने उस सभी चोरों को मरवा दिया और तपस्वी की दो आँखे निकलवा ली । वह पीड़ा के कारण छटपटाने लगा और अपने आपको धिक्कारने लगा । धर्मकार्य में कपट दुःखदायी होता है । ६७. दर्दुराँकदेव उन दिनों कौशाम्बी महानगरी में शतानिक के राज्य में सेडुक नामक दरिद्र ब्राह्मण रहता था । एक दिन उसकी गर्भवती पत्नी ने प्रसवकाल नजदीक आया जानकर उसने घी - गुड़ लाने को कहा । अर्थाभाव के कारण उसने राजा को एक फल भेंट में रोज दिया करता था । यों सेवा करते काफी दिन हो गये कि दिन दधिवाहन राजा ने कौशाम्बी पर चढ़ायी कर दी । अल्प सेना होने के कारण शतानीक अन्दर ही रहा । वर्षाकाल में फल-फूल तोड़ने निकला हुआ सेडुक दधिवाहन की अल्पसेना १०२ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखकर राजा को सूचित किया । राजा शतानीक ने युद्ध किया और विजयी हुआ। ऐच्छिक मांगने के लिए कहे जाने पर सेडुक अपनी पत्नी से पूछने आया । पत्नी ने सम्पन्न होने पर अपने छोड़े जाने के भय से उसे रोज भर पेट भोजन और एक सुवर्ण मुद्रा मांगने को कहा । सेडुक ने वैसा ही किया । वह धन जन से सम्पन्न हो गया । अतृप्तिपूर्वक भोजन करने से वह कोढ़ी हो गया । उसे सब ताड़ना देते थे जिससे क्षुब्ध होकर उसने बदला लेने के लिए अपने बेटे से एक बकरे का बच्चा पूजार्थ मंगवाया । वह उस बकरे को अपनी कोढ़ का पीब इत्यादि भोजन में दिया करता था जिससे बकरा भी कोढ़ी हो गया । उसका मांस परिवार वालों को खिलाकर वह तीर्थयात्रा पर चल दिया। रास्ते में प्यास लगने के कारण वह एक सरोवर के पास रुका । जलपान करने से उसका रोग ठीक होने लगा । वह वहाँ बहुत समय तक रहकर पूर्ण स्वस्थ बन गया । लेकिन उसका पूरा परिवार कोढ़ी हो गया । वह घर आकर सबको उपालम्भ देने लगा। नगरवालों ने उसकी बेइजती करके नगर से बाहर निकाल दिया। वह भटकते हुए राजगृही नगरी के सदर दरवाजे के पास पहुँचा । इधर भगवान् महावीर के पदार्पण करने पर द्वारपाल सेडुक को दरवाजे के पास रखवाली करने के लिए रखकर वन्दना करने चल दिया । सेडुक भूख लगने पर देवी के मन्दिर में चढ़े नैवेद्यादि खा लिया करता था लेकिन प्यास से त्रस्त होकर वह मर गया और दरवाजे के समीप बावड़ी में मेढ़क बना३१ । नगरनारियों से भगवान महावीर का आगमन सुनकर जातिस्मरण ज्ञान से पूर्वजन्म ज्ञात हुआ । वह दर्शनार्थ जा रहा था कि घोड़े से कुचल कर मर गया । मरकर दराकदेव बना । वह देव राजा श्रेणिक के सम्यक्त्व के परीक्षार्थ भगवान महावीर के पास कोढी वेश में आया । वह अपने शरीर पर दुर्गन्धित मवाद, जो वास्तव में चन्दन था, का लेप करता था । यह देखकर श्रेणिक को क्रोध आया संयोगवश भगवान् को छींक आयी । उसने कहा आप जल्दी मरें । श्रेणिक के छींकने पर उसने कहा - आप चिरकाल तक जीएं । अभयकुमार के छींकने पर कहा चाहे मरें चाहे जीएं । कालसौरिक कसाई के छींकने पर कहा - न जीओ न मरो । इस पर राजा श्रेणिक क्रोधित होकर उसे पकड़वाना चाहा, लेकिन देव आकाश में उड़ गया। उसने भगवान् से उसके बारे में जानकारी प्राप्त की । फिर उसके कथनों का रहस्य पूछा । भगवान् ने कहा – मुझे जल्दी मरने के लिए इसलिए कहा कि मरने के बाद मुक्तिसुख मिलेगा । आपको जीने के लिए इसलिए कहा कि आप मरकर नरक में जाने वाले १०३ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । अभयकुमार यहाँ भी शुभ कर्म से सुख कर रहा है और मरकर भी देव बनेगा। और वह कालसौरिक जीता रहा तो भी पापकर्म करेगा और मरेगा तो भी सातवीं नरक में जायेगा । दुर्दरांक देव का अभिप्राय जानकर श्रेणिक ने अपने नरकायुष्कर्मों को टालने का उपाय पूछा । भगवान् ने कहा - यदि तुम्हारी कपिला दासी शुद्ध भाव से दान दे । अथवा कालसौरिक पशुवध बन्द कर दे तो तुम्हें नरक में नहीं जाना पड़ेगा। वह आश्वस्त हो राजमहल की ओर जा रहा था कि उसकी सम्यक्त्व परीक्षा के लिए दुर्दुरांक देव पुन: जैन साधु वेश में मछलियों से भरा जाल लेकर चला आ रहा था । राजा श्रेणिक ने उसे बहुत सारे प्रश्न किये । उसने अपने आपको मांसाहारी, जुआरी, शराबी, व्यभिचारी, चोर इत्यादि बताया । इन उत्तरों से राजा अपने सम्यक्त्व से विचलित नहीं हुआ । फिर वह दुर्दुरांक देव गर्भवती साध्वी का वेश बनाये राजा के सामने से होकर जा रहा था कि राजा ने उसके गर्भ का कारण पूछा – उसने उत्तर दिया भगवान महावीर की सभी साध्वियां ऐसी ही होती हैं। फिर भी वह अपनी श्रद्धा पर अटल रहा । फिर दुर्दुरांक देव प्रसन्न होकर प्रकट हुआ और उसे एक हार और दो गोले भेंट देकर वापस लौट गया । राजा ने वह हार चिलणा रानी को और दो गोले नन्दारानी को दिये । नन्दारानी ने अप्रसन्न होकर गोलों को फेंक दिया । जिससे फूटकर एक में से दो दिव्य वस्त्र निकले जिससे वह प्रसन्न हो गयी । राजा श्रेणिक ने कपिला दासी को बुलाकर जबरदस्ती दान देने को कहा लेकिन उसने शुद्ध मन से दान नहीं दिया। फिर राजा ने कालसौरिक से पशुवध रोकने को कहा उसने धन्धा होने के कारण रोकने से इन्कार कर दिया । राजा ने उसे अंधे कुएँ में गिरवा दिया । लेकिन वहाँ भी कीचड़ के भैंसे बनाकर वध किया करता था । अंत में असफल होकर भगवान् की बात सत्य मान लिया । ६८. सुलस की कथा राजगृही नगरी में कालसौरिक नामक कसाई रोज ५०० भैसों को मारकर अपने परिवार की जीविका चलाता था । उसका सुलस नामक पुत्र था । एक बार कालसौरिक को भयंकर बीमारी के कारण अत्यन्त वेदना होने लगी। कोई भी दवा काम नहीं करती थी। सुलस ने अपने मित्र अभयकुमार से सलाह पूछा५३२ – अभयकुमार ने कहा - यह सब तुम्हारे पिता के पापकर्म का फल है उसे नरक में जाना ही पड़ेगा। १०४ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत: तुम उसे साधारण दवा करो । वह ठीक हो जायेगा । वह उसे कंटीली शय्या पर सुलाता तथा विष्टा आदि का लेप करता था जिससे वह शान्त हो गया। कुछ समय बाद मरकर सातवीं नरक में गया। उसके मरणोपान्त उसके परिवार वालों ने सुलस को भी वही कर्म करने को कहा । सुलस ने ऐसा पाप कर्म करने से साफ इन्कार कर दिया। परिवार वालों ने पाप बाँटने को कहा तब उसने समझाने के लिए अपना पैर काटकर पीड़ा बाँटने को कहा । उस पर कोई तैयार नहीं हुआ। उसने कहा जब आप लोग मेरी पीड़ा नहीं बाँट सकते तो पाप कर्म कैसे बाँट सकते हैं। सुलस की इस बुद्धि कौशल से सब समझ गये और अभयकुमार भी यह जानकर बहुत खुश हुआ। चिरकाल तक श्रावक धर्म का पालन कर सुलस आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग में गया । ६९. जमाली की कथा कुण्डपुर नगर में जमाली नामक धनी क्षत्रिय रहता था । वह भगवान महावीर की पुत्री सुदर्शना'३३ सहित अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह करके सुखपूर्वक रह रहा था । एक दिन भगवान महावीर का धर्मोपदेश सुनकर वह ५०० राजकुमारों के साथ दीक्षा ग्रहण किया और सुदर्शना भी बहुत-सी महिलाओं के साथ दीक्षित हुई। एक बार भगवान महावीर की अनुमति न होने पर भी जमाली अपने ५०० शिष्यों के साथ पृथक् विहार करने चल दिये । विहार करते हुए वे श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक वन में निवास किये । वहाँ उन्हें महाज्वर उत्पन्न हुआ । उन्होंने अपने एक शिष्य से संथारा बिछाने को कहा । वह बिछाने लगा फिर पूछने पर उसने कहा बिछ गया समझिए । जमाली उसे बिस्तर करते हुए देखकर डाँटते हुए कहा हो रहे काम को तुम हो गया कैसे कह सकते हो ? उसने भगवान महावीर का कडमाणे कडे का सिद्धान्त वचन सुनाया । वह उस सिद्धान्त से सहमत नहीं हुआ'३५ । उसके शिष्य उसके हठाग्रह के कारण उसको अयोग्य समझ कर उसे छोड़कर भगवान महावीर की सेवा में चले गये । जमाली धीरे-धीरे स्वस्थ होकर विहार करते हुए चम्पानगरी पहुंचा जहाँ भगवान महावीर शिष्यों सहित विराजमान थे । वहाँ उसने सबको सुनाते हुए कहा कि मैं केवली हूँ । इस पर गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि लोक और जीव शाश्वत है या अशाश्वत जमाली के निरुत्तर होने पर गौतमस्वामी ने स्वयं उत्तर दिया कि लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों है । सुदर्शना साध्वी भी जमाली के पक्ष में हो गयी । संयोग से वह उसी नगरी में ढंक कुंभार की उद्योगशाला में ठहरी हुई थी । ढंक कुंभार ने उसे भगवान महावीर का सिद्धान्त समझाने के लिए उसके चादर को दो तीन जगह १०५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलाकर छेद कर दिया । सुदर्शना बोली - मेरी चादर क्यों जला डाली । इस प्रकार ढंक ने कहा - चादर कहाँ जली । अभी तो बाकी है जैसा कि आपका सिद्धान्त है । आप तो महावीर के ही सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर रही हैं । सुदर्शना इससे प्रभावित हुई और जमाली का साथ छोड़कर महावीर के पास गयी और शुद्ध चारित्रपालन करके केवलज्ञान प्राप्त किया और मोक्ष पायी । जमाली मिथ्या प्ररूपणा करके १५ दिन तक कष्टमय अनशन करके मरकर नीची जाति का देव बना३५ । वहाँ से वह विविध योनियों में भटकता रहेगा । ७०. अंगसंगोपनकर्ता कछुए का दृष्टान्त वाराणसी नगरी में गंगा नदी के पास मृदगंग नामक सरोवर था । वहीं एक मालुयाकच्छ नामक जंगल भी था। उसमें दो दुष्ट गीदड़ रहते थे। एक दिन सरोवर से दो कछुए बाहर निकले । वे गीदड़ उन्हें मारने के लिए झपटे लेकिन कछुओं ने अपने अंग छिपा दिये । गीदड़ बहुत प्रयत्न किये लेकिन असफल होकर नजदीक कहीं छीपकर बैठ गये । थोड़ी देर बाद एक कछुआ इस विचार से अपना सिर बाहर निकाला कि गीदड़ कहीं दूर गये होंगे । तब तक दुष्ट गीदड़ों ने उसकी गरदन पकड़ ली और नोच-नोच कर खा गये । वे गीदड़ दूसरे कछुए को मारने का बहुत प्रयत्न किये लेकिन असफल होकर दूर चले गये । दूसरा कछुआ उनको दूर गया जानकर बहुत देर के बाद अपनी गरदन थोड़ी-थोड़ी बाहर निकाली और निश्चिन्त होकर तेज भागा और सरोवर में अपने परिवार से जा मिला३६ । उपसंहार उपदेशमाला के विषय में किये गये अध्ययन का सार इस प्रकार है - ग्रन्थ के समीक्षात्मक सम्पादन के लिए आठ (सात ताडपत्र और एक कागज की) हस्तप्रतों का उपयोग किया गया प्रकाशित संस्करणों के आधार पर ग्रन्थ के समीक्षात्मक सम्पादन की आवश्यकता सिद्ध की गई। इसमें कुल ५४० गाथाएँ ही मौलिक हैं। इसकी भाषा महाराष्ट्री है जो अंशत: अर्धमागधी से प्रभावित है । इसमें छ: पद्यों को छोड़कर शेष सभी पद्य गाथा छन्द में हैं । छ: पद्यों में से चार अनुष्टुप छन्द में, एक रथोद्धता और एक विपरीत आख्यानकी छन्द में है । उपदेशमाला का समय पाँचवीं से नौवीं सदी के बीच ठहरता है । १०६ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ : १. देखिए - तालिका नं० १. २. देखिए - तालिका नं० २. ३. अवर्णो य श्रुति: ८.१.१८० कगचजेत्यदिना लुकि सति शेषः अवर्णः अवर्णात्परो लघुप्रयत्नतरयश्रुतिर्भवति ।। नयरं, रसायलो, पयावई, पायालं । क्वचिद् भवति । यथा - पियइ (पिबति) सरिया (सरितापालि सरित् सं) ८.१.१५ - प्राकृत व्याकरण - हेमचन्द्र ४. यत्वमवणे ३.३७ ककारवर्ग तृतीयोरवणे परे यत्वं भवति । काका: = काया; नागा: = नाया - प्राकृत लक्षण-चण्ड ५. प्रचलाचिराचलादिषु भवति चकारोऽपि तु यकार: ।। - १७.१६ नाट्यशास्त्र- भरतमुनि ६. पालि लिटरेचर एण्ड लैंग्वेज : गाइगर, पृ० ८१-८२. ७. हिस्टोरिकल ग्रामर ऑफ इंस्क्रीप्सनल प्राकृत्स - एम. ए. मेहेण्डले पूना १९४८, पृ० २७१-२७६. ८. Nabhas and siras according to grammarians (VI. 4.19; HC (1.32; KI 2, 134; MK. Fol. 35) only as neuter are used according to the declension .... M. Siram. A. Comparative Grammar of the Prakrit Languages, - R. Pischel, para 356 ९. Ibid., para 429. १०. Ibid., 421. ११. Ibid., 425. १२. द्वितीया तृतीययोः सप्तमी । - हेमशब्दानुशासन ८.३.१३५ १३. क्वचिद् द्वितीयादेः । - वही ८.३.१३४ १०७ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. ए कम्परेटिव स्टडी आफ दी लैंग्वेज ऑफ पउमचरियं एण्ड वसुदेवहिण्डी । - डॉ. के. आर. चन्द्र ३१वा आल इण्डिया ओरिएण्टल कन्फरेंस प्रोसीडिंम्स राजस्थान युनिवर्सिटी जयपुर । २९-३१ दिसम्बर १९८२. १५. छन्दोऽनुशासन ४.१. (हमचन्द्र) १६. बृहद् अनुवाद चन्द्रिका, पृ० ५७४. १७. छन्दोऽनुशासन २.१४१. १८. वही, ३.९. १९. Ludwig Alsdorf Kleine Schriften Franz Steiner Verlag GMBH Wiesbaden, 1974, pp. 195-96. २०. .....उपदेशमालाख्य कृति: अपश्चिमतीर्थकृच्छ्रमणभगवच्छ्रीमहावीरप्रभुवरदकरानन्तलन्धिभाजन भूतैः निष्कारणकरुणावरुणालयैः श्रीमद्भिर्धर्मदासगणिवरैरपारघोरसंसारवारिधिनिमजद्रणसिंहादिभाव्यनेकभव्यसत्त्वोबिधीर्षया निर्णीताऽस्ति ....... । - उपदेशमाला सटीका ___ - रत्नप्रभसूरि : उपक्रम, पृ० १७ (सन् १९५८) २१. History of Indian Literature, p. 560. २२. धर्मोपदेशमाला - विवरण प्रास्ताविक वक्तव्य, पृ० १३ (सन् १९४९) २३. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ४९१ (१९६१) २४. विस्तृत विवरण के लिए देखें - "द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ में "आर्यकालक" नामक लेख, २५. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य, साध्वी संघमित्रा, पृ० ४१. (१९८६) २६. वही, पृ० ४२. २७. नन्दीसुत्त एण्ड अणुओगहाराई - प्रस्तावना, पृ० ५०. (१९६८) २८. उपदेशमाला सटीका रत्नप्रभसूरि, प्रस्तावना, पृ० २०. 28. Comparative Study of the Language of Paumacariyam and Vasudevahindi - Dr. K. R. Chandra. ३०. मात्र "तुह" शब्द का प्रयोग हुआ है और वह केवल एक बार मिलता है । ३१. यह प्रयोग एक ही बार मिलता है । ३२. वसुदेवहिण्डी उपोद्घात, पृ० २, बी. जे. सांडेसरा । (१९४६) १०८ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. (अ) ए क्रिटिकल स्टडी आफ पउमचरियं, भूमिका, पृ० १७. - डॉ० के० आर० चन्द्रा (१९७०) (ब) याकोबी ने तीसरी शताब्दी माना है । - पउमचरियं भाग १, भूमिका पृ० १५, एच० याकोबी (१९४६) ३४. ए कम्परेटिव स्टडी आफ दी लैंग्वेज आफ पउमचरियं एण्ड वसुदेवहिण्डी । - डॉ० के० आर० चन्द्रा ३५. इनका समय वि० सं० ६५० से ७५० के आसपास है - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, प्रास्ताविक पृ० ३२. ३६. वसुदेवहिण्डी उपोद्घात, पृ० २. ___ - बी० जे० सांडेसरा (१९४६) ३७. आवश्यकवृत्ति (हरिभद्र) के अनुसार उसको किसी नाविक ने पकड़ लिया । पृ० २२३. ३८. (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ३१८-९. (२) कल्पसूत्रवृत्ति विनय विजय, पृ० १७०. (३) कल्पसूत्रवृत्ति धर्मसागर, पृ० १०९. ३९. (१) कल्पसूत्र १३५.. (२) तीर्थोद्गालिक, ४६२. (३) दशवकालिक चूर्णि, पृ० ५०. (४) भगवतीसूत्र, ३८२. (५) आवश्यकचूर्णि १, पृ. ३२०. (६) अन्तकृद्दशांग, १७-२६. (७) आवश्यकसूत्र, पृ० २८. (८) समवायांग, १५७. ४०. (१) जम्बूदीपप्रज्ञप्ति, ४२. (२) स्थानांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० ४७९. ४१. (१) आवश्यकनियुक्ति १९६, ३९९. (२) कल्पसूत्रवृत्ति - विनयविजय, पृ. २३६. (३) समवायांग, १५८. ४२. (१) समवायांग, १५८. (२) स्थानांग, ७१८. (३) तीर्थोद्गालिक, २९४, ५५९. १०९ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) आवश्यकनिर्युक्ति, ३७४. (५) आवश्यक, पृ० २७. (६) आवश्यकचूर्णि १, पृ० १८०. (७) दशवैकालिकवृत्ति - हरिभद्र, पृ० ४८. ४३. (१) आवश्यकनिर्युक्ति, १९६. (२) तीर्थोद्गालिक, २८४. (३) विशेषावश्यकभाष्य, १६१४. ४४. (१) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४३. (२) आवश्यकचूर्णि १, पृ० १८१ ४५. (१) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ६१, ६६, ६८, ६९. (२) तीर्थोद्गालिक, ३०१. (३) बृहत्कल्पभाष्य, ४२१८. ४६. (१) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४५, ४९, ५० - ६२. (२) आवश्यकचूर्णि ठ, पृ० १८६. (३) आवश्यकवृत्ति - हरिभद्र, पृ० ३४८. ४७. भरत ने छ: लाख पूर्व वर्ष तक शासन किया । (१) स्थानांग, ५१९. (२) समवायांग, ८३, १२९. (३) विशेषावश्यकभाष्य, १७५३. (४) पिण्डनिर्युक्ति, ४७९. (५) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ७०. ४८. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ७०. (२) आवश्यकनिर्युक्ति, ४३७. (३) आवश्यकचूर्णि ठ, , पृ० २२७. ४९. वह क्षितिप्रतिष्ठित का रहनेवाला था । ५०. (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ४५६. (२) निशीथचूर्णि IV,, पृ० ६८. (३) आवश्यकनिर्युक्ति, ११५८. (४) आचारांगचूर्णि, पृ० १७९. ११० पाक्षिकसूत्रवृत्ति, यशोदेश, पृ० ११. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) स्थानांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० ४४. (६) आवश्यक, पृ० २७. ५१. (अ) आवश्यकनियुक्ति, ३४९. (ब) आवश्यकभाष्य, ३२-३५. (स) आवश्यकचूर्णि १, पृ. २१०, २११. (द) विशेषावश्यकभाष्य, १७२०. ५२. (१) मरणसमाधि, ४१०. (२) उत्तराध्ययनवृत्ति नेमिचन्द्र, पृ० २३७. (३) अ- आवश्यकवृत्ति मलयगिरि, पृ० २३९. (३) ब- आवश्यकवृत्ति, नियुक्ति, ४१०. (४) वही, चूर्णि, पृ० ६४, ९३, १६७, १७८. (५) आचारांगवृत्ति-शीलांक, पृ० १२६, १४३, २०६. (६) सूत्रकृतांगवृत्ति-शीलांक, पृ० ८२. (७) स्थानांग, २३५. (८) वही, वृत्ति- अभयदेव, पृ० २७३, २७४. (९) उत्तराध्ययन, १८-३७. (१०) वही, चूर्णि, पृ० ५०. (११) वही, वृत्ति शान्तिसूरि, पृ० ७८, ३७६, ५८२. (१२) वही, वृत्ति कमलसंयम, पृ० ३२० एफ. ५३. (१) आवश्यकनियुक्ति, ३७५. (२) तीर्थोद्गालिक, ५६०-११४१. (३) स्थानांग, २३६. (४) समवायांग, १५८. (५) उत्तराध्ययन नियुक्ति, पृ० ३७९-८०. (६) वही, वृत्ति शान्तिसूरि, पृ० ३७९-८८. (७) विशेषावश्यकभाष्य, १७६३. (८) निशीथचूर्णि II, पृ० २१. (९) मरणसमाधि, ३७६. ५४. (१) उत्तराध्ययन अ० १३. (२) निशीथचूर्णि [II, पृ० ५८. (३) आचारांगचूर्णि, पृ० १९, ७४, १२१, १९७, ३८१. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) आवश्यकचूर्णि १, पृ० ३६६, ४४६; II, पृ० ७९, ३०७. (५) दशवकालिकचूर्णि, पृ० १०५, ३२८. (६) जीवाजीवाभिगम, ८९. (७) स्थानांग ११२, ५६३. (८) विशेषावश्यकभाष्य, १७७६. ५५. (१) आवश्यकचूर्णि II, पृ० १७१, १७७, १८०. (२) निशीयसूत्रचूर्णि I, पृ० २. (३) स्थानांगवृत्ति अभयदेव, पृ० १८२. (४) आचारांगवृत्ति शीलांक, पृ० २१०. (५) बृहत्कल्पभाष्य, १२३८. (६) जीतकल्पभाष्य, २४९६. (७) आचारांगचूर्णि, पृ० ६. ५६. (१) निशीथसूत्र III, पृ० १४०-४१, २६९. (२) बृहत्कल्पभाष्य, ५२२५. (३) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ३९७ अफ अफ (४) बृहत्कल्पवृत्ति क्षेमकीर्ति, पृ० ७०६. ५७. अनंगसेनने मरकर हासा और पहासा के पति के रूप में पुनर्जन्म लिया । ये दोनों औरतें विजुमाली नामक यक्ष की पत्नियाँ थीं और विधवा हो चुकी थीं। (१) निशीथसूत्रचूर्णि III, पृ० १४०-४१, २६९. (२) बृहत्कल्पभाष्य, ५२२५. (३) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ३९७ एफएफ. (४) बृहत्कल्पवृत्ति क्षेमकीर्ति, पृ० ७०८. ५८. (१) आवश्यकचूर्णि I, , पृ० ६१५. (२) वही, नियुक्ति १०५५. (३) दशवकालिकचूर्णि, पृ० ५०. (४) निशीथसूत्रभाष्य, ६६०६. (५) भक्तपरिज्ञा ५०. (६) व्यवहारसूत्रवृत्ति-मलयगिरि III, पृ० ३४. (७) स्थानांगसूत्रवृत्ति-अभयदेव, पृ० २५८. ५९. (१) तीर्थोद्गालिक ६९८. (२) व्यवहारभाष्य, १०, ६९९. ११२ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. आवश्यकचूर्णि I, पृ० ४९७. ६१. ज्ञाताधर्मकथा, पृ० १३६-४०. ६२. (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ४९७-९८. (२) आवश्यकनिर्युक्ति, ४७३-७६. (३) व्यवहारसूत्रभाष्य, १०.५९४. (४) आचारांगचूर्णि, पृ० १३९. (५) भक्तपरिज्ञा, ८८. (६) संस्तारक, ८६. (७) मरणसमाधि, ४२७-३०. ६३. (१) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० ७६. (२) वही, वृत्ति - शान्तिसूरि, पृ० ११९. (३) आवश्यक, पृ० २७. (४) आचारांगचूर्णि, पृ० ७५, ३७४. ६४. निशीथचूर्णि में श्रावस्ती के बदले चम्पा नाम है । ६५. (अ) उत्तराध्ययननिर्युक्ति, पृ० ११४- ११५. (ब) वही, चूर्णि, पृ० ७३. ( स ) वही, शान्तिसूरिटीका, पृ० ११४- ११५. (द) मरणसमाधि ४४३, ४९५. (य) जितकल्पभाष्य, ५२८, २४९७-९८. (र) आचाराङ्गचूर्णि, पृ० २३५-६. (ल) बृहत्कल्पभाष्य, ३२७२-७४, ५५८३. (ब) निशीथचूर्णि IV, पृ० १२७. (श) बृहत्कल्पवृत्ति - क्षेमकीर्ति, पृ० १३३५, १४७८. ६६. (१) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० २०२-३. (२) वही, निर्युक्ति, पृ० ३५४-५६. (३) वही, वृत्ति शान्तिसूरि, पृ० ३५४ - ५६. ६७. ( १ ) उत्तराध्ययन, अ० १२. (२) वही, वृत्ति कमलसंयम, पृ० २३५ एफएफ. (३) निशीथचूर्णि III, पृ० ५८. (४) स्थानांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० २३७. ११३ निशीथचूर्णि, ४, पृ० १२७. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) स्थानांग, ३१५. ६८. (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ३८१-४०६, ५४३. (२) वही, नियुक्ति ७६५ एफएफ, ९४४, ११८८. (३) विशेषावश्यक भाष्य २७७४-२७८१. (४) निशीथचूर्णि III, पृ० ४२५. (५) ओघनिर्युक्ति, ४५६. (६) निशीथसूत्रभाष्य, ३२. (७) आचारांगचूर्णि, पृ० २४७. (८) दशवैकालिकचूर्णि, पृ० ५२, ९७. (९) नन्दीसूत्रवृत्ति - मलयगिरि, पृ० १६७. (१०) कल्पसूत्रवृत्ति, विनयविजय, पृ० २६२ एफएफ. (११) भक्तपरिज्ञा, पृ० ५८६, ६५४. ६९. जितकल्पभाष्य ८२५-८४६. ७०. आवश्यकचूर्णि में यह सालिग्गाम है । देखें आवश्यकचूर्णि II, पृ० ९४. ७१. स्थानांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० ४७४. ७२. आवश्यकचूर्णि II, पृ० ९४. ७३. (अ) दशवैकालिक, पृ० ५९. (ब) कल्पसूत्रचूर्णि, पृ० ९६. ७४. (१) अन्तकृद्दशांग. (२) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ३५५, ३५८, ३६२, ३६४-६५, ५३६. (३) व्यवहारसूत्रभाष्य IV, १०५. ( ४ ) बृहत्कल्पभाष्य ६१, ९६. (५) मरणसमाधि ४३१-२. (६) आचारांगवृत्ति-शीलांक पृ० २५५. (७) स्थानांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० २८१. ७५. (१) आवश्यकचूर्णि II, पृ० १८३ एफएफ. (२) उत्तराध्ययनवृत्ति शान्तिसूरि, पृ० १५० एफएफ. (३) तीर्थोद्गालिक, ७४२ एफएफ. ७६. (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ५५४, II, पृ० १८६. (२) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ६६. ११४ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) बृहत्कल्पभाष्य, २१६४-५. ७७. नन्दीसूत्र ४-२४. ७८. कल्पसूत्रवृत्ति लक्ष्मीवल्लभ, पृ० १६१. ७९. उपकोशा पाटलीपुत्र की वेश्या थी । (अ) आवश्यकचूर्णि १, पृ० ५५४. (ब) आचारांगवृत्ति शीलांक, पृ० २१४. ८०. आवश्यकचूर्णि II, पृ० १८५. ८१. (१) आवश्यकचूर्णि 1, पृ० १३३, १८०. (२) आवश्यकनियुक्ति, १७६. (३) विशेषावश्यक, १५९१. ८२. (१) भगवतीसूत्र १३४-७, ४१७. (२) उत्तराध्ययनसूत्र वृत्ति शान्तिसूरि पृ० ६८. ८३. (१) स्थानांग, पृ० ५१०. (२) बृहत्कल्पभाष्य ४२१९, ४२२३. (३) आवश्यक पृ० २७. (४) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ३७२. (५) आचारांगचूर्णि, पृ० १३९. (६) आचारांगवृत्ति शीलांक पृ० १८३. (७) राजप्रश्नीयवृत्ति -मलयगिरि, पृ० ११८. ८४. (१) आवश्यकचूर्णि II, पृ० १५७. (२) वही, वृत्ति -हरिभद्र, पृ० ६७०. (३) आवश्यक, पृ० २७. (४) जितकल्पभाष्य, ५३६. (५) आचारांगचूर्णि, पृ० २९०. (६) भक्तपरिज्ञा, १६०. (७) मरणसमाधि, ४३८. (८) व्यवहारसूत्रभाष्य १०.५९७. (९) संस्तारक ६५-६६. (१०) आचारांगवृत्तिशीलांक, पृ० २९१. ८५. (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ४९४-५, पृ० १९. ११५ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) वही, नियुक्ति ८६६, ८७०-७१. (३) विशेषावश्यकभाष्य, ३३३२, ३३३८-९. ( ४ ) स्थानांग, १५७, २३६. (५) वही, वृत्ति - अभयदेव, पृ० १८२, ४७४. (६) मरणसमाधि, ४२५-६. ८६. (१) निशीथसूत्रचूर्णि III, पृ० ४०८. (२) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ६७. (३) पिण्डनिर्युक्तिभाष्य ४. (४) वही, वृत्ति मलयगिरि, पृ० १२५- ६०. (५) वही, पिण्डनिर्युक्ति ४२७. (६) मरणसमाधि, ४९१. ८७. ( १ ) भगवतीसूत्र ५५३ . (२) स्थानांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० ५२३. (३) कल्पसूत्रवृत्ति - विनय विजय, पृ० ३८. ८८. भगवतीसूत्र, ५५८. ८९. (१) राजप्रश्नीय सूत्र १४२ एफएफ. (२) आवश्यकनिर्युक्ति ४६९. (३) बही, चूर्णि I, पृ० २७९. (४) विशेषावश्यक १९२३. (५) आवश्यकसूत्रवृत्ति ९०. आवश्यकचूर्णि I, पृ० ४९५. ९१. समवायांग १५७. ९२. (अ) समवायांग २४, १५७. (ब) नन्दीसूत्र भाग ५, १९. (स) स्थानांग ५३. (द) आवश्यकनिर्युक्ति, ४२४. ९३. आवश्यकनिर्युक्ति, ४०८. ९४. (१) अन्तकृद्दशा - ९. हरिभद्र, पृ० १९७. (२) उत्तराध्ययनवृत्ति नेमिचन्द्र, पृ० ३७. (३) समवायांग १५८. · ११६ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) जीवाजीवाभिगम वृत्ति मलयगिरि, पृ० १३०. (५) सूत्रकृतांगवृत्ति - शीलांक, पृ० ११. ९५. उत्तराध्ययनवृत्ति नेमिचन्द्र, पृ० ३७. ९६. (१) वही, पृ० ४०. (२) अन्तकृद्दशा- ९. ९७. उत्तराध्ययनवृत्ति नेमिचन्द्र, पृ० ४३. ९८. भगवतीसूत्र, १४४. ९९. (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ४९२. (२) वही, वृत्ति हरिभद्र पृ० ३६६. १००. मरणसमाधि ४४०. १०१. (अ) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ११२-११३. (ब) आवश्यकवृत्ति, हरिभद्र, पृ० ९४. (स) आवश्यकवृत्ति - मलयगिरि, पृ० १३६-३७. (द) बृहत्कल्पभाष्य, १७२. (य) बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति - मलयगिरि, पृ० ५६-५७. (र) मरणसमाधि, ४३३. १०२. (क) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ११२-११३. (ख) मरणसमाधि ४३३. (ग) आवश्यकनियुक्ति १३४. (घ) विशेषावश्यकभाष्य १४२०. (ङ) बृहत्कल्पभाष्य १७२. (च) बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति मलयगिरि, पृ० ५६. १०३. उपासकदशांग १८. १०४. वही, १९-२३. १०५. (१) आवश्यक, पृ० २७. (२) वही, चूर्णि I, पृ० ५६८. (३) वही, नियुक्ति ९४६. (४) वही, वृत्ति हरिभद्र, पृ० ४३८. (५) विशेषावश्यक भाष्य, ३६४६. (६) उत्तराध्ययनवृत्ति कमलसंयम, पृ० ५९-६१. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६. (१) उत्तराध्ययन १३.१. (२) वही, चूर्णि, पृ० २१४. (३) वही, वृत्ति शान्तिसूरि, पृ. ७६-७७. (४) समवायांग १५८. (५) आवश्यकनियुक्ति ३९८. १०७. (१) औपपातिक सूत्र ९. (२) निरयावलिका १.१. १०८. (१) निरयावलिका १.१. (२) आवश्यकचूर्णि II, पृ० १६६-७. १०९. निरयावलिका १.१. ११०. (१) आवश्यकचूर्णि II, पृ० १७१. (२) निरयावलिका १.१. १११. (१) औपपातिकसूत्र-७. (२) निरयावलिका १.१. ११२. (१) व्यवहारभाष्य १०-५३६. (२) आवश्यकचूर्णि, २ पृ० १७२. (३) जितकल्पभाष्य ४८०.. (४) निरयावलिका १.१. १ १३. (१) आवश्यकचूर्णि १, पृ० ५६३-५. (२) निशीथसूत्रभाष्य ४४६३ एफएफ. (३) आचारांगचूर्णि पृ. ४९ (४) आचारांगवृत्ति शीलांक, पृ० १००. (५) दशवैकालिकचूर्णि, पृ० १०३. (६) निशीथचूर्णि ४, पृ० १००. ११४. (१) औपपातिकसूत्र ७. (२) निरयावलिका १.१. ११५. (१) व्यवहारसूत्र भाष्य, १०.५३६. (२) आवश्यकचूर्णि II, , पृ० १७२. (३) जितकल्पभाष्य ४८०. (४) निरयावलिका १.१. ११८ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६. (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ५६३-५. (२) निशीथसूत्रभाष्य, ४४६३ एफएफ (३) आचारांगचूर्णि, पृ० ४९. (४) आचारांग वृत्ति - शीलांक, पृ० १००. (५) दशवैकालिकचूर्णि, पृ० १०३. (६) निशीथसूत्रचूर्णि ४, , पृ० १००. ११७. (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ५२०-२१. (२) आचारांगचूर्णि, पृ० ४९. (३) विशेषावश्यकभाष्य ३५७५. (४) जीवाजीवाभिगम ८९. (५) वही, वृत्ति - मलयगिरि, पृ० १२१. (६) आचारांगवृत्ति - शीलांक, पृ० १००. (७) सूत्रकृतांगवृत्ति - शीलांक, पृ० १७०. (८) वही, चूर्णि, पृ० २०९. (९) भक्तिपरिज्ञा, १५३. ११८. (१) नन्दी सूत्र ५.२५. (२) वही, वृत्ति - मलयगिरि, पृ० ४९. (३) कल्पसूत्र ६-७ (स्थविरावली) (४) आवश्यकनियुक्ति १२७८. ११९. (१) ज्ञाताधर्मकया, १७-३१. (२) विपाकसूत्र, ३३. (३) वही, वृत्ति - अभयदेव, पृ० ९०. (४) अनुत्तरौपपातिक सूत्र. (५) अन्तकृहशांग I, ६. (६) आवश्यक, पृ० २७. (७) वही, चूर्णि I, पृ० २५८०, ३५८. (८) कल्पसूत्रवृत्ति - विनय विजय, पृ० ३१ एफएफ. (९) वही, वृत्ति - धर्मसागरसूरि, पृ० ३०. १२०. (१) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० ३१. (२) वही, वृत्ति - शान्तिसूरि, पृ० ५०. (३) उत्तराध्ययनवृत्ति, कमलसंयम, पृ० १०-१२. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) बृहत्कल्पभाष्य ६१०२-४. (५) आवश्यकचूर्णि II, पृ० ७७. (६) वही, वृत्ति - हरिभद्र, पृ० ५७७. १२१. बृहत्कल्पभाष्य, १३४९-५१. १२२. (१) आवश्यकचूर्णि II, पृ० ३६, १७७-१७८, १, पृ० ५५९. (२) वही, निर्युक्ति, ११९१. (३) स्थानांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० ४७४. (४) संस्तारक ५६. (५) नन्दीसूत्रवृत्ति - मलयगिरि, पृ० १६६. १२३. पुष्पचूला के पिता ने ही आचार्य से उसके स्वप्न की बात पूछी ( अर्थात् पुष्पचूला की दीक्षा के समय उसके पिता जीवित थे ) (१) आवश्यकचूर्णि II, पृ० ३६, १७७-१७८, १, पृ० ५५९. (२) वही, नियुक्ति १९९१. (३) स्थानांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० ४७४. (४) संस्तारक ५६. (५) नन्दीसूत्रवृत्ति - मलयगिरि, पृ० १६६. १२४. (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ५५९, II, पृ० ३६, १७७-१७८. (२) वही, निर्युक्ति ११९१. (३) स्थानांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० ४७४. (४) संस्तारक ५६. (५) नन्दीसूत्रवृत्ति - मलयगिरि, पृ० १६६. १२५. आवश्यकनिर्युक्ति, पृ० ११९०-९१. (२) बही, चूर्णि II, पृ० ३६, १७७. (३) वही, वृत्ति - हरिभद्र, पृ० ४२९-३०. ( ४ ) निशीथचूर्णि II, पृ० २३१. (५) संस्तारक ५६-७. १२६. (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० १८१, ११, पृ० २१२. (२) वही, निर्युक्ति, ३४४. (३) विशेषावश्यकभाष्य १५७९, १७२५. (४) कल्पसूत्रवृत्ति विनय विजय, पृ० २४०. (५) वही, वृत्ति - धर्मसागर, पृ० १५७. १२० Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७. निशीथचूर्णि II, पृ० ४१७-१८. (२) वही, भाष्य २९५१. (३) बृहत्कल्पभाष्य ५२५४-९. (४) गच्छाचारनियुक्ति, पृ. २६. १२८. (१) निशीथसूत्रभाष्य ३२००. (२) वही, चूर्णि II, पृ० १२५-६. (३) आवश्यकचूर्णि II, पृ० ८०. (४) नन्दीसूत्रवृत्ति - मलयगिरि, पृ० ५०. (५) गच्छाचारवृत्ति - वानरमुनि, पृ० ३१. १२९. (१) ज्ञाताधर्मकथा ५५ एफएफ (२) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ३८६. (३) वही, १७३, २०१. (४) स्थानांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० १८२, २१८. (५) गच्छावतारवृत्ति - वानरमुनि, पृ० ७. (६) समवायांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० ११८. १३०. आवश्यकचूर्णि II, पृ० १७१. १३१. आवश्यकचूर्णि, II, पृ० ५५९. १३२. (१) ज्ञाताधर्मकथा १४१-७. (२) स्थानांग २४०. (३) वही, वृत्ति - अभयदेव, पृ० ३०३. (४) आचारांगचूर्णि, पृ० ५८, २११. (५) वही, वृत्ति - शीलांक, पृ० ११३, २४१. (६) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ५४९. (७) वही, वृत्ति - हरिभद्र, पृ० २८८. (८) मरणसमाधि ६३७. (९) सूत्रकृत्रांग नियुक्ति १४७. (१०) उत्तराध्ययनसूत्र वृत्ति - शान्तिसूरि, पृ० ३२६ (११) महानिशीथ, पृ० १७६. १३३. (१) ज्ञाताधर्मकथा १४१-१४६. (२) आवश्यक, पृ० २७. (३) वही, चूर्णि I, पृ० ३८४-९. १२१ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) मरणसमाधि ६३७. (५) उत्तराध्ययन वृत्ति - कमल संयम, पृ० २१६-७. (६) आचारांगचूर्णि, पृ० ५८. (७) वही, वृत्ति - शीलांक, पृ० १११ १३४. (१) ज्ञाताधर्मकयांग ९३-५. (२) भक्तपरिज्ञा ७५. १३५. (१) आवश्यकचूर्णि II, पृ० १६९-१७३. (२) अन्तकृशांगसूत्र, ५.६. (३) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ३५७. १३६. सुदर्शना उसकी माँ थी और प्रियदर्शना उसकी पत्नी । (१) आवश्यकचूर्णि I, पृ० ४१६. (२) कल्पसूत्रवृत्ति - धर्मसागरसूरि, पृ० ९२. (३) उत्तराध्ययनवृत्ति - शान्तिसूरि, पृ० १५४. १३७. (१) उत्तराध्ययनवृत्ति - कमल संयम, पृ० १०१. (२) स्थानांग ५८७. (३) समवायांगवृत्ति - अभयदेव, पृ० १३२. (४) भगवतीसूत्रवृत्ति - अभयदेव, पृ० १९. (५) निशीथसूत्रभाष्य, ५५९७. (६) आवश्यकनियुक्ति ७८०. (७) वही, भाष्य १२६. (८) विशेषावश्यकभाष्य २८०२-७. (९) सूत्रकृत्रांगचूर्णि, पृ. २७३. १३८. मरणोपरान्त वह लंतअकप्प में देव बना । - भगवतीसूत्र ३८७. १३९. ज्ञाताधर्मकया अध्ययन ४. १२२ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मदासगणि कृत उपदेशमाला Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊण' जिणवरिंदे इंदनरिंदच्चिए तिलोयगुरू । उवएमालभिणमो वोच्छामि गुरूवएसेणं' ।।१।। जगचूडामणिभूओ उसभी वीरो तिलोगेसिरितिलओ । एगो लोगाइचो एगो चक्खू तिहुयणस्स ।।२।। संवच्छंरमुसभजियो छम्मासा" वद्धमाणजिणचंदो । इय विहरिया निरसणा जएजार एओवमाणेणं ।।३।। जइ ता तिलौंगनाहो विसहइ बहुयाइँ" असरिसजणस्स । इय जीयतकराई एस खमा सव्वसाहूणं ।।४।। ल चइजइ चालेउं महइमहावद्धमाणजिणचंदो । उवसम्ग' सहस्सेहि वि मेरु जहा वाय" गुंजाहि२ ।।५।। भदो२ विणीयविणओ पढमगणहरो समत्तसुयनाणी । जाणतो वि तमत्थं विम्हियहियओ" सुणइ सव्वं ।।६।। जं आणवेइ राया पगईओ तं सिरेण इच्छंति । इय गुरुजणमुहमणियं कयंजलिउडेहि सोयव्वं ।।७।। (१) नमेऊण पू २. (२) अरहंते इंद° दो. (३) बुच्छामि खं ३, पा २ पू २. (४) गुरूवएसेण खं २, खं ३; गुरूवएसेणं दो. (५) 'भू ३ पा ३, पू २. (६) तिलोय खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (७) इच्चे पा २, पू २. (८) एगे पू २. (९) चखू पा १. (१०) संवत्सर° पा १, पू र. (११) छम्मासो जै; छम्मासे खं ३, पा २. (१२) जइज खं ३; जएजा जै. (१३) एउवमाणेणं जै, खं ३, पू १; याणुमाणेण पू २; याणुमाणेणं खं २, पा १, पा २. (१४) तिलोय जै, खं २, पा २. (१५) वुहुयाई जै, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू र; बहुआई पू १. (१६) इअ पू २. (१७) जिअंत° पू २. (१८) ओवसग्ग पू २. (१९) सहस्सेहि पा २, पू १. (२०) जहा जै, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (२१) वाइ° पू २. (२२) "गुंजाहि खं २, खं ३; गुंजाइं पा २. (२३) भद्दा- पा २; क्षत खं १, खं २, पा १. (२४) "हियउ पू १, पू २; क्षत खं १. (२५) सुणुद पू २; क्षत खं १. (२६) जाणवेइ पू २; क्षत खं १. (२७) पयओ पू १; पयईओ जै, खं ३, पू २; पगइओ खं २; क्षत खं १. (२८) मह° पू १. (२९) उडेहि जै, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जह सुरगणाण इंदो गर्हगणतारागणाण' जह' चंदो । जह य' पयाण नरिंदो गणस्स वि गुरू' तहाणंदो ।।८।। बालो ति महीपालो न पया परिभवइ एस गुरुउवमा । जं वा पुरओ' काउं• विहरंति' मुणी तहा सो' वि ।।९।। पडिरूवो' तेयस्सी जुगप्पहाणागमो महुरखको । गंभीरो धिइमंतो" उवएसपरो य आयरिओ" ।।१०।। अपरिस्सावी'६ सोमो संगहसीलो अभिगमई" या । अविकंथणो अचवलो पसंतहियओ' गुरू' होइ ।।११।। कइया१ वि जिवरिंदा फ्ता अयरामरं३ पहं दाउं । आयरिएहि पवयणं धारिजइ संपयं सयलं५ ।।१२।। अणुगम्मए ६ भगवई रायसुयजा सहस्सर्वदेहि । तह वि न करेइ माणं परियच्छइ तं तहा नूणं ।।१३।। दिदिक्खियस्स दमगस्स" अभिमुहा अजचंदणा अजा । नेच्छइ३२ आसणगहणं सो विणओ३३ सव्वअजाणं ॥१४॥ - (१) मह० पू २; क्षत खं १. (२) तारागणाणं पू १, पू २; क्षत खं १. (३) जहं खं २, खं ३; क्षत खं १. (४) व खं ३, पा २; क्षत खं १. (५) गुरु पू १. (६) वालो जै, खं २, पा २; वालु पा २. (७) परिहवइ जै, खं १, खं ३, पा २; परिभमइ १. (८) गुरूवमा २, गुरुवमा पा २. (९) पुरोय पा १; क्षत खं १. (१०) कायं पू १. (११) विहरंत पा १. (१२) शो पू २. (१३) पडिरूवा पू २. (१४) धीमंतो खं २, पा १, पा २, पू १, पू २. (१५) आयरियो खं २, खं ३ पा २; आयरिउ पू १. (१६) अपरिस्सावि य दो, जै, पा २; क्षत खं १. (१७) अभिग्गहमइ पू २; क्षत खं १, (१८) ओ जै, खं २, पा २; ३ पा १; क्षत खं १. (१९) हियउ खं १; क्षत खं १. (२०) गुरु खं ३; क्षत खं १. (२१) कईया पा १; क्षत खं १. (२२) जिणे' पू २; क्षत खं १. (२३) अहरामरं पा १; खं १. (२४) आयरिएहिं जै, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू २; क्षत खं १. (२५) सहं पू १; क्षत खं १. (२६) अणुगम्मइ खं ३, पा १, पा २, पू १; अणुगम्मई; क्षत खं १. (२७) सुअजा जै. (२८) वदेहि पा १. (२९) दिणि पू २. (३०) 'दिखियस्स पा १. (३१) दुमगस्स पू २. (३२) निच्छइ खं ३, पा १, पा २,; क्षत खं १, खं २. (३३) विणउ खं ३, पू १, पू २; क्षत खं २. (३४) उजाणं पू २; क्षत खं १. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरिससर्यदिक्खियाए' अजाए अजदिक्खिओ साहू । अभिगमण-वंदण-नभंसणेण विणएण सो पुजो' ।।१५।। धम्मो पुरिसप्पभवो पुरिसवरदेसिओं पुरिसजेट्ठो । लोए वि पहू पुरिसो किं पुण लोगुत्तमे धम्मे ।।१६।। संवाहणस्स रन्नो तइया' वाणारसीय नयरीए । कन्नासहस्समहियं आसी किर रूववंतीणं ।।१७।। तह वि य सा रायसिरी २ उल्लुटुंती" ना५ ताइया'६ ताहि । उदरट्टिएण" एकेण ताइया अंगवीरेण ।।१८।। महिलाण सुबहुयाण" वि मज्झाओ२ इहसमत्त३ घरसारो । रायपुरिसेहिं निजइ.५ जणे वि पुरिसो जहिंनत्थि ।।१९।। किं परजण बहुजाणावणाहि वरमप्पसक्खियं" सुकयं । इय भरह-चकवट्टी पसन्नचंदो य दिटुंता ।।२०।। वेसो वि अप्पमाणो असंजमपएसु" वट्टमाणस्स । किं परयत्तियवेसं विसं न मारेइ खजंतं ।।२१ ।। (१) वरिसससय पू १. (२) "दिखियाए पा १. (३) दिविखउ पू १. (४) पुब्बो पू २. (५) पुरिसवरदेसिओ सर्वत्र. (६) लोगत्तमे पू २; क्षत खं १. (७) धम्मो खं २; क्षत खं १. (८) रण्णो जै, पा २, पू १; क्षत खं १. (९) तईया खं २, पा १, पा २. (१०) वाणारसीइ खं ३; वाणारसीए जै; क्षत खं १. (११) कण्णा जै, पा १, पू १. (१२) तहवी पा १; महवि पू २. (१३) यरासिरी पा २, पू २. (१४) उलटुंती खं २, खं ३, प १, पा २; ओलटुंती पू २; ओलटुंती जै. (१५) ण पा १; ना पू २. (१६) ताईया पा १. (१७) ताहि पा १. (१८) उयरट्टिएण खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २; उरिट्टिएण खं २. (१९) एकेण जै, खं २, खं ३, पू १; एगेण पू २. (२०) ताइणा पू २. (२१) सुबहुआण पू १, पू २; क्षत खं १. (२२) मझाओ पा १, पा २; मझाउ पू १, पू २; क्षत खं १. (२३) समत्य जै. (२४) पुरिसेहिं सर्वत्र. (२५) नेजइ पू २; क्षत खं १. (२६) °वणाहिं जै; क्षत खं १. (२७) "सिक्खियं खं २; °सखियं पा १, पू १; क्षत खं १. (२८) पसण्ण' खं ३, पा २; पसंन्न खं २. (२९) पहेसु पा १, पू २; क्षत खं १. (३०) परिउत्तिय पू २. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्म रक्खइ' वेसो संकइ वेसेण दिक्खिओम्हि अहं । उम्मग्गेण पडतं रक्खइ राया जणवओ व ।।२२।। अप्पा जाणइ अप्पा जहट्ठिओ. अप्पसक्खिओ धम्मो । अप्पा करेइ तं तह जहअप्पसुहावहं होइ ।।२३।। जं जं समयं जीवो आविसई जेण जेण भावेण । सो तम्मि तम्मि समये सुहासुहं बंधए कम्मं ।।२४ ।। धम्मो भएण हुँतो तो नवि सीउण्ह-वाय-विज्झडिओ२ । संव/रमणसीओ बाहुबली तह किलिस्संतो'५ ।।२५।। नियग-मइ-विगप्पियचिंतिएण सच्छंदबुद्धिचरिएण' । कत्तो पास्तहियं कीरइ गुरु-अणुवएसेणं" ।।२६ ।। थद्धो निरूवयारी ९ अविणीओ° गविओ निरोणामो' । साहुजणस्स गरहिओर जेणेवि वयणिजयं लहइ ।।२७। येवेण वि सप्पुरिसा सणंकुमारो" ब्व केइ बुझंति । देहे खणारिहाणी२६ जं किर देवेहि से कहियं८ ।।२८।। (१) रखइ पा १, पा २; क्षत खं १. (२) दिक्खिउमि पू १; दिखिओमि पा २; दुखिओमि पा १; दिक्खिओमि जै; क्षत खं १. (३) जणवउ खं ३; जणवय पा १, पू २. (४) य जै, खं ३; च पू २; ब्व पा १, पा २. (५) जहाट्ठि उ खं ३; क्षत खं १. (६) "सखिओ पा १, पा २, खक्खिउ खं ३; क्षत खं १. (७) जं पू २; क्षत खं १. (८) आविस्सइ जै, खं ३, पा २, पू २; आविसइ खं २, पा १, क्षत खं १. (९) समए जै, खं २, खं ३, पा २, पू १, पू २; क्षत खं १. (१०) होतो जै, पा २; हंतो खं २, पा १, पू २. (११) सीओण्ह° पू २. (१२) विज्झडिउ खं ३, पू २. (१३) संवच्छण पू १; संवत्सर खं २ संवच्छरं अण' जै. (१४) भणसिओ खं १, खं २, पू २; मणसीउ पा १ पू १; 'मणसियउ खं ३; अणसिओ जै. (१५) किलिसंतो पा २; क्लिस्संतो पा १. (१६) 'रइएण खं १, खं २, खं ३, पू १, पू २; 'रईएण पा १; एएण पा २. (१७) अणुवएसेण पा २; अणुवएस्सेण खं १. (१८) यद्धो पू २; त्थद्धो दो. (१९) निरोवयारी जै, खं २, पा १, पा २, पू १, पू २, निरुवयारी खं ३. (२०) अविणीउ पा १, पा २, पू २. (२१) निरुवणामो पा १, पू १; निरुवयणामो पू २; निरुणामो खं ३. (२२) गरहिउ पू १, पू २, गंरहिउ खं १. (२३) जणो खं १. (२४) कुमार पा १; कुमार खं ३. (२५) खिण° पू २. (२६) पुरिदाणी पू २. (२७) देवेहि जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १. (२८) केहूं पू २. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जइ ता लवसत्तमसुरविमाणवासी वि परिवडंति' सुर । चिंतिजंतं सेसं संसारे सासयं' कयरं ।।२९।।। कह तं भन्नइ सोक्वं. सुचिरेण वि जस्स दुक्खमल्लियइ । जं च मरणावसाणे भवसंसाराणुबंधं च ।।३०।। उवएस सहस्सेहि वि बोहितो न बुज्झए' कोपि । जह बंभदत्तराया उदइनिव मारओ' चेव ।।३१।। गयकण्णवंचलाए अपरिचत्ताएँरायलच्छीए । जीवा स कम्मकलिमलभरियभरा तो पडंति अहे ।।३२ ।। वोत्तूण५ वि जीवाणं सुदुक्कराई ति पावचरियाई । भयवं जा सा सा सा पञ्चाएसो हु६ इणमो ते ।।३३।। पडिवजिऊण दोसे नियए८ सम्मं च पायवडियाए । तो किर मिगावइए उप्पन्नं केवलं नाणं ।।३४।। किं सका वोत्तुंग जे सरागथम्मम्मि कोइ अकसाओ । जो पुण धरेज३ धणियं दुव्वयणुजालिए स" मुणी ।।३५।। (१) परिवुडंति पा १, पा २, (२) सासरं पू २. (३) कहरं पू १. (४) भण्णइ जै. (५) सुक्खं पा २; सोखं खं १, पा १. (६) उलियइ पू १; "उल्लेइ पू मल्लीयइ पा २; मलिअइ जै. (७) 'बंधि जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १. (८) बुज्झइ पा १, पू १; बुज्झई जै, खं २, खं ३, पा २, पू २. (९) कोइ जै, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू २; कोवि पा २. (१०) उदाय' खं २, पा १. (११) मारउ पू १. (१२) कन्न खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (१३) अपरिचताए जै; अप्परिचत्ताए खं १, खं २, पा १, पा २, पू.१, पू २; अप्परिचत्ताइ खं ३. (१४) कलमल° खं १, पा १. (१५) वुतूण पू २. (१६) य पा २, पू २. (१७) त्ति खं ३. (१८) निअए जै. (१९) उप्पण्णं जै, खं ३. (२०) सुका पू २. (२१) वुतं खं २, पू २; वोत्तं पा २; वुत्तुं खं ३; वुतुं पा १; वोत्तु जै. (२२) अकसाई खं ३, पू १. (२३) धरिज खं २, पा १, पा २, पू १. (२४) सु एक पा १, पू २. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडुयंकसाय त रूणं पुष्पं च फलं च दोवि बिरसाई । पुप्फेण झाइ कुविओ फलेण पावं समायर ||३६।। संते वि कवि उज्झइ कोवि असंते वि अभिलसइ भोए । चयइ परपच्चएण" वि पभवो दट्ठूण' जह जंबु ।।३७।। दीसंति परमंघोरा वि पवरधम्मप्पभाव" पडिबुद्धा" । जह सो चिलां झुत्तो पडिबुद्धो सुसुमानाए । ३८ ॥ १३ १७ पुष्फिय फलिए" तह पिउँघरम्मि" तण्हा " छुहा" समणुबद्धा" । ढढेण तहा विसढा" विसढा जह सप्फला जाता ३ ।। ३९ ।। १ २ आहारेसु सुहेसुय रम्मावसहेसु" काणणेसुं" च । साहूण नाहिगारो " अहिगारो धम्मकज्जेसु ||४०|| साहू कंतारमहाभए अवि जणवए" वि मुइयम्मि । अवि ते सरीरपीडं" सहंति न लयंति" य विरुद्धं । । ४१ ।। जंतेहि" पीलिया वि हु खंदेंगंसीसा" न चैव परिकुविया । विइय ३ - परमत्थ-सारा खभंति जे पंडिया होंति ।। ४२ ।। (१) कडूय° पा १, पा २ (२) ज्झाइ जै, स्वं १, खं २, खं ३, पा २ झायइ पू २. (३) कुबिउ पू १. (४) अहिलसइ जै, खं २, स्वं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (५) परचएण खं २, पू २. (६) दटूण ण ज° खं १, खं २, खं ३, पू १; दिटूण पू २. (७) जहं पू २. (८) जंबू खं १, स्वं २, खं ३, पा १, पू १, पू १, पू २. (९) परमे पू २. (१०) पभाव' खं . (११) पडिबद्धा पा १, पू१; पट्टिबद्धा पू २. (१२) चित्ताइ पू २. (१३) सुंसमानाए खं १, खं २; सुंसमाणाए पा १, पा २; सुंसुमाणाए पू १; संसमाणइ पू २. (१४) फलिय पा २, पू १, पू २. (१५) पिय पा पा २, पू१. (१६) घोरम्पि पू २. ( १७ ) तन्हा' खं २; तिण्हा पू २. (१८) च्छुहा' पा २, पू २. (१९) समणबद्धा पा १. (२०) विसुढा पा २, पू २. (२१) विसुढा पू २; क्षत खं ३. (२२) सफलया पा १, पू २; सफला पा २ (२३) जाया खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (२४) आवसएस पा १. (२५) कारणेसुं २. (२६) नहिगारो पा २; नारिगारो पू २. (२७) जणवएसु भु° पू २. ( २८ ) ° पीड पू २. (२९) लहंति पा २; लियंती पू १. (३०) जंतेहि खं १, खं २, खं ३. (३१) खंदगं पू १. (३२) सीस पू २. (३३) वीय खं १; विड़ पा. (३४) हुंति खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १. 2 ६ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणवयणसुइसकण्णा' अवगय - संसार - घोर' - पेयाला । बालाग खमंति जहर जहत्ति किं एत्थ अच्छेरं ||४३|| नकुलं एत्थ पहाणं हरिएसबलस्स किं कुलं आसि । आकंपिया तवेणं सुरा वि जं पज्जुवासंति' ||४४ ॥ देवो नेरइयो' त्तिय कीडपतंगो' त्ति माणुसो वे सो" । रूवस्सी" य विरूवो सुहभागी दुक्खभागी य ।। ४५॥ राउ त्ति य दमगो" ति य एस सपागो" त्ति एसवेयविऊ । सामी दासो" पुज्जो खलो" ति अघणो धणवइ ति ।। ४६ ।। न वि एत्थ कोवि" नियमो सकम्म-1 - विनिविट्ठ" - सरिस कय चेट्टो " । अन्नोन्न रूववेसो नडोव्व परियत्तए जीवो ॥। ४७ ।। १८ २२ कोडीसएहिं धणसंचयस्स गुणसुभरियाएँ" कन्नाए" । न वि लुद्धो बईरिसी अलोभया एस साहूणं ।। ४८ ।। २३ अंतेउर - पुरबल - वाहणेर्हि" "बरसिरि घरेहि" मुणिवसभा" । कामेहिँ ३१ बहुविहेहि * * य छंदिज्वंता विनेच्छंति" ।। ४९ ।। (१) सकन्ना खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू २. (२) घोरं पा १; घोरा खं १. (३) जड़ पू १. (४) इत्य खं ३, पा २ एत्ति पू २. (५) इत्थ खं ३. (६) पहाण पू १. (७) पज्जवासिंति पा १. (८) नेरइउ खं २, खं ३, पा १, पा २, पू, पू. (९) पयंणो खं ९, खं २, पूः पयंगु स्वं ३, पा ९; पतंगु प २. (१०) एसो स्वं १, खं २, क्षत पू २. (११) रूयस्सी खं २, पा २, पू २; रूसी खं १. (१२) दमगु स्वं ३. (१३) ती पू १. (१४) सपागु खं ३, पा १, पू २; सपयागो खं २; सपाउ पा २ (१५) हासो पू २. (१६) खलु खं ३. (१७) इत्य खं ३. (१८) कोइ खं १, खं २, स्वं ३, पा पा २, पू २. (१९) विणिविट्ठ' खं खं २, ३, प २, पू १; 'विणिविट्ठ पू२, विणिबिट्टि पा १. ( २० ) को चे' पा १. (२१) चेठो पू; चिट्ठो पा १. (२२) अण्णोष्ण पा २; अन्नन्न खं ३. ( २३ ) सएहिं सं १, सं २, खं ३, पा, पू १; 'सहेहिं पा २, पू , (२५) कण्णाए २, (२४) सुभरियाए खं १, खं २, खं ३ 'सभरियाए पू २ 'स्सभरियाए पा २ ३, पा १. (२६) वयर पू २. (२७) 'वाहणेहिं सर्वत्र. (२८) बल सि पा २, २. (२९) घरेहिं खं १, स्वं २, खं ३, पा १, पू १ घरेसिं पू २. (३०) 'बसहा खं ३; बसाहा पू १ कामेहिं सर्वत्र. (३२) विहेहिं पू १. (३३) च्छंदिज्जंता खं १, खं २; च्छिदिजंता पा १ निच्छंति खं ३; णिच्छंति पा १. ( ३१ ) (३४) ७ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेओ भेओ क्सणं आयास-किलेस-भय-विवाओ' य । मरणं धम्मब्भं सो अरई अत्थाओ' सव्वाइं ।।५।। दोससयमूलजालं पुवरिसिविवजियं जई वंतं । अत्थं वहसि अणत्थं कीस अणत्थं तवं चरसि ।।५१ ।। वह-बंध-मारण-सेहणाओ काओ परिग्गहे नत्थि' । तं जइ परिग्गहो चिय जइधम्मो तो नणु पवंचो ।।५२ ।। किं आसि" नंदिसेणस्स कुलं जं हरिकुलस्स विउलस्स । आसीपियाम हो सुचरिएण वसुदेवनामो ति ।।५३ ।। विजाहरीहि सहरिसँ" नरिंदा दुहियाहि अहमहंतीहिः । जं पत्थिजइ तइया वसुदेवो तं तवस्स" फलं ।।५४ ।। सपरकम्म-राउल-वाइएण' सीसे पलीविए नियए । गयसुकुमालेण खमा तहा कया जह सिवं पत्तो ।।५५।। रायकुलेसु वि जाया भीया जर-मरण-गब्भवसहीणं । साहू सहति सव्वं नीयाण३ पेसपेसाणं ।।५६ ।। (१) च्छे ओ पा २; छेउ पू १, पू २. (२) भेउ पू १, पू २. (३) विवागो पा २, पू १, पू २. (४) अत्थाओ खं १, खं २, पा १, पू १; अत्याउ खं ३, पा १, पू २. (५) मारणाउ से खं २. (६) सेहणाउ खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १. (७) पत्थि खं २, पू २. (८) जयधमो पा २. (९) मणु खं ३; पुण खं १. (१०) `णु वंचो खं १. (११) आसी पा २, पू १, पू २. (१२) नंद पा १, पा २, पू १, पू . (१३) सुरवरिएण पू २; सुचिरिएण खं २, पा १. (१४) विजाहरीहिं सर्वत्र. (१५) सहरिसं सर्वत्र. (१६) नरिंदु पू २. (१७) दुहि याहिं दो, जै, खं १, पा २, पू १, पू २ दुहियाई खं २, खं ३. (१८) अहमहिंतीहिं पू २, अहमहंतीहि पा २; अहमहतीहिं हे, दो. (१९) तवस पा २. (२०) सुपरकम पू १; 'सपरिकम पू २. (२१) वाईण पू २; 'वाएण पा २. (२२) सुकुमालेन पू. (२३) निययाण पा २ पू २; नीआण जै. (२४) पेसपेसाण पू २. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणमंत्ति य पुव्वयरं कुलया न' नमंति' अकुलया' पुरिसा । पणओं पुब्बिं इह जइजणस्स जह चकवट्टि मुणी ।।५७।। जह चकवट्टि साहू सामाइय' साहुणा निरुवयारं । भणिओ न चेव कुविओ पणओ बहुयत्तण -गुणेण" ।।५८ ।। ते धन्नार ते साहू ते सि नमो जे अकज-पडिविरया । धीरा वमसिधार" चरंति जह थूलभहमुणी ।।५९।। विसयासि'"-पंजरम्म लोए असिपंजरम्मि तिक्खामि । सीहा व पंजरगया वसंति तवपंजरे साहू ।।६०।। जो कुणइ अप्पमाणं गुरुवयणं न य लएइ उवएसं । सो पच्छा तह सो यइ उवकोसंघरे जह तवस्सी ।।६१ ।। जेट्टब्बय-पन्वय' -भर-समुन्वहण३-ववसियस्स अञ्चतं । जुवइजण-संवइयरे जइत्तणं उभयओ" भटुं ।।६२ ।। जइ ठाणी२५ जइ मोणी६ जइ मुंडी वकली तवस्सी वा । पत्थेंतो ये अबंभं बंभा वि न८ रोयए९ ममं ।।६३ ।। (१) पव्वयरं पू १. (२) ण पू २. (३) णमंति पू २. (४) अकुलिया पू २. (५) पणउ पू १, पू २. (६) सामाए सा पू १. (७) निरवयारं खं २. (८) कुविउ पू १. (९) पणउ खं ३, पू २. (१०) बहुअत्तण पू २; बहुत्तण पू १. (११) गुणेणं जै, खं १, खं २, पू १; मणेण पा २. (१२) धण्णा पू १. (१३) नामो पू २. (१४) वह पा १. (१५) हारं खं १, खं २, पा १, .पा २, पू १, पू २. (१६) थूलि° पू १. (१७) विसयासे पू २; विसयाअसि खं १. (१८) पंजरमि पू १; पंचरम्मि २. (१९) पंजरंगया पू २. (२०) ण पा १. (२१) उक्कोस खं १, खं २, पा २; अवकोस पू २. (२२) पब्बइ प १. (२३) 'समन्वहण* पा १. (२४) उभयउ पू १; ओभउ पू २; उभउ पा २. (२५) ट्ठाणी जै, खं १, खं २, पू २. (२६) माणी खं १. (२७) पत्थितो खं ३, पा १, पा २; पत्यंतो पू १, पू २. (२८) अ खं २, क्षत जै. नि खं २. (२९) रोअए रावए खं १, पा १, पा २; क्षत खं २. (३०) मज्झ पा १, पू १, पू २. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो पढियं तो गुणियं तो मुणियं' तो य चेइओ अप्पा । आवडिय-पेलियामं तिओं वि जइ न कुणइ अकजं ।।६४ ।। पागडिय-सव्व सल्लो गुरुपामूलम्मि लहइ साहुपयं । अविसुद्धस्स न वड्डइ गुणसेढी तत्तिया ठाइ" ॥६५।। जइ दुक्कर-दुकर-कारउत्तिः भणिओ जहटिओ' साहू । तो कीस अंजसंभूर्यवजय-सीसेहि न वि खमियं ।।६६ ।। जइ ताव सवओ" सुंदरो ति कम्माण उवसमेण जई । धम्मं वियाणमाणो इयरो किं मच्छरं" वहर ।।६७।। अइसुटिओ" ति गुणसमुइओ" जो न सहति" जइपसंसं । सो परिहाइ परभवे जहा महापीढे-पीढ• रिसी ॥६८।। परपरिवायं गिण्डहअट्टमय-विरलणे" सया रमइ । डज्झइ य परसिरीए सकसाओ" दुक्खिओ निचं ।।६९ ।। विग्गह-विवाय-रुइणो कुलगण संघेण वाहिरकयस्स । नत्थि किर देवलोगे वि" देवसमिइसु अवगासो २ ।।७।। (१) गणियं पू २. (२) मुणिउं पू १. (३) चेईओ पा २; चेइउ पू १, पू २. (४) पलिया पा १. (५) मंत्तिओ पा १; "मंतिउ खं ३, पू १, पू २. (६) कुणइ य अ जै. (७) पायडिय' दो, खं १. (८) साहू पू १. पू २. (९) शुद्धस्स खं ३. (१०) बट्टइ खं २, पू २. (११) हाइ खं १, पा २; ढाई पू . (१२) गारओ जै. (१३) भणिउ खं ३, १. (१४) जहट्ठिउ खं ३. (१५) अज' पा २. (१६) संभूडू पू २; मत खं २. (१७) "विगय पू १; क्षत खं २. (१८) सीसेहि सर्वत्र. (१९) ण पा १. (२०) दुखमियं पा २. (२१) सबउ पू; सुबओ जै, खं ३. (२२) मुवसमेण पू २. (२३) मच्छइ पू २. (२४) सुट्ठिउ खं २, खं ३, पू १; सुट्टिय पा १. (२५) 'समेइउ पू २; सुइउ खं ३, पू १, (२६) सहड़ जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २. (२७) पससं पू १. (२८) परि पू २. (२९) पीढ पू १. (३०) पीठ पू १; क्षत खं २. (३१) गेहद जै, पू १; गेन्हइ खं १. (३२) 'मइ खं २. (३३) 'विरेलणे खं १; "विरुलणे खं २; 'विरिलणे खं ३; "विरेलगा जै. (३४) परिपू २. (३५) सकसाउ पू १. (३६) दुरिवओ पा २; दुविखउ पू १. (३७) विम्गय खं २. (३८) रइणो खं २, पू १. (३९) गणं पू १. (४०) 'लोए खं १, खं २, पा १, पा २, पू१, पू २, 'लोगो जै. (४१) वि प दे पा २. (४२) समीसि पा २. (४३) 'ओगासो खं १, खं २, पा १, पा २; उवगासो पू १. १० Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जड़ ता जणसंववहारखज्जियमकज्जमायरइ अन्नो । जो तं पुणो विकंथइ परस्स वसणेण सो दुहिओ ।।७१ ।। वि उज्जममाणं पंचेवकरेंति रित्तयं समणं । सुटु अप्प थुई परनिंदा जिब्भोवत्था कसाया य ॥ ७२ ॥ परपरिवाय - मईओ दूसइ वयणेहि ते ते पावड़ दोसे परपरिवाई इय १३ जेहि" जेहि" परं । अपेच्छो ।। ७३ ।। थदधा छिप्पेही" अवर्णवाई सयंमई चवला । वंका" कोहणसीला सीसा उव्वेवगा " गुरुणो ॥७४॥ १८ जस्स गुरुम्मि न भत्ती न य बहुमाणो " न गोरखं" न भयं " । न वि लज्जा न वि नेहो " गुरुकुल वासेण किं तस्स ।। ७५ ।। १३ रूसह चोइजंतो वहझ्य" हियएण अणुसयं भणिओ" । न य कहिं " करणिजे " गुरुस्स आलोन सो सीसो ।। ७६ ।। ओवीलण" - सूयण- परिभवेहि" अभणियदुट्टभणिएहिं "। सचाहिया सुविहिया न चेव भिंदंति मुहरागं" ॥७७॥ (१) जय पा १. (२) अण्णो जै. (३) जे पा ओजम पा २, पू२. (६) करिंति खं ३, पू १; २, घुइ १. (८) मईउ पू १, पू २; क्षत स्वं २. ( ९ ) वयणेहिं जै, १. ( ४ ) दुहिउ पू १. करंति पा १, पा २ (११) १, पू १, पू २. (१०) जेहिं जै, स्वं १, स्वं ३, पा १, पू १, पू २. खं ३, पा १, पा ३, पू १, पू २. (१२) खरो पू १. (१३) 'ई य अ° पा २ जै, खं १; च्छिह स्वं २ (१५) पेही पा १. (१६) अबन्न , पू २. (१७) बका खं ३, पू १. (१८) ओब्बेवगा स्वं २. क्षत स्वं २. (२०) गउरखं स्वं १, स्वं २, खं ३, पा २, पू. (२३) हो पू २. (२४) क्षत स्वं खं ३, पा २; कम्मि पू १. ओबील सू स्वं २, जै खं १, स्वं १. १, खं २, खं ३, पा जेहिं जै, स्वं १, (१४) च्छिद स्वं १, स्वं ३, पा १, पा २, पृ. (१९) बहुमाणं पा २, पू १, पू २; (२१) भय पू २. (२२) न पूर. ३, पा १, पू १, पू २. (२५) भणिउ पू १. (२६) कम्ही जै, (२७) करणिजो पा २ २; उम्बिल पा १, पा २, पू १, पू २. खं ३, पा १, पू १, पू २. (३१) (२८) उब्बीलण दो, जै; उबीलण खं; (२९) पर° स्वं २, पू २. (३०) 'भवेहिं भणिएहि पू १, पू २. (३२) मुहरायं जै, ११ (५) उज्जव पा १, पू १; क्षत वं २. (७) थुई स्वं Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणंसिणो' वि अवमाणवेचणा ते परस्स न करेंति । सुह दुक्खु ग्गिरंणत्थं साहू उयहिब्व' गंभीरा ।।७८ ।। मउया' निहुर्यसहावा हासदव-विवाजिया विगहमुक्का । असमंजस-मइबहुयं न" भणंति अपुच्छिया साहू ।।७९ ।। महुरं निउणं थोवं कजावडियं अगब्वियमतुच्छं । पुब्बिं मइसंकलियं भगति जं धम्मसंजुत्तं ।।८०॥ सटुिं वाससहस्सा तिसत्तखुत्तोदएण धोएण' । अणुचिण्ण" तामलिणा अन्नाण-तवो" ति अप्पफलो ।।८१ ।। छजीवकायवहगा' हिंसगसत्थाइँ' उवइसंति" पुणो । सुबहू वि२२ तवकिलेसो बालतवस्सीण अप्पफलो ।।८।। परियच्छंति" य सव्वं जहट्ठियं अवितहं असंदिइयं५ । तो जिणवयण-विहिन्नू सहंति बहुयस्स" बहुयाई ।।८३ ।। जो जस्स बट्टइ हियऍ८ सो तं ठावेइ सुंदरसहावं । वग्घी छावं० जणणी भई सोमं च मन्नेह ।।८४।। (१) माणस्सिणो खं १; माणसणो पा १. (२) करिंति खं ३, पू २; करंति पा १. (३) सुहु खं २. (४) 'दुक्ख खं १, खं ३, पा १, पू १, पू २. (५) 'गिर पा १. (६) उवहिब्ब खं २, पू १; उयहुव्व पू २; उवहील खं १; ओवहिव्व जै, पा २. (७) मऊया पा १; न हुया पू १; मओआ पू २. (८) निहय° पा २; निडूय पा १; णिहुअ पू २. (९) सुहावा पू २; सहासा खं . (१०) मयबहूयं पा २. (११) ण पू २. (१२) सिट्ठि पू २. (१३) 'गुत्तो' जै. (१४) धोएणं खं ३. (१५) चिन्नं खं १, खं २, खं ३, पा १. (१६) अण्णाण जै, पा २. (१७) तव पा १..(१८) छजीव पू २. (१९) विहगा पा १, पा २, पू १. (२०) सत्याई जै, खं १, खं २, खं ३, पा , पू २; 'सत्याइ पा १; "सत्याय पू १. (२१) उवयसंति पा १. (२२) सुबहुं जै, खं ३, पा १; सुंबहुं पा २, पू २. (२३) पि जै, खं ३, पा १, पा २, पू २. (२४) परिअच्छंति पू १. (२५) असंदिटुं पा १. (२६) "विहन्नू खं १, खं २, खं ३, पू २; "विहिण्णू पा २; 'विहण्णू जै. (२७) बहुअस्स पू २; बहूयस्स पा . (२८) हियए सर्वत्र. (२९) ट्ठावेइ खं १, पा २; थावेइ जै. (३०) च्छावं खं १, पू १, पू २; क्षत खं २. (३१) मन्नेहिं पू १. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पूरियम्मि' भवणम्मि सालो । भणि-कण - रयण - धणअन्नो किर मज्झवि सामिओ" त्ति जाओ' विगयँकामो || ८५ || न करेंति जे तवं संजमं च ते तुल्ल पाणिपायाणं पुरिसा सम पुरिसाणं अवस्स पेसरणमुवेंति ।। ८६ ।। सुंदर - सुकुमाल - सुहोइएण विविहेहि " तव विसेसेहिं" । तह र सो सविओ" अप्पा जहन वि" नाओ" सभवणे" वि ।। ८७ ।। १३ दुकरमुद्धोसकरं अवंतिसुकुमाल-महरिस-रियं । अप्पा वि नाम " तज्जए" ति अच्छेरयं" एयं ॥ ८८ ॥ ३ २९ सरीर घरा अन्नो जीवो सरीरमन्नं ४ ति । उच्छूढ धम्मस्स कारणे सुविहिया सरीरं पिछडुंति ॥ ८१ ॥ २५ एकदिवसं पि जीवो पब्बर्जेमुवागओ " अनन्नमणो । २७ जइ वि न पावइ मोक्खं" अवस्स वेमाणिओ" होइ " ।। ९० ।। सीसावे ढेण सिरम्मि वेढिए निम्गयाणि अच्छीणि । मेयजस्स" भगवओ" न" य" सो मणसा वि परिकुविओ" ।। ११ ।। २ (१) पूरयम्मि पा २, पू २. (२) भुवणम्मि पू २. (३) अण्णो जै, पा २. (४) मझ पू १. (५) सामिउ स्वं २, खं ३, पू १, पू २. (६) जा उपू १, पू २. (७) बिगड़ पा १. (८) करंति दो; ३, पा २ करिंति पू २; क्षत. ( ९ ) भुविं ति खं ३, पा २; 'मुबे ति खं १; मुवंति पा १. (१०) सुभो' खं १, पा १, पा २ (११) विविहेहिं जै. (१२) 'विसेसेहि खं २, पा २ (१३) तेस पू २. (१४) सोसबिउ पू १. (१५) ण वा पू २. (१६ ) णाउ पू १, पू २, नाउ पू १, क्षत पा १. (१७) सभवण पा २ (१८) अविं ति पा २, पू २. (१९) नाम पू २. (२०) तज्जह जै, वं १, २, पा १, पा २, पू १, पू; तजय पू १. (२१) अच्छेरय खं २, पू १. (२२) उब्बूढ ं पा १, पा २, पू १, पू २; उच्छूट° हे. (२३) अण्णो जै, पू २. (२४) 'मण्णं जै, पू २. (२६) पवज्ज' पा १, पू २. (२७) (२५) च्छति खं १, छड़ेंति जै, स्वं २; छङिति खं ३. 'मुनागड पू १. ( २८ ) अणण्ण' जै, पू २; अण्णन पा १ (२९) मुक्खं पू १, पू २. (३०) विमाणिओ खं १, पू २; क्षत पा १. (३१) होई पू १, क्षत पा १. (३२) वेढओ पा २ बेदिए पू २. ( ३३ ) णिग्गयाणि पा १ (३४) मेअजस्स पू २. (३५) भगवउ पू १. (३६) न पा १. नेपू २. (३७) यं पू २; बिपा १ (३८) कुविउ खं ३. १३ ३ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो चंदणेण बाहुं आलिंपइ वासिणा' वि तच्छेइ । संथुणइ जो य' निंदइ मर्हरिसिणो तत्थ समभावा ।।९२ ।। सीहगिरि-सुसीसाणं भई गुरुवयण -सदहंताणं । वइरो' किर दाही वायण त्ति न वि कोवियं वयणं ।।१३।। मिण! गोणसंगुलीहिं गणेहि१३ वा दंत-चकलाई से । इच्छंति भाणिऊणं'" कजं तु त एव'६ जाणंति ।।९४ ।। कारणविऊ कयाई सेयं कायं वयंति" आयरिया । तं तह सद्दहियव्वं भवियव्वं कारणेण तहिं ।।९५।। जो गिण्डह° गुरुवयणं भण्णंतं' भावओ२ विसुद्धमणो । ओसईमव पिजंतं तं तस्स सुहावहं होइ ।।९६ ।। अणुवत्तगा" विणीया बहुक्खमा" निचभत्तिमंता य । गुरुकुलवासी अमुई८ धन्ना" सीसा इह° सुसीला' ।।९७।। जीवंतस्सर इह जसो कित्तीय मयस्स परभवे धम्मो । सगुणस्स२ निम्गुणस्स" य५ अयसोकित्ती अहम्मो य ॥९८।। (१) बाहूं पू २; क्षत खं २. (२) वासणा पू १. (३) संधुणइ पू २. (४) व जै. (५) जिंदइ पा १, पू २. (६) महा खं १, खं २, खं , महिपू २. (७) वयणं पा १. (८) सहहंताण पा १, पा २, पू १, पू २. (९) वयरो पा १, पू २. (१०) वायणो जै, खं २, पा २. वायाणि पू २. (११) मिणु पू २. (१२) गोणसु पा २, पू २. (१३) गणेहिं खं २, खं ३. (१४) चकलाई पू १. (१५) भाणिऊण खं १.भणिऊणं पा २; भणियब्वं दो. (१६) मेव जै, खं १, खं २, खं ३, पा २, पू १. (१७) कयाइं खं ३. (१८) काउं पा २, पू २. (१९) वएज जै. (२०) गिन्ड्इ दो; गेण्डइ जै. (२१) भन्नं ते खं २; भणंतं पू २; भन्नतं खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १. (२२) भावउ पू १; भावइ पू २. (२३) उसह पा १, पा २, पू २. (२४) अणुयत्त गा खं १, खं ३, पा १; अणुक्तया जै, खं २, पू २; अणुयत्तया पू १. (२५) 'खमा खं.. (२६) णिच्च पा १, पू २. (२७) वासि पू २. (२८) इमुई पा १; यमुई पू १. (२९) धण्णा जै, पा २, पू १. (३०) इय जै, खं १, खं , खं ३, पू १, पू २. (३१) सुशीला पू २. (३२) जवंतस्स पू २. (३३) सुगुणस्स पा २, पू २. (३४) निगुणस्स खं १, खं २, खं ३ पा , पा २, पू १, पू २. (३५) उखं १; क्षत खं १२. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुड्डांवासे वि ढियं' अहव गिलाणं गुरुं परिभवंति' । दत्तोव्व धम्म-वीमंसणेण दुस्सिक्खियं तं पि ।।९९ ।। आयरियभत्तिरागो' कस्स सुनक्खत्त-महरिसीसरिसो । अवि' जीवियं ववसियं न चेव गुरुपरिभवो'" सहिओ ।।१०।। पुण्णेहि चोइया पुरकडेहि सिरिमायणं भविय सत्ता । गुरुमागमेसिभदा देवयमिव पजुवासंति" ।।१०१।। बहुसोक्ख-सयसहस्साण'' दायगा मोयगा दुहसयाण । आयरिया फुडैमेयं कोसपएसी'" य तेहेऊ ।।१०।। नरय'-गइ-गमण-पडिहत्थए कए तह पएसिणा रना । अमरविमाणं पत्तं तं आयरियप्पभावेणं५ ।।१०३ ।। धम्ममइएहि अहसुंदरेहि कारण-गुणोवणीएहि । पल्हायं तो य" मणं सीसं चोएड° आयरिओ" ||१०४।। जीयं काऊण पणं तुरुमिणि" दत्तस्स कालियजेण । अवि य सरीरं चत्तं न य भणियमहम्मसुंजुत्तं ।।१०५।। (१) बुढा खं १ बूटा पा २. (२) ट्ठियं खं १, पा २; ठिय पा १. (३) गुरु पू २, क्षत पा १. (४) हंति खं १; हवंति जै; क्षत पा १. (५) वीमंसएण खं १, खं २, खं ३, पा २, पू १; वीमंसिएण पू २, क्षत पा १. (६) दुसिक्खियं लं ३, पू १; दुसिखियं पा २. (७) भत्तराओ जै. (८) सुनखतं खं ३, पा १. (९) अब जै, पू १. (१०) भवे पा १. (११) सहिउ पू १. (१२) पुण्णेहिं जै; पुनेहिं खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू २; पुग्नेहि पा २. (१३) पुरकएहि खं १; सुरकडेहिं पू २. (१४) पबुवासेंति जै. (१५) सुक्ख' पू १. (१६) सहस्साणं पू २. (१७) दयाणं पू १. (१८) पुड पू २. (१९) पएसि पा २, पू २. (२०) हेउ पा २. (२१) नयर पू २. (२२) गय' खं ३, पा १. (२३) परि' जै, खं १, खं२, पा १, पा २, पू १, पू २. (२४) रण्णा जै, खं १, पा १, पा २, पू १, पू २. (२५) पभावेणं खं १; पभावेण पा २. (२६) मइएहिं जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १; भएहि पू . (२७) सुंदरेहिं सर्वत्र. (२८) "विणीएहिं खं २; वणीएहिं व पा १. (२९) व खं १, पू १; अ खं २; व्व जै, पा १, पा २. (३०) चोइएइ पू २. (३१) आयरिउ पू १. (३२) तुरुमिण पू १; तुरिमिणि खं ३, तुरमिणि' पा २; तुरुमणि पू २. (३३) कालियजेणं खं १ पा १. (३४) शरीरं पू २. (३५) ण पा १. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुड - पागडमकहें तो जहट्ठियं बोहिलाभमुवहण | जह भगवओ विसालो जर मरण - महो अहीर आसि ।। १०६ । कारुण्ण-रुण्ण'-सिंगार-भाव-भय-जीवियंर्तकरणेहिं । साहू अवि य मरंती न य नियनियमं विराहें ति ।। १०७ ।। अप्पहियमायरंतो अणुमोयंतो " य सोग्गई । ” लहइ । रहकार - दाण - अणुमोयगो' मिगो" जह" य" बलदेवो ।। १०८ ।। १२ जं तं कयं पुरा " पूरणेण अइ दुकरं चिरं कालं" । जइ तं दयावरो इह करेंतो" तो सफलयं हुतं" ।।१०९।। कारणनीयवासे" सुटुयरं उज्जमेण जइयव्वं । जह ते संगमथेरा सपाडिहेरा " तया आसि ।। ११० ।। १३ एगनीयवासी घर-सरणाईसु जड़ ममत्तं पि । कह न पडिहंति" कलिकलुसरोस - दोसाण आवाए ।।१११ ॥ । अविकत्तिऊण जीवे कत्तो घर सरण - गुत्ति" - संढप्पं अविकत्तिया य तं" तह पडिया अस्संजयाण " पहे ।। ११२ । (१) मकहंतो पा १, पा २, पू १; मकहिंतो खं १, खं ३, पू २. (२) भगवउ पू१. (३) 'महोयही स्वं १, खं २, खं ३, पा २, पू २. (४) कारुन खं १, खं २, स्वं ३, पा २. (५) 'सन्न' खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २ (६) 'जीबियंत पा १; जीवियं च पू १; जीवियं न पू २. (७) करणेहि स्वं २. (८) ण पा १. ( ९ ) नियम धुरं खं १, नियममधुरं पा १ (१०) विराहंति पू १, पू २; बिराहिंति जै, खं १, स्वं ३, पा १, पा २. (११) अणुमोहंतो जै; अणुमोयतो खं २; अणुमोतो खं ३; अणुमोयंत्तो पा १; अणुमोतो. (१२) अपू २. (१३) सोम्यं पा १, पू १; सोगइं खं २; सोगयं पा २. (१४) अणुमोयओ जै, खं २; अणुमोयउ पू १; अहणुमोअगो पू २. (१५) मिओ जै, खं २ ; मिउ पू१. (१६) तह पू १. (१७) (१७) परा पा २ (१८) दुकरं कालं पू १. (१९) करिंतो स्वं १, २, पू १, पू २; करिंतु पा १ २० ) हुतं खं २, पू १, हुतं ३, होतं जै, पू २; होतं पा २. (२१) 'णीया पा, 'निया' खं (२२) बासी खं १. (२३) सपाडहेरा खं २ (२४) एत पा १ (२५) 'निया' पा २ पडिहिंति जै, खं १, खं २. (२७) कलिकुल पा २; कलम° पू २. (२८) 'गोत्ति खं २ संटूप्पं स्वं १, वं ३, पू १, पू २. (३०) तंपा २. ( २, O ( ३९ ) अस्सजयाण १; असजयाण पा, पू२. ..... पा २. (२६) (२९) १६ ९ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थेवो वि गिहि'-पसंगो जइणो सुद्धस्स पंकमावहइ । जह' सो वाररिसी हसिओ' पजोय-नरवइणा' ।।११३।। सब्भावो वीसंभो नेहो रइ-वइयरो य जुवइजणे' । समयघरसंपसारो तव-सील-वयाइँ फेडेजा' ।।११४ ।। जोइस-निमित्त-अक्खर-कोउयआएस' -भू-कम्मेहि । करणाणुमोयणेहि य साहुस्स" तवक्खओ" होइ ।।११५।। जह जह कीरइ संगो तह तह पसरो खणे खणे होइ । थेवो वि होइ बहुओ न य लहइ घिई निरंभंतो" ।।११६ ।। जो चयइ उत्तरगुणे मुकगुणे वि अचिरेण सो चयइ । जह जह कुणइ पमायं पेलिजइ तह कसाएहिं ।।११७ । जो निच्छएण'' गिण्हइ देहचाए वि न य हिंमुयइ । सो साहेइ सकजं जह चंदवडंसओ५ राया ॥११८।। सीउण्ह'-खुष्पिवासं दुस्सेज-परीसह८ किलेसं च । जो सहइ तस्स धम्मो जो धिइमं सो तवं चरइ ।।११९।। (१) गिह खं र पू १. (२) जहा पू २. (३) वारित्त पू २. (४) हसीओ पा १; हसिउ खं २, पा २. (५) पजोइ° पू ; पजोब पा १. (६) 'नरवयणा पा १. (७) “जणो पू १, पू २. (८) वयाई सर्वत्र. (९) फेडिजा पा २, पू २. (१०) कोउयाएस' पू १; कोऊआएस. पू २. (११) 'भूय खं २, पा १. (१२) कम्मेहि पा २. (१३) मोयणेहिं खं १, पू १; मोहणोहि खं २. (१४) साहस्स खं २, खं ३. (१५) 'क्खउ पू १; 'खओ पा २. (१६) बहुउ पू १. (१७) धियं पू १; धि पू २. (१८) निरुभंतो पा १, पा २,.पू १, पू २; निरुभन्तो खं १. (१९) पिलिजइ पू २. (२०) णिच्छएण पा १. (२१) गेण्हइ खं १; गिन्हइ पा १, पा २. (२२) धियं पा २, पू २. (२३) मुसइ पू २. (२४) चंड खं २, खं , पा १, पा २, पू १. (२५) वडिंसउ पा २, पू १; "वडंसउ पू २; 'वडेंसओ जै. (२६) सीउन्ह दो, खं २; सीओण्ह पू २. (२७) दुसेज' पा २, पू १; दुसिज पू २. (२८) पुरीसहं खं २. (२९) धीमं पा १, पू १, पू २. १७ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्ममिण' जाणंता गिहिणो वि दढव्वया' किमुय' साहू । कमलामेलाहरणे सागरचदेण एत्थुवमा' ॥१२० ।। देवेहि कामदेवो गिही वि न य चाइओ' तवगुणेहि । मत्तगइंद'-भुयंगम-रक्खस-घोरट्टहासेहि ||१२१ ।। भोगे अजमाणा" वि केह'मोहा पडंति अहरगई । कुविओ" आहारत्थी जत्ताएँ'५ जणस्स दमगो ब्व ।।१२२ ।। भवसयसहस्स-दुलहे जाइ-जरा-मरण -सागरुत्तारे।८ । जिणवयणम्मि" गुणागर ! खणमवि मा काहिसि"पमायं ॥१२३॥ जं न लहइ सम्मत्तं" लढूण वि जंन एए संवेगं । विसयसुहेसु य रजइ सो" दोसो रागदोसाणं ।।१२४ ।। तो बहुगुणनासाणं सम्मत्त-चरित्त-गुण-विणासाणं । न हु वसमागंतव् रागहोसाण पावाणं ।।१२५।। न वि तं कुणइ अमित्तो सुटु वि सुविराहिओ" समत्थो वि । जं दो वि अणिग्गहिया करेंति२२ रागो य३ दोसोय ||१२६ ।। (१) मिण पा २. (२) दड्ढ' खं ३; दिढ° पू १, पू २. (३) खं २. (४) एत्यवमा पा १. (५) देवेहिं जै, खं १, खं२, खं ३, पा १, पू १, पू २. (६) वि पा १, पू १. (७) जालिओ पा २, पू १, पू २; चाईउ पा १. (८) गुणेहि पा २. (९) गयंद पा १, पा २, पू १. (१०) 'टुहासेहिं पू २. (११) अभुजमाणा खं १. (१२) केई पू २. (१३) अहरगई खं ३, पा २; अहरगयं पा १. (१४) कुविउ पू १. (१५) जत्ताए जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू २; जत्ताइ पा १. (१६) दमणे पू १. (१७) मरुण पू २. (१८) सागर उत्तारे पा २. (१९) जिणवयम्भपि. (२०) गुणायर पू २. (२१) काहेसि पू १; कहेसि पू २. (२२) पमाय पू १. (२३) जन्न जै, खं २, पा १. (२४) समत्तं पा १, पा २. (२५) जोन खं २; जन्न पा १. (२६) सुह दो पू १, पू २. (२७) समत्त पा २. (२८) विसासाणं पा १. (२९) विसमा पा १. (३०) दोसाण पू १; दोसाए पू २. (३१) सुवि राहिउ पू १. (३२) करिति खं १, पू २; करित्ति पा १, करंति पा २. (३३) अ पू २. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहलोए आयासं अयसं च करेंति गुणविणासंच । पसवंति य परलोए सारीरमणो गए दुक्खे || १२७।। धिद्धी" अहो अकजं जं जाणंती वि रागदोसेहिं । फलमउलं" कडुयरसं तं चेव निसेवए जीवो || १२८ ।। को दुखं पावेज्जा कस्स वा सोक्खेहि' विम्हिओ" होज्जा । को वि" न लभेज" मोखं रागद्दोसा" जइ न होजा " ।। १२९ ।। १५ माणी गुरुपडणीओ" अणत्थभरिओ" अमग्गचारी य । मोहं किलेसजालं सो खाइ' जहेव गोसालो ।।१३० ।। कलहण - कोहणसीलो भंडणसीलो विवायसीलो य । जीवो" निचुज्जलिओ " निरत्थयं संजमं चरइ ।।१३१।। जह वणदवो वणं दवदवस्स जलिओ खणेण निहes | एवँ " कसायपरिणओ" जीवो" तवसंजमं दहइ" ।। १३२ ।। परिणामवसेण पुणो अहिओ ऊणयरओ" व्व" होज्ज" खओः । तह वि" ववहारमेत्तेण भन्नइ* इमं जहा थूलं ।। १३३ ।। २ १७ (१) करिंति खं १, खं ३; करित्ति पा १; करंति पा २ (२) मणुउगए पू १. (३) दुखे पा २ ; दोक्खे पा १. ( ४ ) थीद्धी पा १, पा २ धी धी पू १. (५) फलमउड पा ९; स्वं १, खं २. (६) दुखं पा २ (७) पाविजा खं ३, पा १, पू २. (८) वि पू २. (९) सोक्खेहिं जै, खं १, खं २, स्वं ३, पा १, पू १, पू २; सोखेहि पा २ (१०) बिम्हओ खं १, स्वं ३, पा १; विम्हत्तु पा २ विम्हि पू १. ( ११ ) व जै, खं १, वं २, खं ३, पा १, पा २ (१२) लहेज खं २, खं, पू १, पू २; लहिज्ज पा १. (१३) मुक्खं पू २. (१४) दो सा पू २. (१५) हुज्जा प २. (१६) 'पडिणीओ पू २; 'पडिणीउ पू १. (१७) भरीओ खं 3 खं २, खं ३, पा १, पू २; भरीउ पा २; "भरिउ पू १. (१८) क्खाई पा १; क्खाइ जै. (१९) विवाग° जै, खं ३, पा १, पा २, पू १. (२०) जीबी पू २. (२१) 'ज्जलिउ पू १ ; 'जलिओ पा २ (२२) वणदेवो पा १, पू १, पू २. (२३) जलि उ पा २; जलियो खं १ (२४) एवं जै, १, खं ३, प १, पा २, पू १, पू २; एव खं २. (२५) पणेरिणओ पू २. (२६) जोवो पा १. (२७) डहड़ खं २, खं ३, पा १. ( २८ ) उणयर खं २, खं ३, पा २, पू १, पू २; ऊणयरो जै; उयरउ पा १. (२९) व प २. (३०) हुज्ज पू२. (३१) खरो पू १. (३२) य पू १; ढाल पू २. (३३) 'मित्तेण जै, पा २; 'मत्तेणं पू १; मित्तेणं पू २. (३४) भण्णइ पा २; भण इमं पू २; भन्नइ य खं २. (३५) धूमं खं २. १९ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरसंवयणेण दिर्णतव अहिक्खिवंतो य हणइ मासतवं । वरिसतवं सवमाणो हणइ हणतो य सामन्नं ।। १३४।। अह जीवियं निकिंत हंतूण य' संजमं मालं चिणइ | जीवो पभायँबहुलो परिभम य' जेण संसारे ।। १३५ ।। १९ अकोसण - तजण " - ताडणा य१३ अवमाण - हीलणाओ " य १५ । मुणिणो मुणिय - परभवा" दढप्पहारी " व्व" विसहंति ९ ।। १३६ ।। अहमाहयत्ति न" य पडिहणंति" सत्तावि न य पडिसवंति । मारिज्वंता वि जइ सहंति साहस्समल्लो व्व ।। १३७।। 3 १२ दुज्जणमुहकोदंडा" वयणसरा पुव्वकम्मनिम्माया । साहूण" ते न लग्गा खंती ७ फलयं वहंताणं ।। १३८ ।। पत्थरेणाहओ" कीवो पत्थरं डकु मिच्छई " । मिगारिओ" सरं पप्प" सरुप्पत्तिं विमई ।। १३९ ।। तह पुव्विं किं न इहिं" किं कस्स व कयं न बाहएजेण मे" समत्थो । कुप्पमो त्ति धीरा" अणुप्पेच्छा ॥ १४० ॥ ३८ (१) परुस° पू १. (२) दिणतवं सर्वत्र. (३) अहिरिववंतो खं १, पा १, पा २. ( ४ ) उ जै, खं १. (५) निकित्तड़ इ खं ३. (६) बिखं २, पा २, पू १. व खं १; इ पा १; क्षत जै. (७) पमाइ° पा १. (८) 'बहलो पा १. ( ९ ) य जोड़ा गया. (१०) उक्कोसण पू २; अक्कोस त° खं ३. (११) तज्जणं ता पा २, 'तज्जणा स्वं ३. (१२) 'तालणा जै, स्वं १, स्वं २, पू. (१३) उ स्वं २, खं ३, पा १, पा २, पू१; क्षत जै, पू २. (१४) 'हीलणाउ पू १. (१५) अपू २. (१६) परिभवा स्वं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (१७) दढप्पहारि ज, खं २, खं ३, पा १, पू २; दडप्पहारि पू १; दहपहारि पा २. (१८) व कं २. (१९) बिसहिंति पू १. ( २० ) अहमाहउ स्वं १, खं २, पा १, पा २, पू २. (२१) णपा १. (२२) पडिहणत्ति पा १. (२३) परिसवंति खं १, २, खं ३, .पा २, पडिसवात्ते पा १. (२४) साइस्सि खं ९; साहुस्स पा १. (२५) कोदडा पू १. (२६) साहूणं पू १. (२७) खंति खं १, पू १. ( २८ ) पत्थरेणाहउ पू १, पू २; पत्यरेणाउहओ खं २. (२९) उक्कुमिच्छई खं १, खं २, स्वं ३, पा २. उकुछ पा २ (३०) मिगारिउ वं १, खं २, खं ३, पा २, पू १; मिगारीउ पा १; मिगारिक जै. (३१) सप्प पा १. (३२) विमम्गई खं १, खं २, खं ३; बिम्बई पा ९. (३३) किन्न खं १. (३४) मए पा १. (३५) समत्ये पू १. ( ३६ ) इंण्हि स्वं १; एण्डिं खं २, पा २; इण्हं पू २. (३७) बिखं १, पू २. (३८) कुप्पम पा २; कुप्पमु खं ३; कुप्पिमो जै, पू २. (३९) धीरो पू २; वीरा पा १. (४०) अणुपिच्छा खं उ, पू २; अणुपेच्छा जै, खं २; अणुपच्छा पू १ . २० ५ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुराएण जइस्स वि सियायवत्तं पिया धरावेइ । तह वि य खंदकुमारो न बंधुपासेहि पडिबद्धो ।।१४१ ।। गुरुगुरुतरो य' अइगुरु पिईमाइ-अवञ्च -पियजणसिणेहो । चिंतिजमाणगुविलो चत्तो अइधम्म-तिसिएहिं ।।१४२ ।। अमुणिय-परमत्थाणं बंधुजण-सिणेह-वइयरो होइ । अवगय-संसार-सहाव-निच्छयाणं समं हिययं ।।१४३।। माया पिया य भाया भजा पुत्ता सुही य" नियगा य । इह चेव बहु विहाई करेंति' भयवेमणस्साई ।।१४४ ।। माया नियगमइ-विगप्पियम्मि अत्थे अपूरमाणाम्मि । पुत्तस्स कुणइ वसणं चुलणी जह बंभदत्तस्स ।।१४५।। सब्बंगोवंगविगत्तणाओ५ जगडणवि हेडणाओ६ य । कासी य" रजतिसिओ" पुत्ताण'' पिया कणंगकेऊ' ।।१४६ ।। विसयसुहरागवसओ घोरो'२ भाया वि भायरं हणइ । आहाविओ" वहत्थं जह बाहुबलिस्स भरहवई ।।१४७।। (१) पासेहिं जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू २. (२) अ पा २. (३) पिय° खं २, पा २. (४) इ वच्च पू १. (५) सिणोहो जै. (६) चिंतिज पा २. (७) वीयरो पू १. (८) भुवगय° खं १; अवगइ पा १. (९) "नच्छियाणं पू २. (१०) सही पू २. (११) स पू २. (१२) अह पू २. (१३) करंति पा १; करिति जै, खं ३, पा २. (१४) यपूरमाणम्मि खं १, पा १. (१५) विगत्तणाओ जै, पा २, पू २; विगत्तणाउ खं १, खं २, खं ३, पा २, पू १. (१६) "विहंडणाओ पा २; "विहडणराओ पा १; विहेडणाउ खं ३, पू १, विहंडणाउ पू २. (१७) क्षत पाट २, पू २. (१८) "तिसिउ पू १, पू २. (१९) पत्ताण पू १. (२०) कणय° पा १, पू १, पू २. (२१) 'केउ पा २. (२२) वसउ पू १. (२३) घोरे पा २. (२४) आहविऊ पू २; आहाविउ पू १. २१ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भजा वि इंदियविगार-दोस'-नडिया करेइ पईपावं । जह सो पएसि राया सूरियकं ताएँ तह वहिओ ||१४८।। सासय-सोक्ख'-तरस्सी' नियअंग'-समुभवेण पियपुत्तो । जह सो सेणियराया कोणियरन्ना' खयं नीओ ॥१४९ ।। लुद्धा सकजतुरिया सुहिणो वि विसंवयंति कयकजा । जह ३-चंदगुत्त गुरुणा पव्वयओ५ घाइओ राया ।।१५०।। नियया वि निययंकजे विसंवयंतम्मि होंति खरफरुसा । जह रामसुभूमकओ" बंभक्खत्तस्सर आसि खओ३ ।।१५१ ।। कुलघर-निययंसुहेसु य सयणे य जणे य५ निच्च मुणिवसमा । विहरंति आणिस्साए जह अज महागिरि भयवं ।।१५२ ।। रूवेण जोवणेण" य कन्नाहि° सुहेहि घरसिरीए३२ य । न य लुम्भंति सुविहिया निदरिसणं जंबु नामो" ति ।।१५३ ।। उत्तम कुलप्पसूया रायकुलवडंसगा वि मुणिवसभा। बहुजण-जइ-संघट्ट मेहकुमारो इव सहति" ।।१५४ ।। (१) दोसेहिं न पू १. (२) पय पू १. (३) पएस पा १. (४) सूरियकंताए जै, खं १, खं २, खं ३, पा २, पू १; सूरीकंताए । २; सूरियकत्ताए पा १. (५) विहिओ खं ३; वईउ १. (६) सोक्वं' पा २, पू १; सुक्खं पू २. (७) तरिस्सी पू १; 'तरसी पा २, पू २. (८) निययंग खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १; नियंग पू २. (९) 'रण्णा पू १. (१०) क्खयं पा २. (११) सयणो पू २. (१२) कजं जै. (१३) कह पू २. (१४) चंडगुत्त खं २, पू २; चंदगोत्तपा २. (१५) पवओ पा १; पब्वयउ पू १; पब्बईओ पू २. (१६) घाइउ पू १. (१७) निया पू २. (१८) नीय° पू २. (१९) हुँति खं १, खं २, खं ३, पा १, पू २. (२०) फुरुसा खं १; फरसा पा १; पुरुसा पा २, पू १; पुरिसा पू २. (२१) 'कउ पू १. (२२) खत्तस्स खं १, खं २, खं २, खं ३, पा १; "खत्तिस्स पू २. (२३) ख ३ पू १. (२४) निय सुपा २, पू २. (२५) क्षत पू, पू २. (२६) °वसहा पू १. (२७) अणिसाए पा २. (२८) माहागिरी पा १; महागिरि पू १. (२९) जुन्बणेण पू २. (३०) कन्नाहिं जै, खं १, पा २; कण्णाहिं पा १, पू १, पू २. (३१) सुहिहिं जै, खं १, पा १, पा २, पू. १; सुहीहिं खं ३, क्षत पू २. (३२) सिरीएहिं पू १. पू . (३३) लब्भंति पा १. (३४) जम्म पू १. (३५) नामु पा २, पू २; णामो खं २. (३६) वडिंसगा दो, खं १, खं ३, पा १; वडिंसया खं २, पू १; वडंसया पा २; वडेंसगा जै. (३७) °वसहा खं १, पू १, पू २. (३८) वि पा १; ब्व पा २, पू १, पू . (३९) विसहंति पा २, पू १, पू २; वसहति पा १. २२ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। १५५ ।। अवरोप्परसंबाहो' सोक्खं तुच्छं सरीरपीडा य । सारण-वारण- - चोयण' गुरुजण - अ - आयत्तया य गणे एक्स्स" कओ धम्मो सच्छंदगई- मई - पयारस्स । किं वा करेउ एको' परिहरउ" कहं अकजं वा ।। १५६ ।। कत्तो सुत्तत्थागम-पडिपुच्छण - चोयणा" व" एकस्स । विणओ" वेयावच्चं आराहणया" य मरणंते ।। १५७ ।। पेलजेंसणमेको" पन्नमयाजणाउ निच्चभयं । काउमणो वि अकजं न तरह काऊण" बहुमज्झे ।। १५८ ।। उच्चार- पासवण-वंत-पित्त-मुच्छाईमोहिओ एको" । सहवेभाणविहत्थो " निक्खिवड़ व कुणइ उड्डाहं" ।।१५९।। एकदिवसेण बहुया" सुभा* य" असुभा* य" जीवापरिणामा । एको" असुभपरिणओ" चएज" आलंबणं" लब्धुं ।। १६० ।। सव्वजिर्णपडिकुटुं" अणवत्था थेरकप्पभेओ" य" । एको" य०५ सुयाउत्तो" वि७ हणइ तव संजमं अइरा ।। १६१ ।। (१) अवरप्परसंबाहो पा १; अवरोप्परसंबाहं जै, खं २, खं ३, पा २, पू २. (२) चोअण पू २. (३) आइत्तया जै. (४) जणे खं २. (५) एकस्स नं २, स्वं ३. (६) कउ पू १. (७) पियारस्स पू १. (८) करेड़ पा १, पा २, पू१; करे पू. (९) एगो खं १; इको पू १, पू २. (१०) परिहरओ खं १, पू १. (११) 'चोअणा पू २; 'बेयणा खं २. ( १२ ) य पू २. (१३) एगस्स वं १, खं २; एकस्स खं ३, पा १, पू १, पू. २. (१४) विउ पा २, पू २. (१५) आराहणा पू २; आहरणया खं १. (१६) य खं १, पू २; व जैखं ३, पा १, उ खं २, पा २. (१७) पेलिजे खं ३ पा १; पेलेज्जे' जै, स्वं १, पू १; पिलिजे पा २, पू२. (१८) 'भिको पा २, पू २; भुक्को पा १. (१९) पयण्ण° पू १. (२०) 'जणाओ पा २. (२१) काउण पा २. (२२) 'मुच्छाए खं १, पा १. (२३) मोहिउ पू १. (२४) एको पा २; एगो खं १, खं २. (२५) सहय° पू २. (२६) 'भाणं बिपा २; 'भाणु खं ३. (२७) विहत्तो स्वं २. ( २८ ) क्षत पा १, पू १, पू २. (२९) ओड्डाहं पू २; उडाई पा २ (३०) बहुआ पू २. (३१) सुहा खं ३, पा २, पू१, पू२. (३२) इ पू १. (३३) असुहा खं ३, पा, पू १, पू २. (३४) इ पू १, पू. (३५) एगो खं ३, पू १. (३६) असुह १, खं २ खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. ( ३७ ) परिणउ पू १. (३८) चइज्ज पा १, पू १. (३९) आलावणं पा १. (४०) जिणा' पा १, पा २ (४१) 'पडिकुटुं खं १, खं २, पा १, पा २, पू १, पू२. (४२) भेउ पू१, पू २. (४३) अपू २ अपा १, पा २, पू २. (४६) सुयाए तो खं २; सूआओ पू २. (४७) क्षत पू. १. (४४) एगो पा १ (४५) २३ १० २३ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेसं जुन्नकुमारि पउत्थंवइयं च बालविहवं च । पासंडरोहमसइं नवतरुणि थेरभजं च ।।१६२ ।। सविडंकुब्भर्डरूवा' दिट्ठा मोहेइ जा मणं इत्थी । आयहियं चितंता दूरयरे" णं परिहरंति ।।१६३ ।। सम्मट्टिी'२ वि कयागमो विअइविसया३-राग-सुह-वसगो । भवसंकडम्मि पविसइ एत्थं तुहा सच्चई नायं ।।१६४ ।। सुतवस्सियाण पूया पणाम-सकार-विणय-कजपरो । बद्धं पि कम्मसुभं सिठिलेइ दसारनेया'" व ॥१६५।। अभिगमण-वंदण-नमंसणेण पडिपुच्छणेण साहूणं । चिरसंचियं पि कम्मं खणेण" विरलत्तणमुवेइ ।।१६६ ।। केइ सुसीलसुहम्माइ सजणा गुरुजणस्स वि सुसीसा । विउलं जणंति सद्धं" जह सीसो चंडरुद्दस्स ।।१६७।। अंगार-जीव-वहगो५ कोई६ कुगुरू सुसीसपरिवारो । सुमिणे जईहि दिट्ठो कोलो" गयकलह परिकिन्नो' ||१६८।। (१) जन्न पा १. (२) कुमारी खं १, पा १. (३) पउ व पू १. (४) मसई खं १, खं ३, पा २, पू २; मसयं खं २. (५) नवि तरणिं पा १. नवतरुणी खं १, खं ३, पा २. (६) कन्भड' पू २. (७) रुवा पा १, पा २. (८) मोहिइ खं १. (९) आयहिययं पा १. (१०) चिंतिता पा १, पा २; चितेंता जै. (११) दूरइरेणं पा १. (१२) "दिट्ठी खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (१३) विसइ पा १. (१४) वसओ जै, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २. (१५) इत्यं पा २. (१६) तह खं २, पा २, पा २, पू १, पू २. (१७) मि खं २. (१८) 'मसुहं खं १, खं २, पा १, पा २, पू १, पू २. (१९) णेया पा १. (२०) वा जै. (२१) रवणे पू १. (२२) सुसीला' खं १, खं २, पा १, पा २, पू १, पू २. (२३) सुहिमाइ खं १; सुहमाइ खं २, खं ३, पा १, पू १; 'सुहमाइं स° पू २; सुहमाय पा २. (२४) सहं खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १; सब्बह खं २, सिद्धिं पू २. (२५) वहओ जै, खं २, खं ३ पा २. (२६) कोई जै, खं १, खं २, खं ३, पा २, पू १. (२७) कुगुरु खं २, खं ३, पू २. (२८) जईहिं जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू २. (२९) कालो पू २. (३०) परिकिण्णो पू १; "ह कण्णो पा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो उग्गभवसमुद्दे सयंवरमुवागएहि ' राएहिं । करहो वक्खरंभरिओ दिट्ठो पोराणसीसेहिं ।। १६९ ।। संसारखंचणा' न वि गणंति संसारसूयरा जीवा । सुमिणगएण वि केई बुज्झती पुष्कचूला वा ।। १७० ॥ जो अविकलं तवं संजमं च साहू करेज्ज' पच्छा वि । अन्नियँसुओं' व्व सो नियग' मर्त्यमचिरेण " साहेइ । । १७१ ।। सुहिओ " न चयइ भोए चयइजहा दुक्खिऔं ति अलियमिणं । चिकणकम्मोलित्तो न इमो" न इमो" परिचय" ।। १७२ ।। जह चयइ चक्वट्टी" पवित्थरं तत्तियं" मुहुत्तेण । न चयइ" तहा अधन्नो" दुब्बुद्धी" खप्परं दमगो । । १७३ ।। देहो पिपीलियाहिं" चिलाइपुत्तस्स चालणि" व्व कओ" । तणुओ" वि मणपओसो" न चालिओ " तेण ताणुवरिं । । १७४ ।। पाणच्चए वि पावं पिपीलियाए" विजे न इच्छंति । ते कह जई अपावा "पावाइँ करेंति अन्नस्स" ।। १७५ ।। ३३ (१) 'मुबागएहिं जै, खं १, खं २, खं ३, पू १, पू २. (२) राएहि पा २ पू २; राईहि पू १. (३) वक्कर पू २; बस्वर° पा १. (४) 'वत्त्वणा पू १. (६) करिज्ज पू १, पू २. (९) यिग पा १. (१०) (७) अण्णिय पा १. मट्ट' जै, खं १, (८) २, स्वं ० पा १. चिरेण पू २. (१२) सुहिउ पू १. (१३) चय पू २; चड़ पा १. (१४) दुक्खिउ खं ३, पा १, पू१. (१५) यमो पा १ ; इम्मो जै. (१६) यमो पा १, पा २ (१७) पविचयइ पू १. (१८) चकव्बट्टी पू १; चकबट्टी पा २ (१९) तत्थियं पू २. (२०) चढ़ पा १. (२१) अहन्नो जै, खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (२२) दुबुद्धी जै, खं २, स्वं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (२३) दमओ स्वं १, खं ३, पा २ दमइ खं २, दमउ पू १. (२४) पिपीलियाई खं २. (२५) चालण पा १; चालिणि खं ३. (२६) कउ पू १. (२७) तणुउ पू १. (२८) पउसो पू१, पू२. (२९) चालिउ पू १, पू २. (३०) ताणवरिं पा १ (३१) पिवीलिया ए खं १, खं २. (३२) पावाई जै, स्वं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २; पावा खं १. ( ३३ ) करंति पा २; करिंति खं ३, पू१. (३४) अण्णस्स पू १. २५ राईहिं स्वं १, पा १, (५) सूअरा °पू २. सुयपू १; सुखं २, खह ३, पू २. ३, पा १, पा २, पू २. (११) 'नचिरेण Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणपह- अपंडियाणं पाणहराणं पि पहरमाणाणं । न करेंति य पावाई' पावस्स फलं वियाणंता" ।। १७६ ।। २ वह'-मारण-अब्भक्खाण'- दाण-परण- विलोवणाईणं । सव्व - जहन्नो उदओ दस गुणिओ" एकसि" कयाणं ।। १७७ ।। तिव्वयरे" उ" पओसे" सयगुणिओ सयसहस्स कोडिगुणो । कोडाकोडिगुणो वा होज्ज" विवागो" बहुतरो वा ।। १७८ ।। के" एत्थ" करेंतालंबणं इमं तिहुयणस्स" अच्छेरं । जह नियमा खवियंगी मरुदेवी भगवई सिद्धा ।। १७९ ।। १ ३ किं पि कहिं पि कयाई एगे लद्धीहि " केहि " वि" निभेहिं" । पत्तेर्येबुधलाभा हवंति अच्छेयन्भूया" ।। १८ ।। 3 निहिसंपत्तमहन्नो" पत्थेंतो" जह" जणो निरुत्तप्पो । इह नासइ तह पत्तेयबुद्धैलच्छिं पडिच्छंतो" ।। १८१ ।। ✔ सोऊण गहूं" सुकुमालियाएँ तह ससग भसग भइणीए " । ताव न वीससियव्वं सेयट्ठी" धम्मिओ" जाव ।। १८२ ।। (१) यपंडियाणं जै. (२) पहरमाणाण पा २. (३) करंति खं २, पू १; करिंति खं ३, पा १, पू २. (४) पावाणं पा १. (५) वियाणिंता जै. (६) व वह पा २, पू २. त पा १. (७) 'अभक्खाण' पा २; 'अन्भवाण' पा १. (८) 'बिलोय' खं १, पू १. (९) उदउ पा १, पा २, पू १, पू २. (१०) 'गुण पा २, पू१. (११) एकसिं पू १; एकस्स पू २. (१२) कयाई पू १. (१३) तिव्बरे कं, स्वं ३. (१४) य पू १. (१५) पउसे पू २; पउसो पू १. (१६) हुज पू २. (१७) बिबागो यब' पा २. (१८) किं पा २. (१९) इत्थ स्वं २, पा १, पा २, पू १, पू २. ( २० ) करिता' पा १; करिता पू१; करंति पू २. (२१) तिहुअणस्स पू २. (२२) कह पा २. (२३) कयाई स्वं २; कयाइ जै. (२४) लद्धीहिं जै, स्वं १, स्वं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (२५) केहिं स्वं १, पू २. (२६) मि जै. (२७) नितेहिं पा १ (२८) 'पत्तेअ' पू २ (२९) भूया स्वं १, पा २; न्भूआ पू २. (३०) 'महणो खं ३, पू १. (३१) पत्थिंतो खं १, स्वं २, स्वं ३, पा १, पा २, पू २. (३२) जण पू २. (३३) निस्तप्पो पा १. (३४) पत्तेअ' पू २. (३५) 'बुद्धि' पू १. (३६) पडिच्छन्नो पा १. (३७) गई खं ९, २, ३, पा १, पू. १, पू २; गयं पा २ (३८) सुकुमालियाए जै, खं १, खं २, १, १, पू१; सुकमालियाए पा २. ( ३९ ) भयणीए खं १, पा १, पा २, पू १. (४०) से अट्टी पू२ सेयट्टिय पा २ (४१) धम्मिउ पू १. २६ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, खर-करह-तुरंग'-वसभा मत्तगइंदा वि' नाम दम्मतिः । एक्को' नवरि न दम्मइ निरंकुसो अप्पणो अप्पा ।।१८३ ।। वरं दमिओ अप्पा' संजमेण तवेण य । माहं परेहि दम्मंतो" बंधणे हिं" वहे हि य ।। १८४ ।। अप्पा चेव दमेयव्वो" अप्पा हु खलु दु । अप्पा दंतो सुही होइ अस्सिं" लोए परत्थ य" ।। १८५ ।। निच्चं दोस सहगओ" जीवो अविरहियमसुभ" - परिणामो । नवरं दिन्ने पसरे तो देइ पमार्यमयेरसु ।। १८६ ।। १७ २३ अच्चिय-वंदिय-पूइय"- सकारिय- पणमिओ" महग्घविओ । तं तह करे " जीवो पाडेड़ जहप्पणो " ठाणं ५ ।।१८७।। । १ २ १३ सीलव्बयाँहूँ जो बहुफलाइँ हंतूण सोक्खमभिलसइ धिड़ दुब्बलो तवस्सी कोडीए कागिणिं किणइ ।। १८८ ।। जीवो जहा " मणसियं हिय इच्छिय-पत्थिए हि" सोक्खेहिं । तोसेऊण न तीरड़ जावज्जीवेण सव्वेण" ।। १८९।। ३५ गयंदा पा २ (४) १, स्वं २, स्वं ३, २, खं ३, पा १, पा (१) 'तुरय' खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १. (२) 'वसहा स्वं १, पू १. (३) वखं ९, पा १, पा २. (५) दमंति पा २ (६) एको पा २ (७) बरिमे जै, खं पा २, पू; बरमे पा १, पू २. (८) अप्पा दमिओ खं १; अप्पा दंतो जै, खं २, पू १, पू २. (९) परेहिं जै, स्वं १, खं २, स्वं ३, पा १, पू १, पू २. (१०) दमिओ खं २ जै; दमतो खं ३, पू १; दम्मिंतो पा १; दमेहिं खं १. (११) बंधणेण पा १, बंधणेहि पा २. (१२) दमियब्बो पा २. पू २. (१३) उपा २, पू १, क्षत जै. (१४) इस्सिं पा २. (१५) ए जै. (१६) सहगो पू २; सहगड पू १. (१७) अविरइय पू २. (१८) भसुह खं १, खं ३, पा १, पू १, पू २; 'असुर' पा २. (१९) पार पा १. १२. (२०) 'मियरेसु पू २. (२१) पूईय पा २. (२२) पणमिउ पू १, पू२. (२३) महग्घविउ पू १. (२४) तरेह खं १ (२५) जह अप्पणो पू १; जहअप्पर पू २. (२६) ट्ठाणं जै, स्वं १, खं २, पा २, पू १, पू २. (२७) सीलव्वयाइं सर्वत्र (२८) बहुफलाई जै, स्वं १, पा १, पा २, पू १, पू २; बहुफलाइ स्वं २, खं ३. (२९) सुक्ख° पू २. सोख पू १. (३०) महिलसइ पा १, पू १. (३१) धी खं १, खं ३, पा १, पू १; धिउ पू २. (३२) कागिणी स्वं २, पा २, पू १; कागणी खं ३; कागणिं जै. (३३) कुणड़ पा २ जै, खं १, स्वं २, (३४) जह जै. (३५) पत्थि हिं स्वं ३, पा १, पू १. (३६) सोक्खेहिं पा २ (३७) 'वजीवेण पा २. (३८) सब्वेणं खं ३, पा १, पू२. खं खं २, ७ २७ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमिणंतराणुः भूयं सोक्खं समइच्छियं जहा नत्थि । एवमिम पि अईयं सोक्खं सुमिणोवमं होइ ।।१९०।। पुरनिद्धमणे' जक्खो महुरा मंगू तहेव सुयनिहसो । बोहेइ सुविहियजणं विसूरइ बहुं च हियएण' ।।१९१ ।। निग्गंतूण घराओ" न कओ' धम्मो मए जिणक्खाओ । इडिरससाय"-गुरुयत्तणेण न य चेइओ८ अप्पा ।।१९२ ।। ओसंन्नविहारेणं हा जह झीणम्मि" आउए२२ सव्वे । किं काहामि अहन्नो संपइ सोयामि" अप्पाणं ।।१९३।। हा जीव पाव भमिहिसि५ जाई जोणी-सयाइँ" बहुयाई । भवसयसहस्स दुलहं पि जिणमयं एरिसं लटुं८ ।।१९४।। पावो पमार्यवसओ जीवो संसारकजमुजुत्तो" ।। दुक्खेहि न निम्विनो सोक्खेहि न चेव परितुट्टो ।।१९५।। परितप्पिएण३५ तणुओ६ साहारो जइघणं न उजमइ । सेणियराया९ तं तह परितप्तो गओ" नरयं ।।१९६ ।। (१) तराण पू २. (२) भूअं पू २. (३) सुखं पा १; सुक्खं खं ३. (४) एवममं खं २, खं ३, पा १. (५) अइयं खं २, खं ३, पू २; अहियं पू १. (६) समणोवमं खं २. (७) निद्धवणे पा १. (८) जखे पू १. (९) नियसो पू १. (१०) हियएणं खं २, खं ३, पू १. (११) घराउ पा २, पू १, पू २. (१२) कउ पू १. (१३) खाओ पू २, खं ३, पू १. (१४) इट्टि पा २; इट्टि पू २. (१५) साइपा १. (१६) गरुयत्तणेण जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, गरूयत्तणेण पू १. (१७) नो पा १. (१८) चेईओ पा १. (१९) उसन्न पू १. (२०) विहारीणं खं ३, पा १, पा २, पू १; विहारिणं खं २. (२१) ज्झीणम्मि जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २; जीणम्मि पू १. (२२) आऊए पा १, पू २. (२३) अहण्णो खं ३; अहन्नू पू १. (२४) सोएमि खं १, खं २, खं ३, पा २; सोआमि पू १, पू २. (२५) भमहिसि पा २; भमिह पू २. (२६) सयाई जै, खं १, खं २, खं ३, पा २, पू १, पू २; सयाइ पा १. (२७) बहुआई पू २. (२८) लद्धं खं २. (२९) पमाइ पा १. (३०) वसउ पू १. (३१) मजत्तो पा १. (३२) दुक्खेहिं जै, खं १, २, खं ३, पा १, पू २; दुखेहिं पू १. (३३) निविन्नो खं २, पा २, पू १, निविण्णो पा १, निविन्ना पू २. (३४) सोक्खेहिं जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू २, सुक्खेहिं पू १. (३५) परतप्पि ऊण जै, खं ३, पा १, पा २, पू १; परितप्पण पू २. (३६) तणओ पा १; तणउ पू १. (३७) उज्जमसि पू १. (३८) सेणीय खं २; सिणिय जै. (३९) राय पा २. (४०) परितप्पिंतो पा १. (४१) गउ खं १, पू १. (४२) नयरं पा १, पू २. HTHHHHOW २८ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवेण जाणि'य विसजियाणि' जाईसएसु देहाणि । थेवेहि तओ सयलं पि तिहुयणं' होज पडिहत्थं ।।१९७।। नह'-दंत-मंस-केसट्ठिएसु जीवेण विष्पमुक्केसु । तेसु वि हवेज' क इलास-मेरु-गिरि-सन्निभा कूडा ।।१९८।। हिमवंत-मलय-मंदर-दीवोदहि-धरणि'"-सरिस-रासीओ'५ । अहिययरो आहारो छुहिएणाहारिओ होजा" ।।१९९।। जण्णेण" जलं पीयं घम्मायव-जगडिएण तंपि इहं' । सव्वेसु वि अगड-तलाय२-न्नइ३-समुहेसु न" वि होजा ।।२००।। पीयं थणयच्छीरं सागर-सलिलाउ होज बहुययरं८ । संसारम्मि अणंते माऊणं अन्नमन्नाणं" ।।२०१।। पत्ता या कामभोगा कालमणंतं इहं३३ सउवभोगा । अप्पुवं पिव मन्नइ तह५ वि य जीवो मणे सोक्खं ।।२०२ ।। जाणइ य जहा भोगिड्डिसंपया सब्वमेव धम्मफलं । तह वि दमूढहियओ" पावे कम्मे जणो रमइ ।।२०३।। (१) जाणियन्व पू १; जाणिओ जै, पू २; जाणिउं खं १; जाणिउ खं २, खं ३, पा १, पा २. (२) विसजियाई पा १. (३) जाइ खं २, पू १. (४) देहाइं खं ३, पा १, पू २; देहाइ पू १. (५) थेवेहि जै, खं १, खं ३, पा १, पू २; थेवोहि खं २. (६) तउ पू १, पू २. (७) तिहूयणं पा २. (८) पडइत्थं दो जै, खं १. (९) नहु पु २. (१०) मोकेसु खं ३. (११) हविज्ज खं २, खं ३, पू २. क्षत पा १. (१२) कविलास खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १. (१३) "मंदिर खं २, पा २, पू १. (१४) धरिण' खं २. (१५) रासीउ पू १, पू २; °ससीओ खं २. (१६) अहियरो पा १. (१७) छुहेणा' खं २. (१८) हुजा पू . (१९) जंनेण खं २; जन्नेण खं १, खं ३, पा २, पू १; जहन्नेण पू २; जणेणं दो. (२०) धम्माइव पा १, पा २, पू १. (२१) इहिं पू २; अहं खं १, पा १; सुहं पू १. (२२) तलाइ खं २, पा २. (२३) 'नय' पा २. (२४) ण पा १ (२५) हुज पा १, पू २. (२६) थण पा १, पा २, पू २. (२७) 'सलिलाओ खं १, पा १, पा २, पू २. (२८) बहुअरं जै, खं ३, पा १, पा २, पू १; बहुअयरं खं २; बहुअरं पू २. (२९) मा उणं पा २; माईणं खं १. (३०) अण्ण' जै, खं ३; अत्त° पू २. (३१) मत्ताणं पू २; भण्णाण जै. (३२) इ पू १. (३३) अहं पू २. (३४) अपुज्वं खं १, खं २, खं ३, अपुब्बिं पू १. (३५) तह तह पा १, पा २, पू १, पू २. (३६) ह पू १. (३७) सुक्खं खं ३, पा २. (३८) दटुं खं १, पू १. (३९) "हियउ पू १, पू २. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणिजइ चिंतिजइ जम्मजरामरणसंभवं दुक्खं' । न य विसएसु विरज्जइ अहो सुबद्धो कवडगंठी ।।२०४ ।। जाणइ य जह मरिजइ अमरंत पि हु जरा विणासेइ । न य उब्बिग्गो लोओ अहो रहस्सं सुनिम्मायं ।।२०५।। दुपयं चउप्पयं' बहुपयं च अपयं समिद्धमहणं वा । अणवकए वि' कयंतो हरइ हयासो अपरितंतो" ।।२०६ ।। न य नजदार सो दिवसो २ मरियव्वं चावसेण" सव्वेणा५ । आसा-पास-परद्धो न करेइ या जं हियं वज्झो८ ।।२०७।। संझराग'-जलबुब्बुओवमे जीवए य? जलबिंदुचंचले । . जोवणे य२३ १०नइ-चेग-सन्निभे पावजीवकिमियं न बुज्झसे १२०८। जं जं नजइ असुई लजिजइ कुच्छणी यभेयं ति । तं तं मगइ अंगं नवरैमणंगोत्थ पडिफूलो ।।२०९ ।। सव्वगहाणं पभवो महागहो५ सव्वदोसपायट्टी । कामगहो२७ दरप्पा जेणभिभूयं जगं सव्वं ।।२१०।। (१) जाणिजइ खं १. (२) दुखं पा १. (३) कंठी पा १; गेट्ठी खं १. (४) य खं १, पा १, पा २; क्षत जै. (५) सुणिम्माई पा १. (६) चओप्पयं पू २; चउप्पयं च बहु पू १. (७) बहुप्पयं पू २. (८) अणवकए खं १, खं २; अणवए पू १. (९) व खं २; ण पा १. (१०) इणइ पू १. (११) क्षत खं २. (१२) णजइ पा १; निजइ पू १, पू २. (१३) दियहो जै, खं २, खं ३, पा १, पा २; दिहहो पू २; दुहिउ पू १. (१४) चावस्सेण खं २; च अवसेण जै, खं १; चिय अवस्स पा १, पा २. (१५) सब्बेणं पा १. (१६) घरद्धो पू २. (१७) क्षत पा २, पू २. (१८) मुद्धो पू १. (१९) संज्झाणुराग' जै खं २; संज्झराग' खं १, खं ३, पा १, पा २, पू २. (२०) बन्बुउवमे पा २; बबुओवमे पू १. (२१) क्षत पू २. (२२) जोब्वेणे पा २; जुब्वेण पू २; जुब्वणे पू १. (२३) क्षत पू २. (२४) नय खं २, खं ३. (२५) संणिभे खं ३; सनिहे जै. (२६) जाव पू २. (२७) किमिणं जै. (२८) बुज्झसि खं २, खं ३, पू १, पू २. (२९) नित्यइ पू १, तजइ खं १. (३०) असुई खं १; असई पू १; असुयं पा २. (३१) कुच्छणिज जै, खं २; कुच्छणि पू २. (३२) मेयं तु खं २; मेअंति पू २. (३३) नवरिं जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २. (३४) अणंगोत्य जै, खं १, पा १, पा २; गणंगोत्थ पू १. (३५) महागउ पा १. (३६) 'पायटी पा १. (३७) कामगहो पू २. ३० Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो सेवइ किं 'लभई थामं हारेइ दुबलो होइ । पावेइ वेमणस्सं दुक्खाणि' य अत्तदोसेणं' ।।२११ ।। जह कच्छुल्लो कच्छु' कंडुयमाणो' दुहं मुणइ सोक्वं । मोहाउरा मणुस्सा तह काम दुहं हं" बेति'२ ।।२१२।। विसयविसं हालहलं विर्सयविसं उकडं पियंताणं । विसयविसाइण्ण पिव विसयविस-विसूइया' होइ ।।२१३ ।। एवं तु" पंचहि आसवेहि रयमार्यणत्तु अणुसमयं । चउगइ-दुह-पेरंत अणुपरियट्टति" संसारे ।।२१४।। सव्वगईपक्खदे काहिंति५ अणंतए" अकयुमुन्ना । जे य" न सुगंति' धम्मं सोऊण य" जे पमायंति ।।२१५।। अणुसिट्ठा य बहुविहं२२ मिच्छट्ठिी" य" जे नराअहमा । बद्धनिकाइय-कम्मा सुणंति धम्मं न य" करेंति" ||२१६ ।। पंचेव" अज्झिऊणं पंचेव य रक्खिऊण भावेणं" । कम्म-रय-विष्पमुका सिद्धिगई मणुत्तरं पत्ता ॥२१७।। (१) लभइ खं १; लहई खं २; लइदइ जै, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (२) हारेज पू २. (३) दुबलो पा १, पा २. (४) दुरवाणि पा १; दुक्खणि खं १, (५) दोसेण जै, पा १२, पा २; दोसेंणं खं ३. (६) कच्छं पा १; गचुं पू १. (७) कंडूयमाणो पा १, पा २, पू २; क्षत खं २. (८) मणइ पू १, पू २; मणे पा १.(९) सुक्खं पा २. (१०) मणस्सा पू १; मणस्स खं २. (११) सुहें पू १, पू २. (१२) बिंति खं १, खं ३, पा १, पा २, पू २. (१३) विसयसु वि° पू १;क्षत पू २. (१४) हालाहलं जै. (१५) विसइ पा १. (१६) विसायन्नं खं ३, पा १; त खं २; विसाइन्नं खं १, पा २, पू१,पू २. (१७) "विसूइआपू २; विसूईया पा १. (१८) च पू १. (१९) पंचहि पा २. (२०) आसवेहिं जै, खं १, खं २, खं ३, पा ब, पू १, पू २. (२१) रयमायणितु खं ३, १; रयमाइणितु खं २, पा २, पू २; रहमाइणुतु पू १; रयमायाइत्तु जै. (२२) इणु समयं पू १. (२३) पेरंति खं २, पेरतं जै. (२४) यड्दति खं २. (२५) काहंति खं ३, पा १, पा २. (२६) अणत्तए पा १. (२७) यकय खं १. (२८) पुण्णा पु १. (२९) अपू २; इ पा १. (३०) सुणिति खं १. (३१) इपा १.(३२) अणुसट्ठा जै, खं १, खं २, खं ३, पा २, पू २; अणुसिद्धापू २.(३३) बहुरिहं पा १, बहुविहा पू १. (३४) मिच्छट्ठिी खं १, खं २,पा १, पा २, प १, पू २. (३५) अ पू २; इ पा १; क्षत पा २. (३६) अहम्मा पू २. (३७) निकाई क पा १. (३८) सुर्णेति पू १; सुणिति खं ३. (३९) वि पू १; इ खं २. (४०) करंति (४१) पंचेय पू २; पंचे पा १, पा २. (४२) अज्झिऊणं जै. (४३) इ पा . (१४) रक्खिऊणं पा १. (१५) भावेण जै, पा २, पू १, पू २. (४६) रइपा १, पू १. (१७) मोका खं ३. (४८) गय पू २. (४९) मणुत्तमं जै, खं १, पा १. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाणे दंसण चरणे तव संजम समिइ गुत्ति' -पच्छित्ते' । दम - उस्सग्र्गेबवाए दब्बाइ - अभिग्गहेचेव || २१८ ॥ सद्दहणयरणाए' निञ्चं उज्जुत् ' - एसाइ ठिओ' । तस्स भवो" अहितरणं पव्वज्जाए य" जम्मं " तु" ।।२१९ ।। ११ जे घरसरणपसत्ता छक्कायरिवू " सकिंचणा अजया । नवरं मोत्तूण" घरं घरसंकमणं कयं तेहिं ।। २२० ।। उस्सुत" मायरंतो " बंधड़ कम्मं सुचिकणं" जीवो । संसारं च पवडुइ" मायामोसं च कुव्वइ य‍ ।।२२१।। २१ 3 ११ जड़ गिण्हइ" बयलोवो" अहव न गिण्हह" सरीखोच्छेओ" । पासत्थसंकमो वि य वयलोवो" तो वरेंमसंगो ।। २२२ ।। आलावो संवासो" वीसंभो संथवो पसंगो य । हीणायारेहिँ *" समं सव्वजिणिदेहि" पडिकुट्ठो” ।। २२३ ।। अन्नोन्न"-जंपिएहिं हसिउद्धुसिएहि " खिपैमाणो य" । पासत्थ - मज्झयारे बला" वि" जइ" वाउली होइ ।। २२४ ।। (१) संजमम पू१. (२) 'समझ' पू २. (३) गुति' खं १. (४) पच्छेत्ते कं १. (५) 'ओस्सम्ग' पू २; ‘उस्सग ं खं ३; 'उवसग्ग' जै. (६) 'णाइरणाए स्वं २; 'णाएरणाए पू १. (७) उज्जत्तपा १; एज्जत' पू२. (८) एसणाए जै १, खं ३, पा २, पू १, पू २. (९) ट्टिओ १. (१०) भओ जै. (११) "याहितरणं पा २ वहितरणं खं १, खं २, खं ३, पू १. (१२) अपू २. (१३) जम्मं पू २. (१४) ति पा १. (१५) रिऊ खं १, खं २, स्वं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (१६) मुत्तूण पा २, पू२. (१७) सुखं १, पू१; ओस्सुत्त पा २; ओसत्त' पू२. (१८) मायरंतं पू. (१९) सचिकणं पू १. (२०) संसारे पू २. (२१) पट्टइ प २. (२२) अपू २. ( २३ ) गिन्हड़ स्वं २, स्वं ३, पा १, पू २. (२४) 'लोओ खं ३, पा १. (२५) गिन्हड़ खं १, खं ३, पू २. गेण्ड्इ खं २, पा १, पा २ (२६) बोच्छेउ पू; बोच्छेउ पू२. (२७) संगमो पा २, पू२. ( २८ ) अइलोवो पू १; बयलोओ पा १. (२९) बरि° स्वं २, पा १, पा २. (३०) संभासो पू १. (३१) पासंगो खं १. (३२) 'यारेहिं जै, खं १, खं २, स्वं ३, पा १, पा २; 'यारेहि पा २, पू१. (३३) सम्मं पू २. (३४) जिणिदेहिं खं १, खं २, खं ३. (३५) पडिकुटुं जै. ( ३६ ) अण्णोष्ण जै, खं ३. (३७) उद्धसिएहिं जै, खं १, स्वं ३; उद्धसिएहिं पा १ ; उद्धसिओहिं पू २; यद्धसिएहिं स्वं २. (३८) खिप्यमाणस्स पू १; खिप्पमाणाओ पू २; घेखेप्पमाणो खं २. (३९) उ खं ३, पा १; क्षत पू १, पू २. (४०) बाला खं २. (४१) क्षत जै, खं १, पू १, पू २. (४२) जई जै, खं २, पू १, पू २. ३२ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोए वि कुसंसग्गिप्पियं' जणं दुनियत्थमइवसणं । निंदइ निरुज्जमं पिय-कुसील-जणमेव साहुजणो ।।२२५।। निचं संकियभीओ गम्मो सवस्स खलियचारित्तो । साहु-जणस्स' अवमओ मओ वि पुण दुग्गई जाइ ।।२२६ ।। गिरिसुय पुष्फसुयाणं सुविहिय-आहरण-कारणविहिन्नू । वजेज' सीलविगले उजुयसीले हवेज' जई ।।२२७।। ओसन्न'३-चरण-करणं जइणो वंदंति कारणं पप्प । जे सुविहिय"-परमत्था ते वंदंते निवारेंति'" ।।२२८।। सुविहिय-वंदवितो नासेइ य° अप्पयं" तु सुपहाओ । दुविहपहविष्पमुको कहमप्पन जाणई मूढो५ ।।२२९ ।। वंदइ उभओ५ कालं पि चेइयाइं थयथुई परमो । जिणवरपडिमा-घर-धूव"-पुप्फ-गंधवणुजुत्तो' ।।२३०।। सुविणिच्छिय"-एगमई धम्ममि अनन्नर देवओ य" पुणो५ । न य कुसमएसु" रजइ पुब्बावर-स्वाह तत्थेसु ।।२३१ ।। (१) कुसंसगी जै, पा १, पा २, पू २. (२) प्पीयं ज पा १; पिय ज जै. (३) दुनिअत्य' पू २; दोनियत्य स्खं १, पू १; दोण्णियत्य खं ३; दुणियत्य पा १. (४) संकीय खं ३, संकी भी पू१, संकिओ भी पू २ (५) जस्स खं २, (६) दोग्गहं खं १, पा १; (७) सुआणं पू २; सूयाणं पा १ (८) विहन्नू खं १ खं २, पा १; विहण्णू जै खं १ (९) वजिज्ज खं ३, पा २, पू २ वजेज पा १. (१०) उज्जगसीले पा १; उजयशीले पू २ (११) हविज खं ३, पा २, पू २; (१२) जइ पा १ (१३) उसन्न पा २, पू १ पू २; उस्सन्न खं २; ओसण्ण जै. (१४) कारण पा १ (१५) सुवियय पू १; सुविइय' खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २. (१६) वंदंति पा १, पा २. (१७) निवारिंति खं ३, पू २; णिवारंत्ति पा १; निवारंति खं १, स्खं २, पा २, पू १. (१८) वंदावितो खं १, खं ३, पा २, पू १, पू २; 'वंदावित्तो पा १. (१९) नासेई जै, खं २; णासेइ पा १. (२०) क्षत खं १, खं २, पू २. (२१) अप्पं य जै. (२२) सुप्पहाउ पू १. (२३) “भोको खं ३. (२४) याणई खं १; जाणए पू १. (२५) मूलो जै. (२६) उभउ पा १, पू १, पू २. (२७) चेईयाइं पा १; चेइयाइं खं १. (२८) थयथुई सर्वत्र. (२९) 'धूय खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २; धूओ खं २. (३०) चणेजुत्तो जै, खं २, खं ३, पा १, पा २; 'च्चणुजत्तो पू २. (३१) "विणिछिय° पा १; 'वणिच्छिय पू २. (३२) अणण्ण' जै; अन्नुन्न खं ३; अणन्न पा १. (३३) देवउ पा १, पू १, पू २. (३४) अपू २; क्षत पू २, पू १. (३५) पुण्णो पा १; पणउ पू १. (३६) ण पा १. (३७) कुसुमएसु खं १, खं ३, पू २. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठूण कुलिं' गीणं तस-थावर-भूय-महणं विविहं । धम्माओ न चालिज्जइ देवेहि सईदएहिं पि' ।।२३२ ।। वंदइ पडिपुच्छइ पजुवासेई साहुणो सययमेव । पढइ सुणेइ गुणेइ यजणस्स धम्म परिकहेइ" ।।२३३ ।। दाँसीलब्वय-नियमो पोसह आवस्स एसु अक्खलिओ' । मुहुमज मंस-पंचविह-बहुविह-फलेसु पडिकंतो'६ ।।२३४ ।। नाहम्म-कम्मजीवी पञ्चक्खाणे" अभिक्खमुजुत्तो । सव्वं परिमाणकडं अवरज्झइ तं पि संकेतो ।।२३५।। निक्खमण-नाण-निव्वाण-जम्मभूमीओ२२ वंदइ जिणाणं । न य वसइ साहुजण'६-विरहियम्मि देसे बहुगुणे वि ।।२३६ ।। परतित्थियाण पणमण-उब्मावण-थुणण-भत्तिरागं च । सकारं सम्माणं दाणं विणयं च वजेइ७ ।।२३७।। पढमं जईणदाऊण अप्पणा पणमिऊण पारेइ । असई' य सुविहियाणं भुंजइ" य कयदिसालोओ ||२३८।। (१) विटूण प २. (२) कुलं खं २, खं ३. (३) धम्माओ जै, खं १; धम्माउ खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (४) देवेहिं जै, खं २, खं ३, पा १. (५) सयं पू १. (६) क्षत पू १, पू २. (७) पजुवासेइ सर्वत्र. (८) सुणइ पा २, पू २. (९) गुणेई पू २; गुणेहि पा १. (१०) क्षत पू २. (११) परिकेहेइ पू २; क्षत पा १. (१२) दंढ पू १; क्षत पा १. (१३) अक्खलिउ पा २, पू १. (१४) मुज पू २. (१५) फले जै. (१६) पडिक्कंतो दो, जै, खं २, पू, पू २. (१७) पञ्चखाण पा २, पू २. (१८) "मुजत्तो पा १. (१९) कटुं पू १. (२०) अविरज्झइ दो; अवरज्झ खं १, खं २; अवरजइ पू १; क्षत पा १. (२१) निखमण' पा १. (२२) 'नेव्वाण' जै. (२३) भूमीओ जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २; भूमिउ पू १. (२४) जिणेणं पा १. (२५) विसइ खं २, विसय पा १, पा २. (२६) "जिण पू २. (२७) वजइ पू १; क्षत पा १. (२८) अप्पणो पू २. (२९) असइ हे. (३०) अ पू २; ए पा २. (३१) भुंजेइ खं १, खं २, पू १. (३२) 'लोउ पा २, पू १, पू २. ३४ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहूण कप्पणिजं जं न वि दिन्नं कहिं पि' किंचिं तहिं । धीरा जहुत्तकारी सुसावगा तं न भुंजंति ॥२३९॥ वसही-सयणासण-भत्तपाण-भेसज-वत्थ-पत्ताइ । जइ वि न पजत्तधणो थोवा वि हु थोवयं देइ ।।२४०।। संवच्छर-चाउम्मासिएसु अट्टाहियासु' य' ति हीसु । सव्वायरेण लग्गइ जिणवरपूया-तवगुणेसु ।।२४१ ।। साहूण चेझ्याण य२ पडणीय तह अवजवायं च । जिणपवयणस्स अहियं सब्बत्थामेण" वारेइ ।।२४२ ।। विरया' पाणिवहाओ विस्या निच्चं च अलिय-वयणाओ८ । विरया चोरिकाओ' विरया पदागमणाओ२ ।।२४३ ।। विरया पारिग्गहाओ३ अपरिमियाओ" अणंत तहाओ५ । बहुदोस-संकुलाओ नरय-गई गमण-पंथाओ" ।।२४४।। मुको दुजणमेत्ती° गहिया' गुरुवयण-साहु-पडिवत्ती । मुको परवरिखाओ३३ गहिओ जिणेदेसिओ धम्मो ॥२४५।। (१) कप्पणजं पू १. (२) चि जै, खं १, पू १; च पा १. (३) किंपि पा १. (४) जहत्त° पा १; जहु पू १. (५) पत्ताई पू २; पायाई जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २. (६) हि वि खं १; अ वि खं २, खं ३; विजै. (७) योवाओ जै. (८) संवत्सर खं २. (९) अट्ठाईयासु पा १. (१०) अ पू र. (११) पूआ पू २; क्षत पा १. (१२) इ पा १. (१३) पडिणीयं पू १; क्षत जै. (१४) अवन्नवाइं खं १, खं ३. (१५) सव्वत्योमेणं दो; सव्वथामेण पा १, पा २, पू २. (१६) विरिया पू १. (१७) णिचं पा १. (१८) 'वयणाउ पू १. (१९) चोरिकाउ पू १. (२०) पार' खं १; क्षत पा १. (२१) दाण° पू २; क्षत पा १. (२२) गमणाउ पा २, पू १; क्षत पा १. (२३) परिग्गहाउ पू १; क्षत पा १. (२४) 'मियाउ पू १; 'मायाओ खं २. (२५) 'तिण्हाउ पू २; 'तण्हाउ २, पू १. (२६) संकलाओ खं २, पू १, पू २. (२७) गह' सर्वत्र. (२८) पंथाउ पू १. (२९) मोका खं ३. (३०) मित्ती पू १, पू २. (३१) गिहिया पू २. (३२) मोको खं ३. (३३) 'वाउ खं २. (३४) गहेउ पू १. (३५) जिणि खं ३; क्षत पा १. (३६) देसिउ पू १; क्षत पा १.. ३५ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे हवंति इह सगुणा: । तेसिं न दुलहाइं निव्वाण' - विमाण - सोक्खाई ।। २४६ ।। - नियम - सीलकलिया सुसावगा तव -1 सीएज' कयाइ' गुरू तं पि सुसीसा सुनिउण - महुरेहिं । मग्गे ठवंति पुणरवि जह सेलगपंयगो" नायं || २४७।। दस-दस दिवसे दिवसे धम्मे बोहेइ अहव अहिययरे " । १२ इय" नंदिसेणसत्ती तह र वि य" से संजमविवत्ती ।। २४८ ।। 3 कलुसीकओ" य किट्टींकेओ" य" खउरीकैओ" मइलिओ" । २ कम्मे हि " एस जीवो नाऊण विमुज्झई जेण ॥। २४९।। कम्मेहि" वजसारोवमेर्हि" जउनंदणो वि" पडिबुद्धो" । सुबहु " *" पि विसूरंतो " न" तरह अप्पक्खमं" काउं ।।२५०।। वाससहस्सं पि जई काऊणं संजमं सुविउलं पि । अंते किलिट्टभावो न विसुज्झइ " कंडरीओ" व्व ।। २५१ ।। ३४ अप्पेण वि" कालेणं केइ जहागहियसीलसामन्ना । साहेंति" निययकज्जं पुंडरिय“ - महारिसि व्व जहा ! । २५२ ।। (४) सोखाई पा १; सुक्खाई पृ (१) सुगुणा पा २ (२) तेसि पू १. (३) नेव्वाण' जै, पा १ १, पू २. (५) सीइज्ज पा १. (६) कयावि पू १, पू २. (७) रूवि तं पि जै. (4) क्षत खंं १. (९) विंति खं १, खं ३. (१०) पंथओ पा १, पू १; पत्थिवो जै, वं १, खं २, पत्यावा पू २; क्षत पा १. ( ११ ) अहियरे खं २, पू २; अहिएरे खं १. ( १२ ) नय खं १. (१३) तेह पा २. (१४) स पू २. (१५) कउ पू. २. (१६) किट्ठी° पू १, पू २ क्षत पा १. (१७) कउ पा २, पू१, पू २; क्षत पा १ (१८ ) अपू २; क्षत पा १ (१९) खओरी खं ३; खयरी° २; क्षत पा १. (२०) 'कउ पू १: क्षत पा १ (२१) मलिणो खं २, खं ३, पू १, पू २; मइलि पा २; मलिणियओ जै; क्षत पा १ (२२) कम्मेहिं जै, खं १, खं २, स्वं ३. (२३) जाऊण पा १. (२४) कम्मेहिंदो, जै, स्वं १, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू२. (२५) बमेहिं सर्वत्र. (२६) जओ खं २; जंड° पू १. (२७) क्षत पू २. (२८) पडिबद्धो पा १, पा २. (२९) सुबहु पा २. (३०) विसूरिंतो पा २, पू २; विसूरेंतो जै. (३१) ण पा १. (३२) खमं पू २. (३३) काऊण पा २ (३४) विसोज्झइ खं २. (३५) कंडरीउ खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १. (३६) ब पू १. (३७) साहंति खं २, पू २; साहिति खं १, खं ३, पा १, पू १. (३८) पोंडरिय° जै, खं १, पू १, पुंडरीय स्वं २, पू २. ३६ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काऊण संकिलिटुं सामन्नं दुल्लहं' विसोहिपयं । सुज्झेजा एगयरो' करेज जइ उज्जम पच्छा' ।।२५३ ।। उज्झेज' अंतरे- चिय खंडिय-सबलादओ व होज खणं । ओसन्नो" सुहलेहडो' न तरेजने व पच्छ उजमिउं" ।।२५४ ।। अवि नाम चकवट्टी चएज' सव्वं पि चकवट्टि-सुहं । न य ओसनविहारी दुहिओ' ओसन्नयं चयइ" ।।२५५।। नरयत्थो ससिराया बहुं भरइ देह -लालणा-सुहि ओ" । पडिओमि२ भए भाउय" तो मे जाएहि तं देहं ।।२५६ ।। को तेण जीवरहिएण संपयं जाइएण होज८ गुणो । जइ स" पुरा जायंतो तो नरए नेव निवडंतो" ।।२५७।। जावाउ सावसेसं जाव य थेवो वि अत्थि ववसाओ । ताव करे३२ अप्पहियं मा ससिराया व सोइहसि ।।२५८ ।। घेत्तूण५ वि सामन्नं संजम-जोएसुस होइ जो सिढिलो । पडइ जई वयणिजे सोयइ य गओ" कुदेवत्तं ।।२५९ ।। (१) संकलिटुं पू १, पू २. (२) दुलहं पू २ (३) सुज्झिजा ३, पू २; सुजेजा पू १; सुज्झेज्झा पा १. (४) एकइरो खं २. (५) ओजमं पू २; क्षत पा १. (६) मच्छा खं १; क्षत पा १. (७) उजेज पू १; उन्भिज पू २. (८) अंतरि खं ३; अंतर पू २. (९) 'लादउ खं १, खं २ खं ३, पा १, पा २, पू १. (१०) ब्व जै, खं १, खह २, कं ३, पा १, पा २, पू २. (११) ओसण्णो जै. (१२) लेहड खं १, खं २, कं ३, पा १, पा २, पू २; लेहङ्क पू १. (१३) तरिज खं २, खं ३, पू २. (१४) उजमियं पा १; मुजमिउं कं १. (१५) चइज खं ३, पा १, पू २. (१६) उसन्न पा २. (१७) दुइओ पू २. (१८) उसन्नयं पू १, पू २. (१९) चरइ पू १, पू २. (२०) देहे पू २. (२१) सुहिउ पू . (२२) पडिउमि पू १. (२३) भये पा २. (२४) भाऊ पू २. (२५) जाएहिं खं १, खं २, पा १, पा २, पू १, पू २. (२६) देहिं पू २. (२७) संपइ पू २. (२८) हुज पू २. (२९) सि दो, जै, खं १, खं २, खं ३, पू १, पू २; सु पा १. (३०) नेय जै, खं १, खं ३, पू १; नेअ पू २. (३१) निवडत्तो पा १. (३२) करेज जै, पू २, करेह खं १, करेज खं २; करिज खं ३. (३३) वि खं २. (३४) सोइहिसि जै, खं १; सोएसि पा २. (३५) चित्तूण पू १. (३६) जोएइसु खं २; जेएसु पू २. (३७) वयणिजे खं १. (३८) सोयउ पा २; सोअइ पा १, पू २. (३९) गउ पू १, पू २. ३७ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोच्चा ते जिय'-लोए जिणवयणं जे नरा न याणंति । सोच्चाणं' वि ते सोच्चा जे नाऊणं न वि करेंति।।२६०।। दविऊण धणनिहिं तेर्सि उप्पडियाणि अच्छीणि' । नाऊण वि जिणवयणं जे इह विहलंति' धम्मधणं ।।२६१ ।। ठाणं उच्चुच्चयरं मझं हीणं व हीण-तरगं वा । जेण जहिं। गंतव् चेट्ठा'२ वि से२ तारिसी होइ ।।२६२ ।। जस्स गुरुम्भिः परिभवो'" साहूसु" अणायरो'" खमा तुच्छा । धम्मे या अणभिलासो" अभिलासो" दुग्गईए' उ१९ ।।२६३ ।। सारीर-माणसाणं२३ दुक्ख -सहस्साण५ वसण६-परिभीया७ । नाणकुसेण मुणिणो रागगरंदं निरंभंति ।।२६४ ।। सोग्गइ-मग्ग-पईवं नाणं देंतस्स होजर किमदेयं । जहं तं पुलिंदएणं दिन्नं५ सिवगस्स नियगच्छिं ॥२६५।। सीहासणे.६ निसन्नं सोवागं सेणिओ८ नरवरिंदो । विजं मग्गइ पयओ" इय° साहु जणस्स सुय-विणओ ।।२६६ ।। (१) जीय खं १, पा १. (२) सुच्चाण खं ३; क्षत पा १. (३) करिंति खं १, खं ३, पू १, पू २. (४) दाएऊण जै. (५) उप्पाडिआणि पू २. (६) मच्छीणि जै. (७) विहलिंति खं १, पा २; विहलेति पू १. (८) ट्ठाणं जै, खं १, पा १, पा २. (९) उचुच्छयरं खं १; उच्छुचयरं खं २; उच्चच्चयरं जै, पा १. (१०) तरुगं जै. (११) जहि पू २; क्षत पा १. (१२) चिट्ठा पा २, पू २; जेट्ठा जै; क्षत पा १. (१३) से सर्वत्र. (१४) गुरंमि पा १; गुरुमि खं १. (१५) परभवो खं २. (१६) साहूसू पा १. (१७) यणायरों खं २, पा १, पू १. (१८) क्षत पू २. (१९) हिलासो खं ३, पा २, पू १, पू २. (२०) अहिलासो जै, खं २, कं ३, पा २, पू १; क्षत पू २. (२१) दुग्गइएं खं १; दोगईए पा १; दोग्गईए जै; दुग्गईहे पू १. (२२) य पू २. (२३) माणुसाणं जै, खं ३, पू १. (२४) दुख° पा १. (२५) सहस्स खं १, पा १, पा २. (२६) वसणाण पा १, पा २. (२७) भीआ पू २. (२८) णाणं पा १. (२९) सोगइ खं २; सुग्गइ° पू २; सोअग्ग° पा २; क्षत पा १. (३०) मग्गइ.पू. २; गम्म' जै; क्षत पा १. (३१) दिंतस्स खं ३, पा २, पू १, पू २; दित्तस्स पा १. (३२) हुज खं ३, पू २. (३३) किमदेअं पू २. (३४) तिं पू २. (३५) दिण्णं खं ३. (३६) सिंहासणे पू १. (३७) निसन्न पू १. (३८) सेणिउ पा २, पू १, पू २. (३९) पयउ पा २, पू २. (४०) इह पा १, पू १. (४१) सुअ° पू २. (४२) विणउ पू १. ३८ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजाए कासवसंतियाएँ दगसूयरो' सिरिं पत्तो । पडिओ मुसं वयंतो सुय -निण्हवणा' इय अपत्या' ।।२६७।। सयलम्मि वि' जियलोए तेण इह घोसिओ' अमाधाओ' । एकं पिजो दुहत्तं सत्तं बोहेइ जिण-वयणे ।।२६८ ।। सम्मत्त-दायगाणं दुप्पडियारं भवेसु बहुएसु । सव्वगुणमेलियाहि वि." उवयार-सहस्स-कोडीहिं ।।२६९ ।। सम्मत्तम्मि उ लद्धे ठड्याइं नरय-तिरिय-दाराई । दिव्वाणि माणुसाणि य मोक्ख-सुहाहं सहीणाइं" ।।२७०।। कुसमय-सुईण महणं सम्मत्तं जस्स सुट्टियं हियए" । तस्स५ जगुजोकरं नाणं चरणं च भवमहणं ।।२७१ ।। सुपरिच्छिय सम्मत्तो नाणेणोलोइयत्थर-सब्भावो । निव्वण-चरणाउत्तो२ इच्छियमत्थं पसाहेइ" ||२७२ ।। जह मूलताणए पंडुरम्मि५ दुव्बन्नैरागवन्नेहिं । वीभच्छा पडसोहा इय सम्म पमाएहिं८ ।।२७३ ।। (१) "तियाए जै, खं १, खं २, खं ३, पा २, पू २; "ठियाए पू १; क्षत पा १. (२) सूअसो पू २; क्षत पा १. (३) पडिउ पा १ पा २, पू २; पडियं खं २. (४) सुअ° पू २. (५) निन्हवणा पा २; निन्नवणा पू १, पू २. (६) अपंत्या जै, पू १. (७) व पा १; क्षत पू २. (८) जीय' पू २. (९) तेणाई प १. (१०) घोसिउ पा १, पा २, ५ १. (११) अमाघाउ पू १. (१२) वयणं पू १. (१३) समत्त पू १. (१४) “मीलियाइ पू १. (१५) व पू १; मि जै. (१६) ओवयार' पू २. (१७) य प २. (१८) ठुइयाई खं १. (१९) दिव्वाइं जै. (२०) सहाई पू १; मुवहाई पू २. (२१) सुहीणाई पू १. (२२) कुसुमय खं १, खं २, खं ३, पू २; कुसमइ पा १. (२३) सुद्धियं पू २. (२४) हिअए पू ; हियइ पा १. (२५) तस्य पू २. (२६) जगुजोय' पा १; जगज्जोय खं २; जगजेय पू २. (२७) गरं खं १. (२८) णानं पा १. (२९) सुपरिच्छिं य° पू २. (३०) समत्तो पा २. (३१) नाणेण° खं १, खं २. (३२) लोइत्य खं २ पा १. (३३) चरणाओत्तो पू २. (३४) पसाएइ पा १. (३५) पंडरंमि खं १, खं २, खं ३, पा २, पू १, पू २. (३६) दुवन्न पा १; दोवन्न खं २. (३७) पडिसोह पा १, पा २, प १, पू २. (३८) पमाएहि पा २; पसाहेइ पू १. ३९ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरएसु सुरखेरसु' य जो बंधइ सागरोवमं एक' । पलिओवमाण बंधइ कोडि-सहस्साणि• दिवसेण' ।।२७४ ।। पलिओवम'-संखेज भागं जो बंधई सुरगणेसु । दिवसे दिवसे बंधइ स वासंकोडी असंखेजा" ।।२७५ ।। एस कमो नरएसु वि बुहेण नाऊण नाम एवं पि । धम्मम्मि कह पमाओ" निर्मेसमेत्तं पि कायब्वो" ।।२७६ ।। दिव्वालंकार विभूसणाणि रयणुजलाणि य९ घराणि । रूवं भोगसमुदओ" सुरलोगेसमो कओ इहयं ।।२७७।। देवाण देवलोए जं सोक्खं तं नरो सुभणिओ६ वि । न" भणइ वाससएण वि जस्स वि जीहासयं होजा" ।।२७८ ।। नरएसु जाइँ अइकक्खडाइँ दुक्खाइँ" परमतिवखाई । को बन्नेही ताई जीवंतो वासकोडिं२ पि" ।।२७९ ।। कक्खडदाहं सामलि३५-असिवण-वेयरणि-पहरणसएहिं । जा जायणाउ पावंति' नारया तं अहम्मफलं ।।२८०।। (१) सरवरेसु पा १. (२) इकं पा २. (३) ओवमाणं खं १; ओवमाणि खं ३, पू २; 'उबमाण पा १, पा २, पू १; 'ओवमाइं जै. (४) सहस्साण पा १, पा २, पू १; सहस्साइं जै, खं १. (५) दिवसेणं खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, ५ २. (६) उवम पा २, पू १. (७) संखिजं खं २, खं ३, पा १, पू २; संखजं पू १; संक्खेजं पा २. (८) क्षत जै. (९) बंधइ खं ३, पू १. (१०) ब्वास पू १. (११) संक्खेजा पा २; 'संखिजा पा १. (१२) एअं पू २; एवं खं १. (१३) धम्मपि खं १, पा १, पू २. (१४) पमाउ पा २. (१५) णिमेस पा १; नमेस खं ३. (१६) मित्तं पा २, पू १, पू २. (१७) पि ठोइ का जै. (१८) णाई जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू २. (१९) अ पू २. (२०) घराइं खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू २. (२१) 'दउ पा २. (२२) लोक पा २, पू १, पू २. (२३) कउ पू १. (२४) इहई जै, १, खं २, पा १, पा २, पू २; इइई खं ३. (२५) सोखं पा १; सुक्खं पू १; सुखं पू २; त खं २. (२६) "णिउ पा २, पू २. (२७) ण पा १. (२८) हुजा पू २. (२९) जाइं सर्वत्र. (३०) अइकडाइं खं १; अइ कक्खडाई जै, खं २, खं ३, पा २, पू १, पू २; अइझखडाइं पा १. (३१) दुक्खाइं सर्वत्र. (३२) वन्नेइय पा २. (३३) कोडी जै, खं २ कं ३ पा १, पा २, पू १, पू २. (३४) वि जै, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २. (३५) सामल° पू १. (३६) असवण° पू १. (३७) वेअरणि' २; वेरण पू १. (३८) पहु खं १. (३९) जो पा १. (४०) 'णाओ खं १, खं ३, पू २; 'णाय पू १. (४१) पाविंति खं १, खं ३, पू १. ४० Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरियाकसंकुसारा-निवार्यवह-बंध-मारण सयाई । न वि इहयं पावेंता' परत्थ जइ नियमिया होता ।।२८१ ।। आजीवसंकिलेसो सोक्खं तुच्छं उवहवा'" बहुया" । नीयंजण-सिट्टणा' वि य अणि?वासो य" माणुस्से ।।२८२ ।। चारग-निरोग-वह-बंधा-रोग-धणहरण''-मरण-वसणाई । मणसंतावो' अयसो' विग्गोवणया य माणुस्से' ।।२८३ ।। चिंतासंतावेहि य दारिह"-रुयाहिं५ दुप्पउत्ताहि । लभ्रूण वि माणुस्सं मरंति केई सुनिम्विन्ना ।।२८४ ।। देवा वि देवलोए दिव्वाभरणाणुरंजिय-सरीरा । जं परिवडंति" तत्तो तिं दुक्खं दारुणं तेसिं ।।२८५।। तं सुरक्मिाण विभवं३३ चिंतिय चवणं च देवलोगाओ । अबलियं चिय जं न वि फुटइ सयसकरं हिययं ।।२८६ ।। ईसा-विसायमयकोह-माणलोभेहि एवमाईहिं । देवा वि समभिभूया" तेसिं कत्तो सुह २ नाम ।।२८७।। (१) कुसं॰ पा १, पू १. (२) निवय पू २. (३) य जै. (४) इइई जै, खं १, खं ३, पू १; इइई पा; इहड़ पा २, पू २. (५) पावंता पा २; पावित्ता पा १; पविता खं १, खं ३, पू १, पू २. (६) जय खं १. (७) हुंता खं १, खं २, खं ३, पा २, पू १, प२; होत्ता पा १. (८) संकिकिलेसो पा १. (९) सुक्खं पू १. (१०) उवद्धवा पा १. (११) बहुआ पू २; हुया पू १. (१२) नीअ पू २. (१३) सिद्रिणा पू १; सिद्दणा पू २. (१४) अ पू २. (१५) चरग पा १; चारह खं १. (१६) 'हर खं ३. (१७) णाई पा २. (१८) संत्तावो पा १. (१९) अईसो पा १. (२०) "विणया खं २. (२१) णुस्स पू २. (२२) चित्ता पा १. (२३) संतावेहिं पू १; सत्तावेहि पा १. (२४) दालिद खं ३, पू १. (२५) 'रुयाहिं जै, खं १, खं ३, पा १, पा २, पू २; 'रुआहिं पू २; ख्याहि दो; रुयाहं खं २, पू १. (२६) उत्ताहि खं २, उत्ताई पू १. (२७) मरुति पू २; मरित्ति पा १. (२८) सुणिब्विण्णा पा १; सुनिविण्णा खं ३. (२९) दिव्वाणु पू १. (३०) हरणाणु · पा १. (३१) परिवडंति पा १; पडिवडंति पू १. (३२) दुखं पा १. (३३) विभवं पू १, पू २; विहवं जै. (३४) लोगाउ पू १; लागाए पू २. (३५) पुट्टइ जै. (३६) सइ पा २. (३७) सिकिरं जै, खं १, खं ३, पा १, पू १; सिविउरं खं २. (३८) 'माय' जै. (३९) भेहिं जै, खं १, खं २, खं ३, पू १, पू २; क्षत पा १. (१०) भाईहि खं २; माइहिं पू १, पू २; क्षत पा १. (४१) भूआ पा १, पू २. (४२) अहं पू १; क्षत पा १. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्म पि नाम नाऊण कीस पुरिसा सहति पुरिसाणं । सामित्ते' साहीणे को नाम करेज' दासत्तं ।।२८८ ।। संसारचारए चारए ब्व' आवीलियस्स बंधेहिं । उब्बिग्गो जस्स मणो सो किर आसन्नेसिद्धिंपहो ।।२८९ ।। आसन्नकाल भव-सिद्धियस्स जीवस्स' लक्खणं इणमो । विसयसुहेसु न रजइ सव्वत्थामेसु उज्जमइ ।।२९० ।। होज व न व देहबलं धिइमझतेण जइ न उजमसि । अच्छिहिसि चिरंकालं बलं च कालं च सोयंतो" ।।२९१ ।। लद्धिल्लिय• च बोहिं अकरेंतोणागयं च पत्थेतो । अन्नं" दाई बोहिं लब्भिसि" कयरेण" मुल्लेणे" ।।२९२ ।। संघयण" कालबल-दुस्समारुयाँलंबणा घेत्तूर्ण । सव्वं चिय नियमधुरं निरुजमाओ२ पमुचंति" ।।२९३ ।। कालस्स य५ परिहाणी संजगजोगाइ नत्थि खेताई । जयणाए वट्टियव्वं न हु जयणा मंजए अंगं ।।२९४।। (१) हवंति पू २. (२) सामित्तणे जै, खं १, खं २, पा २; क्षत पा १. (३) सेहीणे खं ३; सहीणे जै; क्षत पा १. (४) करिज पा २, पू १. (५) चारय खं ३, प १; चारिय पू १; चाराय पा १. (६) ब्वा खं १. (७) बंधेहि पा २. (८) उब्वेग्गो जै. (९) आसण खं ३. (१०) सिद्धि य प पा १, पा २, पू १, पू २. (११) आसण्ण खं ३. (१२) जावस्स पू २. (१३) हुज पू १. (१४) वि पू २. (१५) धिईमई खं २. (१६) ओजमसि पू २. (१७) अच्छिहसि पू २. (१८) क्षत पा १, पू १. (१९) सोएंतो खं २; सोहंतो जै, खं ३, सोअंतो पू २; क्षत पा १. (२०) लद्धेलियं जै, खं १, पा १, पू १, पू २. (२१) अकरितो खं १, खं २, पा २, पू २; अकरित्तो पा १. (२२) अणागय पू २. (२३) पत्यिंतो खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (२४) अण्णं खं ३, क्षत पा १. (२५) दायं पा २; क्षत पा १. (२६) लजिसि पू १; लजिहिसि जै; क्षत पा १ (२७) रेणु पू २; क्षत पा १. (२८) मोलेण जै, खं ३, पा २, पू १; मोलेणं खं १, खं २; क्षत या १. (२९) संघमण पू २; क्षत पा १. (३०) दूसमारुया खं १, खं २, खं ३, पा २; दूसमारुआ° २; क्षत पा . (३१) लंबणाई जै, खं १, खं २, खं ३, पू १, पू २; लंबणाह पा २; क्षत १. (३२) घेत्तूण खं ३; घित्तूणं पू २; घतूणं पू १; त पा १. (३३) भाउ पा २, पू १. (३४) मुंचंति जै. (३५) इ पू १. (३६) जोगाइं जै, खं १, खं २, पा २, पू १, पू २. जोगाइं खं ३, क्षत पा १. (३७) खित्ताई पू २. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिई-कसाय-गाइव-इंदिय'मयबंभचेर-गुत्तीसु । सज्झाय-विणय-तवसत्तिओ' य जयणा सुविहियाणं ।।२९५।। जुगमेत्तंतर-दिट्ठी पयं पयं चक्खुणा तिसोहेंतो' । अब्वक्खित्ताउत्तो' इरियांसमिओ' मुणी होइ ।।२९६ ।। कजे भासइ भासं अणवजमकारणे न भासद य । विगह'२-विसोत्तिय परिवजिओ य जइ भासणासमिओ५ ।।२९७ ।। बायाकमेसणाओ'६ भोयणदोसे" या पंच सोहेइ१९ । सो एसगाएँ समिओ' आजीवी अन्नहा२ होइ ।।२९८ ।। पब्विं चक्खु परिक्खिय पमाजिउं जो ठवेइ गिण्हइ.५ वा । आयाणभंड निक्खेवणाइ समिओ गुणी होइ ।।२९९।। उच्चासासवण-खेल-जल्ल-सिंघाणए य पाणविहिं३१ । सुविवेइए पएसे निसिरंतो होइ तस्समिओ ॥३००।। कोहो माणो माया लोभो हासो रईय" अरई य । सोगो भयं५ दुगुंछा६ पञ्चक्खकली इमे७ सव्वे ॥३०१ ।। (१) इदय पू २; क्षत पा १. (२) °त्तिउ पू १, पू २; क्षत पा १. (३) मित्तं खं २, कं ३, पू २; क्षत पा १. (४) 'हिंतो खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (५) "खित्ता खं ३; क्षत पा १. (६) ओरिया खं २; क्षत पा १. (७) "मिउ पा २, पू १; क्षत पा १. (८) भासे पा २; क्षत पा १. (९) ण खं २; क्षत पा १. (१०) भासेइ पू १; भासई पू २; क्षत पा १. (११) क्षत पा १, पू १. (१२) विकह' जै. (१३) जिउ पू १, पू २; क्षत पा १. (१४) वि पू १; क्षत पा १. (१५) 'मिउ पू १; क्षत पा १. (१६) °णाउ पा २; क्षत पा १. (१७) 'दोसाओ खं १; क्षत पा १. (१८) क्षत खं १, पा १. (१९) सोहोइ पू २ सोहेय पू १ क्षत पा १ (२०) सणाइ खं ३ °सणाए जै, खं १, पा २, पू १, पू २; "सणा खं २; क्षत पा १. (२१) "मिउ पू १; क्षत पा १. (२२) अण्णहा जै, खं ३; क्षत पा १. (२३) पमिजिउं पू २; पमजियं खं २, खं ३, पा २, पू १; क्षत पा १. (२४) हुवेइ खं १, पा २; क्षत पा १. (२५) गेण्हइ जै, खं १; गिन्हइ पा २; क्षत पा १. (२६) भंडमत्तं पू २. (२७) णाए जै, खं १, कं २, पा २, पू २; वणा पू १. (२८) ओचार पू २; उच्चारे पू १. (२९) °वणे पू १. (३०) घाए जै. (३१) "विहि जै, खं ३, पा २; वही पू २. (३२) "वेइय पू १; 'वेएइ जै. (३३) पवेसे खं २. (३४) रसी पू २. (३५) भय पू २. (३६) दुगुच्छा खं १, खं ३; दुर्गच्छा पा २, पू १; दुगंछा पू २. (३७) यमे पू २. ४३ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोहो कलहो खारो' अवरोप्पर-मच्छरो अणुसओ' या । चंडत्तणमणुवंसमो तामसभावो य. संतावो ।।३०२ ।। निच्छोडण-निब्भच्छण-निराणुवत्तित्तणं असंवासो । कयनासो य असम्भं बंधइ दाणचिकणं कम्मं ॥३०३ ।। माणो मयहंकारो परपरिवाओ या अत्त'३-उकरिसो । परपरिभवो वि य तहा परस्स निंदा असूया" य ।।३०४ ।। हीला निरोक्यारितणं५ निरोणामया'६ अविणओ७ य । परगुण-पच्छायणया जीवं८ पाडेंति संसारे ।।३०५ ।। माया कुडंगि'-पच्छन्नपावया कूडकवड-वंचणया । सव्वत्थ असम्भावो परनिक्खेवावहारो य५ ॥३०६ ।। छलछोम"-संवइयरो" गूढायास्त्तण" मई कुडिला । विस्संभ-घायणं पि य? भवकोडिसएसु विनडेति ।।३०७।। लोभो अइसंचयसीलया य३ किलित्तणं" अइममत्तं । कप्पन्नमपरिभोगो नेट्ठविणटे य आकलं ।।३०८॥ (१) क्खारो खं १, पा २. (२) मणसिउ पू १. (३) अ पू २; वि पू १; क्षत जै. (४) मणव' खं २, पू १. (५) अ पू २. (६) निछोडण° पू २. (७) निभंच्छण खं ३, पा २, पू १; 'निमंछण जै, खं २, पू २. (८) अ पा २. (९) असमं खं ३. (१०) सय पू २. (११) वाउ पू १. (१२) अ पा २. (१३) उत्त पू १, पू २. (१४) असूआ पू २. (१५) निरोज्बयारित्तण पू १. (१६) निरोणानया पा २; निरोवणामया पू २. (१७) णोओ खं २; °णउ पू १. (१८) जीवा पू १. (१९) पाडंति खं २, पू १, पू २; पाडिंति जै, खं ३, पा २. (२०) मया खं ३. (२१) कुडंग जै, खं १, खं ३, पू १, पू २. (२२) सम्बत्था पू १. (२३) सम्भावो पू १. (२४) परि पू १. (२५) अ पू २. (२६) च्छल° खं १. (२७) च्छोम खं १, पू १, पू २. (२८) इयरे पू १; इअरे पू २; 'इरो खं २. (२९) 'यारित जै, पा २, पू १; 'यरित्त खं १, खं २, खं ३. (३०) विसंभ' खं १, पा २, पू २; वीसंभ जै, खं १, खं ३. (३१) व खं १. (३२) नडिंति खं १; णडेंति खं २; नडंति खं ३, पा २, पू १, पू २. (३३) क्षत जै. (३४) किल° पू २. (३५) कप्पण्ण जै. (३६) णंट्ते खं २. (३७) आगलं जै, खं १, खं २, खं ३, पू १, पू २. ४४ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मच्छा-अइबहधणलोभया य तब्भाव-भावणा यः सया । बोलेंति' महाघोरे जरमरण-महा समुद्दम्मि ।।३०९ ।। एएसु जो न वट्टेज तेण अप्पा जहट्टिओ' नाओ । मणुयाण' माणणिजो देवाण वि देवयं होजा ।।३१०।। जो भासुरं भुयंगं पयंड-दाढाविसं विघटेइ । तत्तो चिय तस्संतो रोस-भुयंगोमाणमिणं ।।३११ ।। जो आगलेइ मत्तं कयंत कालोवमं वणगइंदं३ । सो तेणं चिय छुजइ" माणगइदेण" एत्थुवमा ।।३१२।। विसवेलि-महागहणं जो पविसइ साणुवाय-फरुसविसं । सो अचिरेण विणस्सइ माया-विसवेलि-गहणसमा ।।३१३ ।। घोरे भयागरे सारम्भि" तिमिमगरगाह-पउरम्मि । जो पविसइ सो पविसइ लोभमहासागरे भीमे ||३१४।। गुण दोस बहुविसेसं पयं पयं जाणिऊण निस्सेसं३ । दोसेहि जणो न२५ विरजइ ति कम्माण अहिगारो ॥३१५।। (१) भावण या पू २. (२) बोलिंति खं १, खं ३, पू २, प १, पू २. (३) ण खं २. (४) बडेजा खं १, कं २, खं ३, पा २, पू २; वटेजा पू १; वटेज जै (५) "ट्ठिउ पू १. (६) मणयाण पृ १; मणुण पा २. (७) देवं य खं ३. (८) भुअंगं पू १, पू २. (९) विंसं पू २. (१०) भुअंगो पू २. (११) ब्वमाण खं २, खं ३, पू १, पू २; “यमाण जै, खं १. (१२) कालोवम पू १; कालेवमं पा २. (१३) गयंदं जै, पा २. (१४) छिजइ खं ३, पा २, पू १, पू २. (१५) गर्यदेण खं ३, पा २; गईदेसु जै. (१६) इत्युवमा पा २, पू २. एसुन्मा जै. (१७) "विल्लि खं २, खं ३, पू १; 'सल्लि पू २; "विल पा २; 'वल्लि दो. (१८) साणुराय खं १, पू १. (१९) परुस' पू १; 'फरिस दो, जै, खं १, पू २. (२०) "विल्लि खं ३; 'इलि पू २. (२१) सायरम्मि पू २. (२२) लोह जै. (२३) नीसेसं जै, खं २, खं ३, पा २, पू २. (२४) दोसेहिं जै; दोसेसु खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (२५) क्षत पा १, पू २. ४५ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टहासकेलीकिलत्तणं हास-खेड्ड-जमगरई । कंदप्पं उवहसणं' परस्स न करेंति' अणगारा ।।३१६ ।। साहूणं अप्परुई ससरीर-पलोयणा' तवे अरई । सुत्थियवन्नो अइपहरिसो" या नत्थी सुसाहणं ॥३१७।। उब्वेवओ' य अरणामओ" य अरमंतिया य अरई य । कलमलओ य५ अणेगग्गया'६ य कत्तो सुविहियाणं ।।३१८।। सोगं संतावं अद्धिइं च मन्नुं च वेमणस्सं च । कारुण्णरुण्ण भावं न साहुधम्मम्मि इच्छंति ।।३१९ ।। भयसंखोह -विसाओ२ मग्गविभेओ२३ विभीसियाओ" य । परमम्ग-दरिसणाणि य दढधम्माणं कओ५ होति ॥३२०।। कुच्छा चिलीणमल संकडेसु उव्वेवओ" अणिटेसु । चक्खुनियत्तणमसुमेसु नत्थि दब्बेसु दंताणं" ।।३२१ ।। एयं• पि नाम नाऊण' मुज्झियव्वं ति नूण जीवस्स । फेडेऊण न तीरइ अइबलिओ कम्मसंघाओ३२ ||३२२ ।। (१) अट्ट पू १. (२) "किलितणं पा २. (३) "खिड्ड खं ३; खेड° पू १; क्खे? पा २; 'खेट्ट पु २. (४) रुई जै, खं २, खं ३, पू १, पू २; रई पा २. (५) ओहसणं जै, खं १, खं २, खं ३, पा २. (६) करिति खं ३, पू २; करंति जै. (७) अप्पई खं २. (८) सरीर जै, पू २. (९) पलोयणे जै. (१०) सोत्थिय खं २. (११) पहरिसं खं १, पा २, पू २; पहरसं खं २, खं ३; 'पहरिस पू १. (१२) च खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (१३) ब्बउ पू १. (१४) अरणाउ पू १. (१५) य (नियोजित). (१६) अणेगगयाइं पू १; अणेगगायाय जै; अणेगग्गयाइ पा २. (१७) अद्धियं पा २; अधिइं खं १, खं २, खं ३, पू २; अद्धिय पू १. (१८) मनं जै, खं १, खं २, खं ३, पा २, पू १. (१९) कारुन खं १, खं २, खं ३, पा २, पू २. (२०) रुन खं १, खं २, खं ३, पा २, पू २. (२१) संक्खोह पा २. (२२) साउ पू २. (२३) 'भेउ पू २. (२४) विभिसियाओ खं १; विभीसियाउ पू२; विभासियाओ खं ३; विहीसियाओ पा २. (२५) कर पू १, पू २. (२६) इंति खं १, कं २, खं ३, पू १. (२७) 'बउ पा २, पू १. (२८) 'सुहेसु पू १. (२९) दिताणं खं २. (३०) एअं पू २. (३१) नाऊ पू २. (३२) घाउ पा २, पू १. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जह जह बहस्सुओ' सम्मओ' य सीस-गण-संपरितुडो' या । अविणिच्छिओ' य समए तह तह सिद्धंतपडणीओ ||३२३ ।। पर्वराई वत्थपायासणोव गरणा. एस विभवो" मे । अवि य" महाजणनेया' अहं ति अह" इड्डियारविओ" ||३२४॥ अरसं विरसं लूहं जहोववन्नं च निच्छए भोत्तुं । निद्धाणि पेसलाणि य मग्गइ रसगारवे गिद्धो ।।३२५।। सुस्सूसई सरीरं सयणासण-वाहणा-पसंग परो । साया-गाव"-गरुओ" दुक्खस्स न देइ अप्पाणं ॥३२६ ।। तव-कुलछाया-भंसो७ पंडिच्चप्फंसणा८ अणिट्टपहो२९ । वसणाणि रणमुहाणि य इंदियवसगा अणुहवंति ।।३२७।। सहेसु न रजेजा' रूवं ददु" पुणो न इवखेजा । गंधे रसे य" फासे अमुच्छिओ" उजमेज५ मुणी ।।३२८ ।। निहयाणि हयाणि य इंदियाणि घाएहऽण ८ पयत्तेणं । अहियत्थे निहयाई हियकजे पूयणिबाई ॥३२९ ।। (१) बहुसुय पू २; बहूसुओ पा २; जहुस्सओ खं २. (२) सम्मउ पू १; सम्मयो खं २. (३) सील' पू १. (४) गुण पू १. (५) वडो पा २, पू २. (६) अ पू २. (७) 'च्छिउ पू १. (८) 'पडिणीउ पू १. (९) पवराई जै, खं १, खं २, खं ३, पू १, पू २; पवराइ पा २. (११) रणाई सर्वत्र. (११) बिहवो पू २; विभावो पू १. (१२) अ पू २. (१३) नेआ पू २. (१४) हवं जै. (१५) इह खं १, पा २. (१६) इट्टि पू २. (१७) "विउ पू १. (१८) अरस पू २. (१९) गूई खं १. (२०) नेच्छए पू २. (२१) भोलूं खं १; भुंतुं खं ३; भुत्तुं पा २, पू २. (२२) गिद्धाणि खं २. (२३) सुस्सुसई खं ३; सस्सूसई जै. (२४) गरव पू१, पू २. (२५) गरूओ पा २, पू २; गरुउ पू १. (२६) 'छाया' खं १, पा २, पू २, पू २. (२७) भंसो खं २. (२८) 'फंसणा हे, खं १, खं २, पू१, पू; 'फंसणो जै. (२९) 'वहो जै. (३०) रजिजा खं ३, पा २, पू २. (३१) दिदं पू २. (३२) खेछजा पू २; विक्खेजा जै. (३३) अ पू २; क्षत पा २. (३४) 'च्छिउ पा २. (३५) "मिज पू २. (३६) णिहखं २. (३७) अ पू २. (३८) ण खं २. (३९) पयत्तेण पा २, पू १, पू २. (४) पूअणिज्जाई पू २; पूणिजायं खं १; पूयजाइ पा २. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाइ-कुल-रूव-बल-सुय'-तव'-लाभिस्सरिय-अट्ठमयमत्तो । एयाई चिय बंधइ असुहाइ बहुं च संसारे ।।३३०।। जाईएँ उत्तमाए- कुले पहाणम्मि स्वमिस्सरियं । बलविजाइ" तवेण य लाभमएणं च जो खिसे'२ ॥३३१ ।। संसारमणवयग्गं नीर्यटाणाइँ५ पावमाणो य । भमइ अणंतं कालं तम्हाउ'" मए विवजेजा ॥३३२।। सुठु वि जईजयंतो जाइमयाईसु भजई जे उ२१ । सो मेयज॑रसि जहा हरिएससबलो ब्व परिहाइ ।।३३३ ।। इत्थि-पसु-संकिलिटुं३ वसहि" इत्थी कह च वळतो । इत्थिजण-संनि सेजं निरूवणं" अंगुवंगाणं ।।३३४।। पुवरयाणुस्सरणं" इत्थीजण-विरहरुविलवं च । अइबुहुयं अइबहु सो विवजयंतो य आहारं ।।३३५।। वजें तो य विभूसं जएज" इह बंभचेरगुत्तीसु । साहू तिगुत्ति गुत्तो- निहुओ" दंतो पसंतो य: ।।३३६ ।। (१) सुअ° पू २. (२). क्षत खं २. (३) 'लभिस्सरिय खं २; भिसरिय खं १; लाभस्सिरीय पू २; 'लाभस्सिरिय पा २; लाभतवसिरिय पू १. (४) एआई पू १; एया खं २. (५) बंधइं खं २. (६) असुहाई सर्वत्र. (७) जाईए जै, खं ३; जाइए खं १, खं २, पा २, पू१, पू २. (८) ओत्तमाए पू २. (९) प्पहा' पा २. (१०) रूवं खं २. (११) "जाए खं १, खं ३, पू २; 'जाय जै, पा २, पू १. (१२) क्विंसे पा २. (१३) भणयग्गं पू २; 'मयवयम्गं पू १; मणवइमां खं २. (१४) नियय पा २. (१५) 'ट्राणाई खं १, खं ३, पा २, पू १, पू २; ठाणाई जै, खं २. (१६) उ जै, खं १, खं २, पा, पू २; ओ खं ३. (१७) म्हाओ खं २, "म्हाए । २. (१८) 'जेत्ता खं २; "जिजा खं ३. (१९) सुद्ध पू २. (२०) मजए पा २. (२१) ओ खं ३, पू ३. (२२) मेअज' खं २, खं ३, पा २, पू १, पू २. (२३) "संकलिटुं पा २, पू १; संकलिद्धं पू २. (२४) वसही खं ३, पू २. (२५) इत्यि खं २. (२६) कहिं खं २, खं ३. (२७) वर्जितो खं २, खं ३, पा २, पू २. (२८) संनिसजं पू १, पू २; सण्णिसेजं खं ३. (२९) निरुवणं खं ३. (३०) अंगवंगाणं पू १; अंगमंगाणं जै, खं १; अंगसंगाणं पा २. (३१) “सरणं पू २. (३२) रूअ पू २; रूय' जै, पा २; रुप खं २. (३३) बहूयं पा २; बहुअंपू २. (३४) पहुसो खं १, बहुसा खं ३. (३५) वजितो खं ३, पू १, पू २. (३६) विसं पा २. (३७) जइज खं २, पा २, पू १, पू २. (३८) गोत्तो खं ३. (३९) हुउ पू १; हूओ पा २. (४०) अ पू २. ४८ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुज्झोरुवयण-कक्खोरु'-अंतरे तह थणंतरे दळु । साहरइ तओ दिटुिं न य बंधइ दिहिए' दिटुिं ॥३३७।। सज्झाएण पसत्थं झाणं जाणइ य सव्वपरमत्थं । सज्झाए वढें तो खणे खणे जाइ वेरग्गं ।।३३८।। उडाहतिरियलोए जोइसवेमाणिया या सिद्धि य । सब्बो लोगालोगो सज्झायविउस्स" पञ्चक्खो ।।३३९ ।। जो निञ्चकाल-तव-संजमुजओ५ न वि करेइ सज्झायं । अलसं सुह सीलजणं न वि तं ठावेइ'" साहुपए ।।३४ ।। विणओ सासणे मूलं विणीओ" संजओ° भवे । विणयाविष्पमुकस्स कओ३ धम्मो कओ" तवो ।।३४१ ।। विणओ५ आवहइ सिरिं लहइ विणीओ जसं च कित्तिं च । न कयाइ" दुन्विणीओ° सकजसिद्धिं समाणेइ ।।३४२ ।। जह जह खमइ सरीरं धुवजोगा जह जहा न हायंति । कम्मक्खओ" य५ विउलो विवित्तिया इंदियदमो य ।।३४३ ।। (१) गुज्झोर प १, पू २. (२) कक्खोर पू १. (३) दटुं २; दिट्ठी पू १. (४) तउ पू १. (५) दिट्ठी पा २. (६) दिट्ठिओ खं २. (७) ज्झाणं जै, खं २, ३, पा २, पू १, पू २; सज्झाणं खं १. (८) जाणई खं ३. (९) मज्झं खं १. (१०) उढ' पा १; उद्द° पू २. (११) नरए खं २, खं ३, पा २, पू १, २; नरया जै. (१२) उ पू १; यं खं १; क्षत पा १. (१३) अ पू २; क्षत पा १. (१४) विणस्स पू १. (१५) संजमजओ खं २; संजमुजुउ खं ३; संजमुजउ पू १, पू २. (१६) य पा २. (१७) ट्ठावेइ खं १; ठावेंति खं २. (१८) णउ पू १, पू २. (१९) विणओ जै, पू १. (२०) 'जउ पा २, पू १. (२१) विणयाओ खं , पा २, पू ; विणयाउ जै, खं , खं ३, पू १. (२२) 'मोकस्स खं ३, क्षत पा १. (२३) कउ पू १. (२४) कउ पा २, पू १; क्षत पा १. (२५) णउ पू १. (२६) णीउ पू १, पू २. (२७) जुसं पू २. (२८) कित्ती पू १. (२९) कयाई पू २. (३०) णीउ पू १. (३१) सिद्धि जै. (३२) जह पू १, पू २. (३३) ते पू १, पू २. (३४) कखउ पा २, पू १. (३५) अ पू २. (३६) विवत्तिया पू २. (३७) अ पू २. ४९ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जइ ता असकणिजं न तरसि काऊण तो इमं कीस । अप्पायत्तं न' कुणसि संजमजयणं' जहजोग्गं' ।।३४४।। जायम्मि देह-संदेहयम्मि जयणाएँ किंचि सेवेजा । अह पुण सजो य निरुजमो य" तो संजमो" कत्तो ।।३४५।। मा कुणउ जइ तिगिच्छं.२ अहियासेऊण जइ तरइ सम्मं । अहियासेंतस्स पुणो" जइसे जोगा न हायंति ।।३४६ ।। निच्चं पवयण-सोभीकराण' चरगुंजुयाण साहणं । संविग्ग -विहारीण' सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥३४७।। हीणस्स विसुद्ध-पस्वंगस्स नाणाहियस्स" कायव्वं । जण:-चित्तग्गहणत्थं करेंति३ लिंगावसे से" वि ।।३४८ ।। दगपाणं पुष्फफलं५-अणेसणिजं निहत्थ-किच्चाई । अजया पडिसेवंती जइ-वेस-विडंबगा नवरं ।।३४९।। ओसन्नया अबोही पवयण-उन्मावणा य बोहिफलं । ओसन्नो" वि वरं पि हु पवयण२-उब्भावणाः परमो ||३५०।। (१) ण खं २. (२) जइणं पा १, पा २, पू २. (३) जइ पू १. (8) जोगं खं १, पा २, पू २. (५) जयणाइ खं ३, पू १; जयणाए जै, खं १, खं २, पा १, पा २, पू २. (६) सेविजा खं ३, पू २. (७) सिजो पू २; क्षत पा १. (८) अ पू २; क्षत पा १. (९) निरंभो पू १; क्षत प १. (१०) अत पू २; क्षत पा १. (११) संजमं जै. (१२) तिगिच्छिं पू १; क्षत पा १. (१३) 'सिंतस्स खं १, खं ३, पा २, पू १२, पू २; क्षत पा १. (१४) गुणो पू १. (१५) सोहा' जै, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (१६) गराण जै. (१७) चरण पू १. (१८) संवम्ग' पू २. (१९) रीण पू २. (२०) परु' खं ३. (२१) हिअस्स पू २. (२२) जेण° पू २. (२३) करिति खं , पू २; करित्ति खं १, क्षत पा १. (२४) 'वसेसिं खं २; 'वसेसा पू २ क्षत पा १. (२५) पुफलं पा १. (२६) गिहित्य पू १. (२७) किच्चाइ खं २; किच्चाई खं ३. (२८) णवरं पा १. (२९) ओसण्ण जै; उसन पू १, पू २. (३०) वबोही पू १; यवोही खं १; क्षत पा १. (३१) उसन्नो खं ३, पू २; क्षत पा १. (३२) यणु खं २. (३३) पन्मा पू २. ५० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणहीणो गुण-रयणागरेसु' जो' कुणइ तुलमप्पाणं । सुतवस्सिणो' य' हीलइ सम्मत्तं पेलवं तस्स ।।३५१ ।। ओसन्नस गिहिस्स' व जिण पक्यण-तिब्वभावियमइस" । कीरइ जं अणवजं दढर सम्मत्तस्सवत्थासु ॥३५२ ।। पासत्थोसन्न कुसीलनीय-संसत्त-जण-महाच्छंद।५ । नाऊण तं सुविहिया सव्वपयत्तेण वजेति ॥३५३ ।। बायालमेसणाओ न ववई धांझेजपिंडं च । आहारेइ अभिक्खं विगईओ सन्निहि खाइ ।।३५४ ।। सूरप्पमाणभोई आहारे ई अभिक्खमाहारं ।। न य५ मंडलिए मुंजइ न य भिक्खं हिंई अलसो ।।३५५।। कीवो न कुणइ लोयं८ लजइ पडिमाएँजल्लमवणेइ२० । सोवाहणो या हिंडइ बंधइ कडिपट्टयमकजे ।।३५६ ।। गाम देसं च कुलं ममायए'५ पीढ६-फलग-पडिबद्धो । घरसरणेसु पसजइ विहरइ३८ य सकिंचणो खिको ।।३५७।। (१) यरेसु जै, खं १, खं ३, पू २; रेसु पा २; यरो य पू १; क्षत पा . (२) जइ खं १. (३) कुण जै. (४) उल° पा २, पू २. (५) वसिणो जै. (६) अ पू २. (७) समत्तं पू १, पल २. (८) कोमलं पा १, पू २; पेसलं पू १; पेसवं पा २. (९) ओसण्ण पू १; उसन्न पा १, पा २, पू २. (११) 'हस्स खं २. (११) मयस्स पू १; मयिस्स खं १, खं २. (१२) दिढ° पू २. (१३) समत्त खं १, खं २, खं ३, पू १. (१४) संम्मत्त खं २. (१५) महाछदं जै. (१६) वजिति खं ३, पा १; वजे खं २; वजंति पू १, पू २. (१७) णाउ पू १; णोओ खं १. (१८) रक्खइ जै, पा २. (१९) धाउ पू १. (२०) 'ईए खं २. (२१) निही खं २, खं ३, पा २. (२२) क्खाइ पा २. (२३) 'माणा' जै. (२४) आहारेइ खं १, ख २ खं ३; क्षत पा १. (२५) यं खं २. (२६) लीए खं १, पू २. (२७) हिंडए पा २, पू १. (२८) लोअं पू २. (२९) 'माइ खं २, पा १, पा २; 'माए जै, खं १, खं ३, पू १, पू २. (३) मुवणेइ जै, पू . (३१) अ पू २. (३२) पट्टइ खं ३, पा १. (३३) मकजो खं ३. (३४) कलं खं २. (३५) ममायई खं १; ममाए पा १, पा २; मामायए पू २. (३६) पीठ' दो, जै, पू १. (३७) पसज्झ° पू १, २; ववज जै. (३८) -अ पू २. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नह- दंत - केसरोमे जमेड़ उच्छोल' धोवणो अजओ । वहिड् य पलियंकर अग' - पमाणमत्थुरइ' ।। ३५८ ।। सोवइ' य" सब्बराई नीसटुमचेयणो न वा झरह" । न पमज्जेंतो" पविसइ निसीहियावस्सियं न करे ।। ३५९ ।। १३ १४. पाय पहे न पमज्जइ जुगमायाए न सोहए इरियं । पुढविदग अगणिमारुय - वणस्सइ " - तसेसु निरवेक्खो" ।। ३६० ।। सव्वं " थोवं" उवहिं न पेहए न य करेइ सज्झायं । सहकरो झंझेकरो लहुओ" गणभेयंततिलो ।। ३६१ ।। २३ खेत्ताईयं" भुंजइ कालाईयं" तहेव अविदिन्नं" । गिण्हइ" अणुइयेलूरे" असणाई " अहव उवगरणं ।। ३६२।। ठवणकुले न ठवेई " पासत्थेहिं " च संगयं कुणइ । निचैमवज्झाओ" न य७ पेह - पमजणा-सीलो ।। ३६३ ।। १ २ ३३ यह य" दवदवाए मूढो परिभवइ" तह य रायणिए । परपरिवार्य गिण्हइ" निठुरभासी विगहसीलो" ।। ३६४।। (१) उच्छूल° खं २. (२) धोयणो खं २, ३, पा १, पू १; धोअणो पू २; क्षत पा २. (३) फलियंकं पू १; बलियंक जै. (४) अरेग' ज. (५) 'मत्थरह पा १; मत्थुरइ खं ३; मच्चुरइ पू १; अच्छुरई है; क्षत पा २. (६) 'बई पा १; 'यह खं ३. (७) अ पू २. (८) राई खं २, खं ३; राइ पा २. (९) 'चेअणो पू २. (१°) ज्झरइ हे, जै, खं १, २, ३, पू २; क्षत पा १, पा २. ( ११ ) परमज्जतो पू २; पमजिंतो खं ३; पमजंतो दो, जै; पज्झतो पू १; क्षत पा १, पा २. (१२) निस्सीहि खं २; नीसीहि' जै. (१३) 'यावस्सयं जै; यावस्सिय पू २, यावसिय खं २ क्षत पा १. (१४) 'मारुअ' पू१. (१५) 'णसइ पू १. (१६) 'विक्खो खं ३, पू २; 'बक्खो पा १; 'बक्खो पू १. (१७) सब्ब खं १, खं २. (१८) त्योवं खं १, पू १. (१९) ज्झंझ° खं १, खं २, खं ३, पू २. (२९) लहूओ पा २; लहओ खं १. (२१) गुण° पू १, पू. (२२) अ २; °भेइ° पू १; क्षत पा १, पा २ (२३) इत्ति° खं २, पू १; क्षत प १, पा २ (२४) 'ईय पा २. (२५) 'हयं स्वं २. (२६) अव' पू १. (२७) गेण्डड़ जै, खं ९, खं २, पा १; गिन्हड़ पा, पू२. (२८) अणुयईप पू २; अणूयसपू १; अणुइए° पा २ (२९) सूरो पू२. (३°) 'णार पा २. (३१) ठवेई य पा १, पा २, पू २; ठवेइ य पू १. (३२) त्येणं पा १; °त्येयं खं २, पू१. (३३) संगई खं ३. (३४) निच्चा जै, खं १, २. (३५) 'मुवज्झा' पू १; 'च्च वज्झा' जै, स्वं १, स्वं २. (३६) रउ पू १. (३७) व खं १. (३८) यई खं २; रीअइ पू २; रियइ पू १; रीड़ पा २. ( ३९ ) क्षत पा १, पा २. (४) २. (४१) राइणि° पू १, पू २. (४२) गेण्ड्इ जै, खं १, खं २; गिन्हइ पा विगय' पू२. (४५) शीलो पू. २. २ ५२ भ्रमइ जै, खं २, खं ३, पा (४३) 'वासी पा १. (४४) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजं मंतं जोगं तेगिच्छं कुणइ भूइकम्मं च । अक्खरनिमित्तजीवी आरंभ-परिगहे रमइ ।।३६५।। कजेण विणा ओग्गहमुणंजाणावेइ दिवसओ सुयइ । अजियलाभं भुंजइ इत्थि'-निसेजासु' अभिरमइ ।।३६६ ।। उच्चारे पासवणे खेले सिंघाणए अणाउत्तो । संथारग-उवहीणं पडिकमइ वा सपांउरणो'२ ।।३६७ ।। न करे। पहे जयणं तलियाणं तह करेइ परिभोगं । चरइ अणुबद्धवासे सपक्ख-पसक्खओ माणे" ।।३६८।। संजोयइ'' अहंबहुयं इंगाल-सधूमगं अट्टाए । भुंजइ रूव" बलट्ठा न धरेइ" या पाय-पुंछणयं३ ।।३६९।। अट्ठम-छ?"-चउत्थं संवच्छर-चाउमास'५-पक्खेसु । न करेइ सायबहुलो न य विहरइ मासकप्पेणं ।।३७० ।। नीयं गिण्हइ.५ पिंडं एगागी अत्थए• गिहत्थकहो । पावसुयाणि' अहिजइ अहिगारो लोगगहणमि ।।३७१ ।। (१) तिगिच्छं पू २; तेइच्छं जै. (२) अक्ख खं १, खं २. (३) उम्गहौं खं २, खं ३, पा २, पू १. (४) °ह अणु पू १. (५) सुअइ पू १. पू २. (६) एत्थि' खं ३. (७) निसिजासु खं २ खं ३, पा २, पू २. (८) खले पू २. (९) उणाउतो पू १. (१०) पडिकम्मइ खं १, पा २, पू १. (११) इ सवा खं १, खं ३, पा २, पू १; इ स भा पू २. (१२) पाओ पू .. २. (१३) अण° खं २. (१४) परि पू १. (१५) °उमाणे पू १. (१६) 'अइ पू २. (१७) अब पा २; मइ ब जै, खं १. (१८) 'हुअं पू २. (१९) अणि° पू १. (२०) रूय' जै. (२१) धरेई पा १; धरइ पू १. (२२) अ पू २. (२३) पुच्छ° खं १, खं ३, पा १, पा २. (२४) च्छ8 खं १, खं ३. (२५) “उम्मा' खं २, पा २, पू २. (२६) “पखे पू १. (३७) साया' खं १, पू १; सया' पा १. (२८) गरूओ प २. (२९) गेण्हइ जै, १; गिन्हइ पा २, पू २. (३०) अत्यई खं १, पा १. (३१) 'सुआणि पू २. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभवइ' उम्गंकारी सुद्धं मग्गं निगूहई बालो' । विहरड् साया' - गरुओ " संजम - विगलेसु खेत्तेसु ।।३७२।। १२ 23 उम्गाइ गाइ" हसइ य असंवुडो " सइ करेइ कंदपं । गिकज - चिंतगो" वि य औसने देइ" गिण्हइ" वा ।।३७३ ।। १७ १८ २२ धर्मकाओं अहिज घराघरिं" भमइ परिकहंतो * य३ । गणणाएँ पमाणेण" य औरितं वहइ उवगरणं || ३७४ ।। बारस बारस तिन्नि य७ काइय" - उच्चार" - काल" - भूमीओ । अंतो बहिं" च अहियासि " अणहियासे न" पडिले हे ||३७५ ॥ १३ गीयत्थं" संविग्गं" सायरियं मुयइ" वलइ " गच्छस्स । गुरुणो" य अणापुच्छा" जं किंचि" वि देइ गिण्हइ" वा ।। ३७६ ।। गुरुपरिभोगं भुंजइ सेजो " - संथार - उवगरणजायं" । किं ति" य तुमं ति" भासइ अविणीओ" गव्विओ लुद्धो ।। ३७७ ।। गुरुपच्चक्खाण - गिलाण - सेह - बालाउलस्स" गच्छस्स । न करेइ नेव" पुच्छइ निद्धम्मो लिंगमुवजीवी (१) भ्रमइ जै, खं ३, पा २, पू२. (२) उघ° पू२. (३) न्गिहए खं २, खं ३, पा २; गिगूहए पा १. ( ४ ) बलो पू २; पालो जै. (५) 'इ य सया' पा १. (६) 'गुरुओ पू २; 'गुरुउ पू १. (७) 'बिउले° खं २. (८) खित्ते' पा २. पू २. (९) ओगाइ पा २ (१०) ग्गाइ खं ३. (११) 'वडो पू १. (१२) सय खं २, पा २, पू१. (१३) दप्पा पा १. (१४) गिहि जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू २. (१५) चितेगो पू १. (१६) ओसन्नो खं २, खं ३, पा २; उसन्नो पा १, पू १, पू २ (१७) दओ पू. २ (१८) गेण्हड़ १, खं २; गिन्हइ पा २; गंण्डइ पा १. (१९) धम्मा° पा २. (२०) कहाओ जै, पा २, पू २; कहाउ खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १. (२१) घरि पू. (२२) 'कहिंतो पा २, पू१, पू२. (२३) अ पू २. (२४) गणणाए सर्वत्र. (२५) 'णेणं पू १. (२६) अय° खं ३. (२७) उपा २. (२८) काई उ° पा, पू१. (२९) ओच्चार पू २. (३०) 'पाल' पू २. (३१) बहुं पा २; विहिं पू १. (३२) यासे खं २ पा २; °आसि पू २. (३३) 'आसे पू २; 'यासी जै. (३४) ण खं २. (३५) गीअत्थं पू २. ( ३६ ) संवेगं पू १. (३७) मुसुयइ पू १; सुयइ पू २. (३८) वलय खं २, पा २ (३९) गुरणो पू २. (४०) उच्छा १, खं २, पा १, पा २. . ( ४१ ) किंची खं १, किंचि पू २; किची पू १; किंचिइ जै. (४२) गिन्हइ पू २; गेण्डइ जै. (४३) सिज्जा' पा २. (४४) 'जाई पू १. (४५) कित्ति जै, खं २, कं ३, पा २, पू१, पू२; किंत्ति पा १. (४६ ) पि पू १. . (४७) णीउ पू १. (४८) 'क्खाणि खं ९; 'खाण' पा १, पू १. (४९) 'ओलस्स पू २. (५०) नेय जै, १, खं ३. (५१) निधम्मा खं ३ (५२) 'उवजीवी जै, खं २, पा १, पा २. ५४ ।।३७८।। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहंगमण-वसहि-आहार'-सुवण-थंडिल-विहि'-परिट्ठवणं । नायरइ नेव' जाणइ अजा-वट्टावणं चेव ।।३७९ ।। अच्छंद-गमण-उट्ठाण-सोवणो अप्पणेण चरणेण' । समण-गुण-मुक्क'-जोगी बहुजीवरवयंकरो' भमइ ।।३८० ।। वत्थिब्ब वायपुण्णो परिभई जिणमयं अयाणंतो । थद्धो निम्विन्नाणो न य पेच्छइ किंचि" अप्पसमं ।।३८१ ।। सच्छंद-गमण-उट्ठाण -सोवणो" मुंजई२ गिहीणं च । पासत्थाई ठाणा" हवंति एमाइया एए५ ।।३८२ ।। जो होज उ१७ असमत्यो रो गेण व पेल्लिओ झरियदेहो । सव्वमवि जहा भणियं कयाइ न तेरज' काउं जे२ ।।३८३ ।। सो वि य नियय-परकम-ववसाय-धिई"-बलं अगूहेतो५ । मोत्तूण कूडचरियं जई जयंतो अवस्सजई" ।।३८४ ।। अलसो सढोवलितो'• आलंबण-तप्परो अइपमाई । एवं ठिओ" वि मन्नइ अप्पाणं सुटिओ२ मि.३ ति ।।३८५।। (१) पर पू २. (२) °आहर° पा २. (३) सुअण पू २; सुयण खं १, खं २, कं ३, पा १, पा २, पू १. (४) "विह° १, पू २. (५) "हि ठवणं जै. (६) नेय खं ३, नेअपू. (७) वट्ठा पू २. (८) सोयणो खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १; सोअणा पू २. (९) णेणं खं ३, पा. (१०) गण खं ३, पू १. (११) 'मोक' खं ३. (१२) क्खयं पा २, पू २. (१३) कम्म पू २. (१४) पुनो खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २. (१५) 'भमइ जै, खं १, खं ३, पू १,पू २. (१६) त्वदो खं १.(१७) निविण्णाणो जै. (१८) पिच्छइ खं २, खं ३, पा २; पच्छइ पू २. (१९) किंपि खं २, खं ३, पा २, पू १. (२०) ओट्ठा पा २. (२१) “सोयणो खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १; सोअणो पू २. (२२) भुंजइ खं १, खं ३. (२३) तु पा १. (२४) 'ट्ठाणा खं १, खं २, खं ३. (२५) एउ पा २, पू १. (२६) जा पू २. (२७) ओ पा २. (२८) पिल्लिओ खं ३; पिल्लिउ पू १. (२९) झुरिय खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २. (३०) कयाइं खं २, पा २. (३१) तरिज खं ३. (३२) जे पू २. (३३) निय प पू २. (३४) "धिइ खं २, खं ३, पा २; "द्धिई खं १; धी पा १. (३५) हिंतो खं १, खं २, पू १, पू २; "हंतो खं ३, पा १, पा २. (३६) जीविरियं पू १. (३७) जइ जै, खं १, पा १, पा २; जयइ खं ३. (३८) जयइतो खं १, खं २; जयईतो जै, पा १. (३९) जयई खं २; जड़ पा २. (१०) विलित्तो खं २; विलतो पू २. (४१) ट्ठिओ खं १, खं ३, पा २; ठिउ पू १. (४२) सुट्ठिउ पू १. (४३) मो पा १. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो वि य पाडेऊणं मायामोसेहि खाइ मुद्धजणं । तिम्गाम' - मज्झवासी' सो सोयइ' कवड - 'खवगो व्व ।। ३८६ ।। एगागी पासत्यो सच्छंदो ठाणवासि - ओसन्नो । दुगमाई संजोगा जहबहुया " तह गुरू होंति" ।। ३८७।। गच्छगओ अणुओगी" गुरुसेवी अनियओ" गुणउत्तो । संजोएण पर्याणं संजम - आराहगा " भणिया ।। ३८८।। २ निम्मम " - निरहंकारा" उवउत्ता" नाण दंसणचरिते । एगक्खेत्ते " विर ठिया खवेंति" पोराणयं कम्मं ।। ३८९ ।। जियकोहमाणमाया जिय- लोभ " - परीसहा य जे धीरा । बुडावासे वि ठिया" खवेंति चिरसंचियं कम्मं ।। ३९०।। १७ पंचसमिया तिगुत्ता उज्बुता" संजमे तवे चरणे । वासस्यं पि वसंता मुणिणो आराहगा भणिया ।। ३९१ ।। तम्हा सव्वाणुन्ना" सव्वनिसेहो य" पवयणे नत्थि । आयंवयं तुलेज्जा" लाहौकंखि ३ व्व वाणियगो" ।। ३९२ ।। १३ (१) मोसेहिं खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २; मोसेइ खं २. (२) क्खाइ पा २. (३) तिगाम १, पू २. (४) 'वासिय सो पा १. (५) सोअड़ खं १, पू १, पू २. (६) खमउ खं १, खं ३, पा १, पू १; 'क्खमओ प २; 'स्वमगु पू २; 'स्ववओ जै. (७) ब्बे पू २. (८) ट्ठाण° खं १, पा २, पू १. (९) 'ओसण्णो पा १; उसन्नो पू १. (१०) बहूया खं २; बहुआ पू. (११) हुंति पा १, पा २; हंति स्वं २; हुत्ति खं १. (१२) 'उगी पू १; ओगि दो. (१३) अणियओ जै, खं १, पा १; अयओ नं २; अनिय खं ३; अणीयउ पू १. (१४) बासियाउत्तो खं ३, पा २; अणाउत्तो पू १, पू २; आउत्तो दो. (१५) पहाणं स्वं २; पमाणं पा २. (१६) आराअगा खं २. (१७) निमम° पा १. (१८) निरहंकारो पू २; णिरहंकारा पा १. (१९) उवसत्ता पू २. (२०) एक खं १, एगे पू १. (२१) खेत्ते खं १, पू १; खित्ते खं २, स्वं ३, पा १, पू २; 'क्खेत्ति जै. (२२) क्षत जै. (२३) ट्टिया स्वं १. (२४) खवंति खं ३, पा १, पू २. (२५) 'लोह° खं २. (२६) ट्ठिया खं १. (२७) स्ववंति पा १, पू २; स्वविंति खं ३; खवेत्ति खं २. (२८) उज्जत्ता पा १, पू २; उबउत्ता पा २ (२९) सव्वाणुष्णा पू १; सव्वाणुत्ता पू २. (३०) अपू २; व जै; क्षत पू १. (३१) तुलिज्जा खं ३, पू २. (३२) लाहे' पू २. (३३) कंखी पू १; कंक्खि पा २ (३४) वाणियओ जै, खं २, खं २, पा १; वाणिययो पा २; वाणिअओ पू २; वाणियउ पू १ . ५६ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मम्मि नत्थि माया न य कवडं आणुवित्ति'-भगियं वा । फुड-पागडं अकुडिलं' धम्मवयणमुजुयं जाण ।।३९३ ।। न' वि धम्मस्स भडका उक्कोडा वंचणा व कवडं वा । निच्छम्मो किर'' धम्मो सदेवमणुयासुरे' लोए ।।३९४ ।। भिक्खू'' गीयमगीए'ने अभिसेए'" तह य५ चेव रायणिए । एवं तु पुरिसवत्थु दव्वाइ चउब्विहं सेसं ॥३९५।। चरणाईयारो दुविहो मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य° । मूलगुणे छट्ठाणा" पढमो पुण नवविहोने तत्थ ।।३९६ ।। सेसुकोसो मज्झिम जहन्नऔं वा भवे चउद्धा उ६ । उत्तरगुंणणेगविहो दंसणनाणेसु अट्ठ ।।३९७।। जं जयइ" अगीयत्थो जं च" अगीयत्थर-निस्सिओ जयइ । वट्टावेइ य गच्छं अणंत-संसारिओ होइ ॥३९८ ।। कह उ जयंतो५ साहू वटाई य" जो उ८ गच्छं तु । संजमजुत्तो" होउं अणंत संसारिओ° भणिओ ॥३९९ ।। (१) आणुयत्ति खं ३, पा १, पू १; नाणुंवति खं १; आणुयंति पा २; नाणुयत्ति खं २. (२) भणिय न्वा खं २. (३) पुड° पा १. (४) पागड खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २; पायड खं २. (५) मकुडिलं' पा १, पू, पू २; "मकुडिलं खं २, खं ३, पा २. (६) मुजयं खं २; 'मुजअं पू २. (७) ण पा १. (८) य जै, पा १, पू १, पू २. (९) निच्छमो खं २; निच्छउमो खं ३. (१०) किरि पू १. (११) सुर पू २. (१२) भिक्खु खं ३, पू १, पू २; भिक्ख खं २; खिक्ख पा १. (१३) मीय खं ३, पा २, पू १; गीअ पू २. (१४) अहिसेए पा १; अभिसेहे खं २; मिसेए पू १. (१५) इ पा १; क्षत खं २, पू २. (१६) राइणिए खं २, खं ३; रायणीए पा २; राइणीए पू २; आयरिए जै, खं १. (१७) च जै, पा २. (१८) दवाई खं २; दवाय पू १ (१९) चरणाया खं १, पू १, पू २. (२०) अयू २. (२१)च्छट्ठाणा खं १, खं २, पा २; छटाणो पू २. (२२) पटुमो पू १. (२३) नविहो पू २. (२४) सेस पू १. (२५) जहन्नउ पू १; जहन्न पू २. (२६) ओ खं १, खं २, पा १, पा २, पू २. (२७) गण पू. (२८) नाणेहि पा २. (२९) जइय खं ३, पा २; जईय पा १. (३०) अत्यो पू २. (३१) ग खं २. (३२) अत्य पू २. (३३) निस्सिउ खं ३, पू १; 'मिस्सिओ पा २, पू २; "निस्साओ पा १. (३४) "रिउ पा २, पू १. (३५) जयंतो पू २. (३६) वेइ खं २, खं ३. (३७) अ पू २; क्षत पू १. (३८) य खं ३; इ पा १. (३९) जुतो पा १; जुत्तो खं १. (४०) रीओ पा २; "रिउ पू १. ५७ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दव्वं' खेत्तं कालं भावं पुरिस पडिसेवणाओ' य' । न वि जाणइ अम्गीओ" उस्सम्गववाईयं चेव || ४०० || जहट्ठियदव्व न याणइ सचितचित्तमी सगं चेव । कप्पाकप्पं च तहा जोग्गं" वा जस्स जं होइ " ||४०१ ।। जहर्टियखेत्त न याणइ अद्धाणे जणवए य जं भणियं" । कालं पिय न वि जाणइ सुभिक्ख" - दुब्भिक्ख" जं कप्पं । । ४०२ ।। भावे गाणं न वि जाणइ गाढकप्पं च" । १३ सहु" - असहु" - पुरिसर्वत्थं वत्थुवमत्युं च" न वि जाणे" ।।४०३॥ पडिसेवणा चउद्धा आउट्टि - पमाय- दप्पकप्पे ५ य‍ । न वि जाणइ अम्गीओ" पच्छितं " चेव जं तत्थ " ||४०४ || जहनाम कोइ पुरिसो” नयविहीणो" अदेसकुसलो य" । कंताराडविभीमे मम्गपणटुस्स सत्यस्स || ४०५ ॥ इच्छइ य देसियत्तं किं सो उ" समत्थो देसियत्तस्स" । दुग्गाइ अयातो नयणविहूणो कहिं देते ||४०६ ।। (१) दिव्वं पा १. (२) खित्तं पा २. (३) 'गाउ पू १. (४) अ खं ३. (५) अग्गीउ स्वं २, पा २, पू १; अगीउ पू २. (६) विवाईयं पा १; बिवाईअं पू २. (७) जहठिय' जै, पा १. (८) सच्चा जै, स्वं १, स्वं २. (९) 'मीसयं जै, खं १, पा २, पू २; 'मीसियं स्वं २, स्वं २, पू २. (१०) जोम्गं स्वं २. (११) होउ पू १. (१२) जहट्टिय स्वं १, खं २, पा २, पू २. (१३) वित्त स्वं ३, पा १, पू २; 'क्स्वेत पा २. (१४) भणिअं पू १. (१५) सुब्भिवख स्वं १. (१६) 'दुभिक्ख जै, खं ३, पा १, पा २, पू १. (१७) हिट्ट स्वं २, पा २, पू १. (१८) तु जै. (१९) सह पू २. (२०) 'सहू खं २, खं ३, पू१. (२१) पुरिसत्तू स्वं २; पुरिसत स्वं ३; पुरिसंतू; 'परिस पू१; 'पुरिसरूवं हेयो. (२२) वत्थ पा १, पू १. (२३) वत्यं च पा १, पू २; 'बत्यु च पू १. (२४) जाणइ पा १, पू २. (२५) कप्पदप्पे जै. (२६) अपू २. (२७) अगीओ जै, पू २; अम्गीउ पू १; क्षत स्वं २. (२८) पच्छत पू २. (२९) तस्स पा १. (३०) पुरुसो पू १. (३१) नय वि पा १. (३२) बिहूणो जै, स्वं २, स्वं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (३३) अपू २. (३४) ओ पू २; अ पा २ (३५) समत्यो जै, स्वं १, स्वं २, वं ३, पा पा १. (३६) देखिअत पू २; देसियत स्वं ३ (३७) कहिं जै, पू २. २, पू १, पू २; समत्यु (३८) दंसे पू१; देखि पू. २. ५८ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवमगीयत्यो' वि हु जिणवयणपईवचक्खु परिहीणो । दव्वाइ अयाणंतो उस्सग्गववाइयं चेव ।।४१७।। कह सो जयउ' अगीओ कह वा कुणऊ' अगीयनिस्साए । कह वा करेउ गच्छं सबाल -वुड्डाउलं' सो उ ।।४०८।। सुत्ते य" इमं भणियं अप्पच्छित्ते य देइ पच्छित्तं । पच्छिते२ अइम आसायण' तस्स महई उ५ ।।४०९।। आसायण-मिच्छतं आसायण-वजणा' य" सम्मत्तं । आसायणा'-निमित्तं कुम्वइ° दीहं च संसारं ।।४१०।। एए दोसो जम्हागीय-जयंतस्सगीय निस्साए । वट्टावय२३ गच्छस्स य जो वि गणं देइ२५ अगियस्स६ ।।४११ ।। अबहुस्सुओ" तवस्सी विहसिकामो९ आणिऊण पहं । अवराह-पय-सयाह काऊण वि जो न याणेइ ।।४१२।। देसिय-राइय३२-सोहिं३२ वयाझ्यारे३० य५ जो न याणेइ । अविसद्धस्स न वडूइ३७ गुरसेढी तत्तिटा ठाइ३८ ।।४१३ ।। (१) अत्यो पू २. (२) चखु पा १, पा २, पू १, पू २. (३) उसग्ग पा १, पू १. (४) विवाइयं पा १. (५) जयओ खं २, पू २; जयइ पा १; जय खं ३. (६) अगीउ पू १. (७) कुणउ जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १. (८) सव्वाल पू १. (९) वुढारलं पा २; वुडाउलं पू १; बुड्डाओलं पू २, (१०) सो ओ खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २; सेयं पू १. (११) अ पू २. (१२) पछित्ते पा २. (१३) अइमित्तं पा २; अइममत्तं पू १. (१४) साइण पा १. (१५) ओ जै, खं २, पा १, पा २, पू १, पू २. (१६) चकणा पू २. (१७) ओ पू १. (१८) सत्तं पू २. (१९) °साइणा खं ३. (२०) पुबइ पा १. (२१) संसारे पू १. (२२) हा आगीय खं १, खं २, खं ३, पा २, पू २. (२३) वह पा १, पू २. (२४) गणि खं २; गण पू १. (२५) दे जै, खं २, खं ३, पा २; देई खं १. (२६) गीयस्स जै, खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १; "गीअस्स पू २. (२७) अवुहस्सुओ पा १; अबहुस्सुउ पा २, पू २; अबहुसुउ पू २. (२८) विहरिओ' खं २, पा २; विहरिय° पू १; विहउ° पू २. (२९) कमो पू २. (३०) पह° पू १. (३१) °णाइ जै, खं १, खं ३; णाई पू २. (३२) रोइ सोपू २. (३३) सोही जै, खं १, खं २, पा १; सोहिय पा २. (३४) 'यारो पा २; आरे पू २; अरे जै. (३५) इ खं ३; अ पू २; हिं पू १. (३६) गाइ जै, खं १, स्खं २, खं ३, पा १. (३७) वट्टइ खं २. (३८) टाइ खं १, पा २; ठाई पा १, ५९ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पागमो किलिस्सइ जइ वि करेइ' अइ दुकरं तु तवं । सुंदर-बुद्धिइ कयं बहुयं पि न सुंदरं होइ ।।४१४ ।। अपरिच्छिय-सुय-निहँसस्स केवलमभिन्न-सुत्तचारिस्स' । सब्बुजमेण कियं अन्नाणतवे बहुं२ पडइ ।।४१५ ।। जह दाइयंमि वि पहे तस्स विसेसे पहस्सऽयाणंतो । पहिओ किलिस्सइ चिय तह लिंगायार-सुयमेत्तो ।।४१६ ।। कप्पाकप्पं एसणमणेसणं चरण-करण-सेहविहि । पायच्छित्तविहिं८ पि य९ दव्वाइ गुणेसु य समग्गं ।।४१७ ।। पव्वावण-विहिमुद्रावणं च अजाविहिं निरवसेसं । उस्सर्गववायविहि२३ अजाणमाणो कह५ जयउ ।।४१८।। सीसायरियकमेण य" जणेण गहियाइँ सिपसत्याई । नजंति° बहुविहाई। न चक्खुमेत्ता]सरियाणि३३ ।।४१९ ।। जह उज्जमिउं० जाणइ नाणी तव संजमे५ उवार्यवऊ । तह८ चखुमेत्त-दरिसण-सामायारी न याणंति २ ।।४२० ।। (१) करे पा १. (२) अय' पा २. (३) बुद्धिए जै, दो, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १. (४) बहुं पा १, पू १, पू २. (५) नय पू १. (६) सुअ° पू २; "सुह° पा २. (७) निहि' खं २, पू १, पू २. (८) मन्भिन्न खं १, पू २. (९) 'चारस्स पू १. (१०) व पा १; वि ण वि पू २. (११) अण्णाण जै. (१२) बहु पू १. (१३) विसेसं पा १. (१४) पहिउ पू . (१५) किलस्सइ पू २. (१६) "मित्तो जै, खं ३, पा २. (१७) "विहं पा १, पू २; "विही खं १, पू १. (१८) विहं खं ३; "वियं पा १. (१९) अपू २. (२०) विहिसुमु पू १. (२१) 'विहं पा १. (२२) उसग्ग' पा २. (२३) 'विहं पा १. (२४) अयाण पा १, पा २, पू २. (२५) कहिं पा १ (२६) जयओ खं २, खं ३. (२७) इ पा १. (२८) गहियाइं सर्वत्र. (२९) सिप्पि पा २. (३०) निजंति खं ३, पू २. (३१) 'हाइ जै, पू २. (३२) "मित्ताणु खं ३, पा १, पू २; 'मित्ताण खं २; “मेत्तेण जै. (३३) ल्याइं जै, खं १, खं २, कं ३, पा २, पू १, पू २. (३४) उज्जमियं पा २; ओजमिउं पू . (३५) जमे य उ जै. (३६) यवाय पा २. (३७) "विओ पू २. (३८) ते खं १; तं जै. (३९) चक्ख पा २. (४०) "मिस पू १, पू २. (४१) सामायारी' खं २; सामायारं पा १; सामाइयारी पू १; सामायारिं पा २. (४२) याणंणंति पा २. ६० Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिप्पाणि य सत्थाणि य जाणतो वि यन जुंजई जो उ' । तेसिं फलं न भुंजइ इय' अजयंतो " जई नाणी ।।४२१ ।। गारव - तियपडिबद्धा संजम - करणुजमंभि" सीयंता । निग्गं तूण गणाओ' हिंडंति" पमायरन्नंमि" ।।४२२ ।। नाणाहिओवरतरं हीणो वि हु पवयणं । पभावतो । न य दुकरं " करेंतो" सुट्ठ" वि अप्पागमो पुरिसो ।। ४२३ ।। नाणाहियस्स" नाणं पुज्जइ" नाणा" पवत्तए" चरणं । १ १५ जस्स पुण दोह एकं पिनत्थि तहिँ ३ पुजए" काई" ॥४२४॥ नाणं चरित हीणं लिंगम्गहणं च दंसणविहीणं संजमहीणं च तवं जो चरइ निरत्थयं तस्स ॥४२५।। ६ जहा खरो १७ चंदणभारवाही भारस्स भागी न हु चंदणस्स । १८ ९ एवं खु नाणी चरणेण हीणो नाणस्स भागी न हु सोगईए" ॥४२६ ॥ । संपागड- पडिसेवी काएसु" वएसु जो न उज्जमइ । पवयण - पाडण३ - परमो सम्मत्तं" पेलवं" तस्स ।। ४२७ ।। (१) अ पू २; उ खं १. (२) जुजह खं २, पा १. (३) ओ खं ३. (४) इअ पू २. (५) जयंतो पा १, पा २, पू २. (६) जई खं ३. (७) णुज्जु खं ३. (८) सीअंता पू २. (९) घराओ पा २, पू २; घराउ पा १. (१०) हिंडेंति पू १. (११) रणंमि पू १. (१२) 'यण पू २. (१३) विंतो खं ३, पा १, पा, पू २; वेंतो स्वं २; सेंतो जै; 'असिंतो खं १. (१४) टुकर पू १. (१५) करिंतो खं १, खं ३, पू १, पू २. (१६) सुटुं पू १; सुट्ठ पा १, पू २. (१७) हिअस्स पू २. (१८) पुइज्जड़ जै, खं १, खं २, पा २; पुज्ज पू २. (१९) नाओ पू २. ( २० ) पवत्तई स्वं १, पू १; पबत्तड़ पा ; इबत्तई जै. (२१) दुन्न पू २. (२२) मेकं पू १; इकं खं ३, पा १, पू २. (२३) तस्स वं २, स्वं ३, पा १, पा २, पू २; तम्मि खं १, तहिं जै, पू १. (२४) पुइज्जए (२५) काउं पू २. (२६) हूणं जै, (२८) एवं सर्वत्र. (२९) क्खु पा २ (३२) उज्जइ पा २ (३३) 'पडण' जै. जै, स्वं १, स्वं २, स्वं ३, पा १, पू १, २, पुयज्जए पा २ पा १, पू २. (२७) क्खरो पा २. (३१) कोएस पा २; कएसु पा १. पू १. (३५) कोमलं पा १, पू २. ६१ (३०) सोम्ग पू २. (३४) समत्तं खं ३, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-करण-परिहीणो जइ वि तवं चरइ सुलु' अइगुरुयं । सो तेलं. वे किणंतो कंसियवोदो' मुणेयव्यो ।।४२८ ।। छजीव-निकाय -महव्वयाण परिपालणाइ" जइधम्मो । जइ पुण ताँइ न रक्खइ" भगहि को नाम सो धम्मो ।।४२९॥ छजीव-निकाय-दया-विवजिओ' नेवाः दिक्खिओ" न गिही। जइधम्माओ° चुको चुक्कइ गिहि''-दाण धम्माओ ।।४३०।। सब्बाओगे जइ कोइ अमच्चो नरखइस्स घेत्तूण" । आणाहरणे पावइ वह-बंधण-दव्वहरणं च ।।४३१ ।। तह छकाय-महव्वय५-सव्वनिवित्तीओ६ गिहिऊण जई । एगमवि८ विराहेंतो' अमञ्चरन्नो हणइ बोहिं ।।४३२।। तो हयबोही पच्छा कयावराहाणुसरिसमियममियं५ । पुणवि भवोदहि-पडिओ८ भमइ जरामरणदुग्गंमि ।।४३३ ।। जइयोणेणं चत्तं अयं नारदं सण-चरितं । तझ्या तस्स परेसुं॰ अणुकंपा नत्थि जीवेसु ॥४३४ ।। (१) सछु पू १. (२) गुरुयं पू २. (३) तिलं खं ३. (४) वि पू १. (५) कणंतो पू १. (६) कंसीय पा (७) बोदो खं १; बुद्दो खं ३; वुट्टो खं २; बद्धो पा १; वोडो पू २; बोडो पू १. (८) मुणेअब्बो पू २. (९) व काय पू २. (१०) याणि पा २. (११) पाए जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २. (१२) धम्मे पू २. (१३) ताई जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १; ताइ पा २, पू २. (१४) रखइ पा १. (१५) भणामि पू ; भणोहि जै. (१६) च्छज्जीव' खं १. (१७) "जिउ पू १. (१८) नेवि खं ३, पा १, पा २; नइव जै, खं १. (१९) दिक्खिउ पा १, पा २, पू १, पू २. (२०) धम्माउ पा २, पू १. (२१) गिह° पू १, पू २. (२२) धम्माउ पू १. (२३) उगे पू १. (२४) घेत्तूणं खं १, खं ३, पू १; पित्तूणं पू २. (२५) व्वया पा २. (२६) “वित्तीओ जै, खं २, खं ३, पू २; वित्तीउ खं १, पा २; वित्तिऊण पू १ (२७) गेण्हिऊण खं १. (२८) एगामवि पू २. (२९) विराहिंतो खं १, खं २, खं ३, पा २, पू २; विराईतो पू १. (३०) रण्णो पू १. (३१) हरइ खं १. (३२) हुइ पू २. (३३) वराहाण' पा २; 'कराहाणु पू २. (३४) "मिम खं १. (३५) ममियी पू २. (३६) पुणरवि पा २. (३७) भवोयहि पा २; भवोवहि खं १, खं ३, पू १, पू २; भवोअहि. खं २. (३८) पडिउ पा २, पू १, पू २. (३९) जइआ° पू २. (४०) परेस्सुं पा २. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्काय'रिऊण' असंजयाण लिंगावसेसमेत्ताणं । बहु' अस्संजर्मपवहो खारो मइलेइ सुट्ट्यरं ।।४३५।। किं लिंगविड्डरी'-धारणेण" कजंमि अट्टिए" ठाणे । राया न होइ सयमेव धारेतो चामराडोवे" ।।४३६ ।। जो सुत्तत्थ-विणिच्छिया-कयागमो मूल-उत्तगुणो'" हं । उन्बहइ“सया"-खलिओ सो लिक्खइ साहु-लेक्खंमि ॥४३७।। बहुदोससंकिलिट्ठो नवरं मछ्लेइ चंचलसहावो । सुठु५ विवायामेंतो कायं न करेइ कंचि गुणं ।।४३८ ।। केसिंचि वरं" मरणं जीवयमन्नेसिमुभयमन्नेसिंग । दुईरदेविच्छाए। अहियं केसिंचि उभयं पि ।।४३९ ।। केसिंचि" परोलोगो५ अन्नेसिं एत्थ होइइहलोगो" । कस्सवि दोनि वि" लोगा दो वि हया कस्सई" लोगा ।।४४०॥ छज्जीवकाय विरओ३ कायकिले से हि सुठ्ठ-गरुएहिं५ । न हु तस्स इमो लोगो हवइस्सेगो परोलोगो ।।४४१ ।। (१) च्छकाय खं १. (२) "रिवूण खं १, जै; रियुण खं १. (३) अस्सं खं २, खं ३. (४) "मित्ताणं खं २, पू २. (५) बहुय अ° खं १. (६) अंसंजम खं १; 'ओ संजम पू २. (७) मयलेइ पू १. (८) "अरं पू २. (९) "विडिरी जै, खं १; क्षत खं २. (१०) करणेण पा २; क्षत खं २. (११) अणट्ठिए पा २. (१२) ट्राणे खं १, पा २. (१३) धारयं पू १, पू २; धारिंतो पा २; घारेंतो जै, खं १, खं २; धारणे खं ३. (१४) चामरोडोवे पा २. (१५) "णिछिय पा २. (१६) ओत्तर पू २. (१७) गुणेहं खं १; गुणेहिं पू १. (१८) उवहइ पा २; क्षत खं २. (१९) साया पा २. (२०) क्खलिउ पा २; अखलिओ पू २. (२१) लेक्खइ जै, खं १, पा २, पू १. (२२) "लिक्खंमि खं २, खं ३, पू २. (२३) संकिलट्ठो खं २; 'संकिलिखो पू २. (२४) मयलेइ पू २. (२५) सुटू पू २. (२६) वायामेत्तो खं १ खं २, पू १; ब्रायमित्तो पू २; वायामित्तो खं ३; वायाविंतो पा २. (२७) किंचि खं २, खं ३, पा १, पू २. (२८) ज खं २. (२९) वरणं पू २. (३०) उभय जै, कं २, खं ३; ओभय' पा २; मभयपू १. (३१) मन्नेसि पू २. (३२) दुइर पू २. (३३) देवच्छाए पू १; देवे छये हेयो. (३४) च खं २. (३५) लोओ जै. (३६) इत्य खं २, खं ३, पू १, पू २; यत्य खं १. (३७) 'लोगे पा २. (३८) दुन्नि पू १. (३९) क्षत खं २. (४) लोआ जै. (४१) कस्सइ पू १, पू २. (४२) च्छजीव खं १. (४३) 'विरउ पू २. (४४) 'सेहिं जै, खं १, खं २, खं ३, पू१, पू २. (१५) गुरुएहिं पू २; क्षत पा २. (४६) इसेगा पू २; इसेगो जै, खं १, पा २; 'इ हु सेगो खं २, खं ३. ६३ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरयनिरुद्धमईणं दंडियमाईण' जीवियं सेयं । बहुवायंमि वि देहे विसुज्झमाणस्स वर मरणं ।।४४२।। तवनियम सुट्टियाणं कल्लाणं जीवियं पि. मरणं पि । जीवंतऽजिति गुणा मया वि पुण सुग्गइं" जंति' ।।४४३ ।। अहियं मरणं अहियं च जीवियं पाव-कम्म-कारीणं । तमसंमि" पडंति मया वेरंवटुंति'" जीवंता ।।४४४।। अवि इच्छंति या मरणं न य परपीडं करेंति मणसा वि । जे सुविइय' सुगइपहा सोयरियसुओ' जहा सुलसो ।।४४५।। मोलग"-कुदंडगा३-दामगाणि" उच्छूल५-घंटियाओ" य । पिंडेइ अपरितंतो चउप्पयानत्थि य पसू वि ।।४४६ ।। तह वत्थ-पाय-दंडग-उवगरणे जयण-कजमुजुत्तो' । जस्सट्टाएँ किलिस्सइ तं चिय मूढो न वि करेइ ।।४४७ ।। अरहंता भगवंतो अहियं च हियं च न वि इहं किंचि३ । वारेंति" कावंति" य घेत्तूण जणं बला हत्थे८ ।।४४८।। (१) माइणं पू २. (२) सेअं पू २. (३) वरि जै. (४) च पू १. (५) च पू १. (६) जीवंति जं ति खं २, पा २, पू २; जीवंति जइ जै, खं १, पू १. (७) गु पू १. (८) मुया पू . (९) णं जै, खं १, पू १. (१०) ति जै, खं १, पू १. (११) सोगई खं ३; सुगई जै, खं १; सोगइ पा २; सोग्गई पू २; सुंगइ पू १. (१२) उर्विति मया खं १, पू १; उवेति मया जै. (१३) अहितं पू १. (१४) तम संपि पू. २. (१५) वढंति पा २. (१६) उ जै, खं १, पू २; ओ पू १. (१७) परिपीडं पू २. (१८) करंति पा २, पू १; करिति खं १, खं ३, पू २. (१९) इअ° पू २. (२०) सोअ° पू २. (२१) सुउ पा २. पू २. (२२) मूलग खं ३, पू २. (२३) कुंडंदगा खं २; कुलिंडगा खं १; "दंडगा पू १; कुडंडगा जै. (२४) गाण पू १; 'गाइ खं १; गाई जै. (२५) ओच्छूल पा २; मवधूल' खं १. (२६) घंट्टियाओ खं १; घंट्टियाउ पा २; घंटिआउ पू २; घंटियाउ पू १. (२७) चउप्पिया पू २; (२८) अपू २. (२९) पायं जै. (३०) 'गरण खं २. (३१) 'मुजत्तो पू २. (३२) 'टाए जै, खं १, पा २; 'ट्ठाइ खं २, खं ३, पू १, पू २. (३३) "पि खं २. (३४) वारिंति खं १, खं २ पू २; वारंति पा २. (३५) कारविंति खं १, खं ३, पू २; कारवंति पा २. (३६) धितूण पू २. (३७) जलं पू १, पू २. (३८) हते पा २. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवएस' पुण तं देंति जेण चरिएण कित्ति-निलयाणं' । देवाण वि होति. पहू किमंग' पुण' मणुयमेत्ताणं ।।४४९ ।। वरमउडकिरीडधरो' चिंचइओ" चवलकुंडलाभरणो' । सक्को' हिओवएसा एरावणवाहणो जाओ" ।।४५० ।। रयणुजला(५ जाइं बत्तीस-विमाण-सयर्सहस्साई । वजधरेण वराई- हिओ वएसेण लद्धाइं ।।४५१ ।। सुरवइसमं विभूई'• जं पत्तो" भरह-चकवट्टी वि । माणुस-लोगस्स पडू तं' जाण हिओं वएसेण" ।।४५२ ।। लभ्रूण तं सुइसुहं जिणेक्यणुवएसममय-बिसमं । अप्पहियं कायव्वं अहिएसु मणं न दायव्वं ।।४५३ ।। हियमप्पणो करेंतो कस्स न होइ गरुओ" गुरू३५ गन्नो । अहियं समायरंतो कस्स न विष्पचओ होइ ।।४५४ ।। जो नियमसीलतव संजमेहि जुत्तो करेइ अप्पहियं । सो देवयं व पुजो सीसे सिद्धत्थओ८ ब्व जणे ॥४५५।। (१) ओवएसुं पा २. (२) क्षत जै. (३) दिति खं १, खं. ३, पू २; दिया पा २. (४) निलि' पा २; नलि° पू २. (५) इंति खं १, खं २, खं ३ पू १, पू २. (६) किंमंग पा २. (७) पण पू १. (८) मणुअ° पू २; मणूय पा २. (९) "मित्ता' खं ३, पू २. (१०) °धरे खं २; 'धरा पू २. (११) चहउ पू १; चंचइओ पू २; चइओ जै. (१२) 'हरणो खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (१३) ससको पू २. (१४) जाउ पा २, पू १. (१५) 'णुजलाई जै, खं १, खं ३, पू १, पू २; `णुज्झलाई खं २; `णुजलाइ पा २. (१६) “सयसय स° पू १. (१७) "हरेण जै, खं २, पा २, पू २, पू २; हरेणु खं ३. (१८) वराई खं २. (१९) हिउ° पू २. (२०) 'भूई खं २, खं ३. (२१) पंतो पू २. (२२) माणस्स' पा २; माणुस्स खं १. (२३) त पा २. - (२४) हिउ पा २, पू १, पू २. (२५) सेणं खं २, खं ३, पा २, पू १, पू २. (२६) जिणु जै. (२७) 'ममइ पा २; "मय पू १, पू २. (२८) मिंदु° पू २. (२९) एस खं २. (३०) कायब्वं जै, खं १, पा २, पू १. (३१) हिअ पू २. (३२) अप्पणो खं १. (३३) करितो खं १, खं २, खं ३, पा २, पू १, पू २. (३४) गरुउ पा २, पू १, पू २. (३५) गरु पू १. (३६) विपच्चओ खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (३७) संजमेहिं सर्वत्र. (३८) 'त्थउ खं २, पू १, पू २. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वो गुणेहि गन्नो' गुणाहियस्स' जह" लोगवीरस्स । संभंत - मउड' - विडवो सहस्सनयणो सययमे ।।४५६।। चोरिक - वंचणा - कूडकवड- परदार-दारुणमइस्स । तस्स चिय' तं' अहियं पुणो वि वे रं जणो वह || ४५७ ।। जड़ ता तण - कंचन - लेट्टु " - रयण - सरिसोवमो जणो जाओ" । तझ्या नणु वोच्छिन्नो अभिलासो" दव्व्हरणंमि ।। ४५८ ।। आजीवग गणनेया" रंजसिरिं" पयहिऊण" य जमाली" । हियमप्पणो करेंतो" न य वयणिजे इह पडतो ।।४५९।। इंदियेकसाय - गारवमएहि " सययं" किलिट्ठ" परिणामो । कम्मघणमहाजालं अणुसमयं बंधई" जीवो || ४६० ।। परपरिवायविसाला अणेग कंदप्यविसयभोगेहिं । संसारत्था जीवा अरविणोयं" करेंतेवं" ।। ४६१।। आरंभपायनिरया लोइयरिसिणो तहा कुलिंगी" य । दुहओ" चुका नवरं जीवंति" दरिद्दजियलोए" ।।४६२।। (१) गुणेहिं जै, स्वं १, स्वं २, स्वं ३, पू १, पू २. (२) गिन्नो पा २; गनो खं २. (३) • हिस्स पू २. ( ४ ) जहय जै. (५) 'मओड' पा २, २. (६) सययमेव पू १; सयामइ पा २. (७) चिय खं २, पा २, पू २. (८) त्तं खं २. ( ९ ) हिययं खं २. (१०) १, लिटु' खं २, खं ३, पू २; 'लिटु° पू. (११) जाउ पा २, पू १, पू २. ( १२ ) अणु पा २ (१३) अहि° जै, स्वं २, खं ३, पा २, पू १, पू २. (१४) दुग्ग° पा २ (१५) नो पू २. (१६) राय खं १. (१७) सिरि जै, पू १ (१८) पयइहिऊण खं ३. (१९) जमालिं खं २. ( २० ) करिंतो खं खं ३, पू २; क्षत खं २. (२१) वयणेज्जे खं २. (२२) पडेंतो खं २; पडिंतो खं ३, ( २३ ) इदिय पा २ (२४) 'मएहिं जै, स्वं १, स्वं २, स्वं ३, पू १. (२५) सयं पा २, पू२, पृ १. (२६) कलिट्ठ पू १, पू २. (२७) बंधए खं २, पा २ (२८) 'कंदप्प' खं ९. (२९) 'विणोअं पू २. (३०) करितेवं स्वं १, पू २. (३१) कुलंगी प २. (३२) दुहउ पू १, पू २. (३३) णवरं खं १. (३४) जियंति खं १, पा २; जीयंति जै. (३५) 'लोयं खं १, पा १, पृ १; 'लोअं पू २. ६६ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वो न हिंसियव्वो जह महिपालो तहा उदयपालो । न य अभयदाणवइणा' जणोवमाणेण होकवं ॥४६३।। पाविजइ इह वसणं जणेण तं छगलओ असत्तो ति । न य' कोइ सोणियबलिं करेइ" वग्घेण देवाणं ।।४६४।। वच्चइ खणेण जीवो पित्तानिल'५-धाउ-सिंभ-खोभेहि । उज्जमह मा विसीयह तरतमजोगो इमो दुलहो ॥४६५।। पंचेंदियत्तण माणुसत्तणं आरिए जणे सुकुलं ।। साहु-समागम-सुणणा सद्दहणा"-रोग-पव्वजार ।।४६६ ।। आउं३ संवेलंतो" सिढिलंतो५ बंधाइँ सव्वाइं" । देट्ठियं मुयंतो झायइ' कलुणं बहुं जीवो ।।४६७।। एक पि नत्थि जं सुठु सुचरियं५ जह इमं बलं मज्झ । को नाम दढकारो मरणते मंदपुण्णस्स" ।।४६८।। सूलविसअहि२७-विसूइय-पाणिय-सत्थग्गि-संभमेहि९ च । देहंतरसंकमणं करेइ जीवो मुहत्तेणं० ।।४६९।। (१) मह° पू १. (२) ओदय पा २. (३) अभइ पू १. (४) वयणा पा २. (५) होइब्वं पू १; होअव्वं पू २. (६) जणेवि पू १. (७) जं खं १, खं ३. (८) च्छगलओ खं १, खं ३, पू २; छगलउ पा २, पू १. (९) असंतो खं २, खं ३, पू १. (१०) वि खं १, पा १, पा २, पू १, पू २. (११) कोय पा २: (१२) सेणिय' पा १; सोणिअ° पू २. (१३) 'बलं पा २. (१४) करेज पा १. (१५) 'नल° पू १; "णिल° पा १; मल खं २. (१६) खोहंमि पू १; खोभंमि जै, खं १, पा १; 'क्खोहंमि पा २. (१७) वसीअह पू २; वसिय पा २. (१८) पंचिंदियत्तणं खं १, पा १, पू १, पू २; पंचिंदियत्तणं खं २; पंचिंदियतिणं पा २. (१९) आयरिएसु जै; आयरिए खं २, पू १, पू २; आरिएसु पा २. (२०) सकुलं पा १. (२१) सइहणं हेयो. (२२) पवजा पा २. (२३) आयं पा २. (२४) संवेलिंतो खं १, पू २; संम्बेलेंतो खं २; संब्बेलंतो खं ३; सब्बेल्लेत्तो पू १. (२५) लिंतो खं १, कं २, पू २; लित्तो पू १. (२६) *णाइ पा २; णाई जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू २. (२७) न्वाइ जै, पा २. (२८) देहि पू २. (२९) "ट्ठिइं जै, खं ३; "टिइं पू २; 'ट्ठीइं खं १. (३०) मोयंतो पा २. (३१) ज्झायइ जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २. (३२) बहु पा २. (३३) इकं खं ३. (३४) सुटु पू २. (३५) सचरियं पा १. (३६) पुजस्स जै, खं १, खं २, खं ३, पा २, प २. (३७) अहिविस खं ३, पू २; "विसाहि खं १; विसअइ° पा २. (३८) 'ईय° पा २. (३९) भवेहिं पा २. (४०) मुहुत्तेण खं २, पा १, पा २, पू १. ६७ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कत्तो चिंता सुचरिय' तवस्स गुण-सुट्ठियस्स' साहुस्स । सोगइ'-गमपरिहत्थो जो अच्छइ नियमभरिय भरो ।।४७०।। साहति य फुडवियडं मा साहस' सउणसरिसया जीवा । न य कम्ममार-गरुयत्तणेण' तं आयरंति° तहा ।।४७१ ।। वग्घ-मुहम्मि अगओ" मंसं दंतंतराउ कड्डेइ१३ । मा साहसं ति" जंपइ करेइ न य तं" जहा भणियं ।।४७२।। परियट्टिऊण गंथत्था-वित्थरं निघसिऊण परमत्थं । तं तह करेइ जह तं न होइ सव्वं पि नपढियं ।।४७३।। पढइ नडो वेरगं निविजेजा" य" बहुजणो जेण । पढिऊण तं तह सढो जालेण जलं समोयरइ ॥४७४।। कह कह करेमि कहमा करेमि कह कह कयं बहुकयं मे५ । जो हिययसंपसारं करेइ सो अइकरेइ- हियं ।।४७५।। सिढिलो अणायओ" अवसैवसकओ तहा कयावकओ । सययं पमत्त३५ सीलस्स संजमो केरिसो३६ होजा७ ।।४७६।। (१) सुचिरिय° पू २. (२) सुद्धियस्स पू २. (३) सोगइ पू १, पू २; क्षत खं १. (४) परहत्यो पा १; क्षत खं १. (५) साहिति खं १, पा २, पू १; साहेति खं २. (६) साहास पा २, पू २. (७) सउणिउ पू १. (८) सरिसय पू १. (९) गरुअत्त पू २. (१०) आयरिंति पू २; आरियंति पा २. (११) 'गउ पा २. (१२) दंतंतराउ पा २; दंतंतराओ खं १, खं ३. (१३) कड्डइ य जै, खं १, खं २; कढिय पा २. (१४) साहसत्ति पू २. (१५) तं पा २. (१६) गंथथ पा २; गंत्यत्य खं १. (१७) निहसिऊण जै, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (१८) तं पा २. (१९) नट्ठ पू २; क्षत पा २. (२०) निविजेज खं १; निव्वेजेजा खं २; न वजेजा पू १; न विजेजा पा २; निविजोजा पा १; निवेजेज जै. (२१) उ खं २, खं ३; क्षत खं १, पा २, पू १, पू २. (२२) बहुओ जणो खं १, पू २; बहूओ जणो पा २. (२३) "ऊणं पा १, पू २. (२४) समायरइ पा २, पू १. (२५) पि पू १. (२६) हियइ° पा १. (२७) करे पा २. (२८) अइकरे पा १, पू १; अयकरे पा २; क्षत खं १. (२९) हिययं पू १; क्षत खं १. (३०) अणायार° खं २, (३१) कउ पू १, पू २. (३२) अवस्स खं ३, पू १. (३३) °स अवस' पा २. (३४) "विकओ पू १. (३५) पमत्तस्स पू २. (३६) केरेसो पा १. (३७) हुजा पू १. ६८ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदो ब्व कालपक्खे' परिहाइ पए पए पमायपरो । तह उग्घर -विघर -निरंगणो या न य इच्छियं लहइ ।।४७७।। भीओब्विग्ग -निलुक्के पागड -पच्छन्न-दोससर्यकारी । अप्पचयं" जणंतो जणस्स धी'२ जीवियं जियइ ।।४७८ ।। न तहिं३ दिवसा पक्खा मासा वरिसाव संगणिजंति५ । जे मूलउत्तरगुणा अक्खलिया ते गणिजंति ।।४७९ ।। जो न वि दिणे दिणे संकलेइ के अज अजिया मे" गुणा" । अगुणेसु यनवि खलिओ" कहसो उ करेज" अप्पहियं ॥४८॥ इय गणियं५ इय तुलियं इय बहुहाई दरिसियं नियमियं च । जइ तह वि" न पडिबुज्झइ किं कीरउ नूण भवियव्वं ।।४८१ ।। किमगं तु पुणो२२ जेणं संजमसेढि सिढिलीकया५ होइ । सो तं चिय पडिवजइ दुक्खं पच्छा उ उजमइ ।।४८२ ।। जइ सव्वं उवलद्धं जइ अप्पा भाविओ९ उवसमेणं' । कायं वायं च मणं च उप्पहेणं जह न देइ४३ ।।४८३ ।। (१) चंद पा १. (२) पखे पा १. (३) 'करो पू २. (४) ओघर पू २; उघर' पा २. (५) 'विग्घर पू १. (६) अ पू २. (७) भीउविग्ग पा १, पू १; भीउब्विग पू २; भीओविम्ग पा २. (८) पायड पा १, पा २. (९) 'पुच्छन्न पू २; पच्छण्ण जै. (१०) सया' खं १. (११) अप्पच्चियं पू १; अप्पच्छयं पा २. (१२) धीइ पा २. (१३) तहि जै. (१४) वि पू १; य पा २. (१५) "णिझंति पू १. (१६) "किलेइ पा १; 'कालेइ पू २. (१७) केह के पा २. (१८) मे जै, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २; मए खं १. (१९) गुणिया पा १. (२०) अगुणेहि दो. (२१) य जै, खं १, खं २, पा २, पू २. (२२) खलिउ पू १, पू २; क्खलिउ पा २. (२३) क्षत पा २. (२४) करेउ पा १; करेइ पा २. (२५) गुणियं खं २, पा २. (२६) बहूया पा २; बहुदा पू २. (२७) दरसियं पा २. (२८) निमियं पा २; नियमयं पा १. (२९) व पा २, पू २. (३०) नि पा २, पू २. (३१) कीरइ खं २, पू १; कीरओ खं ३. (३२) किमंग पू १. (३३) धुणो पू २. (३४) सेढी खं १ खं २, खं ३, पा १, पा २ पू. १ पू. २ (३५) सिढलीकया खं ३; सिलिलीकया खं २. (३६) बुज्झइ खं २; 'वज्झइ पा २, पू २. (३७) दुखं पा १. (३८) ओव° पू २. (३९) भाविउ पू १. (४०) उयसमेणं जै; उवसमेण पू १; उवस्समेण पा २. (४१) वयं पा २. (४२) उप्पहेउं पा १; ओप्पहेणं पा २; ओपहेणं पू २; अप्पइएणं पू १. (४३) देह जै. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थे पाए निखिवे' कायं चालेज तं पि किजेणं । कुम्मो ब्व' सए अंगे अंगोवंगाई गोविजा' ।।४८४ ।। विकह विणोयभासं अंतरभासं अवर्कभासं च । जं जस्स अणि?पुच्छिओ" य" भासं न भासेजा" ।।४८५ ।। अणवट्ठियं मणो जस्स झायइ बहुयाइँ अट्टमट्टाई । तं चिंतियं च न लहइ संचिणइ२२ य२ पावकम्माइं ।।४८६ ।। जह जह सव्वुक्लद्धं जह जह" सुचिरं तपोवणे वुच्छं । तह तह कम्मभरगुरू संजमनिव्वाहिरो" जाओ ।।४८७।। वेजप्पो जह जह ओहाइँ पजेइ३ वाय हरणाई । तह तह से५ अहिययरं वाएणापूरियंग पोट्ट" ।।४८८ ।। दड्डजमकर्जकरं भिन्नं संखं न होइ पुण" करणं । लोहं च तंब-बद्धं न एइ परिकम्मणं किंचि ॥४८९ ।। को दाही उवएसं°५ चरणालसयाण दुब्बियड्डाण । इंदस्स देवलोगो न कहिजइ जाणमाणस्स ।।४९०।। (१) पाये पा २. (२) नखिवे जै, खं ३, पू १, पू २; निखिवि पा १; निक्खिवे पा २. (३) लिजं पा १, पू २. (४) जेण खं २, खं ३, पा २, पू १, पू २. (५) कुम्मु खं २; कुमु खं ३; कुमो पा २. (६) व पा १. (७) अंगंमि जै, खं १, खं ३, पा १, पू १; अंगेमि खं २; अंगं पा २. (८) अंगोवंगाइ खं २, खं २, पा २; अंगोवंगाई पा १, पू १, पू २; अंगुवंगाई जै, खं १. (९) वेजा जै, खं १. (१०) विगहं पा २. (११) णोअ° पू २. (१२) चवक पू १. (१३) अणट्ठ पू २. (१४) पुच्छिउ पू १, पू २; 'सुच्छिओ पा २. (१५) वि पू १; अ पू २. (१६) सिजा खं ३, पा १, पू २. (१७) वहियं पू २. (१८) मणो सर्व प्रतेषु. (१९) ज्झायइ जै, खं १, खं ३, पा १, पा २, पू २; झायई पू १; ज्झायइं खं २. (२०) याइं जै, खं १, खं २, खं ३, पा २, पू १, पू २; °आई पू १; 'याइ पा २. (२१) "ट्टाओ पा १. (२२) "चिणई पा १; जणी पू १. (२३) अपू २; क्षत खं २, पू १. (२४) कम्माइ या २; कम्माण पा १. (२५) सबु वि° पा १; सव्वव पू १. (२६) लटुं पू १. (२७) क्षत पू २. (२८) वोच्छं पू १; वच्छं खं २; पुच्छं पा २. (२९) निब्बाहरो; निवाहिरो पा २. (३०) जाउ पा २, पू १, पू २. (३१) विजप्पो खं २; विजप्पो पा १, पू २; विजुप्पो खं ३; वेजप्पो जै, खं १, पा २. (३२) ओसहाई सवत्र. (३३) पज्जइ खं ३; पिजेइ पू २; पजय पा १. (३४) गाइ पा २; णाय पा १. (३५) सेऊरिय पू १. (३६) ऊरियं खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (३७) पुढे पू २; पट्ट पा २. (३८) दढजओ' पा १; दड्डजई पू २; ढजउ° पा २. (३९) अकज पा २. (४०) सख पू १. (४१) पण पा २. (४२) विद्धं जै, पू १, पू २. (४३) क्षत पा २. (४४) परिक्कमणं हेयो, पू १, पू २. (४५) एसुं पू २. (४६) यढाणं पा २; 'यट्ठाण खं १, खं २, पू १; हट्ठाणं पा १. (४७) 'लोगे खं २. (४८) कहेजइ पू १. ७० Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो चेव जिणवरेहिं जाइजरामरणविप्पमुक्केहि । लोगम्मि पहा भणिया सुस्समण-सुसांवगो वा वि ।।४९१ ।। भावञ्चणमुगविहारया' य' दव्वच्चणं तु जिणपूया' । भावच्चणाउ' भट्ठो भवेज दव्वञ्चणुजुत्तो" ।।४९२।। जो पुण निरचणो'२ चिय सरीरसुहकजमेचा तल्लिच्छो' । तस्स न य बोहिलाभो न सोंगई नेवाः परलोगो" ।।४९३ ।। कंचणमणि सोवाणं' थंभ सहस्सूसियं सुवन्नतलं । जो करेज" जिणघरं तओ" वि तवसंजमो अहिओ५ ॥४९४॥ निब्बीए दुभिक्खे रना" दीवंतराओ अन्नों ओ । आणेऊणं बीयं इह दिन्नं कासगंजणस्स ।।४९५।। केहि वि सव्वं खइयं पइन्नमन्नेहि२२ सव्वमद्धं च । वुत्तुग्गयं च केई खेत्ते खोटें ति" संतत्थो" ॥४९६ ।। राया जिणवरचंदो निब्बीयं धर्मविरहिओ कालो । खेत्ताइ कम्मभूमी कासगवम्गो य चत्तारि ॥४९७।। (१) मोकेहिं खं ३. (२) सुस' जै, खं २. (३) सुस्सागो जै, 'सुसावगो खं १, खं ३, पा २; सुसावउ पू १. (४) या पू १. (५) मग्ग° पा १, पू १, पू २. (६) विहारायं पा २; क्षत पा १. (७) क्षत पा १, पा २. (८) पूआ पू २. (९) °णाओ पा २, पू २. (१०) हवेज जै, खं १, खं २, पा १, पा २, पू १, पू २; हविज खं ३. (११) °णुजुत्तो खं ३, पा १. (१२) णिरचणो पा १; निरुचणो पू १. (१३) 'मित्त खं २, पू १, पू २. (१४) त्तलिच्छो पा २; तलिच्छो पा १; तल्लेच्छो पू २. (१५) सोग्गई जै, पू २. (१६) नेय खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १; भेय पू २. (१७) लोगा पू २. (१८) मण° पा १, पा २. (१९) "सोमाणं जै, कं २; सोयाणं खं ३. (२०) त्यंभ पा २. (२१) सहसोसीयं पा २. (२२) कारिज खं ३, पा १,पू १; करिज खं २; करेवेज खं १. (२३) हरं खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (२४) तवो पू १; तउ पा २, पू २. (२५) अहिउ खं ३. (२६) दुभिक्खे पा १; दुभिक्खं पू १; दुभिक्ख पा २. (२७) रण्णाओ पा २. (२८) तराओ जै, खं १, पू २; तराउ खं २, खं ३, पा १, पा २,पू १. (२९) अन्नाउ खं ३, पा १, पू १. (३०) कासव जै, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १; कासय खं १. (३१) केहिं खं १. (३२) क्खइयं पा २. (३३) मनेहिं जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १, पू २. (३४) मन्नं पा २. (३५) तुगयं पू १; वुत्तगयं खं २; उत्तुम्गयं खं ३. (३६) केइ पा २. (३७) क्खेत्ते पा २; खिते पू २. (३८) खोटेंति जै, खं ३; खोट्टेति खं १; खोटिति खं २; क्खोटिति पा २.(३९) तत्य पा १, पू १.(४०) निबीए पा २; निच्छीयं पू २. (४१) धम पा २. (४२) विहिउ पा २. (४३) खेत्ताई जै, खं १, पा १, पू २; खित्ताई पू १. (४४) कासव जै, खं ३, पा १, पू १; कासय खं १, खं २, पा २. (४५) अ पू२. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंजएहि सव्वं रखइयं अद्धं च देसविरएहिं । साहूर्हि धम्मबीयं वृत्तं नीयं च निफत्तिं ॥४९८ ।। जे ते सव्वं लहिउँ पच्छा खुटुंति' दुव्वल-दिइया । तवसंजमपरितंता इह ते ओहरियसीलभरा ॥४९९ ।। आणं सव्वजिणाणं भंजइ दुविहं पहं अइकतो । आणं च अइकंतो" ममइ जरामरण दुग्गंमि ।।५०० ।। जइ न तरसि धारेउं मूलगुणभरं सउत्तरगुणं च । मोत्तूण तो तिभूमी" सुसावगत्तं वरतरागं ।।५०१ ।। अरहंतचेइयाणं सुसाहुपूयारओ दढायारो । सुस्सावगो' वरतरं न साहुवेसेण चुयधम्मो ।।५०२ ।। सव्वं ति भाणिऊणं विरई खलु जस्स सब्वियानत्थि" । सो सव्वविरड्वाई चुकइ देसं च सव्वं च ।।५०३।। जो जहवायं न कुणइ मिच्छाहिटी तओ हु को अन्नो" । वड्ढेइ य५ मिच्छेत्तं परस्स संकं जणेमाणो ।।५०४ ।। (१) अस्संजएहिदो, पा २, पू १; अस्संजएहिं जै, खं १, खं २, खं ३, पा १. (२) क्खइयं पा २. (३) साहूहि सर्वत्र. (४) उत्तं जै, खं ३, पू १; वोत्तं पू २; वुतुं पा १. (५) निफत्तिं पा १; निप्पत्तिं पू १. पू २. (६) लहियं खं ३, पा २. (७) खोटंति खं २, पू २; खोटिति खं १, खं ३; खोडंति प १; क्खुटुंति पा २; खोटेंति जै. (८) दीया खं ३, पा १; °धीया पा २; "धिइया पू १; धिईया पू २; °धिईए जै. (९) उहरिय' या २, पू १; ओहरिअ° पू २. (१०) 'विह पू १. (११) अइकमंतो जै. (१२) मूलं पू १. (१३) सओत्तर पा १; सउत्तरं पू १. (१४) तभूमी पा २. (१५) चेयाणं पा २. (१६) पूयारउ पा १, पू १; पूआरओ पू २. (१७) दढाराओ पा १. (१८) सुसावओ खं २; सुस्सावओ खं १, पा २; सुसावगो पू २; सुस्सावउ पू १. (१९) चूय° पा २; चुअ° पू २. (२०) सविया पा २. (२१) गत्यि पा १. (२२) दिट्ठी खं १, खं २, पा १, पा २, पू २. (२३) तउ पा २, पू १, पू २. (२४) इण्णो पा १. (२५) अ पू २. (२६) मेच्छत्तं खं ३. ७२ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणाए' चिय चरणं तब्भंगेजाण किं न भग्गंति । आणं च अइकतो कस्साएसा' कुणइ सेसं ।।५०५।। संसारो य अणंतो भट्टचरित्तस्स लिंगजीविस्स' । पंचमहव्वयतुंगो पागारो भिल्लिओ' जेण" ।।५०६ ।। न करेमि त्ति भणित्ता' तं चेव निसेवए पुणो पावं । पञ्चक्खमुसावाई'३ मायानियडीपसंगो य" ।।५०७।। लोए वि जो ससूगो५ अलियं सहसा न भासए तो किंचि । अह दिक्खिओ वि अलियं भासइ तो किंच" दिक्खाए ।।५०८ ।। महवय -अणुब्बयाई छड्डेउं२२ जो तवं चरइ अन्नं३ । सो अन्नाणी मूढो नावाबुड्डो" मुणेयव्वो५ ।।५०९ ।। सुबई पासत्थजणं नाऊणं जो न होइ मज्झत्थो । न य“ साहेइ सकजं" कागं च करेइ अप्पाणं ।।५१०।। परिचिंतिऊण निउणं जइ नियमभरो न तीरए वोढुं । ३"परचित्तरंजणेण न वेसमेत्तेण५ साहारो ॥५११।। (१) आणाइ खं २, खं ३, पा १, पू २. (२) तन्मंके पू २. (३) किग्ण पा १. (४) अइकमंतो जै. (५) कस्सायसा पू २. (६) भट्ट जै; भत्त पू २. (७) जीवस्स पा २, पू १. (८) पागाओ पू २. (९) भेलिओ जै; भिल्लिउ पू १; भेलिउ पा १. (१०) जेणं पा १. (११) भणं खं २. (१२) निसेव पू २; निसेवई जै. (१३) 'बाई खं १. (१४) अ पू २. (१५) ससुम्गो खं १, पा १, पा २; ससुगो पू १; सुसम्गो खं २. (१६) सहस्सा पा २. (१७) भासई जै. (१८) दिखिओ पा १; दिक्खि पा २; दक्खिओ पू २; दिक्खिउ पू १ (१९) किंथ जै, खं २, खं ३, पा २; किंत्य खं १, पा १. (२०) महब्बय जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २. (२१) अणुयाई पू २. (२२) छंडेउं पू १; छड्डेयं पा २. (२३) अण्णं पा १. (२४) 'बुदो खं ३; 'वोदो खं १, खं २; 'वोदो जै, पा १; 'बोडो पा २; वोडो पू २. (२५) मुणेअब्बो पा १, पू २; मुणियन्वो खं ३. (२६) सबहुं खं २. (२७) मज्झत्तो पू २; मझत्यो पू १. (२८) इ पा १. (२९) सकजें खं ३. (३०) निऊणं पा २; निउरं पू १. (३१) णियम पा १. (३२) तीरई पा १; तीरइ पू २. (३३) वोढं पा २. (३४) परि पा २. (३५) विसमितेण पू २. 4 2. 1. 1. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निच्छर्यनयस्स' चरणस्सुवघाए नाणदंसणवहो वि । ववहारस्स' 'उ चरणे हयम्मि भयणा उ सेसाणं ।।५१२ ।। सुज्झइ' जई सुचरणो सुज्झइ सुस्सावंगो वि गुरकलिओ । ओसन्नं चरण करणो सुज्झइ संविग्गंपक्खरुई ।।५१३।। संविग्गपक्खियाणं लक्खणमेयं समासओ' भणियं । ओसन्न चरणकरणा विजेण कम्मं विसोहेंति ।।५१४।। सुद्धं सुसाहुधम्मं कहेइ निंदइ' या निययमायारं । सुतवस्सियाण पुरओ" होइ य५ सव्वा मराइणिओ५ ।।५१५।। वंदइ न य वंदावइ किति कम्म८ कुणइ कारवे" नेव' । अनट्ठा न वि' दिक्खइर देइ सुसाहूण बोहेउं३ ।।५१६ ।। ओसन्नो" अत्तट्ठा परमप्पाणं च हणइ दिक्खंतो५ । तं छुहइ दुग्गईए अहिययरं३८ बुड्डइ सयं च ॥५१७।। जह सरणमुवगयाणं' जीवाण" निकितई सिरे जो उ°५ । एवं आयरिओ वि हु उस्सुत्तं पन्नवेंतो य ।।५१८॥ (१) निच्छिय पा १, पू २; निच्छइ पा २. (२) "नियस्स पू १. (३) "विधाए खं २, पा २; बग्घाए पू १; क्षत पू २. (४) हारस पा २. (५) इ पा २. (६) चरणो पा २. (७) सुज्झई पू १; क्षत पा २. (८) सुसावगो पू २; सुस्सावओ खं १; सुसवओ खं २; सुस्सावउ पू १; क्षत पा २. (९) कलिउ पा २, पू १. (१०) उससन्न खं २, खं ३, पा २, पू १. (११) °चरणं पा १. (१२) संवेग जै. (१३) रूई जै खं १, पा १, पा २, पू १, पू २. (१४) भेअंपू २. (१५) सउ खं ३, पा १ पा २, पू १, पू २. (१६) भणिअं पा २, पू २. (१७) ओसण्ण जै, उसन' पा २, पू १. (१८) विसोहिंति खं १, खं ३, पा १, पा २, पू ; विसोहंति जै. (१९) जिंदिय पा १. (२०) क्षत पा १. (२१) रउ पा २, पू १. (२२) हवइ पा २; क्षत पा १. (२३) क्षत खं २, पा १.(२४) सन्चोन पू १;क्षत पा १. (२५) रायणिणो खं २, पा २; 'राइणिउ पू १. (२६) नइ खं २. (२७) किइ जै, खं १, खं २, पू१, पू २; किय° पा २; किंइ खं ३. (२८) कंम्म' खं २. (२९) कारवड़ जै, खं २; कारेइ पा २. (३०) नेय खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १; नेअ पू २; नेइ खं २. (३१) य खं १, पा १. (३२) दिक्खे जै, खं ३, पू २; दिक्खो पा २. (३३) बोहेयं पा २. (३४) उसनो पा २, पू१, पू २. (३५) दिक्खिंतो खं १; दिखंतो पा १; दुमाई उपू १. (३६) च्छुह° पा २. (३७) दोग खं १, खं ३; दोग' जै. (३८) हियरं खं २; "हियरं पा २. (३९) बुद्धइ खं १, पा १; पुडइ पा २; उड्डइ पू २; उड्डइ पू १. (१०) गइआणं पा २. (४१) जीवाणं पू १. (४२) निकिंतए पा २; नकिंतए पू २; निकंतए पू १; णिकिंतई पा १. (४३) सिरो पू २. (४४) जा पू २. (४५) ओ खं १, पा २, पू २; ए पू १. (४६) रिउ पू १. (४७) उसुत्तं पू १; ओस्सुत्तं पा २; ओसुत्तं पू २; उसुत्त पा १. (४८) वंतो खं २, पा १, पा २; "विंतो खं १, खं ३, पू १, पू २. (४९) उ जै, खं १, पा १, पू १, पू २; ओ खं ३. ७४ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावज्जजोगपरिवर्जणाऍ सब्बुत्तमो जईधम्मो । बीओ सावगधम्मो तइओ' संविग्गपक्व हो ।।५१९ ।। ।। ५२१ ।। सेसा मिच्छाद्दिट्ठी' गिहिलिंग कुलिंग दव्वलिंगेहिं । जह तिनि उ मोक्खपेहा संसारपहा तहा तिन्नि ।। ५२० ।। संसारसागरमिणं परिब्भमं" तेहि सव्वजीवेहिं " । गहियाणि " य३ मुक्काणि" य अनंतसो दव्वलिंगाई " अच्चरेत्तो जो पुण न मुयइ" बहुसो वि पन्नविजंतो" । संविग्गपक्खिवयत्तं" करेज्ज" लब्भिहिसि " तेण पहं ।। ५२२ ।। कंताररोहमद्धाण'' - औमंगेलन्न "माइजेजु" । सव्वायरेण" जयणाएँ" कुरई जं साहुकरणिजं ।। ५२३ ।। १३ ।। ५२४ ।। आयरतरें संमाणं सुदुकरं" माणसंकडे लोए । संविग्र्गं पक्खियत्तं" ओसन्नेणं * फुडं काउं सारणचझ्या " " जे गच्छनिग्गया ५ पविहरंति" पासत्था । जिणवयण - बाहिरा वि य ते उ पमाणं न कायव्वा ।। ५२५ । ( (१) परिवज्जणाए सर्वत्र. (२) जड़ पा २ (३) बीउ पू १. संवेग' जै. (६) 'पक्ख पा १. (७) दिट्टी खं २, पा २ ४ ) तईउ पू १; तईउ पू २. (५) (८) ओ हेनो स्वं २, पू २; विखं स्वं १; य पू १. (९) मुक्ख स्वं २. (१०) परिन्भमंतोहिं जै, खं १, खं ३, पू १, पू २; परिभमंतेहिं २, पा १; परिभमंतेहि पा २ (११) 'जीवेहि खं २. (१२) आणि पू २. (१३) अपू २. (१४) मोकाणि खं ३, पू १. (१५) लिंगाइ पा २ (१६) अचण पा २. (१७) मुअ पू. २. (१८) पण्णवजिंत्तों पू १. (१९) पवियत्तं पा १; पक्खिअत्तं पू २. (२०) करिज खं २. (२१) लजिहिसि पा २, पू २; लज्जइसि पू १; लजिहिह जै. (२२) मुद्धाण पू १. (२३) उम° पा २, पू १, पू २; ओयम जै; क्षत पा १ (२४) 'गिलन्न' जै. (२५) कज्जेसुं जै. (२६) सव्वाइरेण स्वं ३. (२७) जयणाए जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू २; जइणा पू १. ( २८ ) आयरत सं° पा २ (२९) सदुकरं पू २; सुदुकडं पा २ (३०) संवेग्ग' जै. ( ३९ ) पखियत्तं पू १; पक्खिअत्तं पू २. (३२) उसनेणं पा २; सन्नेणं पू २; ओसणेणं जै. इआ पू २. (३५) णिग्गया पा १. (३६) परिहरति पा १, पा २ स्वं २; वमाणं पू १. (३३) कार्य पा २. (३४) यविहरंति पू२. (३७) पमाण ; ७५ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीणस्स विसुद्ध-परूवगस्स' संविग्गपक्खवाइस्स' । जा जा' हवेज' जयणा' सा सा से निजरा होइ ।।५२६ ।। सुंकाईपरिसुद्धे सइ लाभे कुणइ वाणिओ चेटुं । एमेव य° गीयत्यो" आयं दटुं समायरइ ।।५२७ ।। आमुक्का-जोगिणो" चिय हवइ.५ हु थोवा वि तस्स जीवदया । संविपक्वजयणा तो दिवा" साहुवग्गस्स ।।५२८ ।। किं मूसगाण अत्थेण किं वा कागाण" कणर्गमालाए । मोहमलरववलियाणं किं कजुवएसमालाए ।।५२९।। चरणकरणालसाणं अविणयबहुलाण सयजोगमिणं । न मणी" सयसाहस्सो आबज्झइ" कोच्छेमासस्स" ।।५३०॥ नाऊण करयलगयामलं व सब्भावओ३२ पहं सव्वं५ । धम्ममि नाम सीइजइ ति कम्मा गरुयाइं२९ ।।५३१ ।। धम्मत्थकाममोक्खेसु जस्स भावो जहिं जहिं रमइ । वेरग्गेगंतरसं०३ न इमं सव्वं' सुहावेइ६ ।।५३२ ।। (१) गसा पा २. (२) वायस्स खं २. (३) ज पा २. (४) हविज खं २, पा १, पू २. (५) जइणा पू २. (६) सुद्धं खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १, पू २. (७) सय खं ३, पा १, पू १. (८) वाणिउ पा २, पू १. (९) चिटुं खं २, खं ३, पा १, पू २; चढें पू १. (१०) इ पा १. (११) गियत्यो पा १; गीअत्यो पू २. (१२) यइरह पा २. (१३) आमोक' खं ३. (१४) जोगिणे पा १; जोगणो पा २; जोअणो पू २; 'जोगणि पू १; 'जोइणो जै, खं ३. (१५) होइ जै. (१६) य खं २; ओ पू २; क्षत पा १, पू १. (१७) संवेग जै. (१८) पख पा १, पू १. (१९) देट्ठा पू २. (२०) अत्येण सर्वत्र. (२१) कागाणं पा १. (२२) कणय खं २. (२३) मालाओ पा २. (२४) क्खवलियाणं पा २. (२५) कजुउवएस पा १; कज्जुब्बएसपू १. (२६) सयम जै, खं २, पा २; सइयम पा २; समय पू २. (२७) मणी य स पा २, पू २. (२८) साहस्सा पू २. (२९) आइज्झइ जै, खं १, खं २, पा १, पू १; आयज्झइ पा २. (३०) कोच्छु जै, खं १, खं ३, पा १, पा २, पू २; कुच्छु हेयो; कुच्छ खं २. (३१) "हासस्स पा २. (३२) ब्व पा १. (३३) वउ पू१, पू २. (३४) इमं पा २, (३५) सलं पू २. (३६) धम्ममि पू १. (३७) सीइजे जै. (३८) कम्माई सर्वत्र. (३९) गुरुयाइं पा २, गुरु आहे पू २. (४०) मुक्खेसु पू १, पू २; "मोक्खेहिं खं २, खं ३, पा १, पा २. (४१) जहि पा २, पू १. (४२) जहि पा २, पू १. (४३) वेरग्गेग्गंतरसं जै, खं १, पा २; वेरम्गकंतरसं पा १; वेरम्गेम्गंतरसं पू १. (४४) यम खं २. (४५) सूव्वं पू १. (४६) सुवेइ पू २. ७६ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजमतवालसाणं वेरग्गकहा न' होइ कन्नसुहा । संविग्गपक्क्यिाणं होज व केसिंचि नाणीणं' ।।५३३ ।। सोऊण पगरणमिणं धम्मे जाओं न उज्जमो' जस्स । न य जणियं वेरग्गं जाणिज' अणंत संसारी ।।५३४।। कम्माण सुबहुयाएं समेण उवगच्छई इमं सव्वं । कम्ममलचिक्कणाणं वच्चइ पासेण भन्नत' ।।५३५।। उवएसमालमेयं जो पढइ सुणई१२ कुणइ वा हियए । सो जाणइ अप्पहियं नाऊण सुहं समायरइ ।।५३६ ।। धंतमणिदामससिगयनिहिं पयपढमक्खराभिहाणेणं । उवदेसमालपगरणमिणमोरइयं हियट्ठाए ।।५३७ ।। जिणवयकप्परूक्खो अणेगसुत्तत्था' सालवित्थिन्नो । तवनियमकुसुमंगुच्छो२२ सोगैइफलबंधणो जयइ ।।५३८।। जोग्गा" सुसाहुवेरग्गियाण परलोग पत्थियाणं५ च । संविग्गपक्खियाणं दायव्वा बहुसुयाणं८ च ।।५३९ ।। (१) सु पू १. (२) संवेग जै. (३) परिव पा १. (४) नाऊणं पू १. (५) जाउ पा २, पू १. (६) उजुमो खं २. (७) जाणिजइ पू २; जाणेज खं १, पा २; तं जाण जै. (८) 'याणवि' पा १, पा २; 'याणव' पू १; °आणुव पू २. (९) समेणं खं १. (१०) समं पा १; सम्म जै. (११) भन्नत्तं पू १; भण्णत जै. (१२) 'मेअं पू २; "मेवं जै. (१३) सुणेइ खं २. (१४) गुणइ पू १; करेइ खं १. (१५) "णिहि खं ३, पू २; निहित जै. (१६) क्वराभिहाणेण खं १, खं ५; क्खराणनामेण खं २, खं ३, पा २; क्वराणनामेणं पा १. (१७) उवएस जै, खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २, पू १. (१८) रईयं पा १, पा २. (१९) 'सत्यत्य खं १, खं ३, पा १, पा २, पू १; सुत्यत्य खं २; सत्य जै. (२०) वित्थिण्णो पा १. (२१) 'कुसम पू १. (२२) गोच्छो खं १, खं २, खं ३, पा १, पा २; "गुछो जै. (२३) सोग्गइ खं १, पा १, पू १, पू २. (२४) जोगा खं १, खं २, खं ३, पा १, पू १; जुग्गा दो. (२५) “पट्ठियाणं खं १. (२६) संवेग्ग' जै. (२७) पख° पू १. (२८) सुआणं पू २. ७७ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इय धम्मदास गणिणा जिर्णवणुवएसकजमालाए । मालम्ब विविहंकुसुमा कहिया उ' सुसीसंबग्गस्स ।।५४ ।। संतिकरी वुद्धिकरी कल्लाणकरी सुमंगलकरी' य" । होउ कहगस्स परिसाएँ तह य निव्वाण'" फलदाई" ।।५४१ ।। एत्थ६ समप्पइ इणमोणो माला उवएसपगरणं पगयं । गाहाणं सव्वाणं पंचसया चेव चालीसा ।।५४२ ।। जाव य लवणसमुद्दो जाव य" नक्वत्तमंडिओ मेरू । ताव य७ रइया८ माला जयंमि थिरथावरा होउ ।।५४३ ।। अक्खरमत्ताहीणं जं चिय पढियं" आयाणमाणेणं । तं रखमउ मज्झ सव्वं जिणवयणविणिग्गया वाणी ॥५४४।। - (१) जिणु पा १. (२) वयण पा १, पू २. (३) मालाओ पा १. (४) मालुब्व पू २; मालाओ जै. (५) विहिय' खं २; विवह पा १. (६) कहीया पू १. (७) ओ जै, पू २; क्षत खं २, पा १, पा २, पू १. (८) सुसाहु पू २; सुस्सीस पू १. (९) बुढिकरी पा २; बुडकरी पू २. (१०) 'कली पू २. (११) उ पा १. (१२) होओ पू २; होई पू १. (१३) परिसाए जै, खं १, खं ३, पा १, पू १; पुरिसाए पू २; उपरिसाए पा २. (१४) नेव्वाण जै. (१५) दाइं पा २, दाए पू १. (१६) इत्थ खं २, पा १, पू २; इथ पा २. (१७) समप्प पू २. (१८) पिगयं पू १; प्पगयं जै. (१९) गहाणं पू २. (२०) सव्वगं जै, खं १, खं ३, पा १; संविगं पू २; संवेगं पू १. (२१) चेया पू २. (२२) बायाला पू २. (२३) इ पा १. (२४) इ पा १. (२५) नखत्त खं २, खं ३. (२६) मंडिउ पू १. (२७) इ पा १. (२८) रईया पा १, पू १. (२९) विर पा २. (३०) होइ खं ३; होओ पा २. (३१) गुणियं खं ३. (३२) 'माणेण खं २. (३३) खमह पू २. ७८ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ १५५ ४४५ ११२ २५५ ४९८ १३५ १३७ गाथानुक्रमणिका ६८ अरहंतचेइयाणं १६८ अरहंता भगवंतो ४९ अलसो सढोवलितो १३६ अवरोप्पसंबाहो ५४४ अवि इच्छंति य मरणं ५२२ अविकत्तिऊण जीवे १८७ अवि नाम चकवट्टी असंजएहिं सव्वं ३७० अह जीवियं निकिंतइ ४८६ अहमाहयत्ति न य पडिहणंति १३ अहियं मरणं अहियं १४१ आउं संवेलंतो ९७ आजीवगगणनेया २१६ आजीवसंकिलेसो २२४ आणं सव्वजिणाणं ४१५ आणाए चिय चरणं आमुकजोगिणो चिय आयरतरसम्माणं ४१४ आयरिय भत्तिरागो १८५ आरंभपायनिरया २३ आलावो संवासो २५२ आसन्नकालभव ४१२ आसायण मिच्छत्तं १६६ आहारेसु सुहेसु य १४३ इंदियकसायगारव ३२५ इच्छइ य देसियत्तं ७९ अइसुट्ठिओ ति गुण अंगारजीववहगो अंतेउर-पुर-बल-वा उकोसण-तजण अक्खरमत्ताहीणं अञ्चणुरत्तो जो पुण अचियवंदियपूहय अट्टहासकेली अट्ठमछट्टचउत्थं अणवट्ठियं मणो जस्स अणुगम्मए भगवई अणुराएण जइस्स वि अणुवत्तगा विणीया अणुसिट्ठाय य बहुविहं अन्नोन्न जंपिएहिं अपरिच्छियसुयनिहसस्स अपरिस्सावी सोमो अप्पहियमायरंतो अप्पागमो किलिस्सइ अप्पा चे दमेयव्वो अप्प जाणइ अप्पा अप्पेण वि कालेणं अबहुस्सुओ तवस्सी अभिगमणवंदणनमंसणेण अमुणिय-परमत्थाणं अरसं विरसं लूहं ४५९ २८२ ५२८ ५२४ २२३ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ १२७ ७७ २२८ ३५० १९३ ३५२ و ४९४ ५२३ س २८० ३६६ इत्थिपसुसंकिलिटुं इय गणियं इय तुलियं इय धम्मदासगणिणा इह लोए आयासं ईसा विसायमयको इ उग्गाइ गाइ सइ य उच्चारपासवणखेल उच्चारपासवणवंत उच्चारे पासवणे उच्छूटसरीरधरा उज्झेज अंतरे चिय उड्डमहतिरियलोए उत्तमकुलप्पसूया उवएसं पुण तं देंति उवएसमालमेयं उवएससहस्सेहि वि उज्वेवओ य अरणामओ उस्सुत्तमायरंतो एए दोसा जम्हा गीय एएसु जो न वट्टेज एकं पि नत्यि जं एकरस कओ धम्मो एगंतनीयवासी एगदिवसं पि जीवो एगदिवसेण बहुया एगामी पासत्था एत्थ समप्पइ इणमो एयंपि नाम नाऊण ३३४ एवं तु पंचहिं ४८१ एवमगीयत्थो वि हु ५४० एस कमो नरएसु वि ओवीलण-सूयण २८७ ओसन्न वरणकरणं ३७३ ओसन्नया अबोही ३०० ओसन्नविहारेणं १५९ ओसन्नस्स गिहिस्स व ३६७ ओसन्नो अत्तट्टा कंचणमणिसोवाणं २५४ कंताररोहमद्धाणं ३३९ कइया वि जिणवरिंदा १५४ कवडदाहं सामलि कज्जेण विणा ओग्गह ५३६ कजे भासइ भासं ३१ कडुय-कसाय-तरूणं ३१८ कत्तो चिंता सुचरिय २२१ कत्तो सुत्तत्थागम ४११ कप्पाकप्पं एसणमणेसणं ३१० कम्माणसुबहुयाणुवसमेण ४६८ कम्मेहि वजसारोवमेहि १५६ कलहणकोहणसीलो १११ कलुसीकओ य किट्टीकओ कह उ जयंतो साहू १६० कह कह करेमि कह मा ३८७ कह तं भन्नइ सोक्खं ५४२ कह सो जयउ अगीओ ३२२ काऊण संकिलिटुं و ३६ و ५३५ २४९ ३९९ ४७५ ४०८ २५३ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारणनीयवा कारणविऊ काई कारुण्णरुण्ण-सिंगार कालस्स य परिहाणी कि आसि नंदिसेणस्स किं परजणबहुजाणा किंपि कहिंप काई किं मूसगाण अत्येण किं लिंगविड्डरी किं सका वोतुं जे किमगं तु पुणो जेणं कीवो न कुणइ लोयं कुच्छा चिलीणमलनसंकडेसु कलघरनिययसुहेसु य कुसमयसुईण महणं केइ सुसीलसुहम्माइ के एत्थ करेंतालंबणं सिचिं परोलोगो केसिंचि वरं मरणं केहि विव्वं खयं कोडीसएहिं धन-सं को तेण जीवरहिण को दाही वसं को दुक्खं पावेजा कोहो कलहो खारो कोहो माणो माया खरकरहतुरगवसभा स्वेताईयं भुंजइ गच्छगओ अणुओगी गयकण्णचंचलाए गामं देतं च कुलं २९४ गारवतियपडिबद्धा ५३ गिरिसुयपुप्फसुयाणं गीयत्थं संविग्गं ११० ९५ १०७ २० १८० ५२९ गुणदोसबहुविसेसं गुणहीणो गुणरयणागरेसु गुज्झोरु-वयण-कक्खोरु ४३६ ३५ गुरुगुरुतरो य अइगुरु गुरुपच्चक्खाणगिलाणं ४८२ ३५६ ३२१ १५२ २७१ दोव्व कालपक् १६७ चरणइयारो दुविहो १७९ ४४० ४३९ ४९६ ४८ २५७ ४९० १२९ ३०२ ३०१ १८३ ३६२ गुरुपरिभोगं भुंजइ धेत्तूण व सामन्नं घोरे भयागरे सागरम्मि चरणकरणपरिहीणो चरणकरणालसाणं चार निरोगवहबंध चिंतासंतावेहि य चोरिक - वंचणा - कूड छक्कायरिऊण असंजयाण छज्जीवकायवहगा छज्जीवकायविरओ छज्जीवनिकाय - दया छज्जीवनिकाय छलछोमसंवइयरो छेओ भेओ वसणं ८१ ३८८ ३२ ३५७ ४२२ २२७ ३७६ ३१५ ३५१ ३३७ १४२ ३७८ ३७७ २५९ ३१४ ४७७ ३९६ ४२८ ५३० २८३ २८४ ४५७ ४३५ ८२ ४४१ ४३० ४२९ ३०७ ५० Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ३४३ ३२३ ४०१ ४०५ २७३ १३२ ५१८ जइ गिण्हइ वयलोवो जइ ठाणी जइ मोणी जइ ता असकणिजं जइ ता जणसंववहार जइ ता तण-कंचण लेछु जइ ता तिलोगनाहो जइ ता लवसत्तमसुर जइ ताव सब्बओ जइ दुकर-दुकर जइ न तरसि धारे जइयाणेणं व जइ सव्वं उबलद्धं जं आणवेइ राया जं जं नजइ असुहं जं जं समयं जीवो जं जयइ अगीयत्थो जं तं कयं पुरा जंतेहि पीलिया विहु जं न लहइ सम्मत्तं जगचूडामणिभूओ जग्गेण जलं पीयं जस्स गुरम्मि न भत्ती जस्स गुरुम्मि परिभवो जह उजमिउं जाणइ जह कच्छुल्लो कच्छु जहा खरो चंदण भारवाही जह चकवट्टि साहू जह वयइ चक्कवट्टी २२२ जह जह कीरइ संगो ६३ जह जह खमइ सरीरं ३४४ जह जह बहुस्सुओ ७१ जह जह सव्वुवलद्धं ४५८ जहट्ठियदब न याणइ ४ जहठियखेत्त न याणइ २९ जह दाइयम्मि वि पहे ६७ जह नाम कोइ पुरिसो ६६ जह मूलताणए पंडुरम्मि ५०१ जह वणदवो वणं दवदवस्स ४३४ जह सरणमुवगयाणं ४८३ जह सुरगणाण इंदो __७ जाईए उत्तमाए २०९ जाइकुलरूवबलसुय २४ जाणइ य जह मरिजइ ३९८ जाणइ य जहा भोगिड्डि १०९ जाणिजइ चिंतिजइ ४२ जायम्मि देह-संदेहयम्मि १२४ जाव य लवणसमुद्दो __ २ जावाउ सावसेसं २०० जिणपहअपंडियाणं ७५ जिणवयण कप्परुक्खो २६३ जिणवयण-सुइ-सकण्णा ४२० जियकोहमाणमाया २१२ जीयं काऊण पणं ४२६ जीवंतस्स इह जसो ५८ जीवेण जाणिय १७१ जीवो जहा मणसियं ३३१ ३३० २०५ द. २०४ ३४५ २५८ ५३८ ९० M १०५ ९८ १८९ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुगमेत्तंतर दिठ्ठी जे घरसरणपसत्ता जेव्वयपव्वयभर जे ते सव्वं लहिउं जो अविकलं तवं जो आगलेइ मत्तं जोइसनिमित्त अक्खर जो कुणइ अप्पमाणं जो गिन्हड़ गुरुवयणं जोग्गा सुसाहुवेरग्गियाण जो वंदणेण बाहु जो वयइ उत्तरगुणे जो जस्स वट्ट हियऍ जो जहवायं न कुणइ जो न वि दिणे दिणे जो निच्चकाल-तव जो निच्छरण गिues जो नियमसीलतव जो पुण निरोि जो भासुरं भुयंगं जो वि य पाडेऊणं जो सुत्तत्थविणिच्छिय जो सेव किं लभई जो होज उ असमत्थो ठवणकुले न ठवेई ठाणं उच्चच्चरं तं सुरविमाणंविभवं तम्हा सव्वाणुन्ना २९६ तवकुलछाया- - भंसो २२० तवनियमसीलकलिया ६२ तवनियमसुट्टियाणं ४९९ तह छक्काय महव्वय १७१ तह वत्थपायदंडग ३१२ तह पुव्विं किं न कयं ११५ तहवि य सा रायसिरी ६१ तिरियाकुसंकुसारावा ९६ तिव्वयरे उ पओसे ५३९ ते धन्ना ते साहू ९२ तो पढियं तो गुणियं ११७ तो बहुगुणनासाणं ८४ तो हयबोही पच्छा ५०४ ४८० ३४० ११८ थद्धा छिप्पेही थद्धो निरूवयारी थेवेण वि सप्पुरिसा थेवो वि गिहिपसंगो ४५५ दगपाणं पुप्फफलं ४९३ दट्ठूण कुलिंगीणं ३११ दडूजउमकज्जकरं ३८६ दढसीलव्वयनियमो ४३७ दव्वं खेतं कालं २११ ३८३ दस-दस दिवसे दिवसे दावेऊण धणनिहिं ३६३ दिणदिक्खियस्स दमगस्स २६२ दिव्वालंकार विभूसणाणि २८६ दीसंति परमघोरा ३९२ दुकरमुद्धोसकरं ८३ ३२७ २४६ ४४३ ४३२ ४४७ १४० १८ २८१ १७८ ५९ ६४ १२५ ४३३ ७४ २७ २८ ११३ ३४९ २३२ ४८९ २३४ ४०० २४८ २६१ १४ २७७ ३८ ८८ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ २७९ २७४ ४४२ १२६ ३९४ ३५८ १९८ ४२५ ४२३ दुजणमुहकोदंडा दुपयं चउप्पयं बहुपयं देवाण देवलोए देवा वि देवलोए देवेहि कामदेवो देवो नेरझ्यो ति य देसियराइयसोहिं देहो पिपीलियाहिं दो चेव जिरवरेहि दोससयमूलजालं धंतमणिदामससिगय धम्म पि नाम नाऊण धम्मं रक्खइ वेसो धम्मकहाओ अहिजइ धम्मत्थकाममो क्वेसु धम्म-मइएहि अइसुंदरेहि धम्ममिणं जाणंता धम्मम्मि नत्थि माया धम्मो पुरिसप्पभवो धम्मो मएण हुंतो धिद्धि अहो अकजं न करेइ पहे जयणं न करेंति जे तवं न करेमि ति भणित्ता न कुलं एत्थ पहाणं न चइजइ पाले न तहिं दिवसा पक्खा नमिऊण जिणवरिंदे १३८ न य नजह सो दिवसो २०६ नरएसु जाइँ अइक्खडाइँ २७८ नरएसु सुरवरेसु य २८५ नरयगइगमणपडिहत्थए १२१ नरयत्थो ससिराया ४५ नरयनिरुद्धमईणं ४१३ न वि एत्थ कोवि नियमो १७४ न वि तं कुणइ अमित्तो ४९१ न वि धम्मस्स भडका ५१ नहदंतकेसरो मे ५३७ नहदंतमंसकेसट्ठिएसु २८८ नाऊण करयलगयामलं २२ नाणं चरित्तहीणं ३७४ नाणाहिओ वरतरं ५३२ नाणाहियस्स नाणं १०४ नाणे दंसण चरणे १२० नाहम्मकम्मजीवी ३९३ निक्खमणनाणनिव्वाण १६ निगंतूण घराओ २५ निचं दोससहगओ १२८ निचं पवयणसोभा ३६८ निचं संकियभीओ ८६ निच्छयनयस्स ५०७ निच्छोउण-निभच्छण४४ निब्बीए दूभिक्खे ५ निम्ममनिरहंकारा ४७९ नियगमइविगप्पियचिंतिएण १ नियया वि निययकजे ४२४ २१८ २३५ २३६ م م ३४७ २२६ ५१२ ३०३ ه ه १५१ ८४ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ ३५३ २०१ र ५७ निहयाणि हयाणि य निहिसंपत्तमहन्नो नीयं गिण्हइ पिंडं पंचसमिया तिगुत्ता पंचेंदियत्तणं माणुसत्तणं पंचेव उज्झिउण पडिरूवो तेयस्सी पडिवजिऊण दोसो पडिसेवणा चउद्धा पढइ नडो वेरगं पढमं जईण दाऊण पणमंति य पुवयरं पत्ता य कामभोगा पत्थरेणाहओ कीवो परपरिवायं गिण्हइ परपरिवायमईओ परपरिवायविसाला परिचिंतिऊण निउणं परिणामवसेण पुणो परितप्पिएण तणुओ परतित्थियाण पणमण परिभवइ उम्गकारी परियच्छंति य सव्वं परियट्टिऊण गंथत्थ पलिओवमं संखेनं पवराई वत्थपायासणो पव्वावणविहिमुट्ठावणं पहगमणवसहिआहार ३२९ पागडिय-सव्वसल्लो १८१ पाणचए वि पावं ३७१ पाय पहे न पमजइ ३९१ पाविजइ इह वसणं ४६६ पावो पमायक्सओ २१७ पासत्थोसन्नकुसीलनीय १० पीयं थणयच्छीरं ३४ पुण्णेहि चोइया पुरवडेहि ४०४ पुष्फिय-पलिए तह पिउ ४७४ पुरनिद्धमणे जक्खो २३८ पव्वरयाणुस्सरणं पुब्बिं चक्खं परिक्खिय २०२ पेलजेसणमेवको १३९ फरुसवयणेण दिणतवं फुडपागडमकहेंतो ७३ बहुदोससंकिलिट्ठो बहुसोक्खयसहस्साण ५११ बायालमेसणा ओ १३३ बायालमेसणाओ १९६ बारस बारस तिन्नि य २३७ बालोत्ति महीपालो ३७२ भजा वि इंदियविगार ८३ भदो विणीयविणओं ४७३ भयसंखोहविसाओ २७५ भावचणमुम्गविहारया ३२४ भावे हट्ठगिलाणं ४१८ भिक्खू गीयमगीए ३७९ भीओबिगनिलुको ४६१ ३५४ २९८ ३७५ or १४८ ४ ३२० ३९५ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगे अभुंजमाणा मउया निहु सहावा मणिकणगरयणधण महवय अणुब्वयाई महिलाण सुबहुयाण महुरं निउणं योवं मा कुणउ जड़ तिमिच्छं माणंसिणो वि अवमाण माणी गुरुपडीओ माणो मयहंकारो वि माया कुडंगिपच्छन्न माया नियगम विगप्पयम्मि माया पिया य भाया मिण गोणसंगुलीहिं मुका दुजणमेत्ती मुच्छा अइबहुधण लोभया मोल कुदंडगा रजाई जाई उन्ति य दमगोति य रायकुले विजाया राया जिणवरचंदो यह य दवदवाए रूवेण जो व्वणेण य रूसइ चोइज्जतो लद्धिलियं च बोहिं लण तं सुइसुहं लुद्धा सकज तुरिया लो वि कुसंसग्गिप्पियं १२२ ७९ ८५ ५०९ १९ ८० २४५ ३०९ ४४६ लोए वि जो ससूगो लोभो अइसंचयसीलया वंदइ उभओ काले वंदइ न य वंदावड़ वंदइ पडिपुच्छड़ ३४६ ७८ १३० ३०४ वरं मे दमिओ अप्पा ३०६ वरमउडकिरीडधरो १४५ वरिससयदिक्खियाए १४४ वसहीसयणासण ९४ ४५१ ४६ ५६ ४९७ ३६४ १५३ ७६ २९२ ४५३ १५० २२५ वंग्धमुहम्मि अइगओ वच्चइ खणेण जीवो वजेंतो य विभूसं वथिव्व वायपुण्णो वह - बंध- मारण- सेह वहमारण अब्भक्खाण वाससहस्सं पि जई विकहं विणोयभासं विग्गह- विवाय-रूणो विज्जं मंतं जोगं विजाए कासवसंतियाएँ विजाहरीहिं सहरिस विओ आवहइ सिरिं विणओ सासणे मूलं विरया परिग्गहाओ विरया पाणिवाओ विसयविसं हालहलं ८६ विसयसुहरागक्सओ विसयासिपंजरम्मि व ५०८ ३०८ २३० ५१६ २३३ ४७२ ४६५ ३३६ ३८१ १८४ ४५० १५ २४० ५२ १७७ २५१ ४८५ ७० ३६५ २६७ ५४ ३४२ ३४१ २४४ २४३ २१३ १४७ ६ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसवेल्लिमहागहणं बुडावासे विठियं वेजपो जह जह सो वि अप्पमाणो वेसं जुन्नकुमारिं वोत्तूण वि जीवाणं संघयणकालबा संजमतवालसाणं संजोय झइबहुयं झगजलबुम्बु ओव संतिक वुड्डिक संतेवि कोवि उज्झड् संपागडप झवी संवच्छर-चाउम्मासिएसु संवच्छरमुस भजिणो संवाहणस्स रनो संविग्गमक्खियाणं संसारचारए संसारमणवयगं संसारखंचणा न वि संसारसागरमिणं संसारो य अणंतो सच्छंदगमणउट्राण सच्छंदगमणउट्ठाण सज्झाएण पसत्यं सट्ठि वाससहस्सा सद्दहणायरणाए सहसु न रज्जेज्जा ३१३ ९९ ४८८ समिईकसायगारव २१ सम्मत्त-दायमाणं १६२ ३३ २९३ ५३३ ३६९ २०८ ५४१ ३७ सव्वगईपक्खदे सपरकम- राउल सभावो वीसंभो ३८० ३८२ ३३८ ८१ २१९ ३२८ सम्मत्तम्मि उ लद्धे सम्मही विकया गमो सम्म विजिलो सविटुं कुब्भडरूवा सव्वंगोवंग - विमत्तणाओ ८७. सव्वं ति भाणिऊणं सव्वं थोवं उवहिं ४२७ २४१ सव्वजिणप्पडिकुटुं ३ १७ ५१४ २८९ ३३२ १७० ५२१ ५०६ साहंति य फुडवियडं साहू कतारमा साहूणं अप्परुई साहूण कप्पणिजं सव्वगाणं पभवो सव्वाओगे जह कोइ सव्वो गुणेहि गन्न सव्वो न हिंसियव्वो सारणचया जे सारी माणसाणं सावज्जजो गयपरिवजगाएँ सासयसोक्खतरस्सी साहू चेयाण य सिढिलो अणायरकओ सिप्पाणि य सत्थाणि य ५५ ११४ २९५ २६९ २७० १६४ २६८ १६३ १४६ ५०३ ३६१ २१५ २१० १६१ ४३१ ४५६ ४६३ - ५२५ २६४ ५१९ १४९ ४७१ ४१ ३१७ २३९ २४२ ४७६ ४२१ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ३१९ २६५ २६० ३८४ सीउण्ह-खुप्पिवासं सीएज कयाइ गुरू सीलव्वयाइं जो बहुफलाइँ सीसायरियकमेण य सीसावेढेण सिरम्मि सीहगिरिसुसीसाणं सीहासणे निसन्नं सुंकाईपरिसुद्धे सुंदर-सुकुमालसुहोइएण सुज्झइ जई सुचरणो सुछु वि उज्जममाणं सुछु वि जई जयंतो सुतवस्सियाणपूया सुते य इमं भणियं सुद्धं सुसाहुधम्म सुपरिच्छिसम्मत्तो सुबहुं पासत्यजणं सुमिणंतराणुभूयं सुरवइसम विभूई सुविणिच्छियएगमई सुविहियवंदावेंतो सस्सूसई सरीरं सुहिओ न वयइ भोए सूरप्पमाणभोई सूलविसअहिविसूइय सेसा मिच्छट्टिी सेसुकोसो मज्झिम सो उग्गभवसमुद्दे ११९ सोऊणगई सुकुमालियाएँ २४७ सोऊण पगरणमिणं १८८ सोगं संतावं अद्धिइं ४१९ सोग्गइमग्गपईवं ९१ सोच ते जियलोए . ९३ सोवइ य सव्वराई २६६ सो वि य निययपरकम ५२७ हत्थे पाए निखिवे ८७ हा जीव पाव भमिहिसि ५१३ हिमवंतमलयमंदर ७२ हियमप्पणो करें तो ३३३ हीणस्स विसुधपरुवगस्स १६५ हीणस्स विसुद्ध ४०९ हीला निरोवयारितणं ५१५ होज व न व देहबलं ४८४ १९४ १९९ ४५४ ३४८ ५२६ ३०५ २७२ ५१० م ه २३१ २२९ ३२६ १७२ ३५५ و که ३९७ १६९ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची १. आचारांग आगमोदय समिति, बम्बई, मेहसाना १९१६. २. आचारांगचूर्णि ऋषभदेव केशरीमल, रतलाम १९४१. ३. आचारांगनियुक्ति आगमोदय समिति, बम्बई, महेसाना १९१६. ४. आचारांगवृत्ति शीलांकचार्य आगमोदय समिति, बम्बई, महेसाना १९१६. ५. अन्तकृद्दशांग आगमोदय समिति, बम्बई, महेसाना १९२०. ६. अनुत्तरोपपातिक ___ आगमोदय समिति, बम्बई, महेसाना १९२०. ७. औपपातिक आगमोदय समिति, बम्बई, महेसाना १९१६. ८. आवश्यक कृषभदेव केशरीमल, बम्बई, रतलाम १९३५. ९. आवश्यकभाष्य विजयदनसूरि जैन सिरीज, सूरत १९३९-४९. १०. आवश्यकचूर्णि कृषभदेव केशरीमल, रतलाम १९२९-९. ११. आवश्यकवृत्ति हरिभद्र आगमोदय समिति, बम्बई १९१६-७. १२. आवश्यकवृत्ति मलयगिरि आगमोदय समिति, बम्बई १९२८-३६. १३. आवश्यकनियुक्ति विजयदत्तसूरि जैन सिरिज, सूरत १९३९-४१. म १९३५. ८९ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. भगवतीसूत्र आगमोदय समिति, बम्बई १९१८-२१. १५. भगवतीसूत्रवृत्ति अभयदेव आगमोदय समिति, बम्बई १९२१. १६. भक्तपरिज्ञा आगमोदय समिति, बम्बई १९२१. १७. बृहत्कल्पभाष्य जैन आत्मानंद सभा, भावनगर १९३३-४२. १८. बृहत्कल्पवृत्ति क्षेमकीर्ति जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर १९३३-४२. १९. बृहत्कल्पवृत्ति मलयगिरि जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर १९३३. २०. दशवैकालिक देवचन्द लालभाई सिरिज, बम्बई १९१८. २१. दशैवैकालिक भाष्य देवचन्द लालभाई सिरिज, बम्बई १९१८. २२. दशवकालिक चूर्णी ऋषभदेव केशरीमल, रतलाम १९३३. २३. दशवकालिकवृत्ति- हरिभद्र देवचन्द लालभाई सिरिज, बम्बई १९१८. २४. दशवकालिक नियुक्ति आगमोदय समिति, बम्बई १९१८. २५. गच्छाचार प्रकीर्णकवृत्ति - 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Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. नन्दीसूत्रवृत्ति मलयगिरि आगमोदय समिति, बम्बई १९२४. ४३. निरयावलिका जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर वि. सं. १९९०. ४४. निशीथसूत्रभाष्य सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा १९५७-६०. ४५. निशीथसूत्रचूर्णी सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा १९५७-६०. ४६. ओघनियुक्ति आगमोदय समिति, बम्बई १९१९. ४७. पाक्षिकसूत्रवृत्ति यशोविजय देवचन्द लालभाई सिरीज, बम्बई १९११. ४८. पिण्डनियुक्ति देवचन्द लालभाई सिरिज, बम्बई १९१८. ४९. पिण्डनियुक्तिभाष्य देवचन्द लालभाई सिरिज, बम्बई १९१८. ५०. पिण्डनियुक्तिवृत्ति मलयगिरि देवचन्द लालभाई सिरिज, बम्बई १९१८. ५१. प्रज्ञापना आगमोदय समिति, बम्बई १९१८-९. ५२. प्रज्ञापनावृत्ति- हरिभद्र ऋषभदेव केशरीमल, रतलाम १९४७. ५३. प्रश्नव्याकरण आगमोदय समिति, बम्बई १९१९. ५४. राजप्रश्नीय गूर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदाबाद वि. सं. १९९४. ५५. राजप्रश्नीय वृत्ति मलयगिरि गूर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदाबाद वि. सं. १९९४. ९२ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. समवायांग आगमोदय समिति, बम्बई १९१८. ५७. समवायोगवृत्ति अभयदेव • आगमोदय समिति, बम्बई १९१८. ५८. संस्तारक आगमोदय समिति, बम्बई १९२७. ५९. स्थानांग आगमोदय समिति, बम्बई १९१८-२०. ६०. स्थानांगवृत्ति- अभयदेव आगमोदय समिति, बम्बई १९१८-२०. ६१. सूत्रकृतांगचूर्णी ऋषभदेव केशरीमल, रतलाम १९४१. ६२. सूत्रकृतांगनियुक्ति पूना १९२८ ६३. सूत्रकृतांग वृत्ति-शीलांक . आगमोदय समिति, बम्बई १९१७. ६४. तीर्थोद्गारित मु. पुयविजय के द्वारा तैयार की गयी हस्तप्रत से ६५. उपासकदशांग आगमोदय समिति, बम्बई १९२०. ६६. उत्तराध्ययन जीवराज घेलाभाई दोषी, अहमदाबाद १९३५. ६७. उत्तराध्ययनचूर्णी ऋषभदेव केशरीमल, रतलाम १९३३. ६८. उत्तराध्ययननियुक्ति लक्ष्मीचन्द जैन लाइब्रेरी, आगरा १९२३. ६९. उत्तराध्ययननियुक्ति देवचन्द लालभाई सिरीज, बम्बई १९१६. 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Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts, Jasel mer Collection Pub. L. D. Insti. of Indology, Ahmedabad, G. Editor by D. D. Malvania, 1972. pog. Discriptive Catalogue of the Government Collections of Manuscripts, Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona, Vol. .18. नोट : १ से ७७ तक के ग्रन्थों के नाम प्राकृत प्रापर नेम्स डॉ० एम० एल० मेहता और डॉ० के० आर० चन्द्रा, एल० डी० इन्स्टिट्यूट आफ इण्डोलोजी, अहमदाबाद-९, १९७० से उदधृत किये गये हैं । QO Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1600/ 600/ 600/250/ 200/ 30/ 120/ 150/ OUR PUBLICATIONS Catalogue of the Manuscripts of Patan Jaina Bhandara Parts I, II, III, IV संकलन कर्ता-स्व० मुनिश्री पुण्य विजयजी; संपादक-मुनि जम्बूविजयजी Makaranda : M. A. Mehendale Amrita : A. M. Ghatage A History of The Canonical Literature of the Jainas A Treasury of Jaina Tales : Prof V. M. Kulkarni Concentration : Virchand Raghavji Gandhi पातञ्जल योगदर्शन तथा हारिभद्रीय योगविंशिका : संपादक-पं० सुखलालजी तत्त्वार्थाधिगम सूत्र (सभाष्य) : श्रीमद् उमास्वाति प्रणीत, गुजराती अनुवाद धर्मरत्नकरण्डक : श्रीवर्धमान सूरि विरचित, संपादक-आ. मुनिचंद्र सूरि चन्द्रलेखा विजय प्रकरण : श्री देवचन्द्रमुनि प्रणीत, सं. आ. प्रद्युम्नसूरि शोधखोळनी पगदंडी पर : प्रो० हरिवल्लभ भायाणी उसाणिरुद्धं : ले. रामपाणिवाद; संपादक-वी. एम. कुलकर्णी मानतुंगाचार्य और उनके स्तोत्र : सं. : प्रा. मधुसूदन ढांकी और डॉ. जितेन्द्र शाह कल्पान्तर्वाच्य : लेखक-नगर्षिगणि (वि० सं० 1657), सं. प्रद्युम्नसूरि कवि समयसुन्दर : एक अभ्यास : लेखक : वसंतराय बी. दवे वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना : मुनिश्री कल्याण विजयजी उपदेशमाला : दीनानाथ शर्मा शब्दचर्चा : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी 250/ 50/ 150/ 70/ 130/ 50/ 125/ 100/ 100/40/ www.jainelibrary