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________________ चाण्डालपत्नी उसे अपने घर ले आयी । वहाँ मित्रदेव प्रकट होकर उसे चारित्र ग्रहण करने को कहा । मैतार्य ने कहा यदि सेठ मुझे फिर से अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर लें और राजा श्रेणिक अपनी कन्या दे दें तो मैं चारित्र अंगीकार कर लूंगा। देव ने उसके घर में रत्नों की विष्टा करनेवाला बकरा बाँध दिया । जिससे चाण्डाल बहुत समृद्ध हो गया । चाण्डाल ने रत्नों का थाल भरकर श्रेणिक राजा को भेंट दिया । जब राजा को इसका रहस्य ज्ञात हुआ और उसने बकरा अपने घर लाकर बाँध दिया तो बकरा दुर्गन्ध विष्टा करने लगा । राजा को मैतार्य पर विश्वास हो गया। राजा ने कथनानुसार रात भर में राजगृही नगरी के चारों ओर स्वर्णिम किला, वैभारगिरि पर्वत पर पुल, गंगा, यमुना, सरस्वती और क्षीरसागर को प्रवाहित कर दिया । उसमें स्नान कर चाण्डाल मैतार्य ने राजपुत्री से शादी की और आठ वणिक् कन्याओं से भी शादी की । मित्रदेव ने उसे पुन: चेतावनी दी । उसने सुखोपभोग के लिए १२ वर्ष की मुहत माँगी । १२ वर्ष के बाद आने पर उसकी पत्नियों ने १२ वर्ष की मुद्दत माँगी । उसके बाद मैतार्य भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण कर लिये । विहार करते हुए एक बार वे राजगृही में एक सुनार के वहाँ पधारे । सुनार उस समय सोने के जौ बना रहा था । वह भिक्षा लेने गया । इतने में एक क्रौंच पक्षी आकर स्वर्णयवों को दाना समझ एक दाना निगल गया और पैड़ पर जा बैठा । मुनि ने उसे देख लिया था । भिक्षा देने के बाद सुनार ने जौ को ढूँढने लगा। न मिलने पर उसे मुनि पर शंका हुई । पूछने पर मुनि मौन रहे । उसने उनको ही चोर समझकर उनके मस्तक पर गीला चमड़ा बाँधकर धूप में खड़ा कर दिया । चमड़े के सूख कर सिकुड़ने पर मुनि को बहुत पीड़ा हुई और वे केवली होकर मोक्ष को प्राप्त हुए। उसी समय एक लकड़हारा लकड़ियों को उसके दरवाजे पर पटका जिससे डर कर पक्षी ने विष्टा किया और वह दाना निकल आया । सुनार यह देखकर बहुत दु:खी हुआ और प्रायश्चित्त करने के लिए भगवान महावीर के पास दीक्षा अंगीकार की और अन्त में सुगति प्राप्त की । २६. वाचनाचार्य वज्रस्वामी का दृष्टान्त वज्रस्वामी ने बाल्यकाल में ही साध्वियों के मुख से ११ अंगों का अध्ययन कर लिया था । ८ वर्ष की उम्र में दीक्षित होकर गुरु के साथ विहार करते हुए वे एक गाँव के उपाश्रय में ठहरे । एक दिन जब सब साधु भिक्षाचारी को गये हुए थे, वज्रस्वामी अपने चारों ओर मुनियों की स्थापना कर उच्च स्वर से आचारांगादि की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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