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वाचना देने का उपयुक्त अभिनय कर रहे थे । इतने में स्थंडिलभूमि को गये आचार्यश्री आ गये । उनका आगमन जानकर सब पूर्ववत् करके दरवाजा खोला । आचार्य स्वयं कुछ साधुओं को लेकर तथा अन्य साधुओं को वाचना देने का काम व्रजस्वामी को सोंप कर विहार करने चले गये । सभी मुनि उनकी वाचना से सन्तुष्ट थे। आचार्य के वापस लौटने पर भी उन मुनियों ने वज्रस्वामी से ही वाचना सुनने का आग्रह किया। २७. दत्तमुनि
कुल्लपुर नामक नगर में श्रमण संघ में कोई स्थविर आचार्य भविष्य में पड़नेवाले महान् दुष्काल को जानकर समस्त साधुओं को दूसरे देश में भेज दिया । स्वयं वृद्धावस्था से अशक्त उसी नगरी में रहे । गुरु सेवा के लिए दत्त नामक एक शिष्य वहाँ आया। पहले उसने उस मुनि को वहाँ ही देखा था। फिर देखा तो शंका हुई कि ये मुनि उन्मार्गगामी हैं । इससे वह दूसरे उपाश्रय में रहता और भिक्षा के लिए गुरु के साथ जाता । गुरुजी उसके मन के विचार जान गये । एक बार वे उसे एक सेठ के घर ले गये जहाँ व्यंतर प्रयोग के कारण एक बच्चा रो रहा था । गुरुजी ने चुटकी बजायी और व्यंतर भाग गया । बालक चूप हो गया । सेठ ने भिक्षा में लड्डू दिये । दत्त को वह लड्डू देकर गुरुजी ने उपाश्रय में भेज दिया । स्वयं नीरस आहार लाये और आलोचना करते समय दत्त से कहा आज तुमने धात्री पिण्ड का सेवन किया है इसलिए आलोचना ठीक से करना । दत्त को शंका हुई कि गुरुजी बड़े दोष न देखकर छोटे दोष देखते हैं । इस पर नाराज होकर शासनदेवी ने इतना अन्धकार फैलाया कि उसे कुछ भी नहीं दीखता था उसने गुरुजी से प्रार्थना की । गुरुजी ने अंगुली में थूक लगाकर ऊँची की जिससे वह दीपक के समान जलने लगी । दत्त को इस पर भी शंका हुई । इस पर शासनदेवी ने कठोर शब्दों में उसे डाँटा । तब दत्त पश्चात्ताप करता हुआ गुरु के चरणों पर गिर पड़ा और पापकर्म की आलोचना कर सद्गति पाया । २८. श्री सुनक्षत्र मुनि
एक समय श्रमण भगवान महावीर तथा गोशालक श्रावस्ती नगरी में पधारे। लोगों में गोशालक की सर्वज्ञ के रूप में चर्चा सुनकर गौतम ने भगवान से उसका परिचय पूछा । भगवान ने बताया – सरवण गाँव में मंखलि और भद्रा नामक पत्नीपत्नी से इसका जन्म गोशाला में हुआ था । युवावस्था में उसने मुझे चार महीने के
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