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________________ करते थे और बड़े होने पर एकान्त में मिला करते थे । सेठ से यह देखा न गया और उसने चिलातिपुत्र को घर से निकाल दिया । चिलातीपुत्र जाकर चोरों में शामिल हो गया और कुछ दिनों बाद उनका सरदार बन गया । एक दिन वह सब चोरों के साथ धनावह के यहाँ चोरी करने आया और सुसमा को भगाकर ले जाने लगा । धनावह सेठ ने अपने पुत्रों सहित उसका पीछा किया जब चिलातिपुत्र ने सुसमा को लेकर तेज भागना कठिन समझा तो उसने उसका सिर काट और उसे ही लेकर भग गया । धनावह सेठ यह देखकर वापस लौट आया । चिलातिपुत्र सिर लेकर पागलों की तरह इधर उधर घूम रहा था कि उसने एक ध्यानस्थ मुनि को देखा । उनसे उसने अपना धर्म पूछा । मुनि से धर्मोपदेश सुनकर प्रवज्या ग्रहण की । कर्मक्षय कर मरणोपरान्त देव बना । १३. श्री दंढगकुमार की कया । ढंढणकुमार अपने पूर्वजन्म में पाँच सौ हलधरों का अधिकारी था । उसने हलधरों तथा बैलों को आहार पानी के बिना सता सताकर इतना पाप किया कि मरकर चिरकाल तक अनेक भवों में भटकता रहा । तत्पश्चात् वह द्वारिका नगरी में कृष्ण वासुदेव के यहाँ ढंढणारानी की कुक्षि में पैदा हुआ । जवान होने पर धूमधाम से उसकी शादी हुई । एक बार भगवान अरिष्टनेमि के अपने शिष्य-समुदाय सहित द्वारिका नगरी पहुँचने पर ढंढणकुमार आदि के साथ कृष्ण वासुदेव उनके वन्दनार्थ पहुँचे । मुनि से धर्मदशना सुनकर ढंढणकुमार ने दीक्षा ग्रहण कर ली और विहार करने लगे । एक दिन भगवान् अरिष्टनेमि ने यह रहस्योद्घाटन किया कि पूर्वजन्म के अन्तरायकर्मों के कारण उसे शुद्ध आहार नहीं मिलता है । भगवान् के सलाह देने पर कि तुम दूसरे मुनि के द्वारा लाये गये आहार को ग्रहण मत करो, उन्होंने संकल्प किया कि जब तक अन्तराय कर्म का क्षय नहीं हो जाता, मैं स्वयं लाया हुआ आहार ही ग्रहण करूँगा । समभावपूर्वक भूख प्यास सहते हुए उन्हें बहुत समय बीत गया । एक बार श्रीकृष्ण वासुदेव वन्दनोपरान्त भगवान अरिष्टनेमि से उत्कृष्ट आराधना करनेवाले साधु का नाम पूछे । भगवान से ढंढणमुनि का नाम सुनकर उनके वन्दनार्थ वे हाथी पर आरूढ होकर चल दिये । रास्ते में ढंढणमुनि को देखकर नीचे उतरे और भक्तिभावपूर्व उनकी वन्दना की । उनको वन्दना करते देख एक वणिक ने महापुण्य के लाभार्थ भक्तिभावपूर्वक उनके पात्र में लड्डू दिये ।। स्वाभाविक रूप से प्राप्त आहार जानकर ढंढणमुनि के पूछने पर कि क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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