SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की कथा कही – मेरी युवावस्था में किसी ब्राह्मण कुमार से मेरी सगाई हुई, वह मुझे देखने आया । माता-पिता की अनुपस्थिति के कारण मैंने उसे वहीं पर गाड़ दिया, माता-पिता भी नहीं जान पाये । इस कहानी से राजा बहुत प्रसन्न हुआ और कन्या को पुरस्कृत किया । जम्बूकुमार ने कहा - तुम लोग बुद्धिमती होते हुए भी अहितकारी बात करती हो । मैं ललितांग की तरह मोह में फँसना नहीं चाहता सुनो - एक बार ललितांगकुमार वसंतपुर के शतप्रभ राजा की व्यभिचारिणी रानी रूपवती के साथ सहवास कर रहा था कि राजा के आने की खबर मिली । रानी ने उसे पाखाने के गन्दे कुँए में डाल दिया और राजा के साथ आमोदप्रमोद करती हुई उसे बाहर निकालना भूल गयी । बहुत दिन बाद वर्षाऋतु में जब वह बाहर निकला तो उसने कामवासना के चक्कर में न पड़ने की ठान ली । फिर एक बार उसी रास्ते पर जाते हुए उसने रानी के द्वारा बुलाये जाने पर साफ इन्कार कर दिया और सुखी हुआ । इस प्रकार की कथाओं से जम्बू ने अपनी पत्नियों को निरुत्तर कर दिया । जम्बू के साथ उनकी पत्नियाँ, माता-पिता तथा साथियों सहित प्रभव चोर ने भी धूमधाम से जैनेन्द्री दीक्षा सुधर्मा स्वामी के पास अंगीकार किये । १२. चिलातिपुत्र क्षितिप्रतिष्ठित नगर में यज्ञदेव नामक अनेक शास्त्रों में पारंगत एक ब्राह्मण रहता था । एक बार उसने प्रतिज्ञा कर ली कि विवाद में जो उसे जीत लेगा, वह उसका शिष्य बन जायेगा । उसने अनेक प्रतिवादियों को शास्त्रार्थ में जीत लिया लेकिन एक छोटे से साधु से हार गया । उसका शिष्य बन मुनि धर्म की दीक्षा धारण कर महावतों का पालन करने लगा । यद्यपि उसे मलपरीषह असह्य लगता था, लेकिन चारित्र नाश के भय से शरीर प्रक्षालन नहीं करता था । संयोग से भिक्षा के लिए वह अपनी पत्नी के यहाँ पहुँचा । पत्नी ने मोहवश उस पर सम्मोहन प्रयोग किया, जिससे उसका शरीर दुर्बल हो गया । अशक्तता के कारण उसने आमरण अनशन किया और देवलोक को प्राप्त हुआ । उसकी पत्नी भी पश्चात्ताप के कारण साध्वी दीक्षा ली और मरकर देवलोक पहुँची । देवलोक का आयुष्य पूर्णकर वह राजगृहनगर के धनावह सेठ की चिलाती नामक दासी से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ और उसकी पत्नी धनावह सेठ की सुसमा नामक पुत्रीरूप में पैदा हुई । एक दूसरे से बहुत प्यार ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy