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________________ आज मेरा अन्तराय कर्म समाप्त हो गया, मुनि ने रहस्य खोलते हुए उसे कृष्ण वासुदेव की लब्धि से प्राप्त बताया न कि अन्तराय कर्म के समाप्त होने पर । यह जानकर वे मोदकों को चूर-चूर करते हु उन्हें निरवद्य स्थान में प्रतिष्ठापन करने चल दिए । फलस्वरूप उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुए । १४. स्कन्दकाचार्य 2 श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा एवं पटरानी धारिणी के स्कन्दकुमार नामक पुत्र एवं पुरंदरयशा पुत्री थी । पुरन्दरयशा कुम्भकारकटक नगर के दण्डकराजा के यहाँ ब्याही गयी थी । जिसका पालक नामक पुरोहित था । एक बार आवश्यक कार्य से राजा के द्वारा भेजे जाने पर पालक जितशत्रु के दरबार में आया और धर्मचर्चा के दौरान स्कन्दकुमार के द्वारा निरुत्तर कर दिया गया । पालक वहाँ से वापस आया और बदला लेने की ताक में रहने लगा । एक बार श्रावस्ती नगरी में मुनिसुव्रत स्वामी के वैराग्यमय उपदेश सुनकर स्कन्दकुमार ने मुनिदीक्षा अंगीकार कर ली । बाद में उन्हें सकल सिद्धान्त का ज्ञाता जानकर भगवान ने ५०० साधुओं का आचार्य बना दिया। एक बार भगवान की आज्ञा लेकर अपनी बहन और बहनोई को प्रतिबोध देने के लिए स्कन्दकाचार्य अपने ५०० शिष्यों के साथ कुम्भकारकटक नगर पहुँचे । पालक पुरोहित उन्हें आते हुए जानकर वैर की भावना से उनके रहने योग्य वनभूमि में गुप्तरूप से अनेक हथियार गड़वा दिये । मुनि का आगमन जानकर राजा और नागरिक उनके दर्शनार्थ आये, धर्मोपदेश हुआ, सब आनन्दित हुए । दृष्टपालक ने राजा से एकान्त में कहा स्वामिन् ! यह तो पाखण्डी है । यह आपको जीतने के लिए आया है। उसने गाड़ा हुआ हथियार भी दिखाया जिससे राजा को विश्वास हो गया । राजा ने पालक को ऐच्छिक सजा देने का आदेश दिया । वह कोल्हू में एक - एक साधू को पेखाने लगा । ४९९ शिष्य पेर दिये गये बाकी एक छोटे शिष्य को पेरने ही जा रहा था कि स्कन्दाचार्य ने उसे मना किया, परन्तु वह नहीं माना और पेर दिया । इससे आचार्य ने नियाण किया कि मैं पालक राजा और पूरे नगर का विनाशक बनूँ । वे मरकर अग्निकुमार निकायदेव बने । उधर गिद्ध के द्वारा महल के आंगन में गिराये गये खून से लथपथ रजोहरण को देखकर पुरन्दरयशा घटना को भाँप गयी । उसने पालक को बहुत धिक्कारा और स्वयं साध्वी दीक्षा लेकर साधना करने लगी । अग्निकुमार निकायदेव बना स्कन्दकाचार्य का जीव अवधिज्ञान से कुम्भकारकटक नगर को देखा । देखते ही क्रोधान्ध होकर राजा, पालक सहित सारे प्रदेश को भस्म कर ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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