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दिन वहाँ कोई नवविवाहित वणिक् पुत्र अपने मित्रों के साथ आया । उसके मित्रों ने अनेक बार मजाक में मुनि से उस नवविवाहित को अपना शिष्य बनाने को कहा । इस पर नाराज होकर जबरजस्ती मुनि ने उस वणिक् पुत्र को पकड़कर उसका सिर लुंचित कर दिया" । उसके सभी मित्र भाग चले । नवदीक्षित शिष्य ने गुरुजी से कहीं अन्यत्र चलने को कहा । गुरुजी की चलने में असमर्थता को देखकर वह उनको अपने कन्धे पर बिठाकर अंधेरी रात में चल पड़ा । ऊँची नीची जमीन पर पैर पड़ने से रुदाचार्य क्रोधित होकर उसे कोड़े मारते थे । वह सब सहता हुआ जा रहा था । उसे केवल ज्ञान प्रकट हो गया । अत: अब वह सरलता से चलने लगा । गुरुजी को जब यह ज्ञात हुआ कि नवदीक्षित साधु को केवलज्ञान हुआ है तो वे अपने किये पर बहुत पछताये और उससे क्षमा मांगी । विशुद्ध ध्यान के कारण चण्डरुद्राचार्य को भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ । केवली अवस्था में दीर्घकाल तक विचरण करके दोनों मोक्ष को प्राप्त हुए ।
५२. अंगारमर्दकाचार्य
किसी नगर में विजयसेन नामक आचार्य के शिष्यों ने रात को स्वप्न में पाँच सौ हाथियों से घिरा हुआ एक सूअर देखा । सुबह निवेदन करने पर गुरुजी ने पाँच सौ शिष्यों सहित अभव्य आचार्य के आने का भविष्य कथन किया । इतने में रुद्रदेव अपने पाँच सौ शिष्यों सहित आ पहुँचे । दूसरे दिन विजयसेन ने उनके पेशाब करने की जगह पर कोयले बिछवा दिए । रात को जब उनके शिष्य पेशाब करने उठे तो कोयला चरचराने से जीव हत्या की शंका से पश्चात्ताप करने लगे । रुद्रदेवाचार्य भी पेशाब के लिए उठे । कोयला चरचराने से वे और दबाने लगे और कहे ये अर्हत् के जीव दबने के कारण पुकार रहे हैं । यह सुनकर विजयसेन ने रुद्रदेव को उनके शिष्यों से बहिष्कृत करवा दिया । वे शिष्य संयम की आराधना कर देव बने । वहाँ आयु पूर्ण कर वसन्तपुर में राजा दिलीप के यहाँ पाँच सौ पुत्र रूप में जन्म लिये । एक बार वे राजपुर नगर में कनकध्वज राजा की पुत्री के स्वयंवर में गये हुए थे कि ऊँट रूप में जन्मे हुए अंगारमर्दकाचार्य को देखा । वह अधिक बोझ के कारण चिल्ला रहा था। वे उसे देखकर उसके प्रति सहानुभूति प्रकट किये और उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया । वे विचार-विमर्श करके स्वामी से उस ऊँट को छुड़ा लिया । और अन्त में वे भी विरक्त होकर सद्गति को प्राप्त हुए ।
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