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________________ सात्यकि को लात मार कर गिरा दिया । पेढालविद्याधर ने सात्यकि को रोहिणी विद्या दी । उस विद्या की साधना करते समय काल संदीपक ने बहुत विघ्न डाले । रोहिणीविद्या की अधिष्ठात्री देवी ने उसे रोका । विद्यादेवी ने स्वयं प्रत्यक्ष होकर सात्यकि से पूछ कर सिद्ध हुई और उसके ललाट में प्रवेश किया । उससे ललाट में तीसरा नेत्र उत्पन्न हुआ, उसने माता का ब्रह्मचर्य भंग करने वाले पेढाल को सर्वप्रथम मारा और कालसंदीपक उसके भय से त्रिपुरासुर का रूप बनाकर पाताल में जा घुसा। इसलिए अफवाह फैली कि वह ग्यारहवाँ रुद्र है । उसने भगवान महावीर से सम्यक्त्व अंगीकार किया । वह विषयसुखों का अतिलोलुप था । किसी भी स्त्री के साथ वह सम्भोग कर लेता था । एक दिन उज्जयिनी में चन्द्रप्रद्योत राजा की (पद्मावती को छोड़कर) सभी रानियों से संभोग किया, जिससे नाराज होकर राजा ने उसे मारनेवाले को इनाम देने की घोषणा करवाई । उमा नाम की वेश्या ने यह बीड़ा उठाया । उसने सात्यकि को अपने कामपाश में बाँध लिया । विद्या का रहस्य पूछने पर उसने बता दिया कि जब वह स्त्री-सहवास करता है तो विद्या को दूर रख देता है । वेश्या ने यह रहस्य राजा को बतला दिया, राजा ने वेश्या और सात्यकि दोनों को मरवा डाला। सात्यकि के शिष्य नन्दीश्वर गण ने नाराज होकर कहा - मेरे विद्यागुरु को जिस स्थिति में मारा है उसी स्थिति की मूर्ति बनाकर पूजा करो नहीं तो सबको शिला से चूर-चूर कर दूंगा । भयभीत होकर लोगों ने वेश्या के साथ-सात्यकि के सहवास की मूर्ति बनवा कर मकान में स्थापित किया । सात्यकि मरकर नरकगति में पहुँचा । ७०. श्रीकृष्ण का संक्षिप्त जीवनवृत्त एक बार नेमिनाथ भगवान के द्वारिका नगरी पधारने पर श्रीकृष्ण ने अपने परिवार, वीर, सामंतादि के साथ उनके अठारह हजार साधुओं की विधिपूर्वक वन्दना की । वे थक गये थे । थकने का कारण पूछने पर भगवान ने कहा । इससे बहुत लाभ हुआ है । इससे तुमने सातवीं नरक के योग्य कर्मों का क्षय कर दिया है । अब सिर्फ तीसरी नरक के योग्य कर्म बाकी रह गये हैं । तब श्रीकृष्ण ने फिर से वन्दना की इच्छा व्यक्त की । भगवान ने कहा अब वे भाव तुम में नहीं हैं । श्रीकृष्ण के सामंतादि के बारे में पूछने पर भगवान ने कहा इनको कोई लाभ नहीं मिला । क्योंकि वे केवल तुम्हारा अनुकरण किये हैं । बिना भाव के फल नहीं मिलता । ५१. चण्डरुद्राचार्य की कथा उज्जयिनी नगरी में ईर्ष्यालु एवं क्रोधी स्वभावी श्री चन्द्ररुद्राचार्य पधारे । एक ९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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