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________________ के द्वार के पास था । लघुनीति के लिए आते-जाते साधुओं के पैरों की बार-बार ठोकर लगने से मेघकमार को रातभर नींद नहीं आयी । क्षुब्ध होकर उसने वापस घर जाने की सोच ली । इस विचार से प्रात: काल वह भगवान के पास गया । भगवान ने उससे पूछा – क्या रातभर कष्ट अनुभव करने के कारण घर जाने की सोचकर आये हो ? मेघकुमार के स्वीकार करने पर उन्होंने समझाते हुए कहा - वत्स ! यह कष्ट नरक के कष्ट से बहुत कम है । तुम पूर्वजन्म में हाथी रूप के कष्ट को तो याद करो। तुम हजार हाथियों के स्वामी सुमेरु प्रभ नामक हाथी थे । एक दिन दावानल से भयभीत होकर भागते हुए तुमको प्यास लगी । पानी पीने के लिए तुम एक सरोवर के दलदल में फँस गये । वहाँ तुम्हारे पूर्व शत्रु हाथियों ने अपने दाँतो से तुम्हें मारा। वहाँ से तुम विन्ध्याचल पर्वत पर ६०० हथिनियों के स्वामी बने । लेकिन वहाँ भी एक बार भयंकर आग लगने से पशुपक्षियों में भगदड़ मची । उसे देखकर तुम्हे पूर्वजन्म का स्मरण हुआ और तुम एक सुरक्षित स्थान बनाये । एक बार दावानल में तुम अपने परिवार को लेकर उसमें बैठे थे । एक खरगोश को बचाने के लिए तीन दिन तक तुम अपना पैर उठाये रहे । वहाँ असह्य वेदना सहते हुए मरकर तुम मनुष्यलोक में आये हो । तिर्यंचयोनि में जब तुम इतना कष्ट उठा सकते हो तो मनुष्य योनि का यह कष्ट तो कुछ नहीं है, यह सुनकर मेघकुमार चारित्राराधन में दृढ़ हुआ और आयु पूर्ण कर देव हुआ। वहाँ से च्यवन कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेगा। १९. सात्यकिविद्याधर विशाला नगर में चेटक राजा की दो पुत्रियाँ थीं – सुज्येष्ठा और चिल्लणा। परस्पर प्रेम के कारण दोनों ने श्रेणिक राजा से विवाह करने का निश्चय किया । लेकिन छल से चिल्लणा ने राजा श्रेणिक से शादी कर ली और सुज्येष्ठा इस धोखा से निराश होकर संसार से विरक्त हो गयी और साध्वी चन्दनबाला से चारित्र ग्रहण कर तप करने लगी । एक दिन उसे सूर्य की आतापना लेते देख पेढाल नामक विद्याधर उसकी कुक्षि से पुत्ररूप से उत्पन्न होने के लिए चारों तरफ अन्धकार कर दिया और भौरे के रूप में उसके साथ सम्भोग करके उसे गर्भवती बना दिया । गर्भकाल पूरा होने पर उसे पुत्र हुआ जिसका सात्यकि नाम रखा गया । एक दिन सुज्येष्ठा सात्यकि के साथ भगवान महावीर के वन्दनार्थ आयी थी । उस समय कालसंदीपक नामक विद्याधर के पूछने पर कि मुझे किससे भय है, भगवान् ने सात्यकि को बताया । उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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