________________
गाथा नं. १०५ के पहले पाद में संस्करण नं. २,३,५,६ और ७ में "जीअं" पाठ है, जिसमें "य" श्रुति का अभाव है । संस्करण नं. ५ और ६ में "काउण" पाठ व्याकरण और छन्द दोनों दृष्टियों से गलत है । संस्करण नं. २,३ और ७ में "तुरमणि" पाठ है और ६ में "तुरमिणि" । जबकि शुद्ध पाठ "तुरुमिणि" है। संस्करण नं. २,३,४,५,६,७ और ८ में "कालिअजेण" पाठ है ।
इसी गाथा के दूसरे पाद में संस्करण नं. ४ में "अवि" के बदले में "अचि" पाठ है । "य" की जगह "अ" पाठ संस्करण नं. ३ और ५ में उपलब्ध है और उसी पाद में "भणिअ-" पाठ संस्करण नं. २,३,५ और ७ में मिलता है, होना चाहिए "भणिय-" ।
गाथा नं. १०६ के पहले पाद में सभी संस्करणों में - "कहंतो" पाठ मिलता है । प्राचीन होने के कारण - “कहेंतो" पाठ उचित है । “जहट्ठियं" के बदले में संस्करण नं. १ और ४ में "जहट्टियं" तथा २ और ३ में “जहडिअं" पाठ मिलता है जो ध्वन्यात्मक परिवर्तन की दृष्टि से गलत है ।
इसी गाथा के दूसरे पाद में संस्करण नं. २ में "भगवउ" पाठ व्याकरण और छन्द दोनों दृष्टियों से अनुपयुक्त है । संस्करण नं. ७ का “विसाली" पाठ व्याकरण की दृष्टि से गलत है । संस्करण नं. ७ में “महोदही" मिलता है जो किसी भी हस्तप्रत में नही मिलता ।
गाथा नं. १०७ के पहले पाद में संस्करण नं. ४ में कारुन रुण पाठ मिलता है जो गलत है।
इसी गाथा के दूसरे पाद में संस्करण नं. २ में “साहु" पाठ से छन्दोभंग होता है । संस्करण नं. २,३,४,५,६ और ८ में "मरंति" पाठ मिलता है । छन्द बिठाने के लिए “मरंती" पाठ स्वीकार किया गया है । संस्करण नं. ७ में मरंति शब्द है ही नहीं । संस्करण नं. १ में "न य" के बाद "अ" अतिरिक्त जोड़ा गया है जिसका कोई औचित्य नहीं है । संस्करण नं. २,३,४,५,६,७, और ८ में "विराहंति" और १ में "विराहिति" पाठ स्वीकृत है । प्राचीन पाठ "विराहेंति" होना चाहिए ।
गाथा नं. १०८ के पहले पाद में संस्करण नं. ४ में "अप्पाहियमायरंतो" पाठ है जो छन्द और अर्थ की दृष्टि से गलत है ।
१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org