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इसी गाथा के दूसरे पाद में संस्करण नं. ४ में -दाण- की जगह “दाणं" पाठ स्वीकृत है । उसी संस्करण में "अणुमोयंतो" पाठ है जबकि होना चाहिए अणुमोयणो । संस्करण नं. ७ में दाणमणुमोयणो करके सन्धि कर दी गयी है । इसी पाद में संस्करण नं. ४ में "य" अव्यय नहीं होने से छन्दोभंग हो रहा है ।
गाथा नं. १०९ के पहले पाद में संस्करण नं. २ मे "अइदूकरं चिरकालं" पाठ स्वीकृत है । यहाँ- "दूकरं" शब्द प्राकृत भाषा की दृष्टि से गलत है और "चिरकालं" से छन्द नहीं बैठता है । सही पाठ है "चिरं कालं" । संस्करण नं. २,३ और ७ में "पूरणेण" के बदले पूरणेन पाठ मिलता है ।
इसी गाथा के दूसरे पाद में “दयावरो" पाठ की जगह संस्करण नं. ४ और ५ में क्रमश: “दयावरे" और "दयवरों" पाठ हैं, जो गलत हैं । उसी पाद में सभी संस्करणों में “करिंतु" पाठ स्वीकृत है जो सन्दर्भ के अनुसार व्याकरण की दृष्टि से गलत है, होना चाहिए "करेंतो" । संस्करण नं. ४ में "सफलयं" के बदले "सफलियं" पाठ है जो गलत है और “हुँतं" के बदले “हंतं" पाठ भी गलत है ।
गाथा नं. ११० के पहले पाद में "कारणनीयावासे" पाठ उपयुक्त है जबकि संस्करण नं. १,३,५,६,७, और ८ में "कारणनीयावासी" पाठ बैठता है । “सुटुयरं" के बदले 'सूठयरं" पाठ संस्करण नं. २ में प्रयुक्त हैं । संस्करण नं. ४ मे "सुडअरं" पाठ है जो ध्वन्यात्मक परिवर्तन की दृष्टि से गलत है । संस्करण नं. २ और ३ में जइयव्वं के बदले “जईयव्वं' पाठ स्वीकृत है जिससे छन्दोभंग होता है।
सम्पादन पद्धति
सम्पादन में पाठों की मौलिकता का ध्यान रखा गया है । पाठान्तरों को नीचे फूटनोट में दे दिया गया है । कहीं-कहीं हस्तप्रतीय पाठों के अनुस्वार और "ए" से छन्द नहीं बैठता वहाँ पर अनुस्वार को "*" में और “ए” को ह्रस्व ऍ में बदल दिया गया है । इसके अतिरिक्त कुछ अन्य शब्दों को भी जहाँ आवश्यक हुआ है, बदलकर उक्त चिह्न से दर्शाया गया है । पाठान्तरों की संख्या से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है । उक्त चिहन यदि दो बार लगातार आता है तो फुटनोट में वह उसी क्रम से दो बार दिया गया है ।
वैसे तो जैसलमेर की प्रत को मुख्य आधार बनाया गया है लेकिन कहीं
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