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मार डाला । उसका हृदय विदीर्ण हो गया । उसने पश्चात्ताप किया और विरक्त होकर मुनिराज से दीक्षा ली । उसने अभिग्रह किया कि जब तक लोगों को ये चार हत्याएँ याद रहेंगी तब तक मैं आहार पानी ग्रहण नहीं करूँगा । वह अभिग्रह को स्वीकार करके उसी नगर के दरवाजे पर खड़ा हो गया । लोग उसे गालियाँ देते और पीटते थे । वह सब समभाव से सहता जाता था छ: महिने तक निराहार रहकर मार खाते रहने से उसके घाती कर्मों का क्षय हुआ और उसे केवलज्ञान हुआ । उसके बाद अनेक जीवों को प्रतिबोध देकर दृढ़प्रहारी मुनि मोक्ष को प्राप्त हुए ।
४०. सहस्रमल्लमुनि कथा
शंखपुर में कनकध्वज राजा का वीरसेन नामक एक सुभट था । एक बार राजा उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसे ५०० गाँव दिए लेकिन उसने इनकार कर दिया । वीरसेन नि:स्वार्थभाव से राजा की सेवा करता था । उन्हीं दिनों राजा का शत्रु कालसेन के उपद्रव से क्षुब्ध होकर राजा ने सभासदों से पूछा कौन ऐसा वीर है जो कालसेन को जिन्दा पकड़कर लायेगा । वीरसेन ने यह बीड़ा उठायी और एक तलवार लेकर चल दिया । वह सीधा कालसेन के पास जाकर युद्ध करने लगा । वीरसेन ने सबके छक्के छुड़ा दिए । कालसेन की सेना भाग खड़ी हुई । वीरसेन ने कालसेन को जिन्दा पकड़ लिया और बाँधकर राजा के सामने लाया । राजा ने वीरसेन को एक लाख सुवर्ण इनाम दिए और नाम "सहस्रमल्ल" रखा । कालसेन से राजा ने अपनी आज्ञा के अधीन चलना स्वीकार करवा कर उसका राज्य उसे वापस दे दिया । वीरसेन को राजा ने एक देश जागीरी में दे दिया। काफ़ी समय बाद सहस्रमल्ल के यहाँ सुदर्शनाचार्य पधारे । उनसे उपदिष्ट होकर राजा विरक्त होकर मुनिदीक्षा ग्रहण किये । विहार करते-करते एक बार वे कालसेन राजा के नगर के समीप खड़े थे कि कालसेन ने उन्हें पहचान लिया । बदले की भावना से उसने सहस्रमल्ल मुनि को बहुत मारा । लेकिन वे सब सहते गये । मरकर वे सर्वार्थ सिद्ध विमान नामक देवलोक में देव बने ।
४१. स्कन्दकुमार की कथा
श्रावस्ती नगरी में कनक केतुराजा के मलयसुन्दरी रानी तथा स्कन्दकुमार और सुनन्दा नामक पुत्र-पुत्री थे । जवान होने पर सुनन्दा की शादी कान्तिपुर नगर के राजा पुरुषसिंह के साथ हो गयी । एक बार श्रावस्ती नगरी में विजयसेनसूरि का
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