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नहीं करता तो धर्म से उसकी रक्षा नहीं हो सकती । कभी कभी ऐसा भी होता है कि वेश से धर्म की रक्षा होती है । तब वेशधारी को यह संवेदना होती है कि वह साधु वेशधारी है और इसलिए उसे धर्माचरण करते हुए तप, संयम का पालन करना चाहिए । (११-२२)
आत्मा आत्मा को जानती है और आत्मा से ही धर्म स्वरूप निश्चित होता है । आत्मा को जैसा सुखावह हो धर्म वैसा ही हो जाता है । जिस-जिस भाव जिसजिस समय में जीव में कर्मप्रवेश होता है उसी उसी प्रकार के शुभ अशुभ कर्म बँधते हैं । (२३-२४)
दीर्घकालीन दुःख से मलिन जीवों को सुखदायी धर्मोपदेश देना कठिन है क्योंकि हजारों उपदेशो से भी उसे बोध नहीं हो सकता । (३०-३१)
कुछ लोग साधनासम्पन्नता होने पर भी उसका त्याग करते हैं और कुछ लोग साधन नहीं होने पर उसकी इच्छा करते हैं । ऐसा भी होता है कि घोर दुष्ट भी धर्म के प्रभाव से बोध प्राप्त करते हैं ।
लोक में (जैन धर्म में) फुल की प्रधानता नहीं है । हरिकेशबल का कौनसा फूल था जिन के तप से देवता भी डर गये थे और उनकी पूजा करते थे। यह तो प्रत्येक व का पना कर्म है कि वह नट की भाँति अपना रूप और वेश बदला करता है।
तप से जीव उत्कर्ष की पराकाष्टा तक पहुँच सकता है । जैसे वसुदेव, जिनसे विद्याधारी और राजकुमारीयां प्रेमवश उनको पाने की इच्छा करने लगी थीं । वास्तव में वे साधू हैं, धन्य हैं कुकृत्य से विरह हो धीरतापूर्वक व्रत रूपी तलवार की धार पर चलते हैं और उत्कृष्टता की चरमसीमा तक पहुँच जाते हैं।
वही शिक्षित, गुणी, ज्ञान और आत्मदृष्टा है जो विपत्ति में पडकर भी दुष्कर्म नहीं करता । अपमानित होकर भी वह दूसरों का अपमान नहीं करता । सुख-दुःख में समुद्र की तरह गम्भीर बना रहता है ।
जो व्यक्ति जैसे-जैसे प्रमाद करता है वह उसी प्रकार कषायों से ग्रस्त होता है । शीत, उष्ण, क्लेश आदि को जो सहता है उसे ही धर्मप्राप्ति होती है । धो धैर्यशाली होता है उसे ही तपश्चर्या प्राप्त होती है । साधु तो क्या गृहस्थ भी धर्म कों
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