SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जानकर उसमें दृढवती हो जाते हैं, जैसे-सागरचन्द्र । रागदेष : जो सम्यक्त्व प्राप्त नहीं करता या प्राप्त करके जो संविग्न नहीं होता और विषयसुख में ओतप्रोत हो जाता है तो इसमें रागद्वेष का दोष है । जो अनेक गुणों के नाशक सम्यक्त्व चारित्रगुण के नाशक रागद्वेष के वश में नहीं होते उनका समर्थ शत्रु भी कुछ बिगाड नहीं सकते । धिकार है कि जीव रागद्वेष की अनिष्टता को जानते हए भी उसे अपनाता है । यदि रागद्वेष न होतो किसी को भी दु:ख नहीं होगा और सुख से आश्चर्य नहीं होगा । ____ कषाय : कषाययुक्त जीव वडवानल की तरह तपसंयम को जला देता है । कर्कशवाणी से एक दिन का तप नष्ट होता है । परनिन्दा करनेवाला एक मास के तप को नष्ट करता है । शाप देनेवाले का एक वर्ष कर तप नष्ट होता है और हिंसा करनेवाला सम्पूर्ण तप का नाश करता है । वध, अपमान, परधन नाश आदि जघन्य कर्म फलदायी हैं। परीषह : सच्चे साधू आक्रोश डॉठंट फटकार, उत्पीडन, अपमान, निन्दा आदि सह लेते हैं । निर्दोष रूप से मार खा कर भी जो प्रतिकार नहीं शकते, आर्भबूत होकर भी जो प्रतिशाप नहीं देते और सहन कर लेते हैं वे वास्तव में सहस्रमल्ल हैं । माता, पिता, भाई, पत्नी, पुत्र, मित्र ये सब अनेकविध भय वैमनस्य आदि का निर्माण करते हैं । अच्छे तपस्वियों की पूजा, प्रणाम, सत्कार विनय आदि से शभकर्म भी नष्ट हो जाते हैं जो मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है । साधुओं के अभिनन्दन, वन्दन, नमस्कार आदि गुणों से चिरसंचित कर्म क्षीण हो जाते हैं। दुष्ट, ऊंट, घोडा, बैल और मतवाला हाथी - ये सब दमनकारी हैं लेकिन निरंकुश आत्मा को इनमें से कोई भी दमित नहीं कर सकता । वस्तुत: आत्मा का ही दमन करना चाहिए क्योंकि आत्मा को दमित करने के बाद ही इहलोक और परलोक में सुखी हुआ जाता है। पापप्रमाद के वशीभूत जीव सांसारिक कार्यो मे तत्पर दुःख से कभी मुक्त नहीं हो सकता और सुख से कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। जिस प्रकार सम्पन्न व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को ही सम्पूर्ण धर्मफल मानता है उसी प्रकार भूखंजीव पापकर्म को सबकुछ मानकर उसी में लीन रहता है और दुःखी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy