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रहता है । इसलिए यह अपेक्षित है कि जीव जन्म-जरा-मरण से उत्पन्न दु:ख को जाने, सोचे और विषयों में लिप्त न रहकर उनसे होनेवाले दुःख से बचे । कर्म आस्रवों को जानकर उनसे अपनी आत्मा को बचाकर सिद्धगति को प्राप्त करें ।
जीवन जल की बूँद और सन्ध्याराग की तरह नश्वर है । यौवन नदी प्रवाह की तरह तेजी से चला जानेवाला है फिर भी पापी जीव समझता नहीं । भव्यजीव का लक्षण यही है कि वह विषयासक्त नहीं होता क्योंकि जाति, कुल, रूप, बल पुत्रलाभ, ऐश्वर्य - ये सब संसार में अनेक अशुभ कर्मों का बन्ध कराते हैं ।
जिनशासन में विनय का बहुत महत्त्व है । विनीत व्यक्ति संयमी होता है । विनयरहित व्यक्ति के लिए धर्म कहाँ और तप कहाँ । विनयी व्यक्ति सुशोभित और यशस्वी होता है । इसके विपरीत अविनयी जिनवचन के ज्ञान से रहित, दर्शनहीन और संयमहीन व्यक्ति यदि तप भी करे तो वह व्यर्थ होता है । जो षड्जीव निकाय, महाव्रत पालनरूप यतिधर्म की यदि रक्षा नहीं कर सकें तो उसके धर्म का क्या प्रयोजन ? कर्णप्रिय अमृतबिन्दु जैसे जिनवचन रूप उपदेश को पाकर आत्महित करना, महावत पालन का करना और अपने तथा पराये का अहित नहीं करना धर्मपालन में श्रेयस्कर है । जो यह करता है वह देवतुल्य पूजनीय होता है ।
अर्चन द्विविध है भावार्चन और दव्यार्चन । भावार्चन उय विहारता का नाम है और द्रव्यार्चन जिनपूजा है । भावार्चन से भ्रष्ट हुआ साधू द्रव्यार्चन में लीन रहता है । जो अर्चनरहित होकर केवल शरीर सुख का ध्यान रखता है उसे ज्ञानप्राप्ति नहीं होती और इसलिए सद्गति भी नहीं होती । बहुमूल्य जिनमन्दिर बनवाने वाले से भी अधिक फलदायी तपसंयम होता है । यदि मूलगुण और उत्तर गुणों को धारण नहीं कर सकते तो श्रावक बने रहना श्रेयस्कर है । जिनेन्दों की आज्ञा का पालन ही आचरण पालन है उसके भंग होने पर क्या भंग नहीं होता ।
इसके अन्तर्गत उपदेशमाला की टीका में प्राप्त कथानकों की तुलना आगम और उनकी नियुक्ति, चूर्णि, टीका और भाष्य के कथानकों से की गई है । कथानकों में जहाँ भेद आता है उनको फुटनोट में उनके सन्दर्भ के साथ दिया गया है जहाँ कथानक समान हैं वहाँ फुटनोट में केवल सन्दर्भ दे दिये गये हैं । कथानक इस प्रकार हैं -
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