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प्रदेशी था । उसका चित्रसारथी नामक शुभचिन्तक प्रधान मन्त्री था । किसी कार्यवश श्रावस्ती गया हुआ चित्रसारथी केशीकुमार का उपदेश सुन श्रावक धर्म अंगीकार कर लिया । चित्रसारथी के बुलाने पर एक समय केशीगणधर मुनियों सहित श्रावस्ती पधारे। मृगवन नामक उपवन में ठहरे । आचार्य को आया जानकर चित्रसारथी राजा प्रदेशी को शिकार खेलने के बहाने उस उपवन की ओर ले गया । थक जाने के कारण दोनों मुनि के प्रवचन सुनने लगे । राजा ने आत्मा के अस्तित्व नहीं होने के बहुत से प्रमाण दिए । लेकिन केशीगणधर ने उसका उपयुक्त प्रमाणों से खण्डन किया और आत्मा का अस्तित्व प्रमाणित किया । राजा ने उनके प्रमाणों से प्रभावित एवं सन्तुष्ट होकर श्रावक धर्म स्वीकार कर लिया । बहुत समय बाद व्यभिचारिणी पटरानी सूरिकान्ता ने राजा प्रदेशी को भोजन में विष दे दिया । भोजनोपरान्त वे पौषधशाला में आए और धर्मगुरु केशीगणधर की वन्दना कर व्रतों में लगे हुए अतिचारों की सम्यक् निन्दा की।
अनशन करके समाधिपूर्वक शरीर छोड़ा । देवलोक में सूर्याभ नामक देव " बने । वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष पायेंगे । ३०. श्री कालिकाचार्य की कथा
तुरमणि नगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था । उसी नगर में कालिक नामक विप्र अपनी बहन भद्रा एवं भानजा दत्त के साथ रहता था । कुछ दिन बाद कालिक ने दीक्षा ले ली । दत्त राजा की सेवा करते-करते मंत्री बन गया । बाद में उसने राजा को पदभ्रष्ट कर स्वयं राजा बन गया और यज्ञ यागादि करते हुए पशुओं की हत्या करवाने लगा । कालिकाचार्य के आगमन पर भद्रा और दत्त राजा वन्दना करने गये । आचार्य ने यज्ञ का फल नरकगति बताया " । दत्त ने पूछा यह कैसे जाना जा सकता है । आचार्य ने कहा आज से सातवें दिन घोड़े के पैर के नीचे दबने से विष्टा उछलकर तुम्हारे मुँह में पड़ेगी और बाद में तुम लोहे की पेटी में बन्द किये जाओगे । राजा के पूछने पर उन्होंने अपनी स्वर्ग की गति बतायी । राजा ने प्रमाणित न होने पर आचार्य को मार डालने की धमकी दी । उसने शहर के सभी रास्ते साफ करवा दिए और फूल लगवा दिये । स्वयं राजमहल में राजा बैठा । भ्रांति से सातवें दिन को आठवां दिन मानकर दत्त राजा घोड़े पर चढ़कर गुरु को मारने चला । रास्ते में किसी वृद्ध माली ने जोर से टट्टी लगने के कारण शौच करके फूल से ढंक दिया था । घोड़े की खूर उस पर पड़ी और विष्टा उछल कर राजा के मुँह
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