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हैं । अभयकुमार यहाँ भी शुभ कर्म से सुख कर रहा है और मरकर भी देव बनेगा।
और वह कालसौरिक जीता रहा तो भी पापकर्म करेगा और मरेगा तो भी सातवीं नरक में जायेगा । दुर्दरांक देव का अभिप्राय जानकर श्रेणिक ने अपने नरकायुष्कर्मों को टालने का उपाय पूछा । भगवान् ने कहा - यदि तुम्हारी कपिला दासी शुद्ध भाव से दान दे । अथवा कालसौरिक पशुवध बन्द कर दे तो तुम्हें नरक में नहीं जाना पड़ेगा। वह आश्वस्त हो राजमहल की ओर जा रहा था कि उसकी सम्यक्त्व परीक्षा के लिए दुर्दुरांक देव पुन: जैन साधु वेश में मछलियों से भरा जाल लेकर चला आ रहा था । राजा श्रेणिक ने उसे बहुत सारे प्रश्न किये । उसने अपने आपको मांसाहारी, जुआरी, शराबी, व्यभिचारी, चोर इत्यादि बताया । इन उत्तरों से राजा अपने सम्यक्त्व से विचलित नहीं हुआ । फिर वह दुर्दुरांक देव गर्भवती साध्वी का वेश बनाये राजा के सामने से होकर जा रहा था कि राजा ने उसके गर्भ का कारण पूछा – उसने उत्तर दिया भगवान महावीर की सभी साध्वियां ऐसी ही होती हैं। फिर भी वह अपनी श्रद्धा पर अटल रहा । फिर दुर्दुरांक देव प्रसन्न होकर प्रकट हुआ और उसे एक हार और दो गोले भेंट देकर वापस लौट गया । राजा ने वह हार चिलणा रानी को और दो गोले नन्दारानी को दिये ।
नन्दारानी ने अप्रसन्न होकर गोलों को फेंक दिया । जिससे फूटकर एक में से दो दिव्य वस्त्र निकले जिससे वह प्रसन्न हो गयी । राजा श्रेणिक ने कपिला दासी को बुलाकर जबरदस्ती दान देने को कहा लेकिन उसने शुद्ध मन से दान नहीं दिया। फिर राजा ने कालसौरिक से पशुवध रोकने को कहा उसने धन्धा होने के कारण रोकने से इन्कार कर दिया । राजा ने उसे अंधे कुएँ में गिरवा दिया । लेकिन वहाँ भी कीचड़ के भैंसे बनाकर वध किया करता था । अंत में असफल होकर भगवान् की बात सत्य मान लिया । ६८. सुलस की कथा
राजगृही नगरी में कालसौरिक नामक कसाई रोज ५०० भैसों को मारकर अपने परिवार की जीविका चलाता था । उसका सुलस नामक पुत्र था । एक बार कालसौरिक को भयंकर बीमारी के कारण अत्यन्त वेदना होने लगी। कोई भी दवा काम नहीं करती थी। सुलस ने अपने मित्र अभयकुमार से सलाह पूछा५३२ – अभयकुमार ने कहा - यह सब तुम्हारे पिता के पापकर्म का फल है उसे नरक में जाना ही पड़ेगा।
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