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________________ अत: तुम उसे साधारण दवा करो । वह ठीक हो जायेगा । वह उसे कंटीली शय्या पर सुलाता तथा विष्टा आदि का लेप करता था जिससे वह शान्त हो गया। कुछ समय बाद मरकर सातवीं नरक में गया। उसके मरणोपान्त उसके परिवार वालों ने सुलस को भी वही कर्म करने को कहा । सुलस ने ऐसा पाप कर्म करने से साफ इन्कार कर दिया। परिवार वालों ने पाप बाँटने को कहा तब उसने समझाने के लिए अपना पैर काटकर पीड़ा बाँटने को कहा । उस पर कोई तैयार नहीं हुआ। उसने कहा जब आप लोग मेरी पीड़ा नहीं बाँट सकते तो पाप कर्म कैसे बाँट सकते हैं। सुलस की इस बुद्धि कौशल से सब समझ गये और अभयकुमार भी यह जानकर बहुत खुश हुआ। चिरकाल तक श्रावक धर्म का पालन कर सुलस आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग में गया । ६९. जमाली की कथा कुण्डपुर नगर में जमाली नामक धनी क्षत्रिय रहता था । वह भगवान महावीर की पुत्री सुदर्शना'३३ सहित अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह करके सुखपूर्वक रह रहा था । एक दिन भगवान महावीर का धर्मोपदेश सुनकर वह ५०० राजकुमारों के साथ दीक्षा ग्रहण किया और सुदर्शना भी बहुत-सी महिलाओं के साथ दीक्षित हुई। एक बार भगवान महावीर की अनुमति न होने पर भी जमाली अपने ५०० शिष्यों के साथ पृथक् विहार करने चल दिये । विहार करते हुए वे श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक वन में निवास किये । वहाँ उन्हें महाज्वर उत्पन्न हुआ । उन्होंने अपने एक शिष्य से संथारा बिछाने को कहा । वह बिछाने लगा फिर पूछने पर उसने कहा बिछ गया समझिए । जमाली उसे बिस्तर करते हुए देखकर डाँटते हुए कहा हो रहे काम को तुम हो गया कैसे कह सकते हो ? उसने भगवान महावीर का कडमाणे कडे का सिद्धान्त वचन सुनाया । वह उस सिद्धान्त से सहमत नहीं हुआ'३५ । उसके शिष्य उसके हठाग्रह के कारण उसको अयोग्य समझ कर उसे छोड़कर भगवान महावीर की सेवा में चले गये । जमाली धीरे-धीरे स्वस्थ होकर विहार करते हुए चम्पानगरी पहुंचा जहाँ भगवान महावीर शिष्यों सहित विराजमान थे । वहाँ उसने सबको सुनाते हुए कहा कि मैं केवली हूँ । इस पर गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि लोक और जीव शाश्वत है या अशाश्वत जमाली के निरुत्तर होने पर गौतमस्वामी ने स्वयं उत्तर दिया कि लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों है । सुदर्शना साध्वी भी जमाली के पक्ष में हो गयी । संयोग से वह उसी नगरी में ढंक कुंभार की उद्योगशाला में ठहरी हुई थी । ढंक कुंभार ने उसे भगवान महावीर का सिद्धान्त समझाने के लिए उसके चादर को दो तीन जगह १०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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