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________________ हुए वह मुनियों के पास पहुँचा उनकी वन्दना की और तत्पश्चात् पारणा किया । इस प्रकार वह मरकर देवरूप में उत्पन्न हुआ।३० । वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर धर्मकरणी करके सिद्धगति में पहुँचा । ६२. शशिप्रमराज की कथा कुसुमपुर नगर में जितारि नामक राजा के शशिप्रभ और सूरप्रभ दो पुत्र थे। राजा अपने बड़े पुत्र शशिप्रभ को राजपद और छोटे पुत्र सूरप्रभ को युवराज पद देकर धर्माराधन करने लगा । एक बार विजयघोष सूरि का उपदेश सुकर सूरप्रभ को वैराग्य उत्पन्न हो गया । उसने शशिप्रभ से दीक्षा के लिए आज्ञा माँगी । लेकिन शशिप्रभ ने उसे बहुत समझाया कि तुम दीक्षा मत लो । आखिर उसने दीक्षा ले ही लिया और तप संयम की आराधना कर मरकर देव बना । इधर शशिप्रभ आसक्तिपूर्वक सुखोपभोग करने के कारण मरकर नारकीय जीव बना । अवधिज्ञान से सूरप्रभदेव ने अपने भाई को नरक स्थित देखकर उसके पास गया और उसे पूर्वजन्म का स्वरूप बताया जिससे उसे भी सब मालूम हो गया । वह बहुत पश्चात्ताप करने लगा और अपने भाई से कर्म बोझ हल्का करने का मार्ग पूछा । ६३. पुलिंद मील की कया एक गाँव का मुग्ध नामक व्यक्ति रोज समीपवर्ती विन्ध्याचल की गुफामें अधिष्ठित महादेव की मूर्ति की पूजा करने आता था । वह मूर्ति की सफाई करके पुष्प चन्दनादि से पूजा करता था । एक बार उसने देखा कि किसी ने उसके पुष्पादि को हटाकर धतूरा आदि के पुष्पों से शिवजी की पूजा की है । एक दिन पूजा समाप्त कर वह छिपकर बैठ गया । थोड़ी देर में देखा एक काला आदमी धनुष बाण लेकर आया और मुँह में भरे पानी से मूर्ति के एक पैर का प्रक्षालन किया । धतूरा का पुष्पादि चढ़ाकर मांस की एक पेशी रखी और नमस्कार करके जाने लगा । शिवजी ने पूछा- तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं है । उसने कहा - आपकी कृपा से कोई कष्ट नहीं है । उसके चले जाने के बाद मुग्ध मूर्ति के पास आकर बोला - शिवजी आप उस पर प्रसन्न हैं और मुझ पर क्यों नहीं । शिवजी ने कहा - तुम दोनों की भक्ति में अन्तर है । मैं उसे किसी दिन बताऊँगा । एक दिन शिवजी का तीसरा नेत्र नहीं था। मुग्ध आया और तीसरा नेत्र न देख बहुत दुःख व्यक्ति किया और रोने लगा । तत्पश्चात् वह आया और तीसरा नेत्र न देखकर बहुत दु:खी हुआ और बाण से अपनी १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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