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राजा ध्यानस्थ खड़े रहे । लेकिन सुकोमल राजा को वेदना होने लगी और देहान्त' होने के बाद वे सीधे देवलोक पहुँचे । ३६. सागरचन्द्रकुमार
द्वारका नगरी के राजा श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलदेव के निषध नामक पुत्र के पुत्र का नाम सागरचन्द्र था । उसी नगर का धनसेन नामक सेठ अपनी पुत्री कमलासेना की सगाई उग्रसेन के पुत्र नभसेन के साथ की थी । किसी समय घूमतेघूमते आये नारदमुनि का नभसेन ने कोई आदर नहीं किया । जिससे वे रुष्ट होकर सागरचन्द्र के यहाँ गये और कमलासेना के रूप का वर्णन कर उसके प्रति प्रेम जगा दिया । वहाँ से कमलासेना के यहाँ जाकर उसके मन में सागरचन्द्र के रूप का वर्णन कर उसके प्रति प्रेम जगा दिया । अब दोनों एक दूसरे से मिलने के लिए आतुर हो गये । सागरचन्द्र के चाचा शाम्बकुमार ने सुरंग के रास्ते से कमलासेना को द्वारका के उद्यान में लाकर नारदमुनि की साक्षी में शुभ मुहूर्त में सागरचन्द्र का पाणिग्रहण करा दिया । कमलासेना के माता-पिता के विनती करने पर श्रीकृष्ण सेना सहित उसे ढूँढते-ढूँढते उनके पास पहुँचे । शाम्बकुमार ने सारी घटना बता दी । नभसेन भी आया, सागरचन्द्र के क्षमा माँगने पर क्षमा किये बिना वह वैर की गांठ बाँध कर चला गया । सागरचन्द्र और कमलासेना का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा ।।
__एक दिन भगवान अरिष्टनेमि का उपदेश सुनकर सागरचन्द्र ने श्रावकब्रत अंगीकार किया । एक बार श्रावक प्रतिमा की आराधना के लिए श्मशानभूमि में खड़ा था कि नभसेन उसके मस्तक पर गीली मिट्टी बाँधकर अंगारा रख दिया । सागरचन्द्र को असह्य वेदना हुई और मरकर देवलोक में गया'०२ । ३७. कामदेव श्रावक की कथा
उन दिनों चम्पानगरी का राजा जितशत्रु था । उसी नगरी में कामदेव नामक एक धनी व्यापारी और उसकी पत्नी भद्रा रहती थी०३ । एक बार भगवान महावीर का उपदेश सुनकर कामदेव ने श्रावक व्रत अंगीकार कर लिया । वह भलीभाँति श्रावक धर्म का पालन करता था । एक बार देवलोक में इन्द्र के द्वारा कामदेव के दृढ़ धर्म की प्रशंसा सुनकर एक मिथ्या दृष्टिदेव परीक्षार्थ कामदेव के पास आया । जब वह पौषव्रत लेकर कायोत्सर्ग में बैठा था । उसने भयंकर राक्षस का रूप बनाकर कामदेव को धर्म छोड़ने को कहा उसने उसे बहुत डराया लेकिन असफल रहा । इस प्रकार
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