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में उन्होंने अनेक बाघ, सिंहों को प्रतिबोधित किया । उनके उपदेश से प्रतिबुद्ध हुआ एक मृग रात दिन उनकी सेवा किया करता था । एक दिन जंगल में एक बढ़ई किसी बड़े वृक्ष की शाखा को आधी कटी हुई छोड़कर वृक्ष के नीचे रसोई बना रहा था । मृग मुनि को लेकर वहाँ पहुँचा । बढ़ई ने उनको आहार दिया । यकायक वृक्ष की शाखा टूटकर उन तीनों पर पड़ी और वे वहीं ढेर हो गये । मरकर तीनों पंचमदेवलोक में उत्पन्न हुए। ३३. पूरगतापस की कथा
विन्ध्याचल पर्वत की तलहटी में पेढाल नामक गाँव था । वहाँ का पूरण नामक सेठ अपने पुत्र को गृहभार सौंपकर दीक्षा ले लिया । पारणे के दिन वह चार खानोंवाला भिक्षापात्र ले जाता । पहले खाने का आहार पक्षियों को, दूसरे का जलचरों को, तीसरे का थलचरों को और चौथा स्वयं लेता था । इस प्रकार बारह वर्ष की तपस्या के बाद एक मास का अनशन किया । कालप्राप्त कर चमरचंचा नामक राजधानी में चरमेन्द्र हुआ । ३४. वरदत्त मुनि
चम्बा नगरी में मित्रप्रभ राजा का धर्मघोष नामक मन्त्री था । उसी नगर में धनमित्र नामक सेठ और धनश्री नामक उसकी पत्नी के सुजातकुमार नामक एक सुन्दर पुत्र था । एक दिन सुजातकुमार धर्मघोष के अन्त:पुर से होकर गुजर रहा था कि मन्त्री की सभी पत्नियां उस पर मोहित हो गयीं । यह जानकर मन्त्री ने सुजातकुमार के नाम से एक कूटपत्र राजा को दिया, जिसमें सुजातकुमार को मरवा डालने की सलाह दी गई थी । राजा ने उसे स्वयं न मारकर उसको एक पत्र के साथ चन्द्रध्वज राजा के पास भेजा जिसमें लिखा था - "पत्रवाहक को आते ही मार डालना" चन्द्रध्वज राजा गुप्तचरों से रहस्य जानकर सुजातकुमार को अपने ही पास रखा और अपनी बहन चन्द्रयशा से शादी कर दी । चन्द्रयशा के संयोग से सुजातकुमार को भयंकर रोग हो गया । जिससे चन्द्रयशा पश्चात्तापपूर्वक प्रतिबद्ध हुई और मरकर देव बनी । अवधिज्ञान से पूर्वजन्म जानकर सुजातकुमार के पास आयी और योग्य सेवा करने का आग्रह किया । सुजातकुमार के इच्छा व्यक्त करने पर उसके जीव देव ने उसे निष्कलङ्कपूर्वक उसके माता-पिता के पास पहुँचा दिया । माता-पिता की आज्ञा से उसने पिता के साथ दीक्षा ग्रहण की और केवली होकर मोक्ष पाया । सुजातकुमार
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