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________________ दिया और भवान्तर में सबसे अधिक बलवान् बनने का निदान किया । १७वें भव में शुक्रदेव लोक में देव बना । १८वें पोतनपुर में प्रजापति नामक राजा की पत्नी रूप पुत्री का पुत्र वासुदेव हुआ जो त्रिखण्ड दिग्विजयी बना । १९वें में सातवें नरक का नारकी बना । २०वें में सिंह बना। २१वें में चौथे नरक का नारकी । २२वें में मनुष्य बनकर शुभकर्मों का उपार्जन किया। २३वें में महाविदेह की राजधानी भूका नगरी में धनंजय राजा और धारिणी रानी का पुत्र हुआ । प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती बना । २४वें में भरतक्षेत्र की छत्रिका नगरी में जितशत्रु राजा और भद्रा रानी का नन्दन नामक पुत्र हुआ" । उसने पोट्टिलाचार्य से दीक्षा ग्रहण कर तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया । २६वें भव में दशवें देवलोक में देव बना । वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर २६वें भव में चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में श्रीवर्धमान महावीर हुए । ३२. बलदेव मुनि, रयकार और मृग __द्वैपायन ऋषि यादव कुमारों की हरकतों से क्षुब्ध होकर आगामी जन्म में द्वारका नगरी ३ को भस्म कर देने के निदान से अग्निकुमार देव बने और द्वारका नगरी को जलाकर भस्म कर दिया । उस समय श्रीकृण और वासुदेव बचकर जंगल में चले गये । वहाँ श्रीकृण के लिए पानी की खोज में गये वासुदेव को शत्रुओं से युद्ध करते शाम हो गयी । इधर भगवान अरिष्टनेमि के मुँह से सुनकर कि उसी के हाथ से श्रीकृष्ण की मृत्यु होगी, जराकुमार" शिकार खेलने उसी वन में आ पहुँचा । उसने लेटे हुए कृष्ण के पैर के पदम् चिह्न को मृग की आंख समझकर मारा ६ । पास आने पर अपने भाई को देखकर उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ । श्रीकृष्ण के कहने पर वह भाग गया । मरकर श्रीकृष्ण अधोलोक के तृतीय धराधाम में गये । थोड़ी देर बाद पानी लेकर आये बलदेव जी पिपासा के कारण मूर्छित समझकर उन्हें कन्धे पर बिठाकर जगह-जगह घूमने लगे । उनको बिलकुल विश्वास नहीं था कि उनका भाई मर गया है । लेकिन छ: महिने के बाद वे श्रीकृष्ण को मृत समजकर छोड़ दिये । सिद्धार्थदेव ने शव को समुद्र में बहा दिया । तत्पश्चात् वे भगवान अरिष्टनेमि के शिष्य चारण मुनि से दीक्षा ग्रहण किये और उग्र तपस्या करने लगे । एक बार पारणे के लिए जा रहे उनके रूप को देखकर मोहित कोई स्त्री पानी भरने के लिए घड़े के बजाय अपने बच्चे के गले में रस्सी डालकर लटका रही थी कि उन्होंने देख लिया और रोका । उन्होंने अपने रूप को छिपाने के लिए जंगल में ही रहने का अभिग्रह किया । वे जंगल में आए सार्थवाह इत्यादि से भिक्षा लेकर निर्वाह कर लिया करते थे । जंगल ७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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