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________________ मि गा रि ओ स रं प प्प । स रु प्प त्तिं वि म ग इ ।।१३९।। रयोद्धता - रनरल्गा रथोद्धता । इस समचतुष्पद छन्द के प्रत्येक पाद में ११ अक्षर होते हैं । प्रत्येक पाद में क्रमश: रगण, नगण, रगण, लघु और गुरु होते हैं, यथा संझरा गजलबुब्बुओवमे जीविए य जलबिंदु चंचले ।। जोवणे य नइ वेगसन्निभे । पावजीव किमियं न बुज्झसे ॥२०८।। विपरीत आख्यानकी - व्यत्यये विपरीतादि: । व्यत्यये इति भोजे जतजगगाः। युजि ततजगगा: विपरीतादिर्विपरीताख्यानकीत्यर्थ:१८ । अर्थात् प्रथम और तृतीय पाद में क्रमश: जगण, तगण, जगण और दो गुरु तथा द्वितीय और चतुर्थ पाद में क्रमश: तगण, तगण, जगण और दो गुरु होते हैं । एक पाद में कुल ११ अक्षर हैं, यथा - जहाखरो चंदण-भार-वाही । भारस्स भागी न हु चंदणस्स ।। एवं खु नाणी चरणेण हीणो । नाणस्स भागी न हु सो गईए ।।४२६ ।। इसमें जितने भी पद्य गाथा (आर्या) छन्द में हैं उनमें से कोई भी प्राचीन आर्या छन्द में नहीं है जिसके विषय में प्रो. आल्जडर्फ ने चर्चा की है। इस दृष्टि से भी यह ग्रन्थ भगवान् महावीर के काल का नहीं हो सकता । धर्मदासगगि का समय जैन परम्परा के अनुसार धर्मदासगणि भगवान् महावीर के द्वारा दीक्षित माने जाते हैं । लेकिन उनके समय के बारे में कुछ आधुनिक विद्वानों के मन्तव्य इस प्रकार हैं, मोरिस विण्टरनित्ज़ का कहना है - Another early work is Uvaesamala-Garland of ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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