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________________ शान्त न हुई । धूप में जब उसका कीचड़ सूख गया तब उसे अत्यन्त पीड़ा हुई । इसलिए मैं विषयसुख रूपी कीचड़ में लिपटना नहीं चाहता । पाँचवीं पत्नी बोली – स्वामिन् ! अतिलोभ से सिद्धि और बुद्धि की तरह अकल मारी जाती है । किसी गाँव में बुद्धि और सिद्धि नाम की दो वृद्धाएँ रहती थीं । बुद्धि प्रात:काल भोलक यक्ष की आराधना किया करती थी । प्रसन्न यक्ष के प्रकट होने पर उसने पेट भर रोटी वरदान स्वरूप मांगा । यक्ष के कथनानुसार वह राजमठ के पीछे से एक सुवर्ण मुद्रा ले जाती थी । इस प्रकार वह सुखी हो गयी। सिद्धि ने कपटपूर्वक बातें करके बुद्धि के सुखी होने का रहस्य जान लिया । उसने भी उस यक्ष की आराधना की और प्रसन्न यक्ष से बुद्धि से दो गुना वर माँगा । फलत: उसे दो सुवर्ण मुद्राएँ मिलने लगी । इस प्रकार सिद्धि ने बुद्धि के अनिष्ट के लिए अपनी एक आँख फुड़वा ली जिससे बुद्धि ने अपनी दोनों आँखे फुड़वाईं । इस पर जम्बूकुमार ने जवाब देते हुए कहा - तुम्हारे कथनानुसार अजातिवान् को उन्मार्ग होता है तो मैं वसन्तपुर के जितशत्रु राजा के उस जातिवान् घोड़े की भाँति कदापि उन्मार्ग पर नहीं जाऊंगा जिसे राजा ने जिनदास श्रावक के यहाँ धरोहर रूप में रखा था । चोरों ने उसे उन्मार्ग में ले जाना चाहा लेकिन वह राजमार्ग के सिवाय अन्य मार्ग पर नहीं जाना चाहता था । फलत: सेठ ने जगकर घोड़ा वापस ले लिया और माफी मांगने पर घोडे को छोड़ दिया । छठी ने कहा - स्वामिन् आपका अत्यन्त हठ ठीक नहीं है । बुद्धिमान पुरुष को ब्राह्मण पुत्र की तरह गधे की पूंछ पकड़े नहीं रहना चाहिए । उसने बताया किसी गाँव में एक ब्राह्मण का मूर्ख और जिही लड़का था । मां के कथनानुसार उसने गांठ बांध ली थी कि किसी वस्तु को पकड़कर छोड़ना नहीं चाहिए । एक बार उसने किसी भाग रहे गधे की पूँछ पकड़ ली । गधे के द्वारा लात से मारे जाने तथा लोगों के समझाने पर भी वह नहीं माना और अपने हठ के कारण दु:ख सहता रहा । जम्बूकुमार ने भी उसी सन्दर्भ में एक कहानी कही जो इस प्रकार है कुशलस्थपुर में एक क्षत्रिय के यहाँ एक घोड़ी थी, जिसकी सेवा में एक नौकर था । नौकर घोड़ी के खाने को स्वयं खा जाता था । खाना न मिलने से घोड़ी कुछ ही दिनों में मर गयी और एक वैश्या के यहाँ पैदा हुई जो बड़ी होकर वैश्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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