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ने अपने पति की अंगुली में नामांकित अंगूठी देखकर उसे अपना भाई होने का अनुमान लगा लिया । तत्पश्चात् उसने साध्वी दीक्षा ले ली । बाद में उसे अवधिज्ञान प्राप्त हो गया । इधर कुबेरदत्त किसी कार्यवश मथुरा गया था जहाँ कुबेरसेना वेश्या (अपनी माता) से फँस गया फलत: पुत्रोत्पन्न हुआ ।
कुबेरदत्ता को अवधिज्ञान से इस अनर्थ का ज्ञान हो गया । वह दोनों को प्रतिबोध देने के लिए मथुरा पहुँची । जिस समय वह नवजात बालक रो रहा था उस समय साध्वी जी उसे चूप कराते हुए अपने साथ उसे छ: रिश्ते को इस प्रकार बताया
तु मेरा पुत्र, भतीजा, भाई, देवर, चाचा और पौत्र है । तेरे पिता मेरे पति, पिता, भाई, पुत्र, श्वसुर और नाना लगते हैं । तेरी माता मेरी भाभी, सौत, माता, सास, पुत्रवधु तथा नानी लगती है । यह सुनकर कुबेरसेना को पापमय जीवन से वैराग्य हो गया । इसलिए हे प्रभव ! ऐसे रिश्ते तो अनेक जुड़ते हैं और जुड़ेंगे । उन्होंने पुत्र से सद्गति प्राप्त होने के विषय में कहा कि ऐसा कोई नियम नहीं है । इसके लिए उन्होंने महेश्वरदत्त की कथा कही जो इस प्रकार है
विजयपुर में महेश्वरदत्त नामक सेठ, जिसका महेश्वर नामक पुत्र था । मृत्यु के समय सेठ ने अपने पुत्र से श्राद्ध के दिन भैंसे के मांस से परिवार को तप्त करने को कहा । मरकर महेश्वरदत्त भैंसा बना और उसकी माता भी मर गयी जो उसी घर में कुतिया बनी । महेश्वर ने अपनी व्यभिचारिणी पत्नी के साथ रतिक्रीड़ा करते उसके यार को देख लेने से मार डाला जो मरकर उसके पुत्ररूप में जन्मा जो उन दोनों को बहुत प्रिय था ।
महेश्वर श्राद्ध पर उसी भैंसे को मारकर लाया और सबको तृप्त किया । भिक्षा के लिए जा रहे धर्मघोष मुनि इस वृत्तान्त को जानकर मुस्कुराते हुए बोले
“मारितो वल्लभः, पिता पुत्रेण मशितः ।
जननी ताड्यते सेयं, अहो मोह विजृम्भितम् । यह श्लोक सुनकर महेश्वर ने विरक्त होकर श्रावकधर्म को स्वीकार कर लिया।
यह सुनकर प्रभव ने जम्बूकुमार से कहा - आप मेरे परिवार के लोगों को छोड़ दीजिए, मैं भी आप ही के साथ मुनिदीक्षा ग्रहण करूंगा। अपने पति की दीक्षा
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