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________________ (४) इय = परिक्खिय - परीक्ष्य (२९९) भविय : भूत्वा (१०१) चिंतिय - चिन्तयित्वा (२८६) (५) अ = पप्प = प्राप्य (१३९, २२८) उपरोक्त प्रत्ययों में से प्रारम्भिक तीन प्रत्यय -इत्तु, -इत्ता और -इया प्राचीन हैं जो अर्धमागधी में भी मिलते हैं । अन्तिम प्रयोग पप्प (प्राप्य) भी एक अवशिष्ट प्राचीन प्रयोग है जो आचारांग (१.२.३.६), स्थानांग (१८८), उत्तराध्ययनसूत्र (१०१७, १०१९), पण्णवणा (५२३, ५४०, ५४१, ६६५, ६६७, ७१२, ७८१), दशवैकालिक-नियुक्ति (६४९, ५.८; ११, ६५३.१) जैसे आगम ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है । पूर्वकालिक कृदन्त के लिए हेत्वर्थक कृदन्त का प्रत्यय -उं ११ बार प्रयुक्त हुआ है जो कि कुल प्रयोग का १५.३ प्रतिशत है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं- दाउं -दत्वा (१९४, २९९, ३९९, ४९९, ५१०) ; छड्डेउं - छर्दयित्वा (५०९) इत्यादि। सभी प्रत्ययों का प्रतिशतांक निम्न तालिका से स्पष्ट हो जायेगाऊणं ऊण ता तु इया इय अ उं प्रतिशत ६१.१ १२.५ १.४ १.४ १.४ ४.२ २.७ १५.३ पूर्वकालिक कृदन्त के लिए हेत्वर्थक -उं प्रत्यय का प्रयोग वसुदेवहिंडी और पउमचरियं में भी क्रमश: ३% और २०% है१४ । हेत्वर्थक कृदन्त के लिए प्राय: -उं प्रत्यय का प्रयोग मिलता है । इसके लिए पूर्वकालिक कृदन्त का -ऊण प्रत्यय ५ बार प्रयुक्त हुआ है जो कुल प्रयोग का ३०% है, यथा काऊण - कर्तुम् (१५८, ३४४) तोसेऊण - तोषयितुम् (१८९) वोत्तूण - वक्तुम् (३३) अहियासेऊण - अतिसोढुम् (३४६) ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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