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दिये । वहाँ जाकर ऋषभदेव की माँ मरुदेवी का मोह दूर हो गया और दीक्षित होकर मोक्ष को प्राप्त हुई । भरत प्रभु का वन्दन करके तथा श्रावक धर्म स्वीकार करके अयोध्या आये और चक्ररत्न का उत्सव किया । आठ दिन बाद चक्ररत्न पूर्व दिशा में चला । भरत राजा ने भी छ: खण्ड पर विजय पाने के लिए प्रस्थान किया । भरत ने पूर्व समुद्र के किनारे अट्रम तप किया । मन में मगधदेश का ध्यान करके बाण छोड़ा । वह बाण मगधदेश की सभा में सिंहासन से टकराकर जमीन पर जा गिरा। भरत का नाम पढ़कर मगधदेव ने आत्मसमर्पण कर दिया । उसके बाद आकाश में चक्र के पीछे सेना चल दी । उसने दक्षिण में वरदामदेव को जीता । पश्चिम में प्रभासदेव को जीता उत्तर दिशा में चक्र चला । वैताढ्य पर्वत के पास अट्ठम तप करके भरत ने कृतमालदेव का ध्यान किया ।
एक देव ने प्रकट होकर तमिस्रा गुफा का दरवाजा खोला । भरत ने सैन्यसहित उस गुफा में प्रवेश किया । रास्ते में निम्नगा और उन्निम्नगा दो नदीयों को पार कर वे गुफा से बहार निकले । वहाँ म्लेच्छ राजाओं पर विजय पायी । वहाँ से चलकर एक नदी के किनारे पड़ाव डाला वहाँ नौ निधान प्रकट हुए
१. नैसर्प, २. पाडुक, ३. पिंगल, ४. सर्वरत्न, ५. महापद्म, ६. काल, ७. महाकाल, ८. माणवक, ९. शंख ।।
ये गंगा मुख में रहनेवाले थे । आठ पहिए, आठ योजन ऊँचे, नौ योजन चौड़े और बारह योजन लम्बी मंजूषा के आकार के होते हैं ।
भरत चक्रवर्ती ने आठ दिन का महोत्सव किया । गंगादेवी के साथ उसने एक हजार साल तक सुखोपभोग किया । उसके बाद वह आगे बढ़ा । उसने वैताढ्य पर्वत के नमि और विनमि विद्याधरों को जीता । ६. इस तरह भरत चक्रवर्ती साठ हजार वर्ष तक दिग्विजय कर अयोध्या वापस आया । इस प्रकार रहते हुए भरत चक्रवर्ती को कई लाख वर्ष व्यतीत हुए । एक दिन जब वे दर्पण में अपना सौंदर्य देख रहे थे कि उनके हाथ की अंगुली से अंगुठी जमीन पर गिर पड़ी और उनकी शोभा कम हो गयी फिर उन्होंने सभी आभूषण उतार दिये और बिलकुल शोभारहित हो गये । तब उन्हें शरीर की असारता का ज्ञान हुआ और वे राज्यसुख छोड़कर संयम अंगीकार किये । केवलज्ञान के बाद मोक्ष को प्राप्त हुए ।
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