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वे जंगल में गाय चराते हुए एकत्रित होकर बातें कर रहे थे । उसी समय तीव्र प्यास से त्रस्त साधू जंगल में रास्ता भूल जाने के कारण वहाँ पेड़ की छाया में आकर बैठे। ग्वालों ने मुनि की वेदना को समझकर पानी की चारों तरफ तलाश की । पानी न पाकर गाय का दूध को ही मुनि के मुँह में डाला जिससे वे होश में आ गये । मुनि ने उनको सरल स्वभावी जानकर उपदेश दिया जिससे उन सबने विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की और चारित्र का पालन करते हुए मुनि के साथ विहार करने लगे । कुछ समय बाद उनमें से दो शिष्यों ने चारित्र की विराधना की और दूसरे दोनों मुनि चारित्र की आराधना कर उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त हुए । चारित्र की विराधना करनेवाले दो शिष्य मरकर देवगति को प्राप्त हुए ।
वहाँ से एक दासी के वहाँ जन्मा । बड़ा होकर वह भी दास का काम करने लगा । एक बार वर्षाकाल में दोनों खेत की रखवाली कर रहे थे । उनमें से एक दोपहर को वृक्ष के नीचे सोया हुआ था । उसे सांप ने डंस लिया । दूसरे ने सर्प को गाली दी अत: उसको भी डॅस लिया । मरकर दोनों ने मृग रूप में जन्म लिया।
एक बार किसी शिकारी ने दोनों का शिकार कर लिया । वहाँ से वे हंस की योनि में जन्मे । एक दिन किसी शिकारी ने उन्हें जाल में फंसाकर मार डाला। फिर वे काशी में किसी चाण्डाल के वहाँ जन्मे । उनका नाम चित्र और संभूति रखा। उस नगर के राजा का नमुचि नामक प्रधान था जो पटरानी से वैषयिक सम्बन्ध रखता था । जब राजा को इसका पता चला तो उसने चाण्डाल को बुलाकर उसे वध्यभूमि में मार डालने का हुक्म दिया । परन्तु चाण्डाल को दया आयी और उसने गुप्त रूप से उसे अपने घर अपने बच्चों को पढ़वाने के लिए लाया । चित्र और संभूति दोनों थोड़े से समय में शास्त्रों में पारंगत हो गये । कुछ समय पश्चात् नमूचि ने चाण्डाल की पत्नी को फंसा लिया । चाण्डाल को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने उसे मारने के लिए बाहर निकाला । चित्र और संभूति ने उसे स्वयं मारने के लिए कह कर पिताजी से छुड़ा लिया और वध्यभूमि की और ले जाकर छोड़ दिया । नमुचि वहाँ से भगकर हस्तिनापुर के राजा सनत्कुमार के यहाँ सेवक बनकर रहने लगा ।
चित्र और सम्भूति संगीतकला में अत्यन्त प्रवीण थे । वे नगर के चौराहों पर गीत गाया करते थे । युवतियाँ उन पर मुग्ध हो गयीं । लोगों ने उन दोनों के खिलाफ राजा से शिकायत की जिससे उनको नगर से निर्वासित कर दिया गया ।
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