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चित्र और सम्भूति दोनों इस निर्वासन से क्षुब्ध होकर आत्महत्या करने के लिए एक पर्वत से गिरने ही वाले थे कि एक साधु ने उन्हें रोका । वे मुनि के पास आये और अपनी आपबीती सुनायी ।
साधु ने उन्हें उपदेश दिया जिससे वे विरक्त होकर चारित्र का पालन करते हुए विहार करने लगे । एक बार हस्तिनापुर नगर में मासक्षमण के पारणे के लिए मिक्षार्थ घूम रहे सम्भूति मुनि को नमूचि मन्त्री देखकर पहचान गया । अपने दुश्चरित्र के भण्डाफोड़ के डर से नमूचि ने एक नौकर से उसे तिरस्कारपूर्वक बाहर निकलवा दिया । इससे सम्भूति को क्रोध आया और उन्होंने अपनी तेजोलेश्या से पूरे नगर में
आतंक फैला दिया । चक्रवर्ती सनत्कुमार ने मुनि के चरणों मे गिरकर क्षमा मांगी । उस समय चित्रमुनि अपने भाई के पास आये और सबको शान्ति का उपदेश दिया। सम्भूति का क्रोध शान्त हो चुका था । राजा ने नमूचि की करतूत जानकर उसने देश से निकाल दिया ।
तत्पश्चात् दोनों मुनि वन में जाकर आमरण अनशन करने लगे । एक बार सनत्कुमार तथा उसकी पटरानी उनका वंदन करने आयी । सुनन्दा पटरानी चित्रमुनि का वंदन करके सम्भूति का वंदन कर रही थी । सम्भूति को उसके केशकलाप देखकर राग उत्पन्न हो गया । अनशन पूर्ण कर वे दोनों स्वर्ग गये । आयुष्य पूर्ण कर चित्रमुनि पुरिगतालनगर में एक सेठ के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । सम्भूति कांपिल्यनगर में ब्रह्मदत्त नाम का बारहवाँ चक्रवर्ती हुआ ।
___ एक बार जब वह राजसभा में बैठा था, एक फुल का गुच्छा देखते ही उसे जाति स्मरण हुआ । उसने मन में विचार किया कि वह भ्राता कहाँ है, जिसके साथ मेरा पाँच जन्मों का सम्बन्ध है । उससे मिलने के लिए उसने आधी गाथा बनायी । "अश्वदासो मृगो हंसो मातंगावमरो तथा ।" उसने नगर में घोषणा करवाई कि जो कोई इस गाथा को पूर्ण करेगा उसकी मनोकामना पूरी की जायेगी । उस समय तक चित्र का जीव संसार से विरक्त हो चुका था । वह भी जाति स्मरण के कारण अपने भाई से मिलने के लिए कांपिल्यनगर पहुँचा । वहाँ रहट चलानेवाले व्यक्ति के मुख से यह आधी गाथा सुनकर मुनि ने उत्तरार्ध गाथा पूर्ण की - "एषा नौ षष्टिका जातिरन्योन्याभ्यां वियुक्तयो:" - राजा को जब यह मालूम हुआ तो वह बेहोश हो गया।
राजा मुनि का वंदन करने सपरिवार चल दिए । मुनि ने राजा को उपदेश
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