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पर पहुँची । मुनि को पहचानकर सबको उनका परिचय दिया। उसके सबकी तरफ से क्षमा माँगने पर मुनि ने कहा कि उन्हें कोई क्रोध नहीं था । मुनि के कथनानुसार सबने यक्ष से क्षमा माँगी तथा मुनि की स्तुति कर शुद्ध आहार भिक्षा में दिया जिससे देवों ने पाँच दिव्य प्रकट किये । यज्ञमण्डप में सबने मुनि के उपदेश सुने और श्रावक धर्म स्वीकार किया । हरिकेशबल मुनि ने महाव्रतों का सम्यक् आराधन किया और केवली होकर मोक्ष को प्राप्त हुए ।
१६. वज्रस्वामी की कथा
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तुम्बनवन गाँव का धनगिरि नामक एक कुशल व्यापारी ने अपनी गर्भवती पत्नी सुनन्दा को छोड़कर मुनिदीक्षा अंगीकार कर लिया । पुत्रजन्म की बधाई देने आये हुए सुन्द के सम्बन्धी कहने लगे यदि इसके पिता दीक्षा न लेकर गृहस्थ में रहते को वे भी धन्यवाद के पात्र होते यह बात सुनकर बालक वज्र मन ही मन सोचने लगा । जाति स्मरण ज्ञान से उसने पूर्वजन्म में अनुभूत मुनि धर्म का स्वरूप जान लिया । उसने दीक्षा लेने की सोच ली । माता के मोहजाल से छूटने के लिए उसने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया । छः महीने बाद माता ने झुंझला कर बालक को भिज्ञार्थ आये हुए धनगिरि की झोली में रख दिया । गुरुदेव की आज्ञानुसार इन्कार न कर सकने के कारण वे बालक को गुरु के पास लाये । दीक्षा योग्य न होने के कारण आचार्य ने साध्वियों के उपाश्रय में भिजवा दिया । वहाँ पालने में सोते-सोते उसने ११ अंग तथा अनेक सिद्धान्तों का अध्ययन कर लिया । बालक की माँ सुनन्दा पुत्र का मुँह देखने प्रतिदिन उपाश्रय जाया करती थी । एक दिन उसने धनगिरि से पुत्र को पुनः घर ले जाने की माँग की । धनगिरि मुनि ने देने से इन्कार कर दिया । मामला राजदरबार में गया । राजा ने फैसला सुनाया – इस बालक को दोनों बुलायें जिसके पास यह स्वयं चला जायेगा । बालक उसके पास रहेगा । ऐसा करने पर बालक अपने पिता के पास गया । क्रमशः ८ साल का होने पर वज्रकुमार को मुनि दीक्षा दी गयी । सुनन्दा ने भी संयम अंगीकार किया । वज्रमुनि के योग्य होने पर गुरु के द्वारा आचार्यपद तथा पूर्वजन्मीय मित्रदेव के द्वारा वैक्रिय लब्धि और आकाशगामिनी विद्या मिली । एक बार वे पाटलिपुत्र पधारे जहाँ धनावह सेठ की पुत्री रुक्मिणी उन्हें देखकर मोहित हो गयी और उनसे शादी करने का निश्चय कर लिया। धनावह सेठ ने आचार्य से इस बात का निवेदन कया । आचार्य ने शादी करने से इन्कार कर दी लेकिन बहुत आग्रह देखकर उसे अपने मार्ग का अनुसरण करने की
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