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राजा ने श्रीयक को अपना मन्त्री बनाना चाहा लेकिन उसने छोटा होने के नाते इन्कार कर दिया । फिर राजा ने स्थूलिभद्र को बुलाने के लिए एक नौकर भेजा । स्थूलिभद्र को पिता की मृत्यु से बहुत दुःख हुआ । उसने राजा से विचार ने के लिए कुछ समय मांगा । पिता की मृत्यु तथा लोगों की स्वार्थपरता के कारण उसे वैराग्य हो गया । वे मुनिवेश धारण करके राजा को इसकी सूचना देकर संभूतिविजय के पास मुनिदीक्षा ग्रहण कर लिए । उधर कोशा वैश्या को इससे बहुत दुःख हुआ । कुछ दिन गुरुदेव से आज्ञा लेकर स्थूलिभद्र चातुर्मास करने के लिए कोशा वैश्या के यहाँ ही आये । कोशा ने उत्तेजनात्मक हाव-भाव, व्यंग एवं बात से उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु असफल रही । बल्कि वह भी उपदेश सुनकर श्रावक धर्म अंगीकार कर वराङ्गना बनी । स्थूलिभद्र मुनि के तीनों गुरुभ्राता अलग-अलग स्थानों पर चातुर्मास बिताकर आचार्य के पास पहुँचे । आचार्य ने स्थूलिभद्र के कार्य को सबसे ज्यादा महत्त्व दिया । इधर कोशा वैश्या के यहाँ राजा की आज्ञा से एक बाण चलाने में निपुण रथकार आया । उसने गवाक्ष में बैठे-बैठे आम के पेड़ में लगे पके आम के गुच्छे को बाण से तोड़ कर कोशा को भेट किया । यह देखकर कोशा ने आंगन में सरसों के ढेर पर सूइयां खड़ी कर उसकी नौक पर फूल रखवाया और उस पर नृत्य किया । रथकार के प्रशंसा करने पर कोशा ने स्थूलिभद्र की प्रशंसा की
और उनका परिचय दिया । स्तुतिमय वचन सुनकर रथकार ने भी स्थूलिभद्र के पास मुनिदीक्षा ग्रहण की । स्थूलिभद्र महावीर निर्वाण से २१५ वर्ष पश्चात् ९९ वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हुए। २०. सिंह गुफावासी मुनि
__पाटलिपुत्र" में आचार्य सम्भूतिविजय के शिष्य सिंहगुफावासी मुनिने स्थूलिभद्रमुनि से ईर्ष्यावश दूसरा चौमासा कोशा वैश्या की बहन उपकोशा के यहाँ बिताने की गुरु से आज्ञा मांगी । गुरु के बहुत समझाने पर भी जब वे नहीं माने तो गुरु ने आज्ञा दे दी । उपकोशा ने उन्हें स्थान दिया । उपकोशा को जब मुनि की ईर्ष्या का पता चला तो उसने विशेष हाव-भाव से उनका ध्यान विचलित किया। अन्त में सिंहगुफावासी मुनि विचलित होकर उससे कामवासना तृप्त करना चाहे । उपकोशा ने रत्नकम्बल की मांग की । वे रत्नकम्बल लाने के लिए नेपाल नरेश के पास गये । किसी तरह रत्नकम्बल लेकर वे उपकोशा के पास वापस आये उसे भेंट की । उपकोशा उससे पैर पोंछकर गन्दे जगह पर फेंक दिया । मुनि नाराज हुए ।
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