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________________ उपकोशा ने उन्हें बहुत धिक्कारा । मुनि वहाँ निरुत्तर और लज्जित होकर क्षमा मांगे और स्थूलभद्रमुनि के पास आये । उनसे भी क्षमा याचना कर उनकी प्रार्थना की । फिर गुरुजी के पास गये और क्षमा याचना कर अपने कुत्सित विचार पर पश्चात्ताप किये । पुन: महाबत ग्रहण कर शुद्ध हुए और सुगति के अधिकारी बने । २१. पीठ महापीठ मुनि की कथा महाविदेह क्षेत्र में व्रज्रनाभ नामक चक्रवर्ती सम्राट ने राज्य-ऋद्धि छोड़कर मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली । उसके बाहु, सुबाहु, पीठ, महापीठ नामक चार भाइयों ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली । बाहुमुनि ५०० साधुओं का आहार लाता था और सुबाहु उनकी सेवा करता था । पीठ महापीठ विद्याध्ययन करते थे । गुरु के मुँह से बाह और सुबाहु की प्रशंसा सुनकर वे पीठमहापीठ उनसे घृणा करने लगे । इस प्रकार उन दोनों ने अशुभ कर्मों का बन्ध कर लिया । चारित्रपालन करने से पाँचों देवरूप में उत्पन्न हुए । वहाँ से वज्रनाभ ऋषभदेव, बाहु, सुबाहु क्रमश: भरत और बाहुबली तथा पीठ और महापीठ अशुभ कर्मों के कारण ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी के रूप में जन्म लिये । २२. तामलितापस की कथा तामलिप्ती नगर में तामिल नामक सेठ ने अपने पुत्र पर घर का बोझ छोड़कर मुनिदीक्षा ली और नदी के किनारे कुटिया बनाकर रहने लगा । उसने साठ हजार वर्ष तक दुष्कर अज्ञान तप किया और अन्त में अनशन किया । उस समय बलिचंचा की राजधानी के असुरों ने तामलितापस से निवेदन किया कि आप नियाण करके हमारे स्वामी बनें । तीन बार कहने पर भी उन्होंने अंगीकार नहीं किया और नियाण भी नहीं । कष्ट सहन के फलस्वरूप आयुष्य पूर्ण कर ईशान देवलोक में इन्द्ररूप उत्पन्न हुए और वहाँ ही सम्यक्त्व प्राप्त किया । २३. श्री शालिमद्र शालि नामक गाँव की धन्या नाम की एक दरिद्र विधवा अपनी आजीविका के लिए अपने पुत्र संगम को लेकर राजगृही नगरी में रहने आयी । वह सम्पन्न घरों का कामकाज करती तथा संगम गायों को चरा कर गुजारा चलाता था । किसी त्यौहार के दिन संगम के खीर मांगने पर माता की विवशता देखकर पड़ोसी सेठानियों ने उसे ७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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