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________________ पहले कादम्बी की महाटवी में रहते थे । उसको भीलों ने पकड़ लिया और पर्वतीय प्रदेश में रखा, जिससे उसका नाम गिरिशुक हुआ और मुझे तापसों ने पकड़कर पुष्पवाटिका में रखा जिससे मेरा नाम पुष्पशुक है । वह भीलों के संसर्ग से मारने, पीटने, बाँधने की बातें सीखा और तापसों के संसर्ग से मैंने शुभ गुणों की बातें सीखी ।" तोते की बुद्धिमत्तापूर्ण बात से राजा प्रसन्न होकर अपने नगर को लौट गया। ५९. शैलकाचार्य और पंयक शिष्य द्वारकापुरी में श्रीकृष्ण वासुदेव राज्य रखते थे । उसी नगरी में थावच्चा सार्थवाह अपनी पत्नी और थावच्चाकुमार नामक पुत्र के साथ रहता था । थावच्चाकुमार अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ सुखोपभोग करता था । एक बार वह अरिष्टनेमि का उपदेश सुनकर दीक्षा अंगीकार किया । एक बार आचार्य थावच्चाकुमार शैलकपुर के राजा को अपने उपदेश से १२ व्रत स्वीकार कराये । वहाँ से सौगन्धिका नगरी में पधारे, जहाँ शुक पब्रिाजक के परम भक्त सुदर्शन सेठ को शौच मूलक धर्म छोड़कर विनयमूलक धर्म स्वीकार कराया । शुक पब्रिाजक ने यह जानकर थावच्चा पुत्र से धर्मचर्चा की और निरुत्तर होकर दीक्षा ग्रहण कर लिया । आचार्य थावच्चापुत्र केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त हुए । इधर आचार्य शुक अपने हजार शिष्यों के साथ शैलकपुर आकर राजा को धर्मोपदेश दिये । राजा विरक्त होकर मुनि दीक्षा ग्रहण किये । शुकाचार्य केवली होकर मोक्ष पाये । आचार्य शैलक राजर्षि के शरीर में रुखा सूखा खाने से अनेक व्याधियाँ पैदा हो गयीं फिर भी कठोर तप करते थे। विहार करते हुए वे एक बार शैलकपुर पहुँचकर अपने पुत्र मंडुकराजा को धर्मोपदेश दिया। मंडुक के कहने पर शैलकाचार्य चिकित्सा के लिए अपने शिष्यों सहित दानशाला में रहने लगे । कुछ दिनों में वे स्वस्थ हो गये । लेकिन स्वादिष्ट भोजन ने उन्हें चारित्राराधन में शिथिल बना दिया और वे विहार भी करने नहीं गये । पंथक को छोड़कर सभी शिष्य विहार करने चले गये । कार्तिक पूर्णिमा का चातुर्मासिक पर्व समाप्ति के दिन सो रहे आचार्य का पंथक शिष्य ने प्रतिक्रमण कर क्षमापना के लिए उनका चरण-स्पर्श किया । आचार्य जगकर पंथकमुनि पर बिगड़े । पंथक उनसे क्षमायाचना करने लगा । शैलकाचार्य को भी आत्मचिन्तन से पश्चात्ताप हुआ और वे विहार करते हुए चारित्र-पालन करने लगे । अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर सिद्धाचल तीर्थ पर अनशन स्वीकार करके सिद्धगति को प्राप्त किये २६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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