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समझकर वन्य भूमि में डाल दिया । शीत पवन लगने से वह होश में आयी कि उसे एक सार्थवाह मिला । सार्थवाह ने उसको उचित भोजनादि कराया जिससे वह पुन: पूर्ववत् हो गयी । सार्थवाह ने उससे विवाह का प्रस्ताव रखा । सुकुमालिका ने उसे भवितव्यता तथा सार्थवाह के उपकार को ध्यान में रखकर स्वीकार कर लिया । वह सुखपूर्वक महल में रहने लगी । बहुत समय बाद विहार करते हुए ससक और भसक उसी नगर में सुकुमालिका के वहाँ ही भिक्षार्थ आये । ससक और भसक के कुछ शंकित होने पर सुकुमालिका ने अपनी आपबीती सुनायी । भाइयों ने सार्थवाह को समझा बुझाकर सुकुमालिका को पुन: साध्वी दीक्षा दी । वह शुद्ध चारित्राराधन करके मरणोपरान्त स्वर्ग में पहुँची । ५७. मंगू आचार्य
एक बार श्रीमंगू आचार्य मथुरा नगरी में पधारे । वहाँ के धनाढ्य श्रावक उनकी बहुत सेवा करते थे। वे श्रावक उनके व्याख्यान से बहत प्रभावित थे और वे भव से पार होने के लालच से उनको स्वादिष्ट आहार देते थे । आचार्य अपने आपको गौरवान्वित समझने लगे । जिससे उनके चारित्र में शिथिलता आ गयी । वे रागवश वहाँ से विहार करने भी नहीं गये । मरकर वे उसी नगरी के गन्दे नाले के पास यक्ष मन्दिर में यक्षरूप में उत्पन्न हुए।२५ । जब वे अपने पूर्वजन्म को देखे तो उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ । यक्ष अपने शिष्यों को अपना परिचय दिये और उन्हें चाटुकारिता से सावधान रहने का उपदेश देकर अदृश्य हो गये । साधु उसकी बात से शिक्षा लेकर शुद्ध चारित्राराधन किये और सद्गति में पहुँचे । ५८. गिरिशुक और पुष्पशुक का दृष्टान्त
एक बार वसन्तपुर नगर का कनककेतु राजा घोड़े पर बैठकर और करने निकला । घोड़ा तेज दौड़कर राजा को घने जंगल में पहुँचा दिया । राजा विश्राम करने को सोच रहे थे कि कुछ दूरी पर मनुष्यों का शोर सुनाई दिया । राजा उसी तरफ जाने लगे । वहाँ एक पेड़ की डाली पर पिंजरे में लटकता हुआ एक तोता ऊँचे स्वर से भीलों को राजा को पकड़ने के लिए बुलाने लगा । राजा वहाँ से भगकर एक आश्रम के पास पहुँचे । जहाँ पेड़ पर पिंजरे में लटकते हुए तोते ने तापसों को राजा के सम्मान के लिए बुलाया । राजा ने उस तोते की कहानी उससे कही और दोनों के स्वभाव में अन्तर का कारण पूछा । तोते ने कहा - "हम दोनों सहोदर हैं और
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