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________________ यह प्रवृत्ति पू. आचार्य श्री हेमचन्द्र नियम के प्रतिकूल जाती है । उनके अनुसार अ आ स्वर के बाद ही अल्पप्राण व्यंजन का लोप हो तो अवशिष्ट अ आ की "य" श्रुति होती है और कभी-कभी अवशिष्ट अ आ के पहले "इ" स्वर के होने पर भी "य" श्रुति होती है । वैयाकरण वररुचि इस विषय में मौन हैं और व्याकरणकार चण्ड ने "य" श्रुति का संकेत तो दिया है लेकिन वह इतना स्पष्ट नहीं है । नाट्यशास्त्र के कर्ता आचार्य भरत ने भी "य" श्रुति का आंशिक संकेत दिया है ।' पालि भाषा में वैसे "य" श्रुति के कुछ इका-दुक्का उदाहरण हमें मिल जाते है। निय (निज) सुत्तनिपात; आवेणिय (आवेणिक), विनयपिटक; अपरगोयान (अपरगोदान) बौधिवंश; खायित (खादित) जातक । इतना ही नहीं अशोक के एवं उसके परवर्ती शिलालेखों से भी इस "य" श्रुति की पुष्टि होती है१. अशोक के अभिलेख अनावुतिय (अनायुक्तिक) धौलीपृथक्, जौगड़ पृथक् । - उपय (-उपग) धौली, कालसी, शाहबाजगढी, मानसेरा, गिरनार । कम्बोजय-(कम्बोज) रय(राजन्) समय (समाज) शाहबाजगढ़ी । २. खरोठी शिलालेख (अ) सहयर (सहचर) के. आइ. एच० (२) महरय (महाराज) के १३ प्रथम शताब्दी ई. पूर्व (ब) संवत्शरय (संवत्सरक) के १३, प्रथम शती ई. स. (स) अव्यय च = य में परिवर्तित के ८६ द्वि० श. ई. स० (द) महरय (महाराज) के १३ पूय (पूजा) के २, के ८०, के ८८, प्र. श. ई. पू. से तृतीय प्र. श. ई. स. तक उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि "य" श्रुति का प्रचलन बहुत पहले से था और उसके लिए पूर्ववर्ती अ आ का होना जरूरी नहीं था । २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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