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________________ कर ८ देवलोक पहुँचे । वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर सौरीपुर के अन्धकविष्णु राजा की सुभद्रारानी से वसुदेव नामक पुत्र रूप में उत्पन्न हुए । समुद्र विजय आदि ९ वसुदेव में सबसे बड़े भाई थे । पूर्वजन्म के निदान के कारण उनका शरीर सुडौल और आकर्षक था । कुलांगनाएं उन पर आकर्षित हो जाती थीं । नागरिकों ने राजा से उसकी शिकायत की और उसको बाहर घूमने से मना कर दिया । एक बार गर्मी के मौसम में शिवादेवी के द्वारा दिए गये शीर्षचन्दन को कटोरे में भरकर समुद्र विजय के लिए ले जाती दासी के हाथ से छीनकर वसुदेव ने अपनी शरीर में लगा लिया । इस पर दासी ने ताना मारते हुए कहा "इन्हीं हरकतों से बन्दी बनाये गये हो ।" वसुदेव कुछ विश्वस्त लोगों से इस तरह की पिछली घटनाओं को सुनकर चुपके से अकेला निकला और मरघट से एक मुर्दे को लाकर नगर के दरवाजे के पास जला दिया और लिख दिया कि वसुदेव यहाँ जलकर मर गया । इससे समुद्र विजय को बहुत दुःख हुआ। वसुदेव १२०० वर्षो तक पर्यटन करता रहा । उसने ७२००० कन्याओं के साथ पाणिग्रहण किया । राजकुमारी रोहिणी के स्वयंवर में कुबडा का रूप लेकर गया। फिर भी राजकुमारी ने उसी के गले में माला डाली । यादव कुमारों ने नीच समझकर युद्ध किया । युद्ध में अपना पराक्रम दिखाकर उसने अपना स्वरूप प्रकट किया । इससे समुद्रविजय को आनन्द हुआ । वह स्वजनों सहित सौरीपुर आया और देवक राजा की पुत्री देवकी से शादी किया । देवकी की कुक्षि से श्रीकृष्ण, वासुदेव पुत्र हुए और उनके पुत्र शाम्ब और प्रद्युम्न हुए। इसीलिए वसुदेव हरिवंश के पितामह कहलाते हैं । १८. गजसुकुमाल मुनि की कया द्वारका नगरी में राजा श्रीकृष्ण वासुदेव अपनी माता देवकी के साथ रहते थे । एक बार भगवान अरिष्टनेमि के वहाँ आने पर लोग उनके उपदेश सुनने गये तथा हर्षित होकर घर लौटे । भदिलपुर के एक साथ मुनि धर्म में दीक्षित ६ मुनि भ्राता भगवान् से अनुमति लेकर छठतप के पारणे के लिए दो दो के समूह में नगरी में भिक्षार्थ गये। उनमें से प्रथम गुट के दो मुनि महारानी देवकी के यहाँ पहुँचे । देवकी ने प्रसन्न होकर उन्हें मोदक भिक्षा में दिये । उनके बाद दूसरा और फिर तीसरा गुट आया । देवकी ने सबको एक ही समझकर आश्चर्यपूर्वक पूछा - क्या द्वारका नगरी के लोगों में धर्मभावना की कमी आ गयी है । मुनिद्धय ने अपने एक समान छ: भाई सहोदर भाई होने की बात बताई । देवकी को विचार करते-करते बचपन में मुक्तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001706
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorDharmdas Gani
AuthorDinanath Sharma
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages228
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, literature, & Sermon
File Size11 MB
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