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श्रीदशाश्रुतस्कंध-ग्रंथः
नियुक्ति-चूर्णिसहितः
प्रमुख संशोधक-टीप्पणकारश्च । पूज्य आचार्यदेव श्री कुलचन्द्रसूरीश्वर महा
• संपादकञ्च पन्यास श्री अभयचन्द्रविजयजी गणिवय
प्रकाशक श्री जैन श्वे.मू.पू. संघ शेफाली एपार्टमेन्ट, वासणा, पालडी,
अमदावाद
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॥ श्री प्रेम-भुवनभानु-पद्म-जयघोष-जगच्चन्द्रसूरिवर-सद्गुरुभ्यो नमः ॥
श्रीदशाश्रुतस्कंध-ग्रंथः ।
नियुक्ति-चूर्णिसहितः
* प्रमुख संशोधक-टीप्पणकाच . पूज्य आचार्यदेव श्री कुलचन्द्रसूरीश्वर महाराजा
• संपादकश्च . पन्यास श्री अभयचन्द्रविजयजी गणिवर्याः
प्रकाशक
श्री जैन श्वे.मू.पू. संघ शेफाली एपार्टमेन्ट, वासणा, पालडी, अमदावाद
प्राप्तिस्थान
दिव्य दर्शन ट्रस ३९, कलिकुंड सोसायटी धोळक..
वि.सं. २०६३
* मुद्रक : राजुल आर्टस्, घाटकोपर, मुंबई-४०० ०७७.
फोन : २५११ ००५६
ఉంయంయంయంయంయంయయం | అండింగంంంంం
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हैय बोले छे
पूज्यपाद प्रगुरुदेवश्री आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा तथा पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोषसूरीश्वरजी महाराजानी आज्ञाथी पूज्यपाद आचार्य गुरुदेवश्री जगच्चंद्रसूरीश्वरजी महाराजाए महान् कृपा करी प्राथमिकथी मांडी ६ छेद सूत्रोनुं अध्ययन अमने खूब ज उल्लासथी करावी असीम उपकार कर्यो छे. जे कदी विसरी शकाय तेम नथी.
त्यारबाद पूज्यपाद आचार्य देव श्री कुलचंद्रसूरीश्वरजी महाराजाए महानिशीथ श्रुतस्कन्ध अने दशाश्रुतस्कन्धD मेटर हस्तलिखित प्रतना आधारे संशोधन करी तेनुं प्रूफ मने जोवा मोकलवा द्वारा स्वाध्याय अने संपादन करवानो लाभ आपी महान् उपकार को छे.
आप पूज्योना अगणित उपकार प्रत्येना कृतज्ञभाव मारी मोक्ष मार्गनी साधनामां आवता अवरोध दूर करनारा बनो अने दिन-प्रतिदिन संयम परिणाम वधारनारा बनो चारित्र पर्यायनी शुद्धि गुणस्थानकनी अभिवृद्धि कारक बनो एज एक हृदयनी भावना छे.
लि
....
पंन्यास अभयचंद्र विजय... (संयम जीवनना ३१ मां वर्षमा प्रवेश दिन)
२०६३ महासुद १३.
అటువంశంవతతంగం మరువడంతంతయంతం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना
|| ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ।।
पूर्व प्रस्तावनानो सारोद्धार ।
जेहिं सूरिवरेहि, ताडपत्त-पमुहेहिंतो । उद्धरिआ सोहिआ, दसासुतक्खंधाइगंथा ।।१।। गुरुगुणेहिं सुसोहिआ, दंसणणाण-तवपमुहेहिं । ते मुनीसरा निग्गंथा, जयंतु सिरिविजय-कुमुदसूरीन्दा ||२||
परमतारक परमात्मा प्रभु श्री महावीरस्वामीनी पाटे थएल गणधरादिकनी परंपरामां महावीरस्वामीना निर्वाणथी १७० वर्षे थयेल श्रुतकेवली चौदपूर्वधर युगप्रधान परमपूज्य परमगीतार्थ श्रीमद् भद्रबाहुस्वामीजीए भव्य जीवोना उपकारने माटे द्वादशांगीरुप श्रुतसमुद्रमांथी जगतना उपकारने अर्थे नाना नाना उपद्रहोरुप अनेक ग्रंथो तथा अगियार अंगोमां केटलांक अंगोनी नियुक्तिओ पण रची छे, तेथी आराधको सुगमताथी अर्थने पामी आराधना करी शके. तेओश्रीना रचेला ग्रंथो नीचे प्रमाणे छे. (१) ओघनियुक्ति (२) दशाश्रुतस्कंध (३) श्रीकल्पसूत्र (४) सूत्रकृतांग नियुक्ति (५) श्री आचारांग नियुक्ति (६) श्रीआवश्यक नियुक्ति (७) श्री दशवैकालिक नियुक्ति (८) श्री पिंडनियुक्ति (९) श्री भद्रबाहु संहिता (१०) उवसग्गहर स्तोत्रादि ।
उपरोक्त ग्रंथोमां द्रव्यानुयोग-गणितानुयोग-चरणकरणानुयोग अने धर्मकथानुयोगनो समावेश थाय छे ।
ते कृतिओमांथी दशाश्रुतस्कंध नामनो ग्रंथ दश अध्ययनो तथा नियुक्ति अने चूर्णिए करीने सहित छे । ते मुनिमहाराजाओने विशेष उपयोगी होवाथी आज दिन लगी ताडपत्र उपर आलेखायेल खंभातना भंडारमा सुरक्षित रहेल हतो, ते परम पूज्य शान्तमूर्ति स्वपरशास्त्रनिष्णात पू.आ. श्री विजयकुमुदूसूरीश्वरजी महाराज साहेबे स्वहस्ते प्रेसकोपी करी मुद्रणालयमां मुद्रित कराव्यो.
____ आ ग्रंथमा दशे अध्ययनोमां ग्रंथकारे शुं प्ररुप्यु छे, ते वाचकवर्गनी जाण माटे अत्रे जणाववामां आवे छे ।
अत्र नियुक्तिकारे दश अवस्थाओ- विवरण करीने मनुष्यजीवननी सो वरसनी अपेक्षाए दश विभाग पाड्या छे । तेमां प्रथम बाला, मंदा , क्रीडा, बला,
ఉంంంంంంంంంంంంం III | ఉతం ఉంటుంంంంం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना प्रथम दशानी विगत ।
प्रज्ञा, हायनी, प्रपंचा, प्रागभारा, मन्मुखी अने सायणी ए दश अवस्थाओ नाम प्रमाणे दशे भावो भजवे छे । (१) बाल्यावस्थामां जीव हिताहित के कार्याकार्यने जाणतो नथी ते बाला (२) जेनी जुवानी अल्प खीली होय अथवा प्रज्ञा-बल मंद होय ते मंदा (३) क्रीडा कहेतां रमतगमतमां बोलवा विगेरेमा मन रहे ते क्रीडा (४) बल वीर्य विशिष्ट होय ते बला (५) तेमां व्यवहारकुशलता विशेष होय ते प्रज्ञा (६) जेमां बाहबल-इन्द्रियबल आदिनी हीणता होय ते हायणी (७) जेमां स्वपरने प्रपंच ऊभो थाय ते प्रपंचा (८) बोलतां, चेष्टा करतां अथवा भारथी नमी पडेलना जेवी जेनी दशा थाय ते प्रागभारा (९) वांको चाले, अटकता अटकतां अस्पष्ट भाषा बोले ते मन्मुखी अवस्था (१०) पलंगमां पडयो-पाथर्यो रहे, चालवानी शक्ति हीण थई गई होय ते स्वामिनी दशा.
__ आ दशे दशाओ आयु विपाकनी जणावी छ । हवे अध्ययनने उद्देशीने दश दशाओ नियुक्तिकार कहे छे ।
(१) असमाधि (२) सबल (३) आशातना (४) गणिगुणो (५) मनसमाधि (६) श्रावकपडिमा (७) साधु-पडिमा (८) कल्प (९) मोह (१०) निया'
आ दश दशाओ मानवजीवनना विकास माटे छे. आ नानी दश दशाओ ग्रंथकारे प्रत्याख्यान पूर्वमांथी जे जे प्राभृतमा हती तेमांथी उद्धरीने बालजीवोना उपकारने माटे आ ग्रंथनी रचना करी छे.
___ अत्रे चूर्णिकार-नियुक्तिकार फरमावे छे के मोटी दश दशाओ ज्ञाताधर्म-कथादि छठ्ठा अंगोमांथी जाणी लेवी अने शंकाकारनो उत्तर आपतां श्रीमान् चूर्णिकार जणावे छे के-आ ग्रंथ आहार, उपधि के मान-सत्कार माटे उद्धर्यो नथी, पण जीवो उपर अनन्त कृपा लावीने भावीमां रुप, रस, गंध, स्पर्श, वर्णादिनी उत्तरोत्तर हानी जोवाथी आ प्रयत्न भव्य जीवोना कंईक लाभने माटे थशे. ए ज हेतुथी आ ग्रंथ रचवानो प्रयत्न छे.
प्रभु महावीरे आ प्रमाणे कर्तुं छे, एम जणावीने प्रभु महावीरथी परंपराए प्राप्त थयेला आ श्रुतने जणावतां प्रथम दशामां वीस असमाधिस्थानो जणावेल छे. ते आ प्रमाणे...(१) द्रुतं द्रुतं चालवू एटले उतावळे चालवू, धबधब चालवू (एवी रीते उतावळे बोल-उतावळे पडिलेहण करवी-उतावळे खावू वगेरे विकल्पो जोडवा (२) अप्रमार्जितचारी-(पुंज्या-प्रमाा विनानुं आचरण) (३) दुःप्रमार्जितचारी (जेम तेम पडिलेहण करवं-जेनुं पडिलेहण न थई शके तेवी उपधि
ఉంభంతంతువుయంతయుం IV వంతయంతంతమయం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना
राखवी) (४) अधिक शय्या आसनने धारण करवां (चारित्रना नियम उपरांत वधारे आसनादि राखवां) (५) रातिणिक परिभाषी-(पोतानाथी ज्ञान-दर्शन-चारित्रतप अने वये करीने अधिक एवा मोटा पुरुषना सामा थपुं- अविनयथी वर्तवुं . ) (६) थेरे उपघाति- ( स्थविर एटले आचार्य - गुरुओ तेओने आचारना दोषवडे अथवा शीलदोष वडे प्रत्याघात करे.) (७) भूत उपघाती (भूत एटले एकेन्द्रियादि जीवोने उपघात करे. केवी रीते ? शातागारववडे, रसगारववडे, विभूषाए वर्तता अथवा आधाकर्मी आहार ग्रहण करवावडे अथवा कराववावडे तेम ज अजयणाए बोलवावडे जीवोनो उपघात करे) (८) संजलण (संजलण एटले वारंवार रीसाय, पछी चारित्रने बाळी नांखे - अग्निनी जेम) (९) कोहणो-क्रोधनो एटले अत्यंत क्रोध करे, हृदयमांथी द्वेष शल्य काढे नहि) (१०) पृष्ठमंसिको(पृष्ठमंसिको एटले पारकाना मोढे बीजाओना अवर्णवाद बोले अने गुणोने ठांके) (१२) अभीक्ष्णं-एटले वारंवार तेनो ते बोल याद करीने सामाने परिताप उपजावे. (१२) पहेलां उत्पन्न नहि थयेला एवां नवां अधिकरणो क्लेशोने करे अथवा अधृति करे. (१३) पूर्वे अधिकरण करेलाने खमाव्या होय के उपशमाव्या होय तेनी उदीरणा करे. (१४) अकाले स्वाध्याय करे. (१५) माटीवाला हाथपग पुंज्या विना बीजी भूमिमां जावआव करे. (१६) खूब उतावळथी बोले जेथी बीजाने व्याघात थाय. (१७) समुदायमां परस्पर भेद पडे तेम खटपट करे. (१८) आक्रोश करे, कडवी भाषाए करीने बीजाओने परिताप उपजावे. (१९) सूर्योदयथी मांडीने सूर्यास्त सुधी आहार करे ते सूर्य प्रमाण भोजी (२०) एवं कंईक करे के जेथी सामाने उद्वेग थाय, ते असमाधि कहेवाय. ए प्रमाणे वीस असमाधिस्थानको श्रीमान् भद्रबाहुस्वामीए प्रथम अध्ययनमां जणावेलां छे. असमाधि स्थानके वर्ततो मुनि शबल चारित्रवाळो बने, शबल स्थानके वर्तनार मुनि असमाधिवालो बने.
इति प्रथम अध्ययनम् ।
हवे बीजा अध्ययनमां आर्यभद्रबाहुस्वामीए २१ शबल स्थानको वर्णव्यां छे. शबल एटले चित्तलं चारित्रमां विचित्रता एटले काबरचित्रापणुं द्रव्य शबल एटले मूलगुणने वर्जीने उत्तर गुणना दोषोनुं सेवन करवुं ते गौण दोषो कहेवाय छे, भाव शबल एटले हलकुं-क्षुद्र आचरण आचरे अर्थात् अनाचार आचरे.
थोडाक दोष लगाडे ते ओसन्नो, क्षुद्र आचार राखे ते पासत्थो, अनाचार आचरे ते कुशील संक्लिष्ट अथवा आ भावशबल चारित्रवाळो मूल गुण 66.oooo
దీదీ.
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना द्वितीय दशानी विगत ।
वर्जीने उत्तरगुणो-आधाकर्मी आहार विगेरेमां अतिक्रम-व्यतिक्रम-अतिचार-अनाचार सेवे तो अने मूल गुणमां त्रण सेवे त्यां सुधी शबली कहेवाय अने चोथ सेवे तो सर्वभङ्गी कहेवाय अर्थात् अचारित्रीओ गणाय. जो के मूल-ग्रंथकारे तो एकवीस शबलमां चतुर्थ व्रतनुं खंडन करनारने पण शबली कह्यो छे. जुओ बीजुं पद 'मेहुणं सेवमाणे सबले इति चिंतनीयम्' इति द्रव्यशबल भावशबल (१) ब्रह्मचारीओए हस्तकर्म-सृष्टिविरुद्ध कर्म करवुं ते शबल (२) तिर्यंचयोनि साथै संभोग औदारिक शरीरी साथ संभोग - वैक्रियशरीरी साथै संभोग करवो ते शबल (३) रात्रिभोजन करवुं (४) आधाकर्मी आहार वापरवो (५) राजपिंड ग्रहण करवो अने वापरवो (६) वेचातुं लावेल, अदलबदल करी लावेल, झुंटावी लावेल, बीजा मालीकोनी इच्छा विरुद्ध लावेल, तथा सामो लावेल आहारने जे वापरे (७) वारंवार पच्चक्खाण करेला क्षेत्रनुं लावीने वापरे (८) ६ महिनानी अंदर एक गणमांथी बीजा गणमां प्रवेश करे (९) एक मासमां त्रण उदक लेप करे अर्थात् त्रण वखत पाणीमां उतरे. (१०) मातृस्थान- मायाकपट आचरे (११) गृहस्थनो पिंड वापरे (१२) छकाय जीवोनी हिंसा करे (१३) आसक्तिए . करी मृषावाद बोले (१४) आसक्तिए करी अदत्तादान ग्रहण करे (१५) आंतरा रहित-सचित्त पृथ्वी पर संथारो करे, बेसवुं करे (१६) ए प्रमाणे स्निग्ध पृथ्वी सहित-रजवाली पृथ्वी सहित संथारो विगेरे करे (१७) आसक्तिए करी सचित शिला माटी- घुणा नामना लाकडाना - कीडावाला घर उपर जीववाला फलक उपर इंडा-प्राणी-बीज - लीलोत्तरी-खार उधई घर पंचवर्णी लीलफुल- झाकल-करोलीयानुं जाल विगेरे ज्यां होय तेवा स्थानमां रहेवं बेसवुं संथारो कायोत्सर्ग वगेरे करवो (१८) आसक्तिथी मूल कंद स्कंध छाल- कुंपलीयो -पत्र - फल-फूल - बीज वगेरेनुं भोजन करवुं (१९) एक वरसमां दश वखत सचित पाणीने अडे अथवा नदी उतरे (२०) एक वरसमां दश वखत मातृस्थान क्रोध, मान, माया लोभ विगेरे करे (२१) आसक्तिथी शीतल पाणीनो उपयोग करे, केवी रीते ? हाथवडे, मात्रकवडे, द्रव्यना भाजनवडे अशन-पान खादिम स्वादिम ग्रहण करीने वापरे . आ उपरोक्त एकवीश शबलस्थानोने सेवे तो मुनि वस्त्रनां द्रष्टान्ते देशमलिनसर्वमलिन थाय छे.
इति द्वितीय अध्ययनम् ।
जा अध्ययनमां स्थविर भगवंतोए तेत्रीस आशातनाओ वर्णवी छे. तेने सेवनारा मुनिओ शबल बने छे. आशातनाओना श्रीनिर्युक्तिकार महाराजा
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे प्रस्तावना
बे प्रकार जणावे छे. (१) मिथ्यावर्जनरुप (२) लाभरुप- लाभरुप छ प्रकारे छे ते निक्षेपाथी जाणवी. वली द्रव्य आशातना चार प्रकारे तथा त्रण प्रकारे पण बतावी छे. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-सचित्त-अचित्त-मिश्र-इष्ट अनिष्ट भेदो थाय, जे मनिनी उपधि चोरे, हरण करे तेमां निर्जरानो लाभ, ते अनिष्ट लाभ. फासु आहार उपधि मले ते द्रव्यइष्ट लाभ. एवी रीते क्षेत्र-काल-भावनो विचार करवो. आ प्रमाणे लाभ आशातना जाणवी.
मिथ्या परित्यागनो स्वयं सूत्रकार पोते मूलसूत्रमा फरमावे छे. निर्युक्तिकार तो भार दईने जणावे छे. जे जीव आशातनाने न वर्जतो ते जीव ज्ञानादिक गुणोने अने मोक्षने मेळवी शक्तो नथी.
इति तृतीय अध्ययनम् । हवे चोथा अध्ययनमां आशातनाओने टाळीने गुणोने धारण करनार मुनिराज गणिसंपदाओने पामनार होय छे. तेथी सूत्रकार महर्षि गणिसंपदाओने वर्णवे छे. द्रव्यभाव निक्षेप विगेरे उपरोक्त अध्ययननी जेम जाणी लेवू.
आचारसंपदा-श्रुतसंपदा-शरीरसंपदा-वचनसंपदा-वाचनासंपदा- मतिसंपदा-प्रयोगसंपदा अने संग्रहसंपदा आ आठे संपदाओनुं विस्तारपूर्वक वर्णन करेल छे. त्यार पछी संपदाओने आचरनार शिष्य चार प्रकारनी विनयप्रतिपत्ति धारण करे. (१) आचारविनय (२) श्रुतविनय (३) विक्षेपविनय (४) निर्घातविनय. ते केवा प्रकारनो आचारविनय ? आचारविनय चार प्रकारनो कह्यो छे.
__संयमसमाचारी, तपसमाचारी, गणसमाचारी, एकल्लविहार समाचारी, श्रुतविनय चार प्रकारनो छे. सूत्र वदे-अर्थ वदे-हित वदे-नि:शेष वदे ते श्रुतविनय. विक्षेपणा विनय चार प्रकारे छे, जे जीव पूर्वे धर्म पाम्यो नथी तेने धर्म पमाडवो, जे जीव धर्म पामेल छ तेनं स्वामीभाई तरीके बहमान करवं, धर्मथी च्यत थयेलाने धर्ममां स्थिर करवो तेमज धर्मना हित माटे-शुभना माटे-क्षेम तथा उन्नतिना माटे-अनुगामी बनाववा माटे तत्पर रहे.
दोषनिर्घात विनय चार प्रकारे छे. स्वने क्रोध आव्यो होय तो ज्ञानरुप पंखाए करी शान्त करे, मान-मायादि दोषो प्राप्त थया होय तो तेने परास्त करे. इच्छाओ जागृत थई होय तो तेने शान्त करे. आम करवाथी आत्मा सुप्रणिहित बने छे. तेने ज दोषनिर्घातना विनय कहेवाय छे. गुरुकुलवास सेवनार अंतेवासीने चार प्रकास्नी विनय-प्रतिपत्ति थाय. उपकरण-उत्पादना साहल्लता-वर्ण
ఉంగురుతుగుతుందసుముగం VII ఉదయం యంతయుగయుగం
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चतुर्थ पंचम दशा नी विगत
संजलणता, भारपच्चोरुहणता.
उपकरणउत्पादना चार प्रकारनी छे. (१) नहि प्राप्त करेला उपकरणोने मेलवे (२) जूना उपकरणोनुं संरक्षण करे तथा संगोपवे (३) अल्प उपधिवाला मुनिनो (स्वगणनो होय के परगणनो होय ) उपकरणवडे यथाविधि उद्धार करे (४) संविभाग करे.
साहिल्या चतुर्विधा अणलोमवृत्तिका, प्रतिलोमकार्यकारिका, प्रतिरुपकार्यसंफर्शनक, सर्व अर्थने विषे अप्रतिलोभका, तेने ज सहायकारक गणाय छे. वर्णसंजलणता चार प्रकारे छे. (१) यथा तथा वर्णवादी (२) अवर्णवादत्यागी (३) वर्णवादप्रशंसक (४) आचार्य वृद्धोपसेवी.
भारपच्चोरुहणता-योग्यने गच्छनो भार सोंपवो ते चार प्रकारे छे. नहि संग्रहेला परिजनोने संग्रहवावालो थाय. (२) शिष्यने आचारविचारनो ज्ञाता बनावे (३) साधर्मिक, ग्लान, तपस्वीनुं यथाशक्ति वैयावच्च करवामां उद्यमी बने (४) भला साधर्मिक केम ओछं कलह करनारा ओछा झगडा करनारा ओछा तुमंतुमा करनारा, बहुसंजमी- बहुसंवरी - अप्रमादी - बहुसमाधिवंत-संजम तपे करी आत्माने भावता केम विचरता नथी एवी चिंता राखनारा गच्छाधिपति गणाय.
इति चतुर्थ अध्ययन गणिसंपदा.
हवे पांचमा अध्ययनमां चित्तसमाधिनुं विवेचन करवामां आव्युं छे. जो उपयोगवालुं चित्त न होय तो बधी ज क्रियाकांडनुं फल पाणी वलोव्या जेवुं आवे, माटे चित्तसमाधिनी व्याख्या निर्युक्तिकारे अने चूर्णिकार महाराजे सरस रीते करी छे. अत्रे विस्तारना भयथी मूल उपरथी थोडुं लखवामां आवे छे. हे आर्य ! भगवान् श्री महावीर प्रभुए चित्तसमाधिना दश स्थानको जणाव्या छे तेथी स्थविर भगवंतो पण एम जणावे छे.
शिष्य प्रश्न- केवा प्रकारना चित्तसमाधिना दश स्थानको छे ?
उत्तर- स्थविर भगवंतो नीचे प्रमाणे दश चित्तसमाधिस्थानको जणावे
छे,
ते काले ते समये वाणिग्राम नामनुं नगर हतुं नगरनुं वर्णन बीजा ग्रंथोथी जाणी लेवुं. ते गामना ईशान खूणामां दूतिपलास नामनुं चैत्य हतुं . ते नगरनो स्वामी जितशत्रु नामे राजा हतो. तेने धारिणी नामनी राणी हती
VIII
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे प्रस्तावना
दूतिपलास नामना चैत्यमां भगवान् समोसा. पर्षदा मली. प्रभुजीए उपदेश आप्यो. पछी साधु साध्वीओने बोलावीने आ प्रमाणे कहेवा लाग्या के निग्रंथ निर्ग्रथिणीओए पांच समितिओ समित, त्रण गुप्तिओए गुप्त, पांच इन्द्रियोए करीने गुप्त ब्रह्मचर्ये करीने गुप्त रहेवं . (अत्रे शंका थाय छे के पांच इन्द्रियोनी गुप्तिमां ब्रह्मचारीपणुं आवी जाय छे तो पछी जुदुं पद केम मूक्युं ?)
उत्तर- स्पर्शेन्द्रियना आठ विषयमां मैथुन सिवाय बीजी रीते आठ स्पर्शी मूल चारित्रना घातक न होवाथी ए पद जुहूं पाड्युं छे. बीजी रीते सेवाता आठ स्पर्शो देशचारित्रना घातक छे. त्यारे मैथुनमां सेवातो स्पर्श सर्वचारित्र घातक छे, माटे दश प्रायश्चित्तोमा मूल छेद प्रायश्चित्त मैथुन सेवनारने माटे छे. संबोधसित्तरीमां पण जणाव्युं छे के
"जे बंभचेरभट्ठा पाए पाडंति बंभचारिणं । ते हुति टुंटमुंडा, बोहिवि सुदुल्लहा तेसिं ।।''
जे ब्रह्मचर्यथी भ्रष्ट होय अने ब्रह्मचारीने पगे पाडे, वंदन करावे तो लुलो, लंगडो, अने दुर्लभबोधि थाय माटे आत्महितेच्छुओए भूलना भोग बन्या होय तो प्रायश्चित्त लई फरीथी भूल न थाय तेनी खास तकेदारी राखवी. जो ब्रह्मचर्य पालवानी शक्ति न होय तो ब्रह्मचारीओ पोताने वंदन न करे एवी रीते वर्तवू. आत्मा आस्तिक हशे तो उपरोक्त वात कबूल करशे. अने जो नास्तिक हशे तो वधारे कहेवापणं रहेतुं नथी, आत्मार्थी आत्महितेच्छु आत्मयोगी आत्मपराक्रमी पक्खी पोषहने विषे समाधिने पामेला धर्मध्यानना ध्याताओए पूर्व प्राप्त नहि करेला आ दश चित्तसमाधि स्थानकोने प्राप्त करवां. (१) धर्मचिंता (२) सर्व धर्मनुं ज्ञान मेलवीने स्वधर्मने नक्की करे ते संज्ञी ज्ञानी. (३) यथातथ्य स्वप्नदर्शी अथवा जातिस्मरणे करी स्व-परनो जाण बने (४) देवर्द्धिदर्शी (५) अवधिज्ञानी (६) अवधिदर्शनी (७) मनःपर्यवज्ञानी (८) केवलज्ञानी (९) केवलदर्शनी (१०) केवलमरणी. जेमां सर्व दुःखे करी रहित करी जन्ममरण नहि पामनार. श्लोकबद्ध गाथाओमां चित्तसमाधिनी व्याख्या करे छे. दुहा- शुद्ध चित्तने पामीने, रहे ध्यानमा लीन,
धर्मे स्थित शुभमना, मोक्ष लीए अदीन. १ वली ए चित्त पामीने, फरी न लोके जन्म, उत्तम स्थान जाणतो, संज्ञी ज्ञानथी मर्म. २
maradaaaaaaaaaaaaaaaa IX_saaraaaaaaaaaaaadi
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पंचम-छट्ठी दशानी विगत
चोपाई- यथातथ्य सुपनफल जाण, सर्व दुःखोनी करतो हाण,
जाणे पूर्वमां उग्यो माण, एहि ज माण समाधिठाण. विचित्र शय्यासन ने आहार, सर्व जीवोनो रक्षणकार, अल्प आहार इन्द्रिय दमनार, पामे देवपणुं तत्काल. सर्व ईच्छाओ रोधनकार, क्षमतो भयभैरवनो भार, संयमतपनो खप करनार, थाए अवधिज्ञान भंडार. तप आदरतो अग्नि समान, लेश्या त्रणY करतो, पान अवधिदर्शन दीप समान, त्रण लोकनुं जोतो मान. ससमाधि लेश्यावंत, अविधिनो करतो अंत, प्रतिबंधने मुकतो संत, त्रण लोक ज्ञाता भगवंत. लोकलोक जाणंता संत, केवलज्ञानी पूज्य महंत, दर्शनावरणी कर्मोनो अंत, कर्यो त्यारे यथा गुणवंत. त्रण लोकना स्वामी संत, इन्द्रादि जस चरण पूजंत, लोकालोक जोता भगवंत, केवलदर्शी त्रिलोक पूजंत.
एवी रीते बीजी गाथामां विशुद्ध पडिमाए करीने मोहनो क्षय करनारा, वली जेम ताडवृक्षना मस्तके रहेल सोय नाश पामे छते आ ताडवृक्ष नाश पामे तेम एक मोहनीय कर्मने हण्ये छते बीजां बधां कर्मो हणाई जाय.
वळी जेम सेनापति हणाय तो सेना पण नासी जाय एवी रीते मोहनीयनो नाश कर्ये छते बधां कर्मो हणाई जाय. इंधण रहित अग्नि, धूमाडो नाश पामे छते नाश पामे, तेम जे झाडनां मूल सुकाई गयां होय तेने सिंच्या छतां ऊगतां नथी, तेम मोहनो क्षय थशे कर्मो लागतां नथी. जेनुं बीज नाश पाम्यु तेनो अंकुरो उगतो नथी. औदारिक शरीर-नाम कर्म, गोत्र कर्म, आयुष्य कर्म, वेदनीय कर्म, तेजस तथा कार्मण शरीरनो त्याग करी रज रहित केवली भगवान थाय छे, एवी रीते सर्व जाणीने चित्तसमाधि पामीने आयुष्यमंतोए शुद्ध श्रेणिने पामीने आत्मशुद्धिने पामे अर्थात् मोक्षे जाय.
इति पंचम दसा छट्टी दशामां मुख्य विषय तो अगियार उपासक पडिमाओनो छे, पण आरंभमां अक्रियावादी, क्रियावादी मिथ्यात्वनुं वर्णन तथा तेवी क्रियाना फलोनुं वर्णन आप्युं छे.
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना
अक्रियावादी एटले नास्तिकवादी, नास्तिक, प्ररुपक, नास्तिक द्रष्टि, न सम्यग्वादी न नीतिवादी एवी रीते आ लोक-परलोक माता-पिता-पुत्र-भाईबहेन विगेरे नथी मानतो तेमज अरिहंत, चक्रवर्ती, वासुदेव , बलदेव, नारकी , देवलोक, पुण्य-पाप- फल, सत्कर्म , दुष्कर्म तथा तेमनां फल कल्याण वगेरे नथी मानतो अने अत्यंत रागवालो पण होय छे तेथी महाइच्छावालो, महारंभी, महापरिग्रही, अधार्मिक, अधर्म अनुचर, अधर्म सेवी , अधर्मख्याती, अधर्मरागी, अधर्मदर्शी, अधर्मजीवी, अधर्मरंजक, अधर्मशील, अधर्मथी जीवनलीला चलावनारो, वली हाथमां लाकडी लईने छेदतो-भेदतो-कापतो, देखावमां प्रचंड-रौद्र-क्षुद्र-साहसिक, मायावडे ठगवामां होशियार, दुःशील, खराब परिचयवालो, दुर्गुणोनो नेता, दुःखीयाओने जोई आनंद पामनारो, शील-गुणमर्यादा रहित, पोषह-पच्चक्खाण विनानो, अढारे पापस्थानको सेवनारो, जावजीव सुधी आरंभ-परिग्रह हाथी घोडा-वाहन-व्यवसाय विगेरेमां मस्त अने तेथी तज्जनित पापनो भागी, एवी रीते अशुभ कर्मोने उत्पादन करी नरकादि गतिमां जईने कृष्णपाक्षिक जीवो छेदन-भेदन-ताडन-तर्जन विगेरे असह्य दुःखो सहन करे छे. आगामी भवमां दुर्लभबोधि थाय छे. आ प्रमाणे संक्षेपथी अक्रियावादीनुं वर्णन कर्यु.
हवे क्रियावादीनुं वर्णन आस्तिकता करी सुशोभित जाणवू, परंतु महारंभादिके करीने मूर्छावालो होय अने कर्म संजोगे दुर्गतिमां जाय, पण शुक्लपाक्षिक तथा सुलभबोधि थाय. सक्रिया एटले जे जे वस्तुनो निषेध कर्यो छे तेने माननारो थाय. भवांतरे पण मार्गानुसारिपणुं पामीने सम्यक्त्व पामे. एवी रीते क्रियावादी मिथ्यात्वने छोडीने सम्यक्त्वी थईने दंसणपडिमाने धारण करे. ते दश प्रकारना श्रमण धर्मनी रुचिवालो होवा छतां पण श्रेणिक राजानी जेम देशविरति आदि गुणोने प्राप्त करी शके नहि.
बीजी पडिमामां श्रमण धर्मनी रुचिवालो होवा छतां पण अणुव्रत, गुणव्रत तथा पौषधोपवास करे पण सामायिक, देशावगाशिक न करी शके.
त्रीजी पडिमामां उपर कहेली विगत तथा सामायिक-देशावगाशिक करी शके पण आठम-चौदस-पूर्णिमादिनो पडिमा सहितनो पोषह न करी शके.
___ चोथी पडिमामां उपर कहेल बीना बधी ज करी शके पण एक रात्रिक उपासक पडिमाने धारण न करी शके.
ఉతంతంతమయం XI | ఉతంతంతమంతయు
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छट्ठी दशानी विगत श्रावकनी ११ प्रतिमानुं स्वरुप
पांचमी पडिमामां उपर कहेल बीना बधी करे. स्नाननो त्याग, . रात्रिभोजननो त्याग, काछडो वाले नहि, दिवसे ब्रह्मचारी, रात्रिनुं प्रमाण राखे, एवी रीते एक दिवस-बे दिवस-त्रण दिवस उत्कृष्टथी पांच महिना सुधी पालन करे. छट्ठी पडिमामां उपरोक्त बीना बधी करे. वधारामां अहोरात्र ब्रह्मचर्य पाले, सचित पाणी-कंदमूल विगेरेनो त्याग न होय एवी रीते एक दिवसथी यावत् छ महिना सुधी पालन करे.
सातमी पडिमामां उपरोक्त हकीकतमां वधारे सचित्तनो त्याग पण आरंभनो त्याग नहि. एवी रीते जघन्यथी एक दिवस अने उत्कृष्टथी सात मास सुधी पालन करे.
आठमी पडिमामां उपरोक्त हकीकत बधी ज करे पण रसोई कराववानो त्याग न करे. बीजा आरंभनां पच्चक्खाण करे. एवी रीते एक दिवसथी मांडीने आठ मास सुधी पालन करे.
नवमी पडिमामां उपरोक्त हकीकतमां उद्देशिक आहारनो त्याग न करे पण बीजा बधा आरंभनो त्याग करे. एक दिवसथी मांडीने नव मास सुधी पालन करे.
दशमी पडिमामां क्षुरमुंडन करावे, चोटली राखे, वळी कोई बोलावीने पूछे तो जाणतो होय तो कहे, न जाणतो होय तो ना कहे. बीजुं बधुं पूर्ववत् वधारामां उद्देशिक आहारनो त्याग करे. जघन्यथी एक दिवस अने उत्कृष्टथी दश मास सुधीनुं पालन करे.
अगियारमी पडिमामां घरथी नीकळी मस्तक मुंडावे अथवा लोच करे, आचार योग्य उपकरणो ग्रहण करे. साधुलिंग, रजोहरण, पात्रादि अथवा एम करवा समर्थ न होय तो साधु सरखी क्रिया करनारो थाय. जेमके इरियासमितिए चाले, चालतां जीवो यतना राखे, भिक्षाए जतां धर्मलाभ न कहे, कोई स्त्रीपुरुष पूछे के तमे कोण छो त्यारे कहे के हुं श्रमणोपासक छं, पडिमाने धारण करुं छं तेम ज विधिनो बराबर ज्ञाता होय. भिक्षामां पूर्वे चोखानुं पाणी तैयार थयुं होय, पछी शाक तैयार थयुं होय तो शाक न कल्पे पण पाणी कल्पे. जो पहेलां शाक तैयार थयुं होय, पछीथी चावलनुं पाणी तैयार थयुं होय तो शाक कल्पे पण पाणी न कल्पे. जो पूर्वे बन्ने तैयार थयां न होय अने पाछळथी तैयार थतां होय तो बन्ने न कल्पे. एवी रीते उपरोक्त पडिमामां बतावेल आचरण
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना
आचरे पण जेनी छुट आपेल छे तेनो उत्तरोत्तर त्याग करे. आ पडिमा जघन्यथी एक दिवसनी अने उत्कृष्टथी अगियार महिनानी जाणवी. पछी चारित्र ग्रहण करे तो उत्तरोत्तर गुणनी वृद्धि थाय.
इति छट्ठी दसा श्रावक पडिमाना वर्णन पछी सातमी दशामां भिक्खुपडिमानुं वर्णन करे छे. भिक्खुपडिमाना त्रण निक्षेपा उपासक पडिमामां कहेवाई गया. हवे भाव निक्षेपाने जणावतां भाव पडिमा पांच प्रकारनी छे. समाधिपडिमा, उपधान पडिमा, तेमां विवेक पडिमा, पडिलीण पडिमा, एकल्लविहार पडिमा. समाधिपडिमा, बे प्रकारे छे- (१) श्रृतसमाधि पडिमा, (२) चरितसमाधि पडिमा. दर्शन पडिमा अंतर्गत करवामां आवी छे. श्रुत पडिमा छासठ जणावी छे. तेमां बेंतालीस श्री आचारांग सूत्रमा छे. सोल श्री ठाणांग सूत्रमा छे. चार व्यवहार सूत्रमा छे. बे मोक पडिमा छे. बे चंद्र पडिमा छे. मोक पडिमा बे प्रकारे: क्षुल्लिका अने महल्लिका. चंद्रपडिमा जव मध्या वईरमध्या. एम कुल छासठ श्रुतपडिमा छे.
चारित्रसमाधि पडिमाओ पांच कही छे. सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय अने यथाख्यात चारित्र समाधि. उपधान पडिमा बे प्रकारे छे. श्रमणोपासक-पडिमा, अने भिक्खु-पडिमा. ए प्रमाणे पूर्वे श्रावक पडिमानुं वर्णन कर्यु . चालु दसामा भिक्खु पडिमानुं वर्णन करवामां आव्युं छे. विवेक पडिमा बे प्रकारे छे. अभ्यन्तर अने बाह्य . अभ्यंतर पडिमा क्रोध-मानमाया अने लोभ कर्म संसारने उपशमाववा. बाह्य पडिमा गण-शरीर-भातपाणी, अनेषणीय विगेरेनो त्याग करवो. पडिसंलीण पडिमा एक ज छे. समासथी बे प्रकारे छे. इन्द्रिय पडिसंलीण पडिमा, नोइन्द्रिय-पडिसंलीण पडिमा इन्द्रियपडिसलीण पडिमा पांच प्रकारे छे. श्रोत्रेन्द्रिय-विषय प्रचारनो त्याग करवो, अथवा श्रोत्रेन्द्रियना विषयमां रागद्वेषनो निग्रह करवो. तेमज रसनादिमां पण जाणी लेवं. नोइन्द्रियपडिसंलीणता त्रण प्रकारे छे. योगपडिसंलीनता, कषायपडिसंलीनता, विचित्रशय्यासनसेवणता. जेम प्रज्ञप्तिमां का ते प्रमाणे जाणी ले. अथवा बे प्रकारे बाह्य अने अभ्यंतर. एकलविहारी एक प्रकारे छे. ते आचार्यना आठ गुणे करीने युक्त जाणवी. आठ गुणो ते आठ संपदाओए युक्त होय. वळी आचार्य विद्यादि गुणोने विषे अतिशयवाळा होय. उक्तं च मुनि
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सप्तमी दशानी विगत
वृषभने प्राप्त थएल उपसर्ग एक रात्रिक, बे रात्रिक, त्रण रात्रिक विद्यादि निमित्ते सहे. एवी रीते भाव पडिमाना छासठ भेदो थया. ए प्रमाणे भाव पडिमानो अधिकार कहीने तेमां उपधान पडिमानो अधिकार अने तेमां वळी भिक्षु पडिमानो अधिकार चाले छे.
__केवा प्रकारनो आत्मा पडिमा अंगीकार करे ? आठ गुणोए सहित अथवा पांच गुणोए सहित एवो द्रढ सम्यग्द्रष्टि जेने देव के देवेन्द्र पण सम्यक्त्वथी चलावी शके नहि, एवं चारित्रमा पण द्रढ होय. वली बुद्धिमान-बहुश्रुत एटले असंपूर्ण दशपूर्वी जघन्यथी नवमा पूर्वनी तृतीय आचार वस्तुना काल ज्ञान विगेरेना ज्ञाता, अचल एटले ज्ञानादिमां स्थिर, स्थिर चित्तवाळा , अनुकूल उपसर्गोमां चलायमान न थाय, राग द्वेष रहित भय-भैरवादि उपसर्गने सहन करे, वली परिचित-काल-आमंत्रण-क्षमापना-तप-संजम-संधयण -भत्त-बहि निक्षेपआवर्ण-लाभं-गमण ए बार द्वारो वडे आत्माने भावता विचरे. नामनिक्षेपो पूर्ण थयो. हवे सूत्रानुगममां सूत्रनी व्याख्या करे छे. जेमां महिनानुं प्रमाण होय ते मासिक पडिमा. आर्य स्थविर भगवंतोए भिक्षुकनी बार पडिमा कही छे. ते एक मासथी मांडीने सात मास सुधीनी. पछी त्रण पडिमाओ सात सात अहोरात्रिकनी तथा एक पडिमा अहोरात्रिकनी अने एक पडिमा फक्त रात्रिकनी, एवं बार पडिमाओ थई.
पडिमाधारीओए कराती विधि....एक मासिकादि पडिमाने धारण करनार साधु भगवान् नित्यं वोसढ़काय एटले सर्वथा शरीरनी संभाल लेवानो त्याग करे. ते द्रव्यथी बे प्रकारे छे. द्रव्यथी जेम के जे स्त्रीनो पति परदेश गयो होय ते स्त्री स्नान न करे. भूमि उपर संथारो करे. शणगारनो त्याग करे. विगेरे आचरणथी पतिव्रता धर्मनुं पालन करे. ते द्रव्य वोसट्टकाय कहेवाय. भावथी साधु भगवंत वायु-पित्त-कफ के संभ्रमिता. रोगोथी पीडाता होय तो पण प्रतिकार न करे.
वळी युक्त देह-ते पण बे प्रकारे-द्रव्यथी अने भावथी. द्रव्यथी जेम कोई मल्ल कसरतशालामां शरीरनी परवा कर्या विना कुस्ती करे तेम, भावथी कोई बांधे-रुंधे-हणे-मारे अथवा वारे तो पण साधु भगवंत प्रतिकार न करे. वळी जे कोई उपसर्गो देव-मनुष्य के तिर्यंच संबंधी अनुकूल के प्रतिकूल उपस्थित थाय तेने सम्यक् प्रकारे सहे. मासिक पडिमाधारी मुनिराजने आहारमा एकदत्ती
శంవంతం తతంగం XIV ఉండి ఉతంతంతయంతం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना
भोजननी अने एकदत्ती पाणीनी कल्पे.
भक्त-भिखारीओने माटे नहि बनावेल एवो शुद्ध आहार-लेप विनानो तेमज द्विपद-चतुष्पद-पक्षी-ढोरढांखर- अतिथि- भिखारी - आजीविको श्रमणादिनो आहारनो समय व्यतीत थये छते एकने माटे बनावेलुं होय तो कल्पे, नहि के बे त्रण चार के पांचने माटे बनाव्युं होय. गर्भवाली पासेथी, नाना बच्चावाली पासेथी, बालकने दुध पाती होय तेवी स्त्री पासेथी तथा जेणीना बे पग उंबरानी बहार होय के अंदर होय अने भिक्षा आपे तो ग्रहण न करे पण एक पग उंबरानी अंदर होय अने एक पग उंबरानी बहार अने भिक्षा आपे तो ग्रहण करे अने ए प्रमाणे न आपे तो ग्रहण न करे. वळी मासिक पडिमाने स्वीकारनार अणगारना त्रण भिक्षाना काळ छे. आदि, मध्य अने अंत. आ त्रणमांथी गमे ते एक वखते भिक्षा ग्रहण करे, पण बीजी वखत भिक्षाए निकले नहि. तेमनी गोचरीनो विधि छ प्रकारनो छे. (१) एक श्रेणिमां आंतरा रहित गोचरी जाय. (२) एक एकना आंतरे चरे (३) गोमूत्रिकाए चरे (४) पतंगविधिए चरे, (५) शंबुक्क वट्टाए चरे, (६) गंतु पच्चगताए चरे. जे वस्तीमां जाणी जाय के पडिमाधारी मुनि आव्या छे तो त्यां एक रात्रि रहे. जो न जाणे तो एक अथवा बे रात्रि रहे, पण तेथी अधिक न रहे, कारण के विधिनो छेद थाय, अथवा परिहार थाय.
मासिक पडिमाधारी मुनिने चार भाषा बोलवी कल्पे ते आ प्रमाणे...(१) याचना करवी (२) पृच्छा करवी (३) अनुज्ञा आपवी (४) पूछ्यानो प्रत्युत्तर आपवो. मासिक पडिमाधारी मुनिने त्रण वस्ती पडिलेहवी कल्पे (१) आरामगृह (२) विकृतगृह (३) वृक्षगृह. मासिक पडिमाधारी मुनिने त्रण संथारा पडिलेहवा कल्पे. (१) पृथ्वीशिला (२) काष्टशिला (३) यथासंस्थित. मासिक पडिमाधारी मुनिने त्रण संथारानी अनुज्ञा होवाथी याचना पण त्रणनी करे. तेम ज ते उपाश्रयमां कोई स्त्री अथवा पुरुष आवे तो मुनिने जवुं आववुं कल्पे नहि. तेम ज मुनिने त्यां वसतां वस्तीमां अग्नि लागे छते त्यांथी आवजाव न करे, पण कोई बाहु पकडीने बहार काढे तो जयणाए नीकळे. तेमज मुनिने विचरतां विचरतां ज्यां सूर्यास्त थाय त्यां ज मुनिने टुंटुं-कांटा-कांकरादि पगमां पेसे तो काढवा कल्पे नहि. जो काढे तो जयणापूर्वक काढे. मासिक पडिमाधारी मुनिने विचरतां विचरतां ज्यां सूर्यास्त थाय त्यां ज रहेवुं कल्पे. चाहे जल होय के स्थल होय, दुर्ग होय के नीचो प्रदेश होय, पर्वत होय के विषम भूमि होय, खाडो होय के गुफा होय तो पण रात्रि त्यां ज काढवी कल्पे. एक पगलुं पण आगळ चालवु
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सप्तमी दशानी विगत प्रतिमाधारी साधुनुं जीवन
कल्पे नहि. ज्यां सुधी रात्रि फाटे नहि त्यां सुधी पूर्व-पश्चिम-दक्षिण के उत्तर सन्मुख अवधारी कायोत्सर्गमां रहे.
मासिक पडिमाधारी मनिने पृथ्वीतल पर जराये निद्रा के प्रचला करवी कल्पे नहि, कारण के श्रुतकेवली भगवंत जणावे छे के एम करवाथी अदत्तादान लागे, अर्थात् अवग्रह याच्या विना वपराय नहि. जो स्थंडिल या मात्रानी शंका थइ होय तो तेने टाले नहि. जो अवग्रह लईने पूर्व पडिलेहेल होय तो कल्पे अथवा जे उपाश्रयमां अवग्रह लीधो होय त्यां पडिलेह्या पछी यथाविधि स्थानके कल्पे. मासिक पडिमाधारी मुनिने रजयुक्त शरीरे गाथापति कुलने विषे भातपाणी माटे जळू न कल्पे. जो एम जाणे के हुं जल्ल-मल्ल (मेल) कादवथकी विशुद्ध छु तो जवू कल्पे. मासिक पडिमाधारी शीतोदक विकृतवडे , उष्णोदक विकृतवडे हाथ-पग-दांत-आंख-मुख विगेरे ने पाणी छांटतां के धोतां अथवा विविध लेप लगाडतां-आहार पाणी लेवा कल्पे नहि. मासिक पडिमाधारी मुनिने हाथी-घोडा-वाघ-वरु विगेरे दुष्ट प्राणीओ सामा आवता होय तो पाछा फरवं कल्पे नहि, पण अदुष्ट आवता होय तो कल्पे.
मासिक पडिमाधारी मुनिने छायामांथी तडके आवळू कल्पे नहि. जो तडके होय तो छांयडे आवq न कल्पे. ज्यां रह्या होय त्यां ज आत्माने भावता विचरे.
खरेखर आ प्रमाणे मासिक पडिमाधारी मुनि पडिमाने यथासूत्र-यथाकल्प-यथामार्ग-यथासत्य-सम्यग् रीते कायावडे स्पर्शी-पालन करी-शोभावी-पूर्ण करी-आराधीने वीतरागनी आज्ञा प्रमाणे पालन करे.
बे मासिक पडिमामां पण नित्य वोस? काय यावत् बे दत्ती ग्रहण करे. त्रण मासिकमां त्रण दत्ती ग्रहण करे. चार मासिकमां चार दत्ती ग्रहण करे. पांच मासिकमां पांच दत्ती, छ मासिकमां छ दत्ती, अने सात मासिकमां सात दत्ती ग्रहण करे. अर्थात् जेटला मास तेटली दत्तीओ ग्रहण करे. पहेली सात अहोरात्रिक पडिमाधारी मुनि 'नित्यं वोसट्टकाय'थी मांडीने यावत् मासिक पडिमामां बतावेल सर्वविधि आचरे. विशेषमां चोथ भक्त अपानकवडे अर्थात् चोविहार उपवासे करीने गामनी बहार अथवा नगरनी बहार काउस्सग्गध्यानमा रहे. एवं बीजी सात अहोरात्रिमा विशेषता ए छे के ऊभा रहीने ध्यान करे, अथवा एक पग भूमि उपर स्थापे अने एक पग अद्धर राखे अथवा उत्कृष्ट आसने काउ
ఉతంతవుతుండంతం XVI loంతువంతంతయంతం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना
सग्ग करे. बीजी बधी क्रिया पूर्ववत्. त्रीजी सात अहोरात्रिनी पडिमामां विशेषता ए छे के गोदोहिका आसने बेसे अथवा वीरासने बेसे अथवा अर्धशरीरे वांका रहे तेम ज कायोत्सर्गमां रही ध्यान करे. शेष पूर्ववत्. ए प्रमाणे एक अहोरात्रिनी चोथी पडिमामां विशेष ए छे के चोविहार छट्ट करे. वळी कंईक नमेली कायावडे एक पुदगल उपर द्रष्टि स्थिर करे. अर्थात् अनिमिष द्रष्टि राखे. यथा प्रणिहित गात्रवडे सर्व इन्द्रियोए करीने गुप्त बे पग संकोचीने, बे बाहु ऊंचा करीने कायोत्सर्गमां ध्यान करे. शेष पूर्ववत् . एक रात्रि पडिमाधारी मुनिने त्रण स्थानो होय छे. अहित, अशुभ अने अक्षेम. जो वीतरागनी आज्ञानुं पालन न करे तो अकल्याणने माटे थाय छे. तेथी उन्मादी थाय, मरण थाय अथवा रोगथी पीडाय. तेम ज केवली भगवंते प्ररुपेला धर्मथी भ्रष्ट थाय, अने एक रात्रिनी पडिमा सम्यक् प्रकारे पालन करे तो ए त्रणे स्थानो हित, शुभ अने क्षेमने माटे थाय छे.
ते मुनिराजने अवधिज्ञान, मनः पयर्वज्ञान के केवलज्ञान उत्पन्न थाय छे. खरेखर ए प्रमाणे एक रात्रि पडिमा यथासूत्र पूर्ववत् जाणी लेवी . आ प्रमाणे स्थविर भगवंतो भिक्षुनी बार पडिमाओ वर्णवी छे.
इति सप्तमा दसा
आठमी पर्युषणा दसामां मूल विषय तो बहु संक्षिप्त छे पण निर्युक्तिकार तथा चूर्णिकार महाराजानुं विवेचन विस्तारथी होवाथी तेनो सार लखवा मन प्रेरायुं छे. सातमी दसामां भिक्षुक पडिमामां शेषकाल प्रायः पूर्ण तो होवाथी तेना संबंधने लगतो चोमासानो काळ आववाथी श्री वीतराग भगवंतना फरमाव्या प्रमाणे स्थविर भगवंत श्री पर्युषण कल्पना पर्यायो-तेनी व्युत्पत्ति-समास-निक्षेपहेतु विगेरे समासथी जणावे छे, ते जोई लईए. पर्युषणा कल्पना चार द्वार छे. वासावास योग्य क्षेत्र वडे - उपधिवडे यावत् वासावास प्राप्त थाय ते नामनिष्पन्न. पर्युषणा कल्प ए बे पदवालुं नाम छे. तेनो समास षष्ठी तत्पुरुष छे. 'पज्जोसमणाए कप्पो इति पज्जोसमणाकप्पो' साधुनो दीक्षा पर्याय जेथी जणाय ते पर्युषणाकल्प. `दीक्षापर्यायो येन ज्ञायते श्रमणस्य' अथवा 'परि सर्वतः भावे उस निवासे' उणादि तथा स्त्री प्रत्यय आट् थकी पर्युषणासिद्धम् . `निर्युक्तिकार निर्णयति पज्जोसमणा— पज्जोसमणा एं अक्षरो गुणनिष्पन्न छे. इन्द्र पुरंदरनी जे तेथी गोण्णाई पद- विशेषण छे. दीक्षा पर्याय पर्युषणाथी गणातो होवाथी
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सप्तमी दशानी विगत, पर्युषणा कल्प
'परियायवत्थवणा पद' आलोयण वंदनकादिने विषे छे. जेम रत्नाधिकने वंदन करतो होय अने पोते अजाण होय तो तेमने दीक्षा पर्याय पूछे के तमारी छेदोपस्थापनाने केटली पज्जोसणा गई ? जेथी ऋतुबद्ध द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पर्यायोने वर्जीने कहे एवाज अन्य द्रव्यादि पर्यायो वासास्ते आचरे तेने 'पज्जोसमणा' कहे छे. तेथी उपरोक्त वासापज्जोसमणा ज साधु पर्यायमां गणाय. ते 'पज्जोसमणा' एवं सर्व सामान्य पूर्व रीतिए साधु मुनिराजो चोमासामां एक ठेकाणे रहे छे. तेथी 'परिवसणा' सर्व दिशाओमां न भमे तेने 'पज्जुसणा' कहे छे. वर्षाऋतुमां एक जग्याए चार महिना वसे ते 'वासावास', निर्व्याघाते करी चातुर्मास क्षेत्रमा प्रवेश करे ते प्रथम समोसरण. ऋतुबद्ध करी अन्य मर्यादा स्थापे ते ठवणा. ऋतुबद्ध करी एक एक मासनो क्षेत्र अवग्रह ते ज्येष्ठ अवग्रह. आ पदोमां व्यंजने करी, विविध प्रकार छे. पण अर्थथी नथी. ए पदोमांथी एक ठवणा नामे ग्रहण करीने स्थापना निक्षेपो करवो. नाम ठवणा कहेवाथी नामनिक्षेपो जाणवो. स्थापनानिक्षेप छ प्रकारे जाणवो. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-स्वामित्वकर्ण ए छ भेद छे. द्रव्य ठवणा जाणकारनं शरीर अने भव्य शरीरने द्रव्यनिक्षेप जेटला द्रव्योनो उपभोग करे अने तेटला त्याग करे. उपभोग करवा लायक तृणडगल-राख-मल्लकादि. त्याग करवा लायक सचित्तादिक त्रण...(१) सचित्तचोमासामां शिष्य न करवो (२) अचित्त-वस्त्रादिने ग्रहण न करे, वली सउपधिक शिष्यने ग्रहण न करे. क्षेत्र ठवणा-पांच गाउ सुधी जाय आवे अने कारणे पांच जोजन सुधी जाय आवे. कालस्थापना-चार महिना त्यां रहेवू कल्पे.
__ भाव ठवणा क्रोधादिनो त्याग करे, भाषासमिति युक्त रहे, एमां स्वामित्वादि विकल्पो करवा. स्वामित्व संबंध. स्वामित्व द्रव्यमां एकत्व पृथकत्व भाववं. क्षेत्रमां-कालमां जेम के द्रव्यनी स्थापना-द्रव्योनी स्थापना. द्रव्यवडे-द्रव्योवडे स्थापना तथा द्रव्यमां-द्रव्योमां स्थापना. द्रव्यनी स्थापना जेम कोई एक संथारो ग्रहण करे. द्रव्योनी स्थापना जेम त्रण पडो सहित ग्रहण करे. द्रव्यवडे जेम चोमासाना चारे मास उपवास करे अने पारणे आंबील करे. द्रव्योवडे जेम महिनाना छ उपवास करी आंबीलथी पारणं करे, एवं निर्विकृति विगेरे द्रव्योमां जेम एक अंगवाळा पाटीआ उपर रहे. द्रव्योमा जेम बे कपडां, बे कांबल अने संथाराने धारण करे. क्षेत्रस्वामित्व यथा एक ज गामनो उपयोग करे. क्षेत्रोमां यथा ग्रामादि नजदीक रहे. परा आदिमां वास करे ते क्षेत्र पृथकत्व स्वामित्व. करणमां एकत्व-पृथकत्व नथी, अधिकरणमां एक क्षेत्र रहे, परन्तु मर्यादाए
ఉండి తీయం తంతుయంతం XVIII అంతీయతతతతతంతు
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना
अर्धो जोजन जईने आवे, कारण के एकत्वपृथकत्व जे काळनी मर्यादा होय तेम रहे. अकल्पिता शरद काळवडे धारण करे. काळनी चार मासनी स्थापना काळवडे पांच पांच दिवसना आंतरे रहे. कालमां पण चोमासामां रहे. कालमां यथा असाड सुदी पूर्णिमाथी एक महिनो ने वीस दिवस गये छते कारण विशेषे रहे.
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भाव ठवणा औदयिक भाव, भावोनी ठवणा क्षायिक भावनामां संक्रमण करतां बीजा भावोने वर्जवा ते भाववडे निर्जरा स्थाने रहे. भावोवडे साथे रहेला साधुओनी निर्जरा माटे वैयावच्च करे. भाव विषे पृथक्त्व नथी. अथवा क्षायोपशमिक भावे शुद्ध अध्यवसायथी वधारे ने वधारे शुद्ध अध्यवसायमां जाय. एवं तावत् द्रव्यादिमां पण समासथी कह्यं.
हवे एने ज विस्तारपूर्वक कहे छे. त्यां पहेलां काल स्थापना कहे छे. शा माटे आ प्रमाणे काल ठवणामां सूत्र-सूत्रादेशे करीने प्ररूपण करवुं के काल समयादिक छे माटे प्रसंगोपात् विचारवानुं के ज्ञानी भगवंत दरेक सजीव के निर्जीव वस्तु उपर ओछामां ओछा चार निक्षेपा कहे छे. जेमके प्रभुनी मूर्ति निर्जीव छे तो पण जिनपडिमा जिनसारिखी कही छे. तेमां द्रव्य-नाम-स्थापना अने भाव ए चार निक्षेपा कराय छे. जिनेश्वरनो आत्मा ते द्रव्य जिन, तेमनुं नाम ए नामजिन, तेमनी प्रतिमा ए स्थापनाजिन, अने भावजिनपणुं तो समवसरणमां भगवान पूर्व अवस्थामां राजमान हता, ते संबंधी भावना भाववी ते . एवी रीते अनंत ज्ञानी जिनेश्वर भगवंतोए कालने एटलो बधो बखाण्यो छे के 'गोयमा, समयमपि मा पमायए' हे गौतम, एक समय मात्र पण प्रमाद करीश नहि, अर्थात् नकामो जवा दईश नहि. विचार करो के केटलो बधो काळनो महिमा छे. भूतकाळ अनंता पुदगलंपरावर्तनो गया पण आत्मशुद्धि न थई, एवा काल साथे आपणे संबंध कयो ? ए स्वाभाविक प्रश्न उपस्थित थाय. संबंध एटलो ज छे के जे समयमां आत्माए पोतानी शुद्धि करी ते काल पोताना माटे आदेयरूपे कल्याण करनारो थयो . कोई पण कार्यनी सिद्धिमां पांच कारणो जणाव्यां छे. तेमां काळ पण एक कारण छे. तेथी काळ नकामो छे एम न समजवं. जेमके भूतकालमां अनंता जीवो साथे अनंता संबंधो कर्या पण आपणुं कल्याण करनारा न थया तेथी ते जीवो साथ आपणे शुं ? पण वर्तमान काळमां जे जीवे आपणने मोक्षमार्ग देखाड्यो ते जीव आपणो अनंत उपकारी छे. तेवी ज रीते काळनो पण महिमा छे. वर्तमानकाळ एक समयनो होवाथी बाकी भूत-भविष्य विकल्प Đãññd XIX
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अष्टमी दशानी विगत
छे. भूतकाळनो उपकार तो एटला माटे गण्यो छे के ऐतिहासिक महापुरुषोना जीवनचरित्रो उपरथी आपणा आत्माने प्रेरणा मळे. वर्तमानकाळनो उपकार तो उपरोक्त छे. हवे रह्यो भविष्यकाळ. भावि काल अप्राप्त होवाथी आपणं शं' कल्याण करे ? ए स्वाभाविक प्रश्न रहे. पण एटलुं तो जरुर समजवू जोईए के जो भविष्यकाळनो विकल्प न होत तो बधा ज नास्तिकवादी थात अने साचो खोटो पुरुषार्थ पण करत नहि, माटे पुरुषार्थ माटे भाविकालनो विकल्प पण उपकारी छे !
हवे आपणे मुद्दानी वात उपर आवीए. जेम प्रभुपडिमा उपकारी छे तेम तिथि आदि काळ पण उपकारी छे. जेम प्रभुपडिमानुं माप मुद्रा, शुद्ध काष्ठ, पाषाण के धातु उपयोगी छे तेम काळमां पण शुद्ध तिथि-वार-योग-मुहूर्त-नक्षत्रकर्ण विगेरे उपयोगी छे. तेथी आत्मआराधना माटे तिथिओना त्रण विभाग पाडवामां आव्या छे. दर्शन, ज्ञान अने चारित्र-चौदश-आठम-अमावास्या अने पुनम ए चारित्र तिथि छे. बीज, पांचम अने अगियारस ए ज्ञाननी तिथि छे. बाकीनी बधी दर्शननी तिथिओ छे. तेमां बन्ने पक्षनी पांचम आठम-अगियारसचौदश आदि लेवी. केटलाक महानुभावो कृष्णपक्षनी तिथिओ पर लक्ष्य ओछु आपे छे, तो ए तिथिओए शुं गुह्नो कर्यो ए समजातुं नथी. ए उपरथी समजवानुं के बधाय समयो-विपलो-पलो-मुहूर्तो-दिवसो-रात्रिओ तेमज बधा ज अठवाडीयांपक्षो-महिना-ऋतुओ-चातुर्मास तेमज दरेके दरेक वरसमां आराधना करवानी छे.
चतुर्विध श्री संघ एकत्रित थईने जे सामाचारी नक्की करे तेने अनुसतुं थाय तो के, सरस थाय. एक समय मात्र पण प्रमाद सेववानो नथी. जेना श्वासोच्छवासमां पण आराधना ने आराधना ज होय छे, तेवा मुनिराजोने तिथि विगेरे आलंबन फक्त व्यवहाररूप ज छे, पण श्रावक समाजने एनी विशेष जरुर होवाथी गीतार्थ मुनिवरोए एक व्यवस्था करी देवी जोईए के जेथी दरेक गच्छवासीओ एक ज दिवसे ज्ञान तथा चारित्रनी विशिष्ट आराधना करी शके.
विशेष टुकडा पडवाथी तो एक जण पौषध लेवा चरवलो-कटासणुं लइने पौषधशालाए पौषध लेवा जाय त्यारे बीजो हाथमां झोळी लइने शाकभाजी लेवा जाय. वाहरे ! श्री वीतरागना भक्तो ! दुनियाने संपनी वातो करवी अने पोताने लेवा देवा नहि. शुं उपर प्रमाणे वर्तवाथी श्री वीतरागोक्त धर्मनी मश्करीना कारणभूत नथी थवातुं ? शासनदेव सर्वने सदबुद्धि आपो. इति
ఉదయం గుంతుంతయుగం యుగం XX యంయంయంయంయంయుతం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे प्रस्तावना
प्रासंगिकम् विशेष टुकडा पडवाथी तो एक जण पौषध लेवा चरवलो-कटासणं लइने पौषधशालाए पौषध लेवा जाय त्यारे बीजो हाथमां झोळी लइने शाकभाजी लेवा जाय. वाहरे ! श्री वीतरागना भक्तो ! दुनियाने संपनी वातो करवी अने पोताने लेवा देवा नहि. शुं उपर प्रमाणे वर्तवाथी श्री वीतरागोक्त धर्मनी मश्करीना कारणभूत नथी थवातुं ? शासनदेव सर्वने सदबुद्धि आपो. इति प्रासंगिकम्.
अथ पूर्वोक्त नियुक्तिकार महाराजा कालनिक्षेपाने जणावे छे के काल समयादिक छे. असंख्यात समयनी एक आवलिका. एवं सूत्र आलापकवडे यावत् संवत्सरं. अहिं ऋतुबद्ध अने वर्षारात्रिनो प्रगट अधिकार छे. चार मास शियाळाना अने चार उनाळाना एम आठ मास मुनिराज ग्रामानुग्राम विचरे, ते आठ मासथी न्यून के अधिक पण विचरे.
प्र० न्यूनाधिक केम थाय ? उ. ज्यां मासकल्प कर्यो होय अने चोमासा योग्य बीजुं क्षेत्र न होइ त्यां ज रहेवू पडे तो आठ मासमां ओछा विचर्या गणाय. आठने स्थाने सात मास ज विहार थयो कहेवाय. अथवा आ प्रकारे पण ऊणा आठ मास कहेवाय. मार्गमां कादव घणो होय जेथी कार्तिकी पुनम पछी पण विहार कर्यो न होय , कादव-लीलोतरीना संघट्टाना कारणे एक मास अधिक रह्या होय, पछी सात मास विचर्या होय तो ऊणा आठ मास विहार गणाय.
हवे अधिक रहेवा- कारण बतावे छे. अषाढ चौमासी प्रतिक्रम्या पछी प्रायः शुद्ध क्षेत्र न मळे तो एक मासने वीस दिवस सुधी तपास करे. छतां न मळे तो ज्यां भादरवा सुद पांचम आवे त्यां पर्युषणा करवी, ए प्रमाणे नव मास ने वीस दिवस अधिक थया. अथवा साधु भगवंत रस्तामां चालतां साथना कारणे अषाड चौमासीथी आगळ पांच-दश दिवस के एक मास ने वीस दिवसे क्षेत्र प्राप्त थया, त्यारे पर्युषणा करे. एथी पण आठ मास अधिक विहार थयो गणाय. अथवा कार्तिकी चौमासी दिवस नक्षत्र आचार्यश्रीने असाधक होय अथवा ते दिवस विघातक होय तेथी जरा वहेलो थयो होय तो पण आठ मासथी अधिक विहार थयो कहेवाय. एथी एम थयुं के सामान्य कारणे पण कीच्चड आदिनुं कारण नडतुं न होय तो विहार थाय छे, जेथी आठ मासथी अधिक एक दिवस यावत् एक मास यथासमाधि विचरे.
प्रतिमाधारी मुनिराज ऋतुबद्धकालमा एक अहोरात्रि एक क्षेत्रमा रहे.
అంతంతమంతయం XXI ) అంతంతమవుతుంది
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अष्टमी दशानी विगत पर्युषणनी मर्यादा यथालंदिक पडिमाधारी मनिराज पांच अहोरात्रि एक क्षेत्रमा रहे. जिनकल्पी मुनिराज एक मास एक क्षेत्रमा विचरे, अने परिहारविशुद्धि तपस्वी पण एक क्षेत्रमा एक मास स्थिरता करे. स्थविरकल्पी मुनिराजो जो कोई जातनो उपद्रव न होय तो एक क्षेत्रमा मासकल्प करे, अने उपद्रव होय तो महिनानी अंदर पण विहार करे, अथवा बीजे उपद्रव होय तो अधिक पण रहे. ए प्रमाणे ऊणा अधिक आठ मास स्थविरकल्पी मुनिओने जाणवा. परंतु पडिमाधारी आदि मुनिराजोने तो नक्की आठ महिना यथाविधि विहार करवो अने चार महिना स्थिरता करवी एवो कल्प छे.
स्थविरकल्पी मुनिराजने माटे कालमर्यादा बतावे छे.
अषाड शुद दशमथी चातुर्मास योग्य क्षेत्रने नक्की करे. पछी त्यां विचरी संथारादि ग्रहण करी चोमासी प्रतिक्रमे अने पांच दिवसोवडे पर्युषणा कल्प करे. श्रावण वदी पांचमे पर्युषण करे. साथे रहेला मुनिओने संथार मल्लकादि आचारने बतावी ग्रहण करावे. ए प्रमाणे अषाड सुद १५ थी यावत् मागसर वद दसम सुधी एक क्षेत्रमा रहे. एक मासने वीस दिवस पहेलां जो गृहस्थो पूछे के आप चोमासुं रह्या छो ? तो अभिवर्धित संवत्सरमां जो अधिक मास आव्यो होय तो अषाड पूर्णिमाथी वीस दिवस गया पछी कहे के अमे चोमासु रह्या छीए, पण वीस दिवस अगाउ न कहे के अमे चोमासु रह्या छीए. बीजा चंद्रादि त्रण संवत्सरमां एक मासने वीस दिवस पहेला रह्या छीए एम कहेवू न कल्पे.
प्रश्न : एबुं शुं कारण के जेथी कहेवू न कल्पे ?
उ. : कदाच अशिवादि कारणो उपस्थित थयां होय तो विहार करवो पडे त्यारे गृहस्थो एम माने के साधुओं कंई जाणता नथी. मृषावाद बोले छे. जुओने रह्या छीए कहीने जता रह्या. अथवा वरसाद सारो न थयो होय तो लोको अवर्णवाद बोले, अथवा रह्या छीए एम कहे तो लोक जाणे के वरसाद सारो थवानो छे माटे दाणादुणी वेची नांखीए. वाववा माटे हल विगेरे अधिकरणो सज्ज करवा मांडे तेथी अनेक दोषो उत्पन्न थवानो संभव छे माटे वीस दिवस अथवा एक मास ने वीस दिवस पहेलां चोमासु रह्या छीए एम कहेवू कल्पे नहि. अषाड पूर्णिमाए चोमासुं रहेल मुनिराजो जो तृण, डगलादि लीधा होय अने पर्युषणाकल्प कर्यो होय तो श्रावण वद पांचमे पर्युषणा करे. योग्य क्षेत्र ఉతంతుంతంతంతం XXII తంతంగంంంంంం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे प्रस्तावना
न मले तो श्रावण वद दसमे अथवा अमावास्ये करे. ए प्रमाणे पांच पांच दिवसो वधारतां योग्य क्षेत्र न मले तो छेवटे भादरवा सुद पांचमे पर्युषणा करे, पण पांचमने ओलंघवी न कल्पे. अषाड पुनमथी आरंभी भादरवा सुद पांचम सुधी योग्य वस्ती मांगतां ज्यां वस्ती मले त्यां अथवा न मळे तो वृक्ष नीचे रही पर्युषणा करे. आ पर्वोने विषे पज्जोसणा करवी कल्पे, (पर्व पूर्णतिथि पांचम-दसमपूनम-अमावस) अपर्वने विषे करवी कल्पे नहि, पण कारण विशेषे आर्यकालकसूरिजी महाराजथी चोथना दिवसे पज्जोसणा करवानुं बन्युं तेनो संबंध नीचे प्रमाणे छे.
भारतभूषण मालवदेशमां महालती उज्जयिनी नगरीना अधिपति बलमित्र अने भानुमित्र राजा हता, तेमना भाणेज आर्यकालिके वीतरागनी वाणी सांभळी प्रभु महावीरनी परंपरामां प्रव्रज्या अंगीकार करी. कंईक कारणे सांसारिक संबंधी राजाओए तेमना पर द्वेष करी तेओश्रीने हद पार कर्या. तेथी विहार करतां प्रतिष्ठानपुर आव्या. त्यांनो राजा सातवाहन श्रावक होवाथी श्रमण पूजानो महोत्सव आदर्यो अने पोताना जनानाने (राणीओने) अमावास्याए पाठान्तरे अष्टमी दिवसे उपवास करवानुं फरमान कर्यु. वळी साधु महाजाओने पडिलाभी पारणुं करवानुं का. (आ उपरथी एम समजाय छे के सातवाहन राजा अभिषिक्त न होवो जोइए, अथवा राणीओना रसोडानी वानगीओ बहोरवानी छुट होवी जोइए. कारण श्रावक एटलं तो जाणतो होय छे के साधु भगवंतोने राजपिंड कल्पे नहि, तो अयोग्य फरमान अंतेउरमां करे नहि.) अन्यदा पर्युषणा दिवस नजीक आव्यो त्यारे आर्यकालकसूरि महाराजे सातवाहन राजाने का के भादरवा सुद पांचमना दिवसे पज्जोसण छे. त्यारे राजाए कह्यं के ते दिवसे मारे इन्द्रमहोत्सव छे, माटे छट्टना दिवसे आप पर्युषणा करो. एक दिवसे बन्ने कार्यों शोभायमान थशे नहि. चैत्य विगेरेनी उपासना पण बराबर नहि थाय. गुरुदेवे कां के ते दिवस ओलंघवो अमने कल्पतो नथी, त्यारे सरलस्वभावी राजाए कहूं के प्रभो ! एम ज होय तो चोथनो दिवस राखो. गुरुदेवे पण लाभy कारण जाणी हा कही चोथे पज्जुसण कर्या . ते परिपाटी आज दिन पर्यंत चाले छे. ज्येष्ठ अवग्रह सित्तेर दिवसने लीधे चोमासी पाखी पण चउदसने दिवसे
थई.
(केटलाक गच्छवासीओ कहे छे के कारण हतुं तेथी एम कर्यु पण हवे तो ఉదంతంతంతంతమంతతి XXIII అంతంతమంతయంతం
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संवत्सरी अंगे आर्य कालकसूरि प्रसंग
कारण नथी ने ? तो शास्त्र आज्ञा प्रमाणे पुनम अने पांचम केम न करवी ? उ. आर्य गुरुदेवना वाक्यने ऊडाणथी विचार्यु होय तो आ संभ्रम थात ज नहि. अनन्तज्ञानीओ जणावे छे के जो बार मासनी अंदर न खमावे तो अनन्तानुबंधी कषायनो बंध पडे छे. अनन्तानुबंधी जीव मिथ्यात्व गुणस्थानके होय छे. विचार करतां जणाय छे के पांचमनी क्षमापना छट्टे थई शके नहि तेम चोथनी करेली क्षमापना फरी पांचमे शी रीते थाय ? जेम चोथनी पांचम न थाय तो चउदसनी पुनम शी रीते थाय ? अने जो करवा जाय तो वरसनु उल्लंघन थयुं गणाय, माटे चोथ अने चउदसनी आराधना ज उचित छे. हवे भिन्न भिन्न पंचांगमां कराती आराधनानो विचार करीए.
दाखला तरीके करणाटकी पंचांगमां चोथ शनिवारे होय, गुजराती टीपणामां चोथ सोमवारे होय तेम ज मारवाडी पंचांगमां चोथ रविवारे होय, एवी रीते भिन्न भिन्न देशोमां वसता जैनीओए कया वारे चोथ आराधवी तेनी मुश्केली ऊभी थाय, माटे एक ज पंचांगने स्वीकारवामां आवे तो आ मुश्केली दूर थाय तेवी छे. एवी रीते बेवडी तिथिओमां पण समजवू.)
जे क्षेत्रमा आषाढ सुद दशम करी होय, अथवा अषाड मासकल्प कर्यो होय अने ते क्षेत्र चोमासा योग्य होय, बीजू न होय, अथवा तपासमां अन्य क्षेत्र चातुर्मास योग्य होय, गुणे करी योग्य क्षेत्र होय, संस्तारक, डगल आदि भूमि, वृद्धवास गाढ कारणने निरंतर रहेवानुं आरंभ्यु होय तो अषाड पूर्णिमाए पर्युषणा करे. ए प्रमाणे पांच दिवस ओछा करीने कहेवाय छे. अहिं जघन्यथी सित्तेर दिवस, मध्यमथी एंसी तथा नेवं दिवस, उत्कृष्टथी एकसो दस दिवस. जो वरसाद आदिनं कारण होय तो मागशरना दस दिवस एम त्रण उत्कृष्ट अवग्रह छे. जे मुनि भादरवा सुद पांचमे स्थिरता करे, तेओने जघन्यथी सित्तेर दिवसनो ज्येष्ठावग्रह. अहिं प्रश्नकार पूछे छे के शी रीते सित्तेर दिवस थाय ? कारण के चार मासना एकसो ने वीश दिवस थाय. उ. शेष पचास दिवस क्षेत्र शोधवामां गया, तेथी सित्तेर दिवसनो अवग्रह. जे मुनिराजो भादरवा वद दसमे पर्युषणा करे तेओए एंशी दिवसनो ज्येष्ठ अवग्रह. एवी रीते जे श्रावण सुदि पुनमे पर्युषणा करे तेमनो नेवू दिवसनो मध्यमथी ज्येष्ठ अवग्रह. जे श्रावण वद दसमे चोमासु रह्या तेओने एकसो ने दस दिवसनो अवग्रह. इत्यादि प्रकारोवडे चोमासु एक क्षेत्रमा रहेला साधुओए कार्तिकी पुनमे विहार करी जवो. जो
ఉటంతంంంంంంంంం XXIV అంతంతమంతయంతం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्र -प्रस्तावना
वरसाद बंध न रह्यो होय तो मागशर महिनामां जे दिवसे बंध थाय ते ज दिवसे विहार करवो. उत्कृष्टे करी मागशरनो मासकल्प करे. ते मागसर सुद पुनम सुधी जाणवुं. तदुपरांत रहे तो चार लघुमासनुं प्रायश्चित्त. ए रीते पंच मासिक ज्येष्ठ अवग्रह मासकल्प करीने सकारण त्यां ज स्थिरता करे, तो छ मासिक ज्येष्ट अवग्रह थाय. मरकी आदिना रोगना कारणे गाम बहार रह्या होय तो छ मासिक ज्येष्ठ मासकल्प जाणवो. जो व्याघातनुं कारण बने तो विकल्पथी जया करवी.
जो विचरवा लायक भूमि होय तो पडवामां विहार करे. आ प्रमाणे कार्तिक वद १, फागण वद १, चैत्र वद १ अने अषाढ वद १, कोई ठेकाणे जोवाय छे, के निशीथोक्त अपूर्ण चातुर्मासे नीचेना कारणो होय तो विहार
कराय.
जीवाकुल भूमि होय, संस्तारके पाणी पडतुं होय, गोचरी पूरी न मळती होय, राजा तरफथी भय होय, सर्पनो उपद्रव होय, कुंथुआ तेम ज अग्निनो उपद्रव होय, मांदगीना कारणे दवा माटे जवुं पडे.
हवे नीचेना कारणोथी चातुर्मासथी अधिक रहेवुं कल्पे.
वरसाद विरम्यो न होय, रस्ता कादववाळा होय. बीजे मरकी आदिनो उपद्रव होय, बीजे राजा दुष्ट होय, सर्प विगेरेनो उपद्रव बीजे होय अने औषधी विगेरेनुं साधन ते क्षेत्रमां सारुं न होय तो अधिक रहीने पण विहार करवो कल्पे. (आ कालस्थापना जाणवी) .
अथ क्षेत्रस्थापना कहेवाय छे.
जे क्षेत्रमां मुनिराज चोमासुं रहे ते क्षेत्रनी तमाम दिशामां पांच गाउनो अभिग्रह करवो. (आ अवग्रहमां बे माइलनो एक गाउ समजवो.)
शिष्य प्रश्न० केवी रीते छए दिशामां विचरी शकाय ? उ. पूर्व-पश्चिमउत्तर-दक्षिण-ऊर्ध्व-अधो-छ दिशाओ अने चार विदिशाओ असंव्यवहारीकृत एक प्रदेशिकी होवाथी ए चारने मूकीने ते छए दिशामां एक एक दिशामां अढी गाउ जाय, अने आवे एटले पांच गाउ थई जाय.
हवे बीजो प्रश्न० छ दिशा स्पष्ट रीते जणावो ? उ. पर्वतना शिखरना भागे गाम होय, मध्य भागमां गाम होय, मध्यम गामनी चारे दिशामां गाम होय, .... þá XXV áááááð
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चातुर्मासमा क्षेत्रादिनी स्थापना
पर्वतना मध्यम भागना गाममां मुनिराज रह्या होय, तेमने छए दिशानो अवग्रह राखवानो होय. 'इन्द्रपयमाइएसु'मां आदि पद जे ग्रहण कर्यु छे तेनुं कारण ए छे के बीजो पण एवो ज पर्वत होय, तेनी पण छ दिशा गणाय. एवा पर्वतने मकीने अन्य बीजा क्षेत्रमा चार दिशानो अवग्रह रखाय छे वा शब्दथी एटली ज न जाणवी. व्याघातवडे पांच होय अथवा एक-बे-त्रण पण होय छे, अर्थात् योग्य जणाय एटली दिशामां अवग्रह राखे...
बीजो प्रश्न० व्याघात क्यो ? उ० अटवी-उद्यान-पर्वत-पाणी वगेरेथी दिशाओ संधाएली होय, अने त्यां गाम न होय तो अवग्रह राख्यो शुं खपनो ? अथवा व्याघातोनी पहेलां चार गाम होय अने त्यां जई शकाय तेवू न होय तो पण अवग्रह शं कामनो ? तेथी यथायोग्य एक-बे-त्रण-चार-पांच अथवा छनो अवग्रह राखवो कल्पे. हवे अयोग्य क्षेत्रनी व्याख्या करतां जणावे छे के-जे गाम के नगरनी आजुबाजु अवग्रह राखवा लायक गाम-नगर-पराओ वगेरे न होय तेने अयोग्य क्षेत्र कहे छे.
__जे अवग्रहमां मुनि रह्या होय ते अवग्रहोनी वच्चे पाणी होय तो शुं करवू तेनो विधि जणावे छे.
ढींचणनो नीचेनो भाग जांघ कहेवाय छे. ते अर्ध जांघ डुबे एटलुं पाणी होय तो पाणी उतरी गोचरी विगेरे माटे विचरे तेमां ऋतुबद्ध कालमांत्रण संघट्टा जवा आववावडे छ जाणवा. चउमासामां सात फदक संघट्टा जवा आववावडे करी चउद. एथी अधिक करवा नहि. बीजो विधि बीजा सूत्रोथी जाणी लेवो, जेमके "एकं पादं जले किच्चा” इति क्षेत्रस्थापना.
हवे द्रव्यस्थापना जणावे छे.
द्रव्यस्थापनामां आहार-विकृति-संस्तारक-मात्रक-लोच-सचित्त-अचित्तने वोसरावq, ग्रहण करवू, धारी राखq . पूर्व आहार ओसवणा-योगविवृद्धि-सप्तउदकग्रहण, संचायिक अने असंचायिक द्रव्य विवृद्धि प्रशस्त. एनो भावार्थ नीचे मुजब जाणवो. द्रव्य स्थापना द्वारमा १ आहार द्वारमा चोमासु रहेल मुनिवर चार मास उपवासी रहे. जो शक्ति न होय तो मन, वचन अने कायाना योग शिथिल न थाय त्यां सुधीनो तप करे, तेने जोगहानी कहे छे. योगवृद्धि तप ए प्रमाणे जे नोकारशीनुं पच्चक्खाण करतो होय ते पोरसीनुं करे, यावत् एकासगुं.
ఉదంతంతమంతయంతం XXI అంతంతువంతం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना
आयंबील उपवासे वधे.
शिष्य प्रश्न-शुं कारण ? उ. चोमासामां कादव होय, संज्ञाभूमि वगेरे स्थाने जतां जीवजंतुओने दुःख थाय, ठल्लानी जग्या पण वधारे न होय, लीलोतरी-वनस्पतिनो घात थाय तेथी जेम बने तेम आहार ओछो करवो. विशेष करीने ऊनोदरी करवी. इति आहारद्वार.
अथ विगइद्वारस्थापना
विकृतिना बे भेद छे. प्रशस्त अने अप्रशस्त तेमां प्रशस्तना पण बे भेद १ संचयिक २ असंचयिक. तेमां असंचयिक क्षीर, दहीं, मांस, माखण, कडाविगय, संचियक-घी, तेल, गोळ, मध, मदिरा वगेरे. तेमां मदिरा-मांस-माखण अने मध ए चार अप्रशस्त छे. निर्युक्तिकार महाराज एमांथी एकने ग्रहण करी तेनी व्याख्या करे छे.
दुर्गतिथी डरनार साधु जो विगइओनो उपयोग करे तो विकारना स्वभाववाळी विगइओ बळात्कारे तेने दुर्गतिमां लई जाय छे. संयम थकी असंयमने पामे छे, जेमां विगइ रहेली होय एवा भात पाणी विना कारणे संयमी वापरे नहि. जो रसना इन्द्रियमां लुब्ध थईने वापरे तो उपर प्रमाणे विकारी बनी दुर्गतिमां जाय छे. शृङ्गार आदि नवरस अने दसमो विकृति रसनो ऋतुबद्धकालमां के वर्षाकालमां विगइओने वापरनारो मुनि गाज-वीज जोइ-सांभळीने मोहथी संभ्रमित थाय छे, माटे विना कारणे विगइओ वापरवी नहि. केवा कारणे वापरे ते जणावे छे. ग्लान-आचार्य-वृद्ध-बाल-दुर्बलशरीरी वगेरेनी वैयावच्च करनार गच्छना उपकार माटे ग्रहण करे. अथवा श्रावको घणो आग्रह करे तो प्रशस्त आदि विगइ वापरे. प्रशस्त विगइ ग्रहण करे, कारणे अप्रशस्त पण ग्रहण करे. कारण पुरुं थये अप्रशस्त विगइना पापनी आलोयणा ग्रहण करे.
असंचयी विगइ-दूध, दहीं थोडुं होय के घणुं होय, खप होय तो ग्रहण करे, पण संचयी विगइ न ग्रहण करे, विना कारणे खलास थइ जाय अने ज्यारे जरुर पडे त्यारे मळी न शके, तेथी श्रावको घणो आग्रह करे तो खप पडशे त्यारे लइशुं. ते वखते श्रावक आग्रहपूर्वक कहे त्यारे आपने जोईए त्यारे चारे मास चाले तेटलो अमारी पासे संग्रह छे, माटे खुशीथी ग्रहण करजो. एम जाणीने मुनिने खप होय तो यतनाए संचयी विगय पण ग्रहण करे. केटली अने
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विगइ वगेरे अंगे विचारणा
क्यां सुधी ले के ज्यां सुधी श्रावकनी श्रद्धा टकी रहे अथवा वृद्धि पामे त्यां सुधी ले, पण ओछी थती देखाय तो जणावे के अमारे हवे खप नथी..
जे विगय अप्रशस्त-निंदित गणाय ते कारण पडे स्थविर-बाल-दुर्बलने आपे, पण बलिष्ट युवानने आपे नहि. तेओने पण खास जरुर होय तो रोगादिकना कारणे आपे. आ प्रमाणे प्रशस्त-अप्रशस्त विगयो ग्रहण करवी. अप्रशस्त विगय तो खास कारण होय तो ज लेवी. चोमा रहेला मुनि के पूर्वे ग्लान होय तेमना माटे विगयनी जरुर होय तो वैयावच्ची मुनिराज पूछे के-हे भगवन् ! आपने केटली विगयनी जरुर छे. त्यारे ग्लानमुनिए का होय तेटला प्रमाण ज ग्रहण करे. आ कार्यमां पण वैद्यना आदेशथी अथवा बीजा आगाढ कारणथी श्रावक कारणने न जाणतो होय तो तेने कारण बतावे. तेमां जेटला प्रमाण जोईए तेटला प्रमाण मळी जाय एटले बस करे, तेथी श्रावकने पण विश्वास आवे के आ मुनिराजो फक्त ग्लानने माटे ज लई जाय छे, पण पोताना माटे लेता नथी. जो पोताना माटे लेता होत तो तेनो प्रत्याघात को होत अर्थात् आलोचना करी होत. तेथी श्रावक जाणे के दिवसमां त्रण वार पण आ मुनिराजो ग्लानने माटे ज लई जाय छे, एम जाणीने जणावे के तमारे माटे पण ग्रहण करो. तमे पण वापरजो. एम कहे त्यारे खप होय तो स्व माटे पण ग्रहण करे. इति विगइ स्थापना.
शंकाः- अहो आश्चर्य छे के, महामुनिओ त्यागी, वैरागी, तपस्वी, निःस्पृही, निरीह, निराकांक्षी होई | महाविगईयो वापरे ? समाधानः-हे महानुभाव ! महामुनिराजो तथा प्रकारना कारण विना महाविगईयो तो शुं पण नानी विगईयो अने आहार पण लेता नथी. सकारणे ज तेओ बधुं ले छे. जो स्वादने माटे कंई खोटुं बानुं बतावी ले, तो तेओ साधुमां न खपतां स्वादुमां ज खपे छे. तेवाओ पासत्यादिमां गणाय छे, माटे सकारणे जे कंई ले, ते श्रीगीतार्थगुरुनी आज्ञाथी ले छे. ते व्याजबी छे, पण ग्लानना ओठा नीचे पोताना माटे न ले.
__ अथ संस्तारक स्थापना ऋतुबद्ध काळमां जे संस्तारक ग्रहण कर्यो होय तेने वोसरावीने बीजो ग्रहण करे. इति संस्तारकस्थापना.
___ अथ मात्रक स्थापना-ठल्लानी कुंडी, मात्रानी कुंडी, कफ आदि थुकवानी कुंडी. एम त्रण कुंडीओ ग्रहण करे. ऋतुबद्ध कालमां लीधी होय तेने परठवी दे. दरेक साधु त्रण त्रण मात्रक राखे, अने बन्ने वखत तेनी पडिलेहण ఉతం ఉంటుంంంంంతం XXVII తీయటం వంటంతీయం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना
करे. जो वरसाद न पडतो होय तो करे. (ए उपरथी समजाय छे के वाडामां स्थंडिल जवुं अने भंगीए लई जवं ए चारित्रीओ माटे उचित नथी.) दिवसे के रात्रे जो मात्रकनो उपयोग थयो होय तो लघुमासनुं प्रायश्चित्त आवे. जे मुनिराजे परठववानो अभिग्रह कर्यो होय ते परठवे. शिष्य ज्यां सुधी खेद न पामे अने उल्लासथी कार्य करे त्यां सुधी तेनी पासे परठवावुं, जो दुगंछा करे तो न परठवावुं. अपरिणत शिष्य पासे न परठाववुं. इति मात्रकस्थापना.
अथ लोच स्थापना-जिनकल्पी - पडिमाधारी आदि मुनिवरोए नित्य लोच करवो. स्थविरकल्पी मुनिओए चोमासामां लोच करवो. सारी रीते सहनशीलतामां वांधो न आवतो होय तो लोच माटे रात्रि ओळंघवी नहि. इति लोचद्वार.
अथ सचित्तद्वार-चातुर्मासमां जो श्रावक के श्राविकाने दीक्षा आपे तो चार गुरु मासनुं प्रायश्चित्त आवे अने प्रभु आज्ञानी विराधना थाय. तेनुं कारण बतावतां जणावे छे के ते शिष्य जीवो उपर श्रद्धा न राखे. केम श्रद्धा न राखे ? उ. अप्कायना जीवोनो परिहार करवो आ काळमां मुश्केल छे. तेथी ते कहे के तमे वरसाद पडतो होय त्यारे केम चालो छो ? आ ते केवी तमारी अहिंसा ? एप्रमाणे श्रद्धा न राखे. जो मुनिराज कादववाळा पग न धुवे तो ते कहे के पग तो कादववाळा छे छतां धोता नथी. वळी दुगंछा करतो मनमां विचारे के एवा साथै रहेवाथी शुं ? ए तो अशुचीए चाले छे. जो पग धोवे तो कहे के सागारिक सरखा छे. वरसता वरसादे मांडलीमांथी ठल्लानी शंका छतां बाहेर भूमि न लई जाय तो लघु उपसर्ग. जो लई जाय तो शासननी वगोवणी करे. बीजा साधुओ साथे बहारभूमिए मोकले तो वरसादने लीधे पाछो फरे. जो मांडलीमां रहेला साधुने ठल्ले लई जवा माटे आदेश न करे तो सामाचारी विराधना. सम्यग् मर्यादा कीधी न गणाय. यदि मात्रकमां ठल्लो मात्रं विसर्जन करे अने तेने जोईने जतो रहे तो साधुओनी उड्डाहणा करे. जो ठल्ला मात्राने धारण करे तो आत्मविराधना. जो बहार लइ जाय तो अप्कायनी विराधना थवाथी संजमविराधना. इत्यादिक घणा दोषोनुं कारण होवाथी चातुर्मासमां दीक्षा न आपवी. ( कारणे आपे. जेमके प्रथम दीक्षा पाळेल होय, अभिग्रहधारी भावश्रावक होय अथवा राजा-प्रधान, योग्य आत्मा होय तो दीक्षा आपे, पग धोवा विगेरेनो आचार बतावे. आ प्रमाणे चउमासा सचित्त ग्रहणनिषेध विधि.
हवे अचित्तग्रहणविधि राख- डगल - मल्लक आदि ऋतुबद्धकाळमां जे
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नवमी-दशमी दशानी विगत
ग्रहण कर्या होय तेनो त्याग करे अने चउमासा योग्य ग्रहण करे. तेनो विधि जाणी लेवो.
हवे भावस्थापनामां पांच समिति अने त्रण गप्तिनं विवेचन करवामां आव्युं छे तथा द्रष्टान्तो आपेला छे. पछी क्षमापना विधि बतावेल छे. तेनी अंदर चंडप्रद्योत अने उदायन आदि द्रष्टान्तो आपेला छे. क्रोध विषे द्रमक-अच्चुंकारी भट्टादिना द्रष्टान्तो छे. त्यारपछी मूल सूत्रकारे संक्षेपमां पांच कल्याणको वर्णव्या छे.
इति अष्टमी दसा समत्ता. आठमी दसाना सूत्र उपर चूर्णिकारे जे व्याख्या करी छे ते व्याख्या मोटे भागे कल्पसूत्रना नवमा व्याख्यानने मळती होवाथी अत्रे सारांश मूक्यो नथी. नवमी दसामां त्रीस मोहस्थानकोने जणावतां जीव केवी रीते महामोहनीय प्रकृतिओथी बंधाय छे ते जणाव्युं छे. तेमां नियुक्तिकारे चार निक्षेप, ओघथी एक प्रकृतिनो बंध, मोहस्थानकोने सेवतां आठे कर्मनो बंध, कर्मवाद पूर्वमां जेम जणाव्यं छे तेम निर्देश कर्यो छे. मोहना स्थानकोमां जीवहिंसा, मृषावाद, मायामृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह आदि आश्रवोने सेवतो मुनि महामोहनीयकर्म बांधे छे अने दुर्लभबोधि थाय छे. जे महात्माओ मोहने जीते छे ते केवलज्ञान पामीने मोक्षे जाय छे. देवगुरुनी निंदानो-उत्सूत्रप्ररुपणानो पण एमां समावेश करवामां आव्यो छे, माटे भवभीरु आत्माओए सूक्ष्मद्रष्टिए विचारी जीवनयात्रा सफल बनाववी जोईए.
इति नवमी दशा समता अथ दशमी दशामां नव नियाणा जणावेल छे. नवमी दशामां व्याख्यान वखते कोणिक राजा समवसरणमां आव्या छे. अने दशमी दशामां श्रेणिक राजा आव्या छे. अहिं शंका थाय छे के-कोणिकना राज्याभिषेक पहेलां श्रेणिकनुं मृत्यु थयुं छे, तेथी एम समजाय छे के दशा गोठववामां क्रम फेर होवो जोईए अथवा तो कोणिक चंपानगरीनो उपराज होवो जोईए, एम गणवाथी उपरनी शंका रहेती नथी.
नव नियाणामां प्रथम नियाणं आ प्रमाणे छे. कोई साधु के साध्वी उत्तम पुरुष अथवा स्त्री संबंधी भोगोने जोइने पोते एम मनोगत इच्छा करे के मारा आ तप संयम व्रत पालनना फल तरीके हुं पण सुंदर रुपवान्-आभूषणो पहेरवा
ఉదంతంతంతమంతయు XXX అంతయునుందుంతుతం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना
वालो, मनुष्य संबंधी पंचेन्द्रियना सुंदर भोगो भोगववावालो थाउं. जेमके मारुं मोढुं गोल लाडवा जेवुं हो. मारी आंखो मोटा कोडा जेवी लांबी पहोली अने रमणीय हो. मारुं नाक तीक्ष्ण अणीदार हो . मारा गाल उपसेला दडा जेवा हो. मारा होठ परवाला जेवा लाल अने खुबसुरत हो. मारा दांत दाडमनी कली जेवा देदीप्यमान शोभापात्र हो. मारुं कपाल तो आठमना चंद्रने पण आजी दे तेवुं हो. मारा माथाना वाल रेशम जेवा सुंदर हो. मारी बे भुजाओ तो लंबाइमां प्रमाणोपेत अने भोरींगने पण भय प्रमाडे तेवी होय. मारी केड तो केसरीसिंह जेवी शोभायमान हो. मारा हाथ पगनी आंगलीओ तो कमलना डांड जेवी सीधी अने सुंआली हो. टुंकाणमां मारुं शरीर एवं सुंदर हो के सर्व मनुष्यो मने चाहे. एवी रीते साधु पुरुष संबंधीना भोगोनी इच्छा करे अने साध्वी स्त्री संबंधीना भोगोनी इच्छा करे अने नियाणुं करे के मने आवा भोगो मलो. जो ते नियाणाने आलोच्या विना काल करे तो काल करीने देव संबंधी सुखने पामीने उपरोक्त सुखने भोगवी, महा आरंभ समारंभना योगे रौद्रध्यानना वशथी नरकगतिने पामे, अने धर्म के समकितने योग्य रहे नहि. उपरनी हकीकतमां बे नियाणानो समावेश करेलो होवाथी एम समजवुं के साधु अथवा साध्वी पुरुष थवानी इच्छा करे तो एक नियाणुं अने स्त्री थवानी इच्छा करे तो स्त्री संबंधी बीजुं नियाणुं जाणवुं . (अहिं विशेष ए छे के आवुं सुख मेलववामां पण चारित्र तो निरतिचार होवुं जोईए. बकुश-पासत्या कुशील के सम्यक्त्वविहूणा होय तो आवा सुखोथी पण वंचित रहे छे.)
एप्रमाणे बीजा सात नियाणा देव अने मानव संबंधी छे, पण फलवृत्तिमां उत्तरोत्तर फेर पडतो जाय छे छेवटना नियणावाळो एकावतारी पण बने छे. सूत्रकार जणावे छे के नियाणुं करवुं जोईए ज नहि. नियाणाथी सम्यक्त्व मलिन बने छे तेथी निर्नियाणावाळो ज ते भवमां मोक्षगामी थाय छे.
इति दसमी दसा समाप्ता.
आ दसे दसाओमां गणि संपदानो विचार करतां जणाय छे के सूत्रकारे गणाधिप उपर केटली जवाबदारीओ नांखी छे. जो मुनिराजो आठ संपदाओ तरफ नजर दइने आठे संपदाओने द्रव्यक्षेत्रकाल प्रमाणे ग्रहण करी पछी गणिपद ले तो आजे पदस्थानोमा रहेल अविद्यानो वंटोळ शान्त थई ज्ञानरुपी सूर्यबडे सत्य शोधीने स्वपरना जीवनविकासमां घणा सहायक बनी शकाय .
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नवमी - दशमी दशानी विगत
छेवटमां आ प्रस्तावना लखतां जे कांई स्खलना थई गई होय तो विद्वज्जनोने क्षन्तव्य छं कारण के आ प्रस्तावना पूज्यश्रीने लखवानी हती पण पूज्य श्रीनी तबीयत अनारोग्यताने लीधे मारे आ प्रयत्न यथाशक्ति करवो पड्यो छे. २०११ ना ज्येष्ठ वदि ५ शुक्रवार,
(प्रथम आवृत्तिमांथी साभार उद्धृत प्रस्तावना)
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चम्पकसागर
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प्रथमाऽसमाधिस्थाना-ऽध्ययन-निर्युक्ति - गाथा: । मंगलादि-निरुपणम् ।
श्रीदशाश्रुतस्कंध-मूल-निर्युक्ति- चूर्णिः ।
अथ पढमा दसा असमाहिट्ठाण -ऽज्झयणं । वंदामि भद्दबाहुं पाईणं चरिम-सयल सुयनाणि । सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे ||१|| आउ विवागज्झयणाणि भावओ दव्वओ वत्थदसा । दस आउविवागदसा वाससयाओ दसहच्छेत्ता ॥२॥ 'बाला "मंदा किड्डा बला य "पण्णा य 'हायणि 'पवंचा | 'पब्भार- 'मुम्मुही "सयणी नामेहि य लक्खणेहिं दसा ||३|| दसआउ विवागदसा नामेहि य लक्खणेहिं एहिंति । तो अज्झयणदसा अहक्कमं कित्तइस्सामि ||४|| डहरीओ उ इमाओ अज्झयणेसु महईओ अंगेसु । छसु नायादीएसुं वत्थविभूसावसाणमिव ॥ ५ ॥ डहरीओ उ इमाओ निज्जूढा अणुग्गहट्ठाए । थेरेहिं तु दसाओ जो दसा-जाणओ जीवो ||६|| 'असमाहिय `सबलत्तं 'अणासादण - "गणिगुणा " मणसमाही । ६सावग-"भिक्खूपडिमा 'कप्पो मोहो “नियाणं च ||७|| दसाणं पिंडत्थो एसो मे वण्णिओ समासेणं । तो एक्केकंपि य अज्झयणं कित्तइस्सामि ||८|| दव्वं जेण व दव्वेण समाही आहियं च जं दव्वं । भावो सुसमाहितया जीवस्स पसत्थ- जोगेहिं ॥९॥ नामं ठवणा दविए खेत्तद्धा उड्ड उवरई वसही । संजम पग्गह-जोहे अचल- गणण- संधणाभावे ||१०|| वीसं तु णवरि म्मं अइरेगाइं तु तेहिं सरिसाई । नायव्वं एएसु य अन्नेसु य एवमाईसु ||११||
।। पढमा असमाहिट्ठाण - निज्जुत्ती समत्ता १ ॥
चू०-नमः सिद्धेभ्यः । मंगलादीणि सत्थाणि मंगल- मज्झाणि मंगलावसाणाणि । मंगल-परिग्गहीता य सिस्सा अवग्गहेहापाय-धारणासमत्था अविग्घेण सत्थाणं य पारगा भवंति ताणि य सत्थाणि लोगे विरायंति वित्थारं च गच्छंति । तत्थादि-मंगलेण, निविग्घेण सिस्सा सत्थस्स पारं गच्छंति । मज्झ-मंगलेणं सत्यं
తరతర
వరరచన
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे असमाधिस्थान-अध्ययनम्-१ 'थिरपरिचिअं भवइ । अवसाणमंगलेण सत्यं सिस्सपसिस्सेसु परिच्चयं गच्छति ।
तत्थादिमंगलं-सुतं मे आउसंतेण भगवया एवमक्खायं इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पन्नत्ता । मज्झमंगलं-पज्जोसवणाकप्पे पढमसुतादारब्भ जाव थेरावलिया य परिसम्मत्ता । अवसाणमंगलं-ते णं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए बहूणं समणाणं जाव आयातिठ्ठाणं णाम अज्जो अज्झयणं सअटुं सहेतुअं सकारणं भुज्जो भुज्जो उवदंसेमित्ति बेमि ।
तं पुण मंगलं नामादि-चतुर्विधं आवस्सगाणुक्कमेण परूवेयव्वं । तत्थ भावमंगलं निज्जुत्तिकारो आह
वंदामि भद्दबाहुं पाईणं चरिम-सयल-सुयनाणिं । सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे || गाहा १ ।
भद्दबाहु-नामेणं पाईणो गोत्तेण, चरिमो-अपच्छिमो, सगलाइं चोद्दसपुव्वाइं । किं निमित्तं नमोक्कारो तस्स कज्जत्ति ? उच्यते-जेण सुत्तस्स कारओ ण अत्थस्स । अत्थो तित्थगरातो पसूतो | जेण भण्णति-अत्थं भासति अरहा० गाथा । कतरं सुत्तं ? दसाओ कप्पो ववहारो य । कतरातो उद्धृतं ? उच्यतेपच्चक्खाण-पुव्वाओ ।
अहवा भावमंगलं नंदी । सा तहेव चउव्विहा । तत्थवि भावणंदी 'पंचविहं नाणं' । तं सवित्थरोदाहरणप्पसंगेणं परूवेतुं नियमिज्जत्ति । इहं सुतनाणेणं अधिकारो तम्हा स्तनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणण्णा अणुओगो य पवत्तति । उद्दिठ्ठ-समुद्दिठ्ठ-अणुण्णायस्य अणुओगो भवति तेण अधिकारो । सो चउव्विहो- तं जहा-चरण-करणाणुओगो धम्माणुओगो गणियाणुओमो दव्वाणुओगो । तत्थ चरण-करणाणुओगो कालिअ-सुतादि । धम्माणुओगो इसिभासितादि । गणिआणुओगो सूरपण्णत्ति आदि । दव्वाणुओगो दिह्रिवातो |
स एव समासतो दुविहो-पुहत्ताणुओगो अपहुत्ताणुओगो य । जं एक्कतरंमि पडविते चत्तारि वि भासिज्जंति एतं अपहत्तं, तं पुण भट्टारगातो जाव अज्ज-वइरा । ततो आरेण पुहत्तं जातं जत्थ जत्थ पत्तेअं पत्तेअं भासिज्जति । भासणाविधेः पहत्तं करणं अज्जरक्खिअ पूसमित्त तियग-विंझादि विसेसेत्ता भण्णंति ।
१. परिजितं पाठान्तरम् । २. परिशील्यत् । पचयमिति पाठान्तरम् । ३. पुष्यमित्रफल्गुमित्र-गोष्ठामाहिल-त्रितयम् । ఉంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంం
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अनुयोगद्वार-प्रकाराः, दशाश्रुतस्कन्धः प्रत्याख्यान-पूर्वादुद्धतः । एकशब्द-निक्षेप-दर्शनम् ।
इहं चरण-करणाणुओगेण अधिकारो । सो अ इमेहिं अणुओग-द्दारेहिं अणुगंतव्वो | तं जहा
निक्खेवेगट्ट निरुत्तिविधि पक्त्ती अ केण वा कस्स | तद्दार-भेद-लक्खण-तदरिह-परिसा य सुत्तत्थो ।।
इत्थं जं केण वा कस्सति एएणं पसंगेण कप्पे जहोववन्निय-गुणेण आयरिएण सव्वस्स सुतनाणस्स अणुओगो भाणियव्वो । इमं पुण च्छेय-सुत्तपमुह-भूतंति विसेसेणं दसाणं ततो इमं पट्ठवणं पडुच्च तासिं पत्युतो ।
जति दसाणं अणुओगो, दसाओ णं किं ? अंगं अंगाई, सुतक्खंधो सुतक्खंधा, अज्झयणं अज्झयणाणि, उद्देसो उद्देसा । दसाओ नो अंगं नो अंगाई, सुतक्खंधो नो सुतक्खंधा, नो अज्झयणं अज्झयणा, णो उद्देसो णो उद्देसा, तम्हा दसा निक्खिविस्सामि, सुयं निक्खिविस्सामि, खंधं निक्खिविस्सामि, अज्झयणाणि निक्खिविस्सामि । तत्थ पढमं दारं दसाए पुण एक्कादिसंकलणाए निप्फण्णंति तम्हा एकस्स निक्खेवो कायव्वो ततो दसण्हं । एगस्स दारगाथा
नामं ठवणा दविए मातुग-पद-संगहेक्कए चेव । पज्जय भावे य तहा सत्ते ते एक्कगा होति ।।
नामठवणातो जधा आवस्सए । दव्वेक्कगं जधा एक्कं दव्वं सचित्तं अचित्तं मीसगं वा, सचित्तं जहा-एक्को मणुसो, अचित्तं जहा करिसावणो, मीसो पुरिसो वत्याभरणविभूसितो | मातुपदेक्कगं-उप्पण्णेति वा धुवेति वा विगतेति वा, एते दिट्ठिवाए मातुगा पदा, अहवा इमे माउगा पदा-'अ आ' एवमादि । संगहेक्कगं जधा दव्वं पदत्यमुद्दिस्स एक्को सालिकणो साली भण्णति, जातिपदत्यमुद्दिस्स बहवो सालयो साली भण्णति, जधा निप्फण्णो साली, ण य एगम्मि कणे निप्पणे निष्फण्णं भवति, तं संगेहक्कगं दुविहं-आदिट्ठमणादिटुं च । आदिटुं नाम विसेसितं । अणादिटुं जहा साली, आदिटुं जहा कलमो । पज्जविक्कगंपि दुविधं आदिटुं अणाइडं च । पज्जातो गुणादी परिणती । तत्य अणादिटुं गुणोत्ति , आदिटुं वण्णादि । भावेक्कगंपि आदिठ्ठमणाइटुं च । अणाइटुं भावो, आइटुं ओदयितो उवसमितो खइओ खओवसमितो परिणामतो । उदईयभावेक्कगं दुविधं-आइठ्ठमणाइटुं च । अणाइटुं उदइओ भावो, आइटुं पसत्थो अपसत्यो य । पसत्थो तित्थगर-नामोदयाइ । अप्पसत्थो कोहोदयाइ । उवसमियस्स खइयस्स व अणादिठ्ठादिट्ठभेदो सामण्णस्स विसेसस्स य अभावे ण संभఉండియుండియుతం అంతంతుయుతవుతుంయుతం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे असमाधिस्थान-अध्ययनम्-१
I
वति । केति खतोवसमियंपि एवं चेव इच्छंति तं ण भवति, जेण सम्मद्दिद्वीणं मिच्छादिट्ठीणं खओवसमओ लद्धीओ बहुविधाओ संभवंति तम्हा दुविहत्तणं चेव । पारिणामिय-भावेक्कगं सामण्ण-विसेसभावेण तहेव जं आइवं तं साइयपारिणामियं अणादियपारिणामियं च । तत्थ सादिअपारिणामियं एक्कगं कसायपरिणओ जीवो 'किसाओ । अणाइयपारिणामिय एक्कगं जीवो जीवभावपरिणओ सदा एवमादी । इह कयरेण एक्कगेण अधिकारो ? उच्यते - भिन्नरूवा एक्कगा दससद्देण संगहिया भवंति, तेण संगहेक्कगेण अधिकारो, अहवा सुतनाणं खओवसमिए भावे चिट्ठतित्ति भावेक्कएण अधिकारो, उभयमविरुद्धं । भावो एवं विसेसि - ज्जति दुगादिपरूवणावसरे । दस परूविज्जंति । एवं सेसं परूविअं भवति तम्हा दसग-णिक्खेवो । सो चउव्विहो - नामदसाइं नामट्ठवणाओ तहेव गाथा पच्छद्धेण, दव्वदसा जाणगसरीर-भविअसरीर-वतिरिता वत्थस्स दसाओ, पढमं बंधाणुलोमेणं भावदसाओ भणियाओ । जओ आउविवागज्झयणा गाथा ।
आउ विवागज्झयणाणि भावओ दव्वओ उ वत्थदसा । दसआउ विवागदसा वाससयाओ दसहच्छेत्ता ||२||
भावदसा दुविहा-आगमतो नोआगमतो य । नोआगमतो दुविधा आउविवागदसा अज्झयणदसा य | आयुषो विपाकः विपचनमित्यर्थः । विभागो वा दसधा विभज्यते, वाससयाउस्स दसहा आउगं विभज्यते । दस दस वासाणि कज्जंति ताणं नामाणि इमाणि-बाला मंदा० गाथा ।
बाला' मंदार किड्डा र बला" य पण्णा' य हायणि'- पवंचा | पब्भार'-मुम्मुही' सयणी नामेहि य लक्खणेहिं दसा ||३||
एताइं नामाइं आउविवागदसाणं दस बालादीनि एयाणी चेव लक्खणाणिवि । कहमेयं जं चेवाभिधानं तं चेव लक्खणं ? उच्यते जहा खमती खमणो, तवती तवणो एवमादिं, एवमिहापि द्वाभ्यां कलितो बालः, कार्याकार्यानभिज्ञो वा बालः, तस्स जा दसा सा बाला भण्णति । मंदमस्यां चाऽल्पं योवनं विज्ञानं श्रोत्रादिविज्ञानं वा तेण मंदा । क्रीडंत्यस्यां क्रीडा विसएस सद्दादिसु । बलमस्यां जायतीति बला वीर्यमित्यर्थः । प्रज्ञा अस्यां जायत इति पण्णा । हायत्यस्यां बाहुबलं चक्षुर्वा हायणी । प्रपंच्यतेऽस्यामिति प्रपंचा । भाषिते चेष्टिते वा भारेण नत इव चिट्ठए पब्भारा । "विणओवक्कमंतो मूक इव भाषते मुंमुही । सयणे
१. 'क्लेशात्' इति संभाव्यते यद्वा काषायिक इति । कसाओ इति पाठान्तरम् । २. रागद्वेषाभ्यां मोहाज्ञानाभ्यांवा । ३. 'बाल्यं' पाठान्तरम् । ४. विनत ` उपक्राम्यन् ।
ఉర
తత
వరరరర
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दश दशा-वर्णनम् । एदंयुगीन साधूनामुपकाराय श्रीभद्रबाहुना निर्युढा : ।
चिट्ठदि ण चंकमणादिसमत्यो भवति । एता दस आउविवागगाथा । दस नामतो लक्षणतश्चोक्ता ।
दसआओ विवागदसा नामेहि य लक्खणेहिं एहिंति । तो अज्झयणदसा अहक्कमं कित्तइस्सामि ||४||
एतोत्ति अस्मादुत्तरं अज्झयणदसा 'अहक्कमं' ति जहक्कमं जह भगवया भणियाओ कित्तइस्सामि वण्णिस्सामि परूवेस्सामि कहेस्सामि । दुविधातो अज्झयणदसाओ-डहरीओ महल्लीओ य । तत्थ डहरीतो तु इमातो गाथा० ५ । डहरीओ उ इमाओ अज्झयणेसु महईओ अंगेसु । छसु नायादीएसुं वत्थ विभूसणावसाणमिव ॥५॥
डहरीतो इमातो आयारदसातो । आयारो साहूण सावयाण य संखेवेण वण्णिज्जत्ति । अतो आयारदसातो असमाहिद्वाणादि । महल्लीओ पुण अंगेसु छसु णायादिसु नायाणं धम्मकहातो जाव विवागदसातो । जहा वत्थस्स विभूसणनिमित्तं मंगलनिमित्तं च अवसाणदसाण दसाओ भवंति । एवं इमाओ वि अज्झयणदसातो मंगल्लातो । एताओ केण कताओ ? उच्यते सव्वाण वि दसाण अत्थो भगवया भासितो, सुत्तं गणधरेहिं कतं । डहरीतो तु इमातो निज्जूढा० ६ । डहरीओ उ इमाओ निज्जूढा अणुग्गहट्ठाए । थेरेहिं तु दसाओ जो दसा जाणओ जीवो ॥६॥
दिट्टिवायातो नवमातो पुव्वातो असमाधिद्वाणपाहुयातो असमाधिद्वाणं एवं सेसाओवि सरिसनामेहिं पाहुडेहिं निज्जूढाओ । केण ? थेरेहिं भद्दबाहूहिं । नित्यमात्मनि गुरुषु च बहुवचनम् ।
तेहिं थेरेहिं किं निमित्तं निज्जूढाओ ? उच्यते-ओसप्पिणि-समणाणं परिहायताण आयुगबलेसु होहिंतुवग्गहकरा पुव्वगतम्मि पहीणम्मि । ओसप्पिणीए अणंतेहिं वण्णादि-पज्जवेहिं परिहायमाणीए समणाणं ओग्गह धारणा परिहायंति बल-धिति-विरिउच्छाह - सत्त - संघयणं च । सरीरबल - विरियस्स अभावा पढिउं सद्धा नत्थि । संघयणाभावा उच्छाहो न भवति । अतो तेण भगवता 'पराणुकंपि - एण भोअणग-दारग-रायदिवंतेण मा वोछिज्जिस्संति एते अत्थपदा, अतो अणुग्गहत्थं, ण आहरुवधि-सेज्जादि - कित्ति - सद्दनिमित्तं वा निज्जूढातो आगमतो । जो दसा-जाणतो उववुत्तो जीवो सो भावदसातो भण्णत्ति । एत्थ सुत्तं खंधो य
१. परमाणुकंपण' पाठान्तरम् ।
लललल 4 sssssss
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे असमाधिस्थान-अध्ययनम्-१
विभासितव्यो जहा आवस्सए । एसो दसाण तोहो' पिंडत्थो वण्णितो समासेण, एतो एकेक्कं पुण अज्झयणं कित्तइस्सामि ।
असमाहिय-'सबलत्तं अणासादण-गणिगुणा 'मणसमाही । 'सावग-"भिक्खूपडिमा 'कप्पो मोहो "नियाणं च ||७|| दसाणं पिंडत्थो एसो मे वण्णिओ समासेणं । एत्तो एक्केकंपि य अज्झयणं कित्तइस्सामि ||८||
एतेसिं दसण्हं अज्झयणाण इमे अत्याहिगारा भवंति । तं जहा-'असमाहि य 'सबलत्तं अणसादण- गणिगुणा 'मणसमाही । सावग-"भिक्खुपडिमा 'कप्पो मोहो १०निदाणं च ||७||
तत्थ पढमं अज्झयणं असमाहिट्ठाणंति तस्स चत्तारि अणुओगद्दारा भवंति । तं जहा-उवक्कमो निक्खेवो अणुगमो णओ । तत्थोवक्कमो णामादि छव्विहो । तं परूवेतुं पुव्वाणुपुवीए पढमं, पश्चानुपुव्वीए दसमं, अणाणुपुव्वीए एताए चेव एगादियाए एगुत्तरियाए दस-गच्छ-गताए सेढीए अण्णमण्णमब्मासो दुरूवुणो । अत्याहिगारो से समाहीए तस्सेव रक्खणट्ठा असमाहिट्ठाणा परिहरिज्ज । गतो उवक्कमो । निक्खेवो तिविहो-ओहनिप्फण्णो नामनिप्फन्नो सुत्तालावगणिप्फण्णो । ओहनिप्फन्नो अज्झयणं अज्झीणं आउज्झवणा सव्वं परूवेऊणं नामनिप्फन्ने निक्खेवे असमाधिठ्ठाणा दुपदं नाम असमाधी हाणं च । अ-मा-नो-नाः प्रतिषेधे ण समाही असमाही, असमाधीए हाणं असमाधिट्ठाणं, जेणाऽऽसेवितेण आतपरोभयस्स वा इह परत्र उभयत्र वा असमाधी होति तं असमाधिट्ठाणं असमाधिपदमित्यर्थः । तथा समाधी दुविहा-दव्वे भावे य, दव्वसमाधी
दलं जेण व दवेण समाही आहियं च जं दख् । भावो सुसमाहितया जीक्स्स पसत्थ-जोगेहिं ।।९।।
दव्वसमाधी समाधि-मत्तादिर, अहवा यस्य ययोर्येषां वा द्रव्याणां समाही अविरोध इत्यर्थः । जेणेव दव्वेण भुत्तेण समाही भवति । आहितं च जं दव्वं आधितमारोवितं जेण दव्वेण तुलारोवितेण ण कतो वि णमति समतुलं भवति सा दव्वसमाही ।
__भावसमाधी गाथापच्छद्धेण एत्थ भण्णइ-भावो सुसमाहितता पच्छद्धं भावसमाधी नाणदंसणचस्तिाणं परोप्परतो समाही अविरोध इत्यर्थः । तेहिं वा १. ओहो इत्यपि पाठः ओघतः । २. समाधिहेतु मात्रकादि-भाजनादि । ఉదయంయంయంయంయంయంయంయంయdicted
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समाधेर्निरूपणम् । ठाणं स्थानशब्दनिक्षेपः । अनुगम-द्वार-वर्णनम् ।
उप्पण्णेहिं तेसु वा अप्पाहितो जधा सट्ट आधितो सुसमाहितो ताणि वा णाणादीणि अत्तणि आहिताणि | भावसमाही-भावो जीवस्स जा सुसमाहितता णाणादिसु ३ । केसु सुसमाहितता जीवस्स ? उच्यते-पसत्थजोएसु । के पसत्यजोगा ? णाणादीसंगहिया मणोजोगादी ३ अथवा अक्रोधता ४। गया समाधी ।
इदाणि ठाणं तत्य गाथानाम ठवणा दविए खेत्तद्धा उड्ड उवरई वसही । संजम-पग्गह-जोहो अचल-गणण-संधणाभावे ||१०||
नामठवणाओ गताओ दव्वट्ठाणं जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिस्तिं सचित्तादि ३ । सचित्तं-दुपदादि दुपदहाणं दिणे दिणे जत्थ मणूसो उवविसति तत्थ हाणं जायति, चउप्पदहाणंपि एमेव । अपदट्ठाणं गुरुयं फलं जत्थ निक्खिप्पति तत्थ ठाणं जायति । अचित्तं जत्थ फलगाति सया जंतादीणि निक्खिप्पंति तत्थ वाणं जायति, मिस्सट्टाणं 'समाभरिताणं घडगस्स वा जलभरियस्स । खेत्तट्ठाणं गामादीणं निविट्ठाणं उवविसताण वि हाणं दीसति । अद्धा काल इत्यर्थः, तं दुविधंभवद्धिती कायट्टिती य । भवद्विती णेरड्य-देवाण य संचिट्ठणा । कायट्टिती तिरिक्खजोणिय-मणूसाणं जा संचिट्ठणा । उद्धट्टाणंति तज्जातीयग्रहणात निसीअण-तुयट्टण-ट्ठाणं एतेसिं उद्धट्ठाणं आदी तं पुण कायोत्सर्ग इत्यर्थः । निसीयणा-उवविसणा, तुअट्टणा=संपिहणा । उवरति-हाणं देसे सव्वे य, देसे अणुव्वता पंच, सव्वे महव्वताणि पंच । वसधिहाणं-उवस्सओ । संजमठ्ठाणं असंखेज्जा संजमट्ठाणा । पग्गहठ्ठाणं दुविधं-लोइयं लोउत्तरियं च । लोइयं पंचविधं तं जधा-राया जुवराया सेणावती महत्तरा कुमाराऽमच्चो उ । लोउत्तरियं पंचविधंआयरिय उवज्झाय पवत्ति थेर गणावच्छेइया । जोधट्ठाणं-आलीढादि पंचविधंतत्यालीढं दाहिणपादं अग्गहुतं काउं वामपादं पच्छतो हुत्तं ओसारेत्ति, अंतरं दोण्णवि पायाणं पंचपादा १। एवं चेव विवरीतं पच्चालीढं २ । वइसाहं-पण्हिओ अमिंतराहुत्तीओ समसेढीए करेति, अग्गिमतलो बाहिराहुत्तो ३ | मंडलं-दोवि पादे समे दाहिणवामाहुत्ते ओसारिता उरुणोवि आउंटावेइ जधा मंडलं भवति अंतरं च चत्तारि पादा ४ । समपदं:- दोवि पादे समं निरंतरं हवेति ५ । अचलडाणं. "परमाणपोग्गलेणं भंते निरेए कालतो केवि चिरं होंति ? जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं ।'' गणणठ्ठाणं एक्कं दस सय सहस्समित्यादि । इदाणिं संधणा भावेत्ति संधणा दुविधा-दव्वे भावे य । दव्वसंधणा १. आत्मनि २. आभरणयुक्तानाम् । ३. उत्थितानाम् । ఉరుముందుంతుంటుంది ఆ తంతుంతీయంగుంతుతం
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे असमाधिस्थान-अध्ययनम्-१
दुविहा-छिन्नसंधणा अछिन्नसंधणा य । रज्जुं 'वलंतो अच्छिण्णं वालेइ ।।
कंचुगाईणं छिण्णसंधणा | भावसंधणा दुविहा-छिन्नसंधणा अच्छिन्नसंधणा य । उवसामग-खवगसेढीए पविट्ठो जाव सव्वो लोभो उवसामितो एसा अच्छिन्नसंधणा । अथवा पसत्येसु भावेसु वट्टमाणो जं अपुव्वं भावं संधेइ एसा वि अच्छिन्नसंधणा | भावे इमा छिण्णसंधणा-खतोवसमियातो उदइयं संकमंतस्स छिण्णा । ओदइयाओ विमिसं संक्रमंतस्स छिण्णसंधणा, अप्पसत्थातो पसत्यभावं संकमंतस्स छिण्णा | पसत्थातोवि अपसत्थं संकमंतस्स छिण्णा अपसत्या, पसत्थभावसंधणाए अधिगारो । गतो नामनिप्फन्नो ।
सुत्तालावयनिष्फन्नो पत्तलक्खणो वि ण णिखिप्पत्ति । इतो अत्थि ततियमणुओगदारं अणुगमोत्ति । इह तत्थ य समाणत्यो निक्खेवोत्ति तहिं निखिप्पिहित्ति । एवं लहं सत्यं भवति असंमोह-यारगं च । अणुगमोत्ति दारं, सो दुविधोसुत्ताणुगमो णिज्जुत्तिअणुगमो य । निज्जुत्ती अणुगमो तिविधो, तं जधा-निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमो उवुग्घातनिज्जुत्तिअणुगमो फासियनिज्जुत्तिअणुगमो । निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमो दसगनिक्खेवप्पभिई भणितो । उवुग्घायनिज्जुत्ति अणुगमो
उद्देसे निद्देसे य निग्गमे खेत्ते कालपुरिसे य । कारण पच्चय लक्खण णए समोयारणाणुमए ||१|| किं कतिविधं कस्स कहिं केसु कहं किच्चिरं हवइ कालं | कति संतरमविरहितं भवागरिसफासणनिरुत्ती ।।२।।
तित्थकरस्स सामाइयक्कमेण उग्घातो कतो । अज्जसुधम्मं जंबुप्पभवं सिज्जंभवं च जसभद्दाण य । ततो भद्दबाहस्स ओसप्पिणीए पुरिसाणं आयुबलपरिहाणिं जाणिऊण चिंता समुप्पन्ना । पुव्वगते वोच्छिन्ने मा साहू विसोधिं ण याणिस्संतित्ति काउं अतो दसा-कप्प-ववहारा निज्जूढा पच्चक्खाणपूव्वातो || एस उवुग्घातो । सुत्तप्फासिय-निज्जुत्ती सुत्तं संगहितत्ति सुत्ते उच्चारिते तदत्यवित्यारिणी भविस्सइ ।
इदाणिं सुत्ताणुगमे सुतप्फासिय-निज्जुत्ती सुत्तालावय-निप्फन्न-निक्खेवणं पढमसण्णत्थाणं "पडिसमाणणत्यमत्यवित्थाराधारभूतं सुत्तमुच्चारेतव्वं अक्खलितादिअणुओगदारविधिणा जाव णो दसपदं वा । १. 'वलेंतो' पाठान्तरम् । २. नियतसंधना । ३. तुल्यार्थः । ४. पूर्व-संन्यस्तानां प्रतिसमापनार्थम् । dandariddaddidasarda _darddaddddddddddds
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मूलसूत्राणि । प्रथमदशा-व्याख्या ।
अथ श्री दशाश्रुतस्कंध-मूलसूत्राणि | तत्र प्रथमदशा-असमाधिस्थानाऽध्ययनमूलसूत्रम्
सुतं मे आउसंतेण भगवता एवमक्खातं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पन्नत्ता । कयरे खलु थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पन्नत्ता ? इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पन्नत्ता, तं जधादवदव-चारिया वि भवति ||१|| अपमज्जिय-चारिया वि भवति ।।२।। दुपमज्जिय-चारिया वि भवति ॥३।। अतिरित्त-सेज्जासणिए ||४|| रातिणियपरिभासी ॥५।। थेरोवघाइए ||६|| भूतोवघातिए |७|| संजलणे ||८|| कोहणे ।।९।। पिट्ठीमसेयावि भवइ ||१०|| अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारित्ता भवइ ||११|| णवाइं अधिकरणाई अणुप्पण्णाइ उप्पादइत्ता भवइ ||१२|| पोराणाइं अधिकरणाइं खामियाइं विउसमियाइं उदीरेत्ता भवइ ।।१३।। अकाले सज्झाय-कारिया वि भवति ||१४|| ससरक्ख-पाणिपादे ||१५|| सद्दकरे ॥१६॥ (भेदकरे) झंझकरे ||१७|| कलहकरे असमाहि-कारए ||१८|| सूरप्पमाणभोई |१९|| एसणाए असमिए यावि भवइ ||२०|| एते खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पन्नत्ते त्ति बेमि ।। पढमा दसा सम्मत्ता ॥
तं च इमं मंगलनिहाणभूतं दसापढमसुत्तं-सुतं मे आउसंतेणं भगवता एवमक्खायं इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिलाणा पण्णत्ता । एतस्स वक्खाणमुवदिस्सति
'संहिता य पदं चेव, पदत्यो पदविग्गहो । चालणा य पसिद्धी य, छव्विधं विद्धि लक्खणं ।।'
संहिता अविच्छेदेण पाठो जधा 'सुतं मे आउसंतेणं भगवता एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता ।'
इदाणिं पदविभागो-सुतंति पदं, मया इति पदं, आउसंतेणंति पदं, भगवता इति पदं । एवं अक्खातं इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता । पदविभागाणंतरं पदत्थो-सुतं मया इति वयणं को वा भणति
"अत्थं भासति अरहा, सत्तं गंथंति गणधरा निउणं । सासणस्स हितहाए, तत्तो सुत्तं पक्त्तती ।।''
तं भगवतो सव्वातिसयसंपण्णं वयणं सोऊण गणधरा सुत्तीकतं पत्तेयमఉందంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे असमाधिस्थान अध्ययनम्-१
प्पो सीसेहि जिणवयणामत-सवण पाण-समुस्सुएहिं सविणयं के असमाधिट्ठाणेत्ति चोदिता । ततो भगवतो गौरवमुब्भाविंता एवमुक्तवन्तः सुतं मे आउसंतेण भगवता । अहवा सुधम्मसामी जंबूनामं पुच्छमाणं एवं भणति तहा भद्दबाहू वा । सुतं मे आउसंतेणं भगवता । सुतमिति तित्थकरवयणं । तं दरिसेति मया इति अप्पणो निद्देसं करेति । खंधखणियवात - पडिसेहणत्थं जेण सुतं स एवाह । ण खंधसुत्ताऽणादि, मोहरूवमिदं । आयुष्मन्निति सीसस्स आह्वानं आयुष्मद्ग्रहणेन जातिकुलादयोऽपि गुणा अधिकृता भवन्ति । गुणवति सत्थं पडिवातितं सफलं भवति ते य अव्वोच्छित्तिकरा भवन्तित्ति | आयुष्पधाणा गुणा अतो आयुष्मन् भणंति । जेण एतं समुप्पाइयं सव्वण्णुता - पच्चयं भगवंतं तित्थगरमाह । अहवाऽयं बितिओ सुत्तत्थो - सुतं मे आउसंतेणं भगवता, सुयं मया आयुषि संतेन भगवता एवमक्खातं । ततिओ सुतत्थो पाढविसेसेण भण्णति-सुअं मे आउसंतेणं गुरुकुलमिति वाक्यशेषः । चउत्यो सुत्तत्यो पादविकप्पेणेव । सुतं मे आउसंतेणं चरणजुयलमिति वाक्यशेषः, आमुसंतेण छिवंतेण हत्थेहिं सिरसा वा । एयंमि सुत्तत्थे विणयपुव्वया गुरुसिस्ससंबंधस्स दरिसिज्जइ । भगवता इति भगो जस्स अत्थि भगवान् । अत्थ-जस-धम्म- लच्छी-पयत्त - विभवाणं छण्हं एतेसिं भग इति नामं, ते जस्स संति सो भण्णइ भगवं तेण भगवता एवमक्खातं । एवंसद्दो प्रकाराभिधायी । एतेन प्रकारेण जो अयं भण्णिहित्ति असमाहिद्वाण-प्रकारो, तं हित काऊण भण्णत्ति अक्खायं-कहितं । इह खलु-इह आरहते सासणे, खलुसद्दो विसेसणे अतीतानागतथेराण वि एवं पण्णवणा विसेसणत्थं । थेरा पुण गणधरा भद्दबाहू वा । भगवंत इति अतिसयप्राप्ताः । वीसं असमाधिद्वाणा पण्णत्ता वीसं इति संख्या, असमाधिद्वाणं च पुव्वभणियं, पण्णत्ता-परूविता ।
इदाणिं पदविग्गहो सो अवोछिण्णपदे भवति, यत्र वा भवति तत्र वाच्यः । इदाणिं चालणा । सीसो भणति, किं ? वीसं एव असमाहिट्ठाणा ? आयरिओ प्रसिद्धिं दरिसंतो भणति-वीसं तु नवरि नेम्मं० गाथा ११ ।
वीसं तु णवरि णेम्मं अइरेगाइं तु तेहि सरिसाइं । नायव्वं एएसु य अन्नेसु य एवमाईसु ||११||
निममात्रं णेम्मं आधारमात्रं, अतिरेकाइंति अधियाइं, तेसिं वीसाए सरिसाणि समाणाणि नायव्वाणि असमाहिट्ठाणाणि । ताणि कहिं उच्यते एतेसु वीसाए असमाहिट्ठाणेसु अन्नेसु य । एवमादिसु त्ति एतसरिसेसु एतेसु त्ति, न केवलं १. क्षणिकवादप्रतिषेधार्थम् ।
addas १०
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विंशति-संख्यायामनुक्ता-ऽसमाधिस्थानानां समावेशरीतिः । दवदव द्रुतगृत चारि-आदीनामात्म-संयम-विराधना प्रदर्शनम् । अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जितादि-सूत्राणां भावार्थः। दवदव-चारिस्स असमाही , दवदव-भासिस्सावि दवदव-पडिलेहिस्सावि दवदवभोइस्सावि एवं विभासा आओज्जा । अन्नेसुत्ति-इंदियविसयकसाय० गाथा ।
अहवा जत्तिया असंजमठ्ठाणा तत्तिया असमाधिट्टाणावि । ते य असंखेज्जा । अहवा मिच्छत्तं अविरति अन्नाणा असमाहिट्ठाणा । अहवा एतेसुत्ति दवदव-चास्तिं सयं परेण वा कारवेति योगत्रय-करणत्रयेण एवं सेसेसु विभासा । अन्नेसुत्ति सबल-आसादणास् य जाइं पदाणि भणियाणि तेहिं असमाधि भवति आसेवितेस् एताणिवि तेस् पेच्छितव्वाणि । एवं परोप्परस्स समोतारेतव्वाणि । तहिपि एक्कवीसंति णवरिणेम्म, तेत्तिसत्ति णवरि नेम्मं, मोहणीय-हाणेहिं तीसत्ति नवरि नेम्मं ।
इदाणिं तेसिं विभाग-पुच्छणत्थमाह सिस्सो-कतरे खलु ते जाव पन्नत्ता । वक्ष्यमाणं विभागमङ्गीकरेऊण आयरिओ आह-इमे खलु जाव पण्णत्ता, तं जहा
(१) दवद्दवचारीया वि भवति-दुद्रु गतौ दवद्दवचारी तुरित-गमणो भण्णति, सो दवद्दवचारी निरवेक्खो वच्चंतो अत्ताणं परं च इह परत्र च असमाधीए जोएति । अत्ताणं ताव इह भवे आतविराहणं पावति आवडणपडणादिसु, परलोगे सत्तवहाए पावं कम्मं बंधइ । परं संघट्टण परितावण-उद्दवणं करेंतो असमाहीए जोएत्ति । च शब्दाद् द्रुतं बुवंतो भुंजंतो भासंतो पडिलेहणं च करेंतो आतविराहणं संजमविराहणं च पावति । अपिग्रहणात् चिटुंतो वि आकुंचण-प्रसारणं दवद्दवस्स करेंतो अप्पडिलेहिंते आतविराहणं संजमविराहणं च पावति, संजमविराहणा संचारिकुंथुउद्देहियादि जेसिं च उवरिं पडेति ते असमाधीए जोएति । आतविराहणा विंछुगादिणा खइतस्स । किं निमित्तं पुव्वं गमणं भणितं ? उच्यतेतेण पढम इरियासमीतो पच्छा सेसिआओ समितीओ तेण पढमं गमणं भणितंत्ति ।
(२) 'अप्पमज्जितचारीयावि' भवति, अपिसद्दो हाण-निसीयण-तुयट्टणउवगरण-गहण-निक्खेव-उच्चारादिसु य अपमज्जिओ आयरति ।
(३) एवं दुपमज्जितेवि । अपमज्जिय-दुपमज्जिय-गहणेण सत्तभंगा सूचिता । तं ण पडिलेहेति ण पमज्जति चउभंगो, जं पडिलेहेति पमज्जति तं दुप्पडिलेहितं दुपमज्जितं करेति चउभंगो । तत्थंतिमो सुद्धो सेसा छ असुद्धा ।
(४) अतिस्ति-सेज्ज-आसणिए अतिरिताए सेज्जाए आसणेण य घंघसालाए ट्ठियाणं अण्णे वि आगंतूण तत्थ आवासेंति । अधिकरणादि असमाधी असंखडादि दोसा च । अथवा संथारओ सेज्जा तत्थ अयंत्रितत्वात् पप्पंदमाणो सत्तोवरोहे वट्टमाणो इह परत्र च अप्पाणं परं च असमाधीए जोएति । ఉంటుంంంంంంంంం ఉంటుంంంంంంంంంం
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे असमाधिस्थान-अध्ययनम्-१
(५) 'रातिणिया परिभासी' रातिणिओ-आयरिओ अन्नो वा जो महल्लो जाति-सुय-परियाएहिं परिभासतित्ति-परिभवति अवमण्णति जच्चादिएहिं अट्ठहिं मदहाणेहिं परिभवति । अहवा डहरो अकुलीणोत्ति य दुम्मेधो दमगे मंदबुद्धित्ति अवियप्प-लाभ-लद्धी सीसो परिभवति आयरियं । इदाणिं परिभवमाणो आणाओववाते य अवतॄतो पडिनोदितो असंखडेज्जा तत्थ य संजम-आतविराहणा । तंमि वढेंतो अप्पाणं परं च असमाधीए जोएति ।
(६) 'थेरोवघाती' थेरा-आयरिआ गुरवो ते आयारदोसेण वा सीलदोसेण वा उवहणेति नाणातीहिं वा ३ ।
(७) भूतोवघातिए-भूताणि-एगिदियाणि उवहणति अणट्ठाए साया-गारवेण रसगारवेण विभूसा-वडियाए वा आधाकम्मादीणि वा गिण्हति तारिसंवा करेति भासति य जेण भूतोवघातो भवति ।
(८) 'संजलणे' संजलणो णाम पुणो पुणो रुस्सति । पच्छा चस्तिसस्सं हणति डहइ वा अग्गिवत् ।
___ (९) 'कोहणे' कोहणोत्ति सइ कुद्धो अच्चंतं कुद्धो भवति अणुवसंत-वेर इत्यर्थः ।
(१०) पिट्ठिमंसिए यावि भवति-पिट्ठिमंसितो-परमुहस्स अवण्णं बोल्लेइ अगुणे भासति णाणादिसु । एवं कुव्वमाणो अप्पणो परेसिं च इह परत्र च असमाधिमुप्पाएति ।
(११) अपिशब्दात् समक्खं चेव भणति जं भाणियव्वं ओधारयित्ता अभिक्खणं २ पुणो पुणो ओधारणिं भासं भासति । तुमं दासो चोरो पारिदारिओ वा जं वाऽऽसंकितं तं नीसंकितं भणति |
(१२) 'णवाइं अधिगरणाइं अणुप्पन्नाइं उप्पाइत्ता भवति-णवाइंति न चिराणाई, अणुप्पन्नाइं उप्पाएता भवति । अणुप्पन्नाइं न कदाइ तारिसं उप्पUणपुव्वं । अहिकरेति भावं अधिकरणं अद्धितिकरणं वा कलह इत्यर्थः । तं उप्पायंतो अप्पाणं परं च असमाहीए जोएति । जम्हा
तावो भेदो अयसो हाणी दंसण-चस्ति-नाणाणं । साधु-पदोसो संसार-वद्धणो साहिकरणस्स ||१|| अतिभणित अभणिते वा तावो भेदो' चस्तिजीवाणं ।
रूवसरिसं ण सीलं , जिम्हंति अयसो चरति लोए ।।२।। १. 'चरितज्ञातीणं' पाठान्तरम् । २. रायकुलंमि य दोसा, खुभेज्ज वा णियमित्तादी ।।२।। नि.भा. १८१६ ।। (पश्चार्धम्). ఉంటుంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంం
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असमाधिस्थानानां वर्णनम् ।
चत्त-कलहोवि ण पढति, अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी । जहा कोहादि-विवड्डी, तह हाणी होति चरणेवि ।।३।।
जं अज्जित्तं समी-खल्लएहिं तव-नियम-बंभमइएहिं । ___ मा हु तयं छड्डेहिह बहुं तयं सागपत्तेहि ।।४।। अहवा नवानि अधिकरणाणि जं ताणि उप्पाएति जोतिस-निमित्ताणि वा 'पोत्तभत्तीओ वा ।
(१३) पोराणाई कहं उदीरेहिंति ? भणति ममं तइया किं सवसि ? प्रत्याह-इदाणिं ते किं मरिसेमि ? मा ते पित्तं सुहं भवतु ।।
(१४) 'अकाल-सज्झाय-कारएयावि' ति-अकालित्ति-कालियसुत्तं ओग्घोडाए पोरिसीए सज्झायं करेति संझासु वा, ततो पडिबोहितो मा करेहि, भंडणं करेति देवता च्छलिज्जा ।
(१५) 'ससरक्खपाणिपादे' ससरक्खेण पाणिपादेण थंडिलातो अथंडिलं संकमतो अथंडिलाओ वा थंडिलं, न पडिलेहिति ण पमज्जति भंगा सत्त । एवं कण्हभोम्मादिसु वि विभासा । 'ससरक्खपाणी' ससरक्खेहिं हत्थेहि भिक्खं गिण्हति । स एवं कुव्वंतो संजमे असमाधीए अप्पाणं जोएति चोदितो वा असंखडं करेति ।
(१६) सद्दकरे संत-प्पसंते महता सद्देण उल्लावेति वेरत्तिअं वा करेंतो ।
(१७) भेदकरे त्ति-जेण जेण गणस्स भेदो भवति तं तं आचेहति । झंझं करेति जेण सव्वो गणो झंज्झइंतो अच्छति एरिसं करेति भासति वा ।
(१८) कलहकरेत्ति-अक्कोसमादीहिं जेण कलहो भवति तं करेति । स एवंगुणजुत्तो असमाहीए ठाणं भवतित्ति वाक्यशेषः । तस्स च एवं कुर्वतः असमाहिट्ठाणं भवति ।
(१९) सूरप्पमाणभोई-सूर एव प्रमाणं तस्य उदिते सूरे आरद्धा जाव ण अत्यमेइ ताव मुंजति सज्झायमादी ण करेति, पडिनोदितो रुस्सति अजीरंते वा असमाधी भवति ।
(२०) एसणाए असमिते यावि भवति-अणेसणं न परिहरति । पडिचोदितो साहहिं समं भंडति । अपरिहरंतो छक्कायावराधे वट्टति । स जीवावराहे वढ्तो अप्पाणं असमाधीए जोएति । चशब्दातो एसणा च तिविधा-गवेसणा गहणेसणा घासेसणा । अपिसद्दातो से(स)समिति । असमितस्सवि त एव दोसा १. शास्त्रभक्तितो वा । २. पैतृकम् । dadaaaaaaaaaaaa १३ daudaaaaaaaaaaaaaaa
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे शबल-अध्ययनम्-२
भवंति । एते खलु ते वीसं असमाधिट्ठाणा थेरेहिं भगवंतेहिं पण्णत्तत्ति बेमि । बेमित्ति-ब्रवीमि । अज्ज-भद्दबाहुस्स वयणमिदं, भगवता सव्वविदा उवदिटुं तं अहमवि बेमि, णया जहा हेट्ठिम-सुत्तेसु ।
पढमज्झयणं असमाधिट्ठाणं सम्मत्तं ।।
अथ-बीतिआ दसा-सबलऽज्झयणं । नि०- दवे चित्तलगोणाइ एसु भावसबलो खुतायारो ।
वतिक्कम-अइक्कमे अतियारे भावसबलो उ ||१२|| अवराहम्मि य पयणुए जेणउ मूलं न वच्चए साहू | सबलेई तं चरित्तं तम्हा सबलत्तणं बिति ।।१३।।
असमाधिहाणेसु वट्टमाणो सबली भवति, सबलट्ठाणेसु वा असमाधी भवति । तेण असमाधि-परिहरणत्थं सबलडाणाणि परिहरियव्वाणि । एतेणाभिसंबंधेण सबलज्झयणमुपागतं तस्सुवक्कमादि चत्तारि दारा परूवेऊणं अधिकारो असबलेण, तस्स परूवणत्यं सबला वणिज्जंति । नामनिप्फन्नो निक्खेवो सबलत्ति सबलं नामादि चउव्विधं, नामट्ठवणाउ तहेव, दव्वभावेसु इमा गाथा
दवे चित्तलगोणादिएसु भावसबलो खुतायारो । वतिक्कम-अतिक्कमे अतियारे भावसबलो उ ।।१२।।
सबलं चित्तलमित्यर्थः । जं दव्वं सबलं तं दव्वसबलं भण्णति । तं च गोणादि आदिग्रहणात् गोणस-मिगादि । भावसबलो खुत्तायारो, खुतं भिण्णमित्यर्थः । न सर्वशः, ईषत् उसन्नो खुतायारो सबलायारो तु होति पासत्थो, भिण्णायारो कुसीलो, संकिलिट्ठो नु भिण्णायारमित्यर्थः ।
___ अहवा इमो भावसबलो, बंधाणुलोमेण वतिक्कमातिक्कमणे पच्छद्धं एक्के अवराहपदे मूलगुणवज्जेसु अहाकम्मादिसु अतिक्कमे वइक्कम्मे अतियारे अणायारे य सव्वेसु सबलो भवति । तत्थ पडिसुणणे अतिक्कमो, पदभेदे वतिक्कमो, गहणे अतियारो, परिभोगे अणायारो | मूलगुणेसु आदिमेसु तिसु भंगेसु सबलो भवति , चउत्थभंगे सव्वभंगो । तत्थ अचरिती चेव भवति शुक्लपट्टदृष्टान्तात् ।
देसमइले पडि मा धाउतित्ति जता मइलो चोप्पडो वा एगदेसे पडो तदा
ఉతం వంశవంతుతం ఆంతంతతతతతతం
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द्वितीया-ऽध्ययन-सबलस्थानस्य नियुक्ति: चूर्णी । सबलस्य व्याख्यायां पट-दृष्टान्त-दर्शनम् ।।
तन्मात्रमेव सोइज्जत्ति । जदा सव्वो मइलितो भवति, तदा खारादीहिं समुदितुं धोव्वति । ण य मइलितो सोभति सीतत्राणं वा भवति । एवं चस्तिपडो वि देसे सव्वे य मइलितो ण मोक्खकज्जसाधतो भवति । अथवा सबलो अवराधम्मि पतणुए-गाथा
अवराहम्मि य पयणुए जेणउ मूलं न वच्चए साहू | सबलेई तं चरितं तम्हा सबलत्तणं बिंति ।।१३।।
तणुओ अवराहो दुब्भासितादि । सुमहल्लावराधेसु मलिण एव । अहवा दसविहे पायच्छित्ते आलोयणादि जाव छेदो ताव सबलो, मूलादिसु मलिण एव चरित्रपटः, के के ते अवराहपदा जेहिं भावसबलो भवति, ते इमे आचारमधिकृत्योपदिश्यन्ते । बालेराई० गाथा
वालेराई दाली खंडो बोडे खुत्ते य भिन्ने य । कम्मास'-पट्ट-सबले सव्वावि विराहणा भणिआ ||१४||
घडस्स वालमात्राच्छिद्रराईसमाणो न गलइ, केवलं तु बालराई दाली गलई । अवुज्झिता खंडो एगदेसेण, बोडो नत्थि से एगोवि कण्णो, खुतं-ईसि छिद्रं, भिन्न सुभिण्ण एव आधेयमपदिश्यते । 'कम्मासपट्टसबलो वक्कयरदंडगो पट्टसबलं चित्तपट्टसाडिया । इह एवंप्रकारस्य घटद्रव्यस्य देसे सव्वे य विराहणा वुत्ता । एवं घटस्थानीयस्यात्मनो देसे सव्वे य विराहणा पट्टदृष्टान्तेन वा । गतो नामनिप्फन्नो । सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारेतव्वं
द्वितीयदशा-सबलाऽध्ययन-मूलसूत्रम् मू० सुतं मे आउसंतेण भगवता एवमक्खातं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कवीसं सबला पन्नत्ता ।
कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कवीसं सबला पन्नत्ता ? इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कवीसं सबला पन्नत्ता
तंजहा-हत्थकम्मं करेमाणे सबले ।।१।। मेहुण पडिसेवमाणे सबले ।।२।।
१. प्राकृतत्वाद् बन्धानुलोमाद्वा मकारस्य दीर्घत्वं, तथा च कल्मषः मलिनः पटः शबल उच्यते । २. वक्रम् असंयमं चरति वक्रचरस्तस्य कर्माश्रव एव दण्डः यदिवा चक्कयर दंडो पाठान्तरमाश्रित्य-चक्रेण चरति चक्रचरो भिक्षुविशेषस्तस्य दण्डो यष्टिविशेषः शबलः संभाव्यते । वक्कमखंडो' पाठान्तरमाश्रित्य वल्कजं वस्त्रं तस्य खण्डः शेषं पूर्ववत् । అంతంతుయుతంగసుందరం 4 అంగం యువతరంగం
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे शबल-अध्ययनम्-२
रातीभोयणं भुंजमाणे सबले ||३|| आहाकम्मं भुंजमाणे सबले ||४|| रायपिंडं भुंजमाणे सबले ।।५।। कीयं पामिच्चं अछेज्जं अणिसटुं आहट्ट दिज्जमाणं भुजमाणे सबले ॥६।। अभिक्खणं पडियाइक्खित्ताणं भुजमाणे सबले ||७|| अंतो छण्हं मासाणं गणातो गणं संकममाणे सबले ||८|| अंतो मासस्स तयो दगलेवे करेमाणे सबले ।।९।। अंतो मासस्स ततो माइट्ठाणे करेमाणे सबले ||१०|| सागारियपिंडं भुंजमाणे सबले ||११|| आउट्टियाए पाणाइवायं करेमाणे सबले ||१२|| आउट्टियाए मुसावाए वदमाणे सबले ॥१३॥ आउट्टियाए अदिन्नादाणं गेण्हमाणे सबले ||१४|| आउट्टियाए अणंतरहियाए पुढवीए हाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले ।।१५।। एवं ससणिद्धाए पुढवीए ससरक्खाए पुढवीए ||१६|| एवं आउट्टियाए चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलूए कोलावासंसि वा दारुए जीवपइट्ठिए सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सउस्से सउत्तिंगे पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा-संताणए तहप्पगारं ठाणं वा सिज्जं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले ||१७|| आउट्टियाए मूलभोयणं वा कन्दभोयणं वा खंधभोयणं वा तयाभोयणं वा पवालभोयणं वा पत्तभोयणं वा पुष्फभोयणं वा फलभोयणं वा बीयभोयणं वा हरियभोयणं वा भुंजमाणे सबले ||१८|| अंतो संवच्छरस्स दस उदगलेवे करेमाणे सबले ।।१९।। अंतो संवच्छरस्स दस माइट्ठाणाईं करेमाणे सबले ||२०|| आउट्टियाए सीतोदग-वग्घारिएण हत्येण वा मत्तेण वा दविए भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्ता भुंजमाणे सबले ।।२१।। एते खलु थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कवीसं सबला पन्नत्ता तिबेमि ।
॥ बितिया दसा समत्ता || चू०-सुयं मे आउसंतेणं भगवता थेरा गणहरा पुव्वधरा भद्दबाहू वा अज्जथूलभद्दाईण सीसाण कथेति । हत्थकम्मादारब्भ जाव रायपिंडं ताव कालगा अणुग्घातिया अवराधपदा, हत्थकम्मं करेंति । सयं परेण वा मेहणं दिव्वमाणसतिरिक्खजोणिय अतिक्कम-वतिक्कम्म-अतियारेतिवि, अणायारे सव्वभंग एव, सालंबो वा जयणाए सेवंतो सबलो भवति, आत-संजम-विराहणा विभासितव्वा एक्केक्के । (१-२)
राईभोयणं चउव्विहं, दिया गेण्हंति दिया भुंजति चउभंगो अतिक्कमवतिक्कम-अइयार-अणायारेसु चउवि सालंबो वा जयणाए अपडिसेवग एव adddddddddddddddddddda १६ ddddddddddddddddda
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हस्तकर्मादि-सूत्राणि । प्रायश्चित्त प्रदर्शनम् । अतिक्रमादि-वर्णनम् । एकविंशति: सबलानां स्वरूपम् ।
सन्निहिमादीसु । (३)
रायपिंडदोसावि भासियव्वा । आधाकम्म भुंजति अतिक्कमादिसु ४. कीतादि जाव आहट्टु दिज्जमाणं एक्को सबलो अभिहडमाणीतं अभिहडं आहट्टु आहृत्य दिज्जमाणं, अभिक्खणं २ पडियाइखेत्ता सुत्तं - अभिक्खणो पुणो पुणो पुव्वण्हे अवरण्हे पच्चक्खाइत्ता पडियाइखेत्ता भुंजति । (४-५-६-७)
अंतो छण्हं मासाणं सुत्तं अत्र गाणंगणियदोसा नाणदंसणचस्तिट्टं वा संकमेज्जा । (८)
अंतो मासस्स सुत्तं । अंतो-अब्भितरतो ततो माइट्ठाणाइं सइं दोन्नि सिय अमाई तइया गाथा । (९)
अंतो मासस्स सुत्तं-दगलेवो संघट्टोवरि । (१०)
(सागारियपिंडं सुत्तं-शय्यातरपिंड :) (११)
आउट्टियाए पाणातिवात करेमाणे सबले । आउट्टिया णाम जाणंतो 'विणावतीए वा दव्वादिसु जं करेति जधा गिलाणो लोणं गिण्हइति पुढविक्कायमक्खित्तेण वा हत्थमत्तेणं भिक्खं गिण्हइ । आउट्टियाए उदगं गेण्हइ उदउल्लसंसिणद्धेहि वा हत्थमत्तेहिं अपरिणएहिं भिक्खं गिण्हइ । 'तेउ-निक्खित्तं गिण्हइ *दितावेइ वा, अप्पाणं परं वा वीअति "अभिसंधारेइ वा । कंदाइ गिण्हइ संघट्टेणं वा भिक्खं गेण्हइ । बेइंदिएहिं पंथो संसत्तो तेण वच्चति । आहारं च संसत्तं गिण्हति । एवं तेइंदिय- चउरिदिय-पंचेदियामंडुक्किलियाई पंथे ववरोवेज्ज । (१२)
मुसावातो पयलाउल्ले मरुए पच्चक्खाणे य गमणपरियाए समुद्देससंखडीखुड्डए य परिहारियमुहीओ अवस्सगमणं, दिसासु एगकुले चेव एगदव्वे या पडियाइखित्ता गमणं पडियाइखिता य भुंजणं, सव्वत्थ सुहममुसावादो सबलो । (१३)
अदिण्णादाणं लोइय-लोउत्तर-सुहुम-बादर-सव्वत्थ अतिक्कमादि । (१४)
आउट्टियाए अणंतरहिताए पुढवीए सुत्तं- तिरोऽन्तर्द्धाने न अंतरिता अनंतरिता सचेतना इत्यर्थः । अन्नंमि थंडिल्ले विज्जमाणे द्वाणं काउस्सग्गो शयनं वा निसीयणं वा चेतमाणे करेमाणे (१५)
१. विनाऽऽपत्त्या, 'अणावतीए' पाठान्तरम् । २. तेजोनिक्षिप्तम् । ३. दापयति । वितावेइ वा पाठान्तरम् । ४. वीजयति । ५ वायुसंचारप्रदेशेऽभिसन्धारयति=तिष्ठति निषीदति वा ।
తరతర వరం
[ १७
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे आशातना-अध्ययनम्-३
ससिणद्धाओ हेट्ठितो दगवालुयाए, ससरक्खा अचित्ता सचित्तरएण अभिग्घत्था, अभिण्णो पुढवी भेदो (१६)
आउट्टियाए चित्तमंताए सुत्तं उच्चारेतव्वं, चित्तमंता-सचेतणा सिला सवि. त्थारो पाहाणविसेसो, लेल्लु-मट्टियापिंडो, कोला-घुणा तेसिं आवासो कोलावासो । दारुए जीवपतिहिते जीवा तदंतर्गता जीवेहिं वा पइट्टिते पुढवादिसु, सह अंडेहिं सांडा लुतापुडगंडगादि, सह पाणेहिं सपाणा, पाणा बेइंदियादि, सह बीएहिं सबीए, बीया सालिमादि, सह हरितेहिं सहरिते, सहओस्साए सतोस्से , सह उदगेण सउदगे, उत्तिंगा गद्दभगा कीडियाणगरं वा, पणओ उल्ली, दगेण मिस्सा मट्टिया दयमट्टिया, मक्कडगा-लूतापुडगा, संताणओ कीडिआ संचारतो, हाणं काउस्सग्गादी सेज्जासयणीयं निसीहियां जत्थ निविसति चेतेमाणे-करेमाणे | (१७)
__ आउट्टिआए मूलभोयणं वा सुत्तं उच्चारतव्वं । मूला मूलगअल्लयादि, कंदा-उप्पल-कंदगादि, पत्ता-तंबोलपत्तादि, पुप्फा-मधुगपुष्पादि, फला-अंबफलादी, बीया-सालिमादि, हरिता-भूतणगादि । (१८)
____ अंतो संवच्छरस्स सुत्ता दोन्नि-अंतो अमितरतो संवत्सरस्स दस-दसग लेवा माइट्ठाणाणि वा करेति तो सबलो भवति, आरेण न होति । (१९-२०)
आउट्टियाए सीतोदग-वग्घारिएण सुत्तं-वग्घारितो गलंतो । (२१)
एवं ताव चरित्रं प्रति सबला भणिता । दरिसणं प्रति संकादि । णाणे काले विणये बहुमाणे गाथा । एक्कवीसत्ति । णवरि णेम्मं णिभं ।
बितियऽज्झयणं सबलं संमत्तं ॥
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अथ तइया दसा आसायणाऽज्झयणं । नि०. आसायणाओ दुविहा मिच्छापडिवज्जणा य लाभे अ ।
लाभे छक्कं तं पुणं इट्ठमणिटुं दुहेक्केक्कं ||१५|| साहू तेणे ओग्गह कंतारविआल विसममुहवाही । जे लद्धा ते ताणं भणंति आसायणाउ जगे ||१६।। दलं माणउम्माणं हीणाहि जंमि खेत्ते जं कालं ।
एमेव छव्विहंमि भावे पगयं तु भावेणं ।।१७।। १. शबल इति गम्यम् । २. भूमिजातानि तृणादीनि । ఉండియుం ఉం ఉం ంంంం - అంతంతమంతయంతం
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तृतीया-ऽध्ययने आशातना-निक्षेपः । इष्टानिष्ट स्वरूपदर्शनम् ।
छट्ठट्ठमपुब्वेसुं आउवसग्गोत्ति सबजुत्तिकओ | पयअत्थविसोहिकरो दिन्नो आसायणा तम्हा ||१८|| मिच्छा पडिवत्तीए जे भावा जत्थ होंति सब्भूआ | तेसिं तु वितह पडिवज्जणाए आसायणा तम्हा ।।१९।। न करेइ दुक्खमोक्खं उज्जममाणोवि संजमतवेसुं । तम्हा अत्तुक्करिसो वज्जेअब्बो पयत्तेणं ||२०|| जाणि भणिआणि सुत्ते ताणि जो कुणइ अकारणज्जाए । सो खलु भारियकम्मो न गणेइ गुरुं गुरुठ्ठाणे ॥२१।। दसणनाणचरित्तं तवो य विणओ अ हुंति गुरुमूले | विणओ गुरुमूलेत्ति अ गुरुणं आसायणा तम्हा ||२२|| जाइं भणिआइं सुत्ते ताइं जो कुणइ कारणज्जाए । सो न हु भारियकम्मो नु गणेइ गुरु गुरुट्ठाणे ||२३।। सो गुरुमासायंतो दंसणणाणचरणेसु सयमेव । सीयति कत्तो आराहणा से तो ताणि वज्जेज्जा ||२४||
|| आसायणनिज्जुत्ती सम्मत्ता-३ ॥ चू०-आसादणाए सबलो भवति । एतेणाभिसंबंधेण आसादणज्झयणं पण्णत्तं, तस्स उवक्कमादि चत्तारि दारा वन्नेउं अधिगारो से अणासादणाए, तप्परिहरणत्थं आसादणाओ वणिज्जंति । नामनिप्फन्नो निक्खेवे आसादणत्ति, षड़ विसरणगत्यवसादनेषु । आयं सादयति आसादणा । अहवा स्वदखई आस्वादने इत्येतस्य धातोः रूपं भवति । आस्वादना तत्थ गाहा
आसायणाओ दुविहा मिच्छा-पडिवज्जणा य लाभे अ । लाभे छक्कं तं पुणं इट्ठमणिटुं दुहेक्केक्कं ||१|| गाहा १५ ।
आसादणा दुविधा मिच्छापडिवत्तितो य लाभे य । तत्थ लाभे छक्कं णामादी । णामढ़वणाए पूर्ववत् । दव्वक्खेत्तकालभावा एक्केक्का दुविधा-इट्ठा य अणिठ्ठा य । तत्थ द्रव्यं प्रति निज्जराए लाभो इट्ठो अणिट्ठो य । अणिट्ठो तधा साधू तेणे० गाहा १६ ॥
साहु तेणे ओग्गह कंतारविआल विसम-मुहवाही । जे लद्धा ते ताणं भणंति आसायणाउ जगे ||२||
साधुस्स चोरेहिं उवधिम्मि हीरमाणे जं आचरति तत्थ निज्जरालाभो andednadesesidendidise| १९ laddedesddlesaldandana
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे आशातना-अध्ययनम्-३
सो पुण अणिट्टो द्रव्यं प्रति । जं पुण हिंडंतो साधू आहारोवधिं सुद्धं उप्पाएइ सो इटो द्रव्यं प्रति | खेत्तं प्रति जं कांतारे पलंबादि पडिसेवति सो अणिठ्ठो, जं गामादिसु विहीए विहरंतो निज्जरेति सो इहो । कालं प्रति अणिट्ठो जं दुब्भिक्खादिसु जतणाए पडिसेवंतोपि निज्जरतो होति । इट्ठो रत्तिंदिया वा जं चक्कवालसमायारिं अहीणमतिरितं करेति । भावं प्रति अणिट्टो जं गिलाणस्स पेज्जाती करेति । इट्ठो जं 'सत्थावत्थो साधू तवसा अप्पाणं भावेति । अहवा आसादणा दव्वादिचउव्विहा । तत्थ गाथा-साधू तेणोग्गह० गाथा | साणो तेणाहडस्स उवधिस्स जो पुणरवि लंभो सा २अणिठ्ठा दव्वासादणा । जो पुण ओभासितअणोभासियस्स वा उग्गमुप्पादणा-एसणासुद्धस्स उवधिस्स लंभो सा इव्हा दव्वासादणा । अहवा दव्वासादणा तिविधा सचित्तादि । सचित्त सेहस्स सोभणस्स लंभो, अचित्ते सोभणाणं आहार-उवधि-सेज्जाणं, मीसा सेहस्स सोभणस्स भंडमत्तोवकरणस्स लंभो । अणिट्ठा असोभणाणं एतेसिं चेव । खेत्ते कंतारे जं लभंति अफासुयं सा अणिट्ठा, फासुगं इठ्ठा, गामाणुगामं वा दूइज्जमाणाणं मासकप्पपाओगाणं खेत्ताणं लंभो इट्टा, अजोग्गाणं अणिट्ठा । काले जं ओमोदरियाए विसम-दुभिक्खे वा अण्णलिंगेण कालियाए जं आहारादि उप्पायति सा अणिहा, सुभिक्खे इहा दिवसतो सलिंगेणं । भावे अणिट्ठा गिलाणस्स अहि-डक्के विसविसूइगादिसु सुसह-निमित्तं अणेसणिज्जं घेप्पति, एसणिज्जा इहा, जेण लद्धा इहाणिठ्ठदव्वादि ४ तेण भण्णति | आसादणा तु जगे पढंति च "कुलट्ठा दव्वादी इहाणिट्ठा, केण ? तेण साधुणा मग्गंतेण, तेण कारणेणेति वाक्यशेषः । आसादणा जगेत्ति लोगे अहवा अयमन्यो विकल्पः । दव्वं माणुम्माणादि० गाथा १७ ।
दलं माणुम्माणं हीणाहि जंमि खेत्ते जं कालं । एमेव छबिहंमि भावे पगयं तु भावेणं ॥३॥
जं दव्वं माणजुत्तं लब्भति सा इट्ठा हीणाहियं जं लब्भति सा अणिट्ठा, अहवा उणाहियं दव्वं दितस्स असमाही । समं देंतस्स समाधी । तं जंमि खेत्ते देइ, जम्मिवि खेत्ते वन्निज्जति, आसादणा इट्टाणिट्ठा । जं वा लब्भति खेत्तं इहाणिटुं । जंमि वा काले वन्नेज्जति इट्टाणिठ्ठा । एवं भवति इट्टाणिट्ठा ।। एवमेव छव्विधमिवि भावित्ति-छव्विहे भावे उदइयादि । एमेव इट्टाणिट्ठा भाणियव्वा । तत्थोदइए तित्थगर-सरीरगं आहारगं च इट्ठा, अणिट्ठा हुंडादि । अथवा उच्चा१. स्वस्थाऽवस्थः । २. कथञ्चिदुद्गमादि-दोष-संभवात् । ३. रात्रौ । ४. कुलत्थीधान्यविशेषः । यद्वा कुलार्थम् । ఉతంతమంతయుతతతతం 80 ఉతంతుతంవసంతమంది
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'आङ' उपसर्गस्य व्याख्यानम् । मिथ्याप्रतिपत्तिरूपा-ऽऽशातना-प्ररूपणम् ।
गोत्तं सुभणामं च इट्ठा, इतराणं जो लाभो सा अणिट्ठा । अहवा सातं च वेदणिज्जे गाधा, सेसा अणिठ्ठा । उवसामियाइं सम्मत्त-चरिताइं इला, खइए णाणादि इला, तहिंपि णाणं सव्विटुं केवलं,खओवसमियं णाणादि ३ इला, अण्णाणादि ३ अणिठ्ठा । पारिणामिए भव्यत्वं कर्तृत्वं च इहा । अभव्यत्वं अणिठ्ठा । सन्निवाते सोभणेसु इहा, असोभणेसु अणिट्ठा । पगयं अधिगारो भावलंभेण अणितुण सुत्तपडिकुठे वा अकरितो पसत्थो भावलंभो । आङ् मर्यादाभिविध्योः । ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादाभिविधौ च यः । एतमाडंडितं विद्याद्वाक्यस्मरणयोरडित् । ईषदर्थे तावत् आउष्णं उष्णं । अहवा आकटुकं ईषत्कटुकं, क्रियायोगे आ+एति एति अथवा आगच्छस्व , मर्यादायां आउदकांतात् प्रियमनुव्रजेत् , अथवा आपाटलिपुत्राद वृष्टो मेघः, आरतो पाटलिपुत्रस्येति । अभिविधिरभिव्याप्तिः । तत्राभिविधौ आओद्र औद्रयशः पाणिनेः, आचंडालं वा यशः पाणिनेरिति । अथवा आपर्वतोपरि क्षेत्राणि । वाक्ये आ एवं तु मन्यसे । स्मरणे आ एवं किलैतत् । एष आदुपसर्गः कुत्र वर्ण्यते ? उच्यते-छट्टठ्ठमपुव्वेसु गाथा १८|
छट्टट्ठम-पुब्वेसुं आ-उवसग्गोत्ति सवत्तिकओ । पय-अत्थ-विसोहिकरो दिन्नो आसायणा तम्हा ||४||
सच्चपवायपुव्वे अक्खरपाहडे तत्रादुपसर्गो वर्ण्यते । अट्ठमे कम्मप्पवायपुव्वे अटुंगं महानिमित्तं तत्य स्वरचिंता, तत्रापि 'आदुपसर्गो वर्ण्यते । स्वे (सर्वे)नार्थेन युक्तिकृतः सव्वजुत्तिकतो पदस्य अर्थः पदार्थः । पदार्थस्य विशोधिकारः२। उक्तं च-उपसर्गविशेषात् पदार्थविशोधिर्भवति । उपसर्गेण युक्तो, न केवलमर्थः । वीति नानाभावे विविधं सोधयति विशोधयति , दिन्नो कतो, अस्मात्कारणात् आसादणा भवति ! लाभातो आसातणा भणिता ।
इदाणिं मिच्छापडिवत्तितो भण्णति । मिच्छापडिवत्तीए० गाथा १९ । मिच्छा-पडिवत्तीए जे भावा जत्थ होति सब्भूआ | तेसिं तु वितह पडिवज्जणाए आसायणा तम्हा ||५||
मिच्छापडिवत्तिति-मिथ्या न सम्यक् पडिवज्जति, मिच्छा पडिवज्जति नैतदेवं , यथा भावनामाह-कताइ तेण अण्णत्थ पदाणि उवलद्धपुव्वाणि होज्जा । ताणि य आयरितो अण्णहा पण्णवेति, सो महायणमज्झे ण क्त्तव्यो, जधा-तुमं ण याणसि जे अत्था जत्य होंति सब्भूता । जत्यत्ति सुत्ते समये व उस्सग्गे अववाते वा, एवं कथयत | नान्यथा कथयेति, एवं वुच्चंते लोगे अवण्णो गुरुस्स, ण य गिण्हति । अप्पसागारिए वुच्चति एसो अत्थो एवं । अहवा सीसेण ण १.आ उपसर्ग इत्यर्थः । २. उपसर्ग इति शेषः ३. जनश्च धर्मं न गृहणाति । aadaadaadaaaaaaaaal २१ dddddddddddddda
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे आशातना-अध्ययनम्-३
सुट्ठमुवलद्धो तत्थ वि तथा पडिवज्जितव्वं । अहवा आयं सादयति नाणादि ३ | किंच स एवं कुर्वन् न करेति दुक्ख-मोक्खं० गाथा २० ।।
न करेइ दुक्खमोक्खं उज्जममाणोवि संजमतवेसुं । तम्हा अतुक्करिसो वज्जेअब्बो पयत्तेणं ।।६।।
सुहृवि संजमतवेसु उज्जमंतो किं निमित्तं ? अत्तुक्कोसदोसा आत्मानं उत्कर्षति शेषेभ्यः । अहं बहुस्सुतो विसुद्धतवो वा जात्यादिगुणयुक्तो वा अठ्ठहि य मदट्ठाणेहिं जम्हा एवं , तम्हा अत्तुक्कोसो परिहरितव्यो, अपवादापेक्षं वा जाणि भणिताणि इमाणि य अण्णाणि ण कायव्वाणि, जाणि भणिताणि सुत्ते० गाथा २१||
जाणि भणिआणि सुत्ते ताणि जो कुणइ अकारणज्जाए । सो खलु भारियकम्मो न गणेइ गुरुं गुरुवाणे ।।७।।
पुरतो गमणादीणि अकारणे ताणि न वटुंति काउं, अध करेति आसादणा होति, जहा पुण कारणं होज्ज भयं वा, परिकड्डियव्यो । अडवि-विसमेसु दुच्चक्खुगो वा पंथं न याणति अन्नेसु वा कारणेसु तदा सव्वाणि करेज्जा । जो पुण निक्कारणतो अत्तुकोसेण करेइ, सो खलु भारियकम्मो गोसालो वा बहुकम्मो, किं करेति सो भारियकम्मो ? उच्यते-जो ण गणेति गुरुं गुरुहाणे, ण करेति वा किंचि गुरुस्स जं कायव्वं ।। किं च कायव्वं ? अब्भुट्ठाण-पादपमज्जणआहारोवधि-विस्सामण-पज्जुवासणता तेरसपदाणि ववहारे भणिताणि |
को गुरु ? उच्यते-दंसणनाणचरिताणिक गाथा २२ । दंसण-नाण-चरित्तं तवो य विणओ अ हुंति गुरुमूलो । विणओ गुरुमूलेति अ गुरुणं आसायणा तम्हा ||८|| जाइं भणिआई सुत्ते ताइं जो कुणइ कारणज्जाए । सो न हु भारियकम्मो नु गणेइ गुरू गुरूट्ठाणे ॥९॥
दंसणनाणचरिताणि गुरु, जतो वा ताणि पसूताणि जो वा तेसिं उवदेसयिता गुरुणि अणतिक्कमणिज्जाणि-अलंघणिज्जाणि । विणओ गुरुण मूलेत्ति य विनयमूलाणि एताणि गुणाणि णाणदंसणादीणि विनयादेतानीत्यर्थः । स च विनय आचार्यमूलकः गुरु य तस्सोवदेसओ, नाणादीणि य जेण य गुरु आसादितो तेण ताणि आसादितान्येव । कथं ? यतोऽपदिश्यते । सो गुरुमासायंतो० गाथा २४ ।
सो गुरुमासायंतो दंसण-णाण-चरणेसु सयमेव ।
सीयति कत्तो आराहणा से तो ताणि वज्जेज्जा ||१०|| ఉంంంంంంంంంంం ఉదయంవంవంతం
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गुर्वाशातना-त्रयास्त्रिंशद्-भेदाः ।
भावे दंसणनाणचरणेहिं सयमेव सीदति वीसरति तेभ्यः ज्ञानादिभ्यः शद विशरणे । कत्तोत्ति-कत्तो आराहणा से नाणादीणं ३ ? जतो एवं ततो ताई वज्जेज्ज । अस्मात्कारणात् तो-ताइंति जेहिं गुरुं आसादिज्जति वज्जेज्ज, ण कुज्जा । काणि ताणि ? उच्यते-सुतं मे आउसंतेणेत्यादि
तृतीयदशा-आशातना-ऽध्ययनमूलसूत्रम् मू०-सुयं मे आउसंतेण भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पन्नत्ताओ, कतराओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पन्नताओ ? इमा खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पन्नत्ताओ, तं जधा
सेहे रातिणियस्स पुरतो गंता भवति आसादणा सेहस्स ||१|| सेहे रायणियस्स सपक्खं गंता भवति आसायणा सेहस्स ||२|| सेहे रायणियस्स आसन्नं गंता भवति आसायणा सेहस्स ॥३।। एवं एएणं अभिलावेणं सेहे रातिणियस्स पुरओ चिट्टित्ता भवति आसायणा सेहस्स ||४|| सेहे राईणियस्स सपक्खं चिट्ठित्ता भवति आसायणा सेहस्स ||५|| सेहे रायणियस्स आसन्नं चिट्टिता भवति आसादणा सेहस्स ॥६|| सेहे रायणिस्स पुरतो निसिइत्ता भवति आसादणा सेहस्स ||७|| सेहे रायणियस्स सपक्खं निसीयत्ता भवति आसादणा सेहस्स ||८|| सेहे रायणिस्स आसन्न निसीइत्ता भवति आसादणा सेहस्स ||९|| सेहे रायणियेण सद्धिं बहिया विहारभूमिं वा वियारभूमि वा निक्खंते समाणे पुवामेव सेहतराए आयामेइ पच्छा रायणिए आसादणा सेहस्स ||१०|| सेहे रायणिएण सद्धिं बहिया विहारभूमिं वा वियारभूमिं वा निक्खंते समाणे तत्थ पुवामेव सेहतराए आलोएति पच्छा रायणिए आसायणा सेहस्स ||११|| केइ रायणियस्स पुलं संलवत्तए सिया ते पुबामेव सेहतरए आलवेति पच्छा रातिणिए आसायणा सेहस्स ||१२|| सेहे रातिणियस्स रातो वा विआले वा वाहरमाणस्स अज्झो केइ सुत्ते ? के जागरे ? तत्थ सेहे जागरमाणे रातियिणस्स अपडिसुणेत्ता भवति आसादणा सेहस्स ॥१३।। सेहे असणं वा ४ पडिग्गहित्ता पुवामेव सेहतरागस्स आलोएइ पच्छा रायणियस्स आसादणा सेहस्स ||१४|| सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता पुवामेव सेहेतरागस्स पडिदंसेति पच्छा रायणियस्स आसादणा सेहस्स ||१५|| सेहे असणं वा ४ पडिग्गाहेत्ता तं पुवामेव सेहत१.विस्मरति विसरति वा । andiddddddddddddddddddddas २३ addaddddddddddddddddasis
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे आशातना-अध्ययनम्-३
रागं उवणिमंतेत्ति पच्छा रायणियस्स आसादणा सेहस्स ||१६|| सेहे रायणिएण सद्धिं असणं वा ४ पडिग्गाहेत्ता तं रायणियस्स अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छइ तस्स तस्स खद्धं खद्धं दलयइ आसादणा सेहस्स ||१७|| सेहे असणं वा ४ पडिग्गाहित्ता राइणिएण सद्धिं आहारेमाणे तत्थ सेहे खद्धं खद्धं डाअं डाअं रसितं रसियं ऊसढं ऊसढं मणुण्णं मणुण्णं मणामं मणामं निद्धं निद्धं लुक्खं लुक्खं आहरेत्ता भवइ आसादणा सेहस्स ||१८|| सेहे रायणियस्स वाहरमाणस्स अपडिसुणित्ता भवइ आसादणा सेहस्स ||१९|| सेहे रायणियस्स वाहरमाणस्स तत्थगते चेव पडिसुणेत्ता भवति आसायणा सेहस्स ॥२०॥ सेहे रायणियस्स किं त्ती वत्ता भवति आसादणा सेहस्स ||२१|| सेहे रायणियं तुमं ति वत्ता भवति आसादणा सेहस्स ॥२२॥ सेहे रायणियस्स खद्धं खद्धं वत्ता भवति आसादणा सेहस्स ||२३|| सेहे रायणियं तज्जाएण तज्जाएण पडिभणित्ता भवइ आसादणा सेहस्स ||२४|| सेहे रातियणस्स कहं कहेमाणस्स इति एवं ति वत्ता न भवति आसायणा सेहस्स ||२५|| सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स नो सुमरसीति वत्ता भवति आसादणा सेहस्स ॥२६॥ सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स णो सुमणसे भवति आसादणा सेहस्स ||२७|| सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स परिसं भेत्ता भवति आसाया सेस्स ||२८|| सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स कहं आच्छिंदित्ता भवति आसाणा सेहस्स ॥२९॥ सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स तीए परिसाए अणुट्ठिताए अभिन्नाए अवुच्छिन्नाए अव्वोगडाए दोच्चंपि तच्चंपि तमेव कहं कथिता भवति आसादणा सेहस्स ||३०|| सेहे रायणियस्स सेज्जासंथारगं पाएणं संघटित्ता हत्येणं अणणुण्णवेत्ता गच्छति आसादणा सेहस्स ||३१||
रायणिस्स सेज्जा - संथारए चिट्ठित्ता वा निसीइत्ता वा तुयट्टित्ता वा भवइ आसाणा सेहस्स ||३२|| सेहे रायणियस्स उच्चासणंसि वा समासणंसि वा चिट्ठिता व निसीयित्ता वा तुयट्टित्ता वा भवति आसादणा सेहस्स ||३३||
एताओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीस आसायणाओ पन्नत्ताओ त्तिबेमि || तइया दसा सम्मत्ता ॥
चू०-किमाख्यातं- 'सेहे रातियणस्स पुरो गंता भवति आसातणा सेहस्स' ओम-रातिणितो सिक्खगो वा अगीतत्यो वा, आयरिय उवज्झाए मोत्तुं सेसा सव्वे सेहा, रायणिओ आयरितो महत्तरगो वा परियाएण । गच्छतीति गंता, दोसा पुरतो अविणओ, वाउक्काएज्जा धरंते आतविराहणा । सपक्खं जुव
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त्रयास्त्रिंशद्- आशातना- व्याख्यानम् ।
लिता, मग्गतो आसन्ने चलण धूलि -छियादी' । एवं चिट्ठण - निसीयणेवि । उक्तं च-'न पक्खतो ण पुरतो' । कारणे पुण पंथमयाणमाणस्स अचक्खुगस्स वा पुरतो गच्छेज्जा, पडंतस्स विसमे रत्तिं वा जुवलितो गच्छेज्जा, गिलाणस्स वा साणाइभए वा मग्गतो आसन्ने गच्छिज्जा । (१-९) सेहो "रायणियेण सद्धिं " सूत्तं सद्धिं एगट्ठा आयमणं निल्लेवणं अविणयदोसा । अपवादो चिरवोसिरणे वासे भये वा अणुण्णाए आयामति सेहो । (१०) रातिणिएण सद्धिं सुत्तं एत्थवि अपवादो, गिलाणादिकारणे वा पुव्वमालोएज्जावि । (११) केसि राइणियस्स पुव्वं संलत्तए सुत्ते केइत्ति पासंडगिही इत्थी पुरिसो वा सपक्ख-परपक्खो वा साहू सावगो वा पुव्वसंलत्तउ त्ति दिट्टाभट्ठा पुव्वमालत्तो वा अत्यर्थं लवणं आलवणं किं ? भो केरिसं करेति कत्तोसि आगतो ? अविणतो, सर्वा हि क्रिया पूर्वं रातिणियस्स । (१२) कालासादणा सेहे रायणिस्स रातो वा सुत्तं संज्झा राती भणिया गाथा वाहरमाणस्स दोसा अविणतो परिभूतो य आयरिओ भवति । इमे वा अन्ने दोसा अहिडक्क-विस-विसूइय-२आलीवण मत्तग-गिलाणुक्तणादिविराहणा आउच्छोभणादि दोसा य । भवे कारणं न पडिसुणेज्जावि, सागारिय-सन्नायगादिसु । (१३) सेहे असणं वा सुत्तं वा आलोएति पडिदंसेति उवनिमंतेति तिन्नि सुत्तादिसुवि अविणतो, गिलाणादिकारणे वा करेज्जावि । (१४-१६) सेहे असणं वा सुत्तं अणामंतेत्ता अणापुच्छिता जस्स जस्सत्ति-संजतस्स असंजयस्स वा इच्छतित्ति जस्स रुच्चतित्ति खद्वंति-बहुगं दलइत्ति-देइ एत्थवि अविणयदोसा, "अगुरुस्स सन्निहितकरिज्जावि (१७) रातिणिण सद्धिं असणं ४ आहारेमाणे तत्थ सेहसूत्रं खद्धं खद्वंति वड्डवड्डेहिं लंबणेहिं, डागं-पत्तसागं-वाइंगण चिब्भिडवत्तिगादि उसढंति-वन्नगंधरसफरिसोववेतं, रसालं-रसितं दालिमं मज्झितादि, मणसा इवं मण्णुणं, मन्यते मणामंति, निद्धं-नेहावगाढं, लुक्खं "नेहेण भत्थिओ, अविणओ गेही य, अगारगं वा भुंजमाणस्स सव्वाणिवि करेज्जा । (१८) सेहे रातिणियस्स वाहरमाणस्स दो सुत्ता उच्चारेतव्वा । दिवसतो अपडिसुणणे । तत्थगतो चेद्वतो चेव । उट्ठित्ता चेव सोतव्वं । 'सण्णातग-भायण हत्थगतो वा । भुंजंतो वा "भयंतो वा । (१९-२०) भावासादणं । किंति वत्ता, किं एवं भणसि तुमंति, तुम्हारिसेहिं कस्स ण वट्टति । खद्वंति-बृहतशब्दोच्चारणं महता शब्देन कुद्धो भासति । तज्जातेणंति-कीस अज्जो गिलाणस्स न करेसि, भणति तुमं कीस ने करेसि ? तुमं
१. क्षुतादि । २ । आदीपनम् । ३. आयुः क्षोभः ४. 'गुरुस्स अ' पाठान्तरम् । ५. स्नेहेन भर्त्वितं रहितम् । ६. उच्चारप्रस्रवणभाजन-हस्तः । ७. परिवेषयन् ।
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे गणि-संपदा-अध्ययनम्-४
आलसितो, सोवि भणति-तुमं आलसिओ, मा एवं कुरु पादादि-धोवणं भणिते किं करेति ? प्रत्याहणति आयरियवयणं, ताहे आयरिया पुणो न चेव भणंति । उसन्ने सव्वपदाणिवि करेज्ज य ण य आसादणा भवति । (२१-२४) कथा अणुओगकथा वा धम्मकहा वा कहेमाणस्सत्ति०अक्खायमाणस्स, इति उप प्रदर्शने, एतंति-जं तुमं कधिसि, जधा एतं एवं न भवति, एतं एवं भवति जधाहं भणामि, अविनयदोसा, आयरिए अपच्चओ भवति, धम्मं च जणो न गेण्हति । पासत्थो भणिज्ज नडपढितं 'किं तुहेतेणंति । न सुमरसीति न स्मरसि त्वं एतमर्थं ? ण एस एवं भवति । (२२-२६) णो सुमणसे ओहय-मण-संकप्पो अच्छत्ति, ण अणुवूहति-अहो सोभणं कथं कथेति आयरिया । (२७) परिसं भेत्ता भवति, भणति-उठेहि भिक्खवेला, समुद्दिसण-वेला, सुत्तपोरिसि-अत्थपोरिसिवेला वा, भिंदति वा परिसं-कण्णमूले एस पासत्यादि, केवलं भणति, सयं न करेति । तत्थ य केइ धम्मं गेण्हंता पव्वंयता वा रायाती सावगो वा अहाभद्दगो वा होता पव्वयणस्स उवग्गहकरो । (२८) कहं अच्छेदति भणति उठेहि वियालो इमं वा करेहि । भावदोसा समंता दीसति । (२९) परिसति अणुट्ठिताए निविट्टाए चेव अभिन्नाण ताव विसरति, अव्वोच्छिण्णा जाव एक्कोवि अच्छति, तमेवत्ति-जा आयरिएण अत्थो कहितो दोहिं तेहिं चउहिं वा जहा सिद्धसेणायरितो तमेवाधिकारं विकल्पयति । अयमपि प्रकारो तस्यैवैकस्य सूत्रस्य । एवं विकल्पयतः आसादणा भवति । (३०) सेज्जा सव्वंगिया, संथारो अड्डाइज्ज-हत्थो, अथवा सेज्जा जत्थ भूमीए ठाणं, संथारो विदल-कट्ठमओ वा, अथवा सेज्जा एव संथारो सेज्जासंथारो, सेज्जायां वा संथारको सेज्जासंथारगो तं पाएण संघदे॒त्ता नाणुजाणेति-न क्खमावेत्ति । उक्तं च
संघट्टइत्ता काएणं तधा उवहिणामवि। खमेज्ज अवराहो मे वदेज्जा न पुणोत्ति य ।।' अविणतो उ सेहादी य परिभवंति । जं च न भणियं तं कंठं (३१-३३)
ततियं अज्झयणं सम्मत्तं ।।
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अथ चउत्थी दसा गणि-संपदा-ऽज्झयणं । नि०- दवं सरीर-भविओ भावगणी गुण-समन्निओ' दुविहो ।
गण-संगहुवग्गह-कारओ अ धम्मं च जाणतो ॥२५॥ १. किं तवैतेनेति । २. विसृजति । ३. 'गुणजुत्तो भवे' पाठान्तरम् । aaaaaaaaaaaaaaaa २६ ddddddddddddda
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चतुर्था - ऽध्ययन - निरुक्तिः । गणिसंपदा । गणि-निक्षेपः ।
नायं गणिअं गुणिअं गयं च एगट्ठ एवमाईअं । नाणी गणित्ति तम्हा धम्मस्स विआणओ भणिओ ||२६|| आयारंमि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ||२७|| गण-संगहुवग्गह-कारओ गणी जो पहू गणं धरिउं । तेण णओ छक्कं संपयाए पगयं चउसु तत्थ ||२८|| दव्वे भावे य सरीर-संपया छव्विहा य भावंमि | दव्वे खेत्ते काले भावम्मि य संगह परिण्णा ॥ २९ ॥ जह गय-कुल- संभूओ गिरि-कंदर कडग-1 -विसम- दुग्गेसु । परिवहइ अपरितंतो निअय- सरीरुग्गए दंते ||३०|| तह पवयण भत्ति गओ साहम्मिय- वच्छलो असढ-भावो । परिवहइ असहु-वग्गं खेत्त - विसम - काल - दुग्गेसु ॥३१॥ || गणिणिज्जत्ती समत्ता ४ ॥
चू०-सो रातिणितो केरिसो ? जो इमाए अट्ठविधाए गणिसंपदाए उववेतो । एतीसे उवक्कमादी चत्तारि दारा वण्णेऊण अधिगारो गणिसंपदाए, नामनिप्फन्नो निक्खेवो, गणि-संपदा दुपदं नाम, गणी संपदा च गणि-संपदा, गणी गुणेहिं संपन्नो उववेतो युक्त इति ।
तत्थ गणिस्स निक्खेवो नामादि चउव्विहो । नामट्टवणातो तथैव । दव्वं सरीर-भवितो० गाथा २५ ॥
दव्वं सरीर-भविओ भावगणी गुण-समनिओ दुविहो । गण-संगहुवग्गह-कारओ अ धम्मं च जाणतो ॥१॥
दव्वगणी जाणग - सरीर भविय - वतिस्तिो तिविधो एगभवितो बद्धाउतो अभिमुह-नामगोत्तो । भावगणी गुण - समनितो गुणोववेतो अट्ठविधाए गणिसंपदाए । सो दुविधो-आगमतो नोआगमतो य आगमतो जाणय-उववुत्तो । नोआगमतो गणसंगह-कारतो उवग्गह-कारतो य । संगृह्णातीति संग्रहः । संग्रहं करोतीति संग्रह-कारकः सयं परेण वा । दव्वसंगहो वत्थादीहिं, सिस्से संगिति भावे नाणादीहिं । उपगृह्णातीति उपग्रहः उपग्रहं करोति सिस्स पतिच्छयाणं सयं परेण वा । दव्वुवग्गहो आहारादीहिं, भावुवग्गहो गिलाणादीण सारक्खणं । . धम्मं च जाणतो । कतरं धम्मं ? गणिस्वभावमित्यर्थः । अट्ठविहा गणिसंपदा, aaaaad २७ sadddd
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे गणि-संपदा-अध्ययनम्-४
येन चासौ गणिसंपदा एवं भवति , तं जाणति चशब्दात्तद्गुणोपेतश्च , गण-गुणसंख्याने तस्सेगट्ठियाणि तं० । णायं गणि० गाथा २६ ।
नायं गणिअं गुणिअं गयं च एगढ़-एवमाईअं । नाणी गणित्ति तम्हा धम्मस्स विआणओ भणिओ ||२||
णातं गणितं गुणितं गतं च एगटुं एवमादीयं । अभिधाणतो विसेसो, ण तु अत्थतो, आदिग्रहणात् विदितं आगमितं उपलब्धमित्यर्थः । नाणी गणित्ति तम्हा तस्मात् कारणात् । किं चान्यत् । आयारम्मि अधीते० गाथा २७ ।।
आयारंमि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भण्णइ पढमं गणि-ट्ठाणं ||३||
आयारो पढमं अंगं, तंमि अधीते, पढिते उपलद्धे । समणधम्मो दसप्पगारो णातो भवति । तम्हा कारणा आयारं जो धरेति सो आयारधरो पढमं गणीहाणं, उवज्झाय-ट्ठाणं बितीयं कप्प-व्यवहार-सूतगडं वा अंगं प्रति । गण-संगहुवग्गह-कारउ० गाथा २८।।
गण-संगहुवग्गह-कारओ गणी जो पहू गणं धरिउं । तेण णओ छक्कं संपयाए पगयं चउसु तत्थ ॥४॥
गणसंग्रह-कारओ णाम एगो णो उवग्गह-कारतो भंगा ४ गणी-आयरियो पभू-समत्थो । दव्वगणो गच्छो, भावगणो णाणादि ३ धारेउं परियट्टितुं पभू, तेणेति जो पुव्वद्धण वन्नितो । णउत्ति-नीतिर्नयः अहिगार इत्यर्थः ।।
संपदा इदाणिं सा छविधा नामादि, जेण भणितं-छक्कं संपदाए, नाम संपदा जस्स णामं जीवादीणं ३ । ठवणा-संपदा चित्रकर्मादिषु । पगतं अधिकारः चउसु दव्व-खेत्त-काल-भावेसु, नामठवणासु नाऽधिकारो | दव्वे भावे० गाथा २९॥
दवे भावे य सरीर-संपया छबिहा य भावंमि । दवे खेत्ते काले भावम्मि य संगह-परिण्णा ||५||
अथवा दुविहा संपदा-दव्वे य भावे य । दंव्वे सरीर-संपदा भावे छविहा य भावम्मि | च-सद्दा खेत्त-काल-संपदादि भासितव्वा । सरीरेण ओरालिय-आहारग-वेउव्विएण ओदतिएण । उक्तं च-मूलं खलु 'दव्वपलित्थयस्स तहा आरोहपरिणाहा । अथवा दव्व-संपदा तिविधा-सचित्ता छण्णउतिं मणुस्सकोडीओ चक्किस्स तेहिं संपदा चउरासीतिं हत्थि-सयसहस्सा, कुइकण्णस्स गावीओ | अचिता नंदस्स १. पर्यास्तिका आसनविशेषस्तस्य । २. कुचिकर्णनामा गृहपतिस्तस्य । ఉదంతం ఉండింతలేంత ఉంటతంతుండితీతంతం
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संपदा - निक्षेपः । भाव-संपदा-वर्णनम् ।
णवणउति हिरण्ण-कोडीउ । खेत्तस्संपदा छण्णउतिं गामकोडीओ एवं दोणमुहनगरादि-विभासा । कालसंपदा चउरासीति पुव्व-सयसहस्साणि भरहस्स आउगं, जमि वा काले वन्निज्जति ।
भावसंपदा छव्विधा ओदयियादि । तत्थोदयिगो एगवीसति-भेदो गतिकषाय-लिंग-मिथ्यादर्शन-अज्ञान असंयता ऽसिद्ध-लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः । गतिर्नरकादि : ४, कषायाः क्रोधादिकाः ४, लिंगं इत्थिवेदादि ३, मिच्छतं अण्णाणं असंजमो असिद्धत्तणं च एगेगभेदं । लेस्सा कण्हलेस्सादि ६ । एस एगवीसति-भेदो उदयितो भावो ।
उवसमितो दुव्विहो सम्मत्त चस्तििाणि ।
खाइतो नवभेदो । तं केवंलनाणं केवलदंसणं दाणं लाभो भोगो उपभोगवीरियाणि सम्मत्तं चरितं च ।
खातोवसमितो अट्ठारसभेदो-ज्ञाना-ऽज्ञान-दर्शनदानलब्ध्यादयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्व-चारित्र-संयमासंयमाश्च । नाणं चउव्विहं - मति- सुत-ओधि ́मणपज्जवाणि । अन्नाणं तिविधं मतिअन्नाणं सुतअन्नाणं विभंगनाणं । दरिसणं तिविधं-चक्खू अचक्खू ओधिदंसणं च । लद्वी पंचभेदा दाणलद्धी लाभभोग-उवभोग-विरीयलद्धी खतोवसमियं सम्मत्तं चरितं च संजमासंजमो य । एस अट्ठारसविधो मिस्सो भावो ।
परिणामितो तिविधो-जीव-भव्याभव्यत्वादीनि च । जीवत्वं भव्यत्वं अभव्यत्वं च । आदिग्रहणात् अस्तित्वं अन्यत्वं कर्तृत्वं भोक्तृत्वं गुणवत्त्वं अ-सर्वगत्वं अनादिकर्म-संतानत्वं प्रदेशवत्वं अरूपित्वं नित्यत्वं इत्येवमादयोऽप्यनादि-परिणामिका जीवस्स भावा भवंति ।
सन्निवातिओ एतेसिं चेव पंचण्हवि भावाणं संजोगेण भवति । एत्थ खतोवसमियभावसंपदातो अधिगारों, उदईओ वि उरालिय-वेउव्वियाहारगसरीरसंपदाए सेसेसुवि जधासंभवं जोएतव्वं । सुतसंपदा जहन्नेण कप्प-ववहारा, उक्कोसेण चोद्दसपुव्वाणि, संगह परिण्णा नाम अट्ठमत्ति, तीसे विभासा-सा छव्विहासंगह-परिण्णा णामादि षट्का, नामठवणातो तहेव । दव्वसंगहपरिण्णा जाणति वत्थपत्तादि, जेण वा जो संगिण्हितव्वो, तं परिजाणति । खेत्तसंगहपरिण्णा अद्वाणादिसु जो विधी तं परिजाणति । खेत्तं वा जोग्गाजोग्गं जाणति । काले ओमोदरियासु विधिं जाणति । भावे गिलाणादिसु । दव्वेण वा चेतणाचेतणेण २९ వరదతతరం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे गणि-संपदा अध्ययनम्-४
परिजाणति, जधा गोहि गोमितो', हिरण्णेण हेरण्णितो, दव्वं वा जो परिजाति जीवादि-सोभणासोभणं वा दव्वं । खेत्तेण वा खेत्तस्स वा जम्मि वा खेत्ते वन्निज्जति । कालेण वा कालस्स वा जम्मि वा काले वन्निज्जति । भावस्स वा परिण्णा भावेण परिन्ना- जधा एरिसो उदयिओ उदीरणा-लक्खणो वेदणा-लक्खण इत्यर्थः । उवसम-लक्खणो उवसमिओ, खय-लक्खणो खाइतो, किंची खीणं किंचि उवसंतं खतोवसमिओ, तांस्तान् भावान् परिणमतीति पारिणामिकः । समवाय-लक्खणोसन्निवातितो, एवं जो परिजाणति तेणायरिएणं संगह-परिण्णेणं गच्छो परिट्टियव्वो । कथं ? जध गयकुल संभूतो गाथा ३० ।।
जह गयकुल-संभूओ गिरि-कंदर कडग-विसम- दुग्गेसु । परिवहइ अपरितंतो निअय-सरीरुग्गए दंते ||६||
जहा तस्स गयकुलस्स अप्पणो य बाधा ण भवति तथा गच्छति । उवसंहारो तह पवयणभत्ति० गाथा ३१ ॥
तह पवयण-भत्ति-गओ साहम्मिय वच्छलो असढ भावो । परिवहइ असहुवग्गं खेत्त-विसम-काल- दुग्गेसु ||७||
तेण पगारेण तथा, पवयणं दुवालसंगं, साधम्मिय- वच्छल्लो जधा वइरसामी, असढभावो माया - विउत्तो, दव्वखेत्तकालभावावतीसु परिवट्टति असहुवग्गं, खेत्तं विसमं अद्वाणे खलु खेत्तेसु वा, काले अशिवोमोदरिया दुब्भिक्खेसु, भावे गिलाणातिसु वा नाणादिसु वा दव्वादिसंगहेण वा । अट्ठपगाराए गणिसंपदाए उववेतो भवति गणिजोग्गो वा भवति ।
चतुर्थदशा-गणि-संपदा-ऽध्ययन-मूलसूत्रम् ।
मू०-सुयं मे आउसंतेण भगवया एवमक्खातं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं अट्ठ-विहा गणि-संपदा पन्नत्ता, तंजधा - (१) आयारसंपदा (२) सुतसंपदा (३) सरीरसंपदा (४) वयणसंपदा (५) वायणसंपदा (६) मतिसंपदा (७) पओगसंपदा (८) संग्गहपरिण्णा णामं अट्ठमा ।
से किं तं आयारसंपदा, चउविहा पन्नत्ता तंजहा संयम धुवयोग- जुत्ते यावि भवति, असंगहियप्पा, अणियत- वित्ती, वुड्ढसीले यावि भवति से तं आयार-संपदा ||१||
से किं तं सुय-संपदा ? चउव्विहा पन्नत्ता तं जहा बहुसुते यावि १. गोमिकः-गोमान् ।
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अष्टप्रकारा गणिसंपदा । धारणा-मत्यादीनां प्रकाराः ।
भवइ, परिचिय-सुते यावि भवति, विचित्त-सुये यावि भवइ, घोसविशुद्धिकरे यावि भवइ से तं सुयसंपदा ।।२।।
से किं तं सरीरसंपदा ? चउबिहा पन्नत्ता तं जहा- आरोह-परिण्णाहसंपन्ने यावि भवति, 'अणोतप्पसरीरे, थिरसंघयणे, बहुपडिपुन्नेदिए यावि भवइ, से तं सरीरसंपदा ||३||
से किं तं वयणसंपदा ? चउबिहा पन्नत्ता तं जहा-आदिज्जवयणे यावि भवइ, महुर-वयणे यावि भवइ, अणिसिय-वयणे यावि भवइ, 'फुडवयणे यावि भवइ, से तं वयणसंपदा ||४||
___से किं तं वायणा-संपदा ? वायणासंपदा चउबिहा पन्नत्ता तं जहाउद्दिसति विजयं, विजयं वाएति, परिनिव्वावियं वाएति, अत्थनिज्जवए यावि वाएइ, से तं वायणासंपदा ||५||
से किं तं मतिसंपदा ? मतिसंपदा चउबिहा पन्नत्ता तं जहा- 'उग्गहमतिसंपदा, 'इहामती, अवायमती, "धारणामती, से किं तं उग्गहमती ? उग्गहमती छबिहा पन्नत्ता तं जहा- खिणं उगिण्हति, बहु उगिण्हति, बहुविहं उगिण्हइ, धुवं उगिण्हइ, अणिसियं उगिण्हइ, असंदिद्धं उगिण्हइ, से तं उग्गहमती, एवं इहामतीवि, एवं अवायमती, से किं तं धारणामती ? धारणामती छविहा पन्नत्ता तं जहा-बहु धरेति, बहुविधं धरेइ, पोराणं धरेति, दद्धरं धरेति, अणिस्सियं धरेइ, असंदिद्धं धरेति, से तं धारणामति, से तं मतिसंपदा ॥६॥
से किं तं पयोग-संपदा ? पयोग संपदा चउविधा पन्नत्ता तं जहाआतं विदाय वादं पयुंजित्ता भवइ, परिसं विदाय वादं पयुंजित्ता भवइ, खेत्तं विदाय वादं पयुंजित्ता भवइ, वत्थु विदाय वादं पयुंजित्ता भवइ, से तं पयोगसंपदा ||७||
से किं तं संगह-परिण्णा ? संगह-परिण्णा चउब्विहा पन्नत्ता तं जहाबहुजण पायोग्गताए वासावासासु खेत्तं पडिलेहित्ता भवइ, बहुजणपायोग्गताए पाडिहारिय-पीढ-फलग-सेज्जासंथारयं ओगेण्हित्ता भवइ, कालेणं कालं समाणइत्ता भवइ, अहागुरुं संपूएत्ता भवति, से तं संगहपरिण्णा संपदा ||८||
___ आयरितो अंतेवासी इमाए चउविधाए विणय-पडिवत्तीए विणयेत्ता १. अत्वज्जनीय-शरीरः । २. 'असंदिद्ध-वयणो' पाठान्तरम् । ३. विमर्शपूर्वकं वाचयति । ఉంటుందనీయంగం అంతంతుతం సంయయం
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे गणि-संपदा-अध्ययनम्
निरिणत्तं गच्छइ, तं जहा- (१) आयार-विणयेन, (२) सुयविणयेन, (३) विक्खे वणा-विणयेणं, (४) दोस-निग्घायणा-विणएणं ।,
से किं तं आयार-विणए ? आयार-विणए चउबिहे पन्नत्ते तं जहा संजम-सामायारीयावि भवति, तव-सामायारीयावि भवति, गण-सामायारी यावि भवति, एगल्ल-विहार-सामायारीयावि भवति से तं आयार-विणए ।।१।
से किं तं सुयविणये ? सुय-विणए चउबिहे पन्नत्ते तं जहा-सुर वाएति, अत्थं वाएति, हियं वाएति, निस्सेसं वाएति, से तं सतविणए ॥२॥
___ से किं तं विक्खेवणा-विणये ? विक्खेवणा-विणये चउविहे पन्नत्ते । जहा-अदिठ्ठधम्म दिट्ठ-पुव्वगत्ताए विणएइत्ता भवति, दिट्ठ-पुव्वगं साहम्मियः त्ताए विणएइत्ता भवति, चुय-धम्माओ धम्मे ठावइत्ता भवति, तस्सेव धम्मस्स हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए अणुगामियत्ताए अब्भुढेत्ता भवइ, से तं विक्खेवणा-विणये ||३||
से किं तं दोसनिग्घायणा-विणए ? दोस-निग्घायणा-विणए चउबिहे पन्नत्ते तं जहा-कुद्धस्स कोहं विणएत्ता भवइ, दुट्ठस्स दोसं णिगिण्हित्ता भवइ, कंखियस्स कंखं छिदइत्ता भवति, आया सुप्पणिहिए भवति, से तं दोसनिग्घायणा-विणए ||४||
__ तस्स णं एवंगुण-जातीयस्स अंतेवासिस्स इमा चउबिहा विणयपडिवत्ती भवइ, तं जहा- (१) उवगरण-उप्पायणा (२) साहिल्लया (३) वण्णसंजलता (४) भार-पच्चोरुहणता ।
से किं तं उवगरण-उप्पायणा ? उवगरण-उप्पायणा चउबिहा पन्नत्ता तं जहा-अणुप्पण्णाइं उवकरणाइं उप्पाएत्ता भवइ, पोराणाइं उवकरणाइं सारक्खित्ता भवइ संगोवित्ता भवइ, परित्तं जाणित्ता पच्चद्धरित्ता भवइ, अहाविधि संविभइत्ता भवति, से तं उवकरण-उप्पाणयता ||१||
से किं तं साहिल्लया ? साहिल्लया चउबिहा पन्नत्ता तं जहा. अणुलोम-वइ-सहिते यावि भवति, अणुलोम-काय-किरियत्ता, पडिरूव-कायसंफासणया, सव्वत्थेसु अपरिलोमया, से तं साहिल्लया ||२||
से किं तं वण्ण-संजलणता ? वण्ण-संजंलणता चउविहा पन्नत्ता तं जहा-अधातच्चाणं वण्णवाई भवति, अवण्णवातिं पडिहणित्ता भवइ, वण्णवातिं अणुवूहइत्ता भवति, आया वुड्ढ-सेवीयावि भवति, से तं वण्ण-संजलणता ||३|| addddddddddddddddddal ३२ adddddddddddddddddddddded
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निरिणत्व-भवन-प्रकाराः । शिष्यस्य चतुर्विधा विनय-प्रतिपत्तिः । चूर्यां संयम-ध्रुव-योग-युक्ततादि-स्वरुपम् ।
से किं तं भारपच्चोरुहणता ? भार-पच्चारुहणता चउनिहा पन्नत्ता तं जहा-असंगहिय-परिजनं संगिण्हिता भवति, सेहं आयार-गोयरं गाहेत्ता भवति, साहम्मियस्स गिलायमाणस्स अधाथामं वेतावच्चे अब्भुढेत्ता भवति, साहम्मियाणं अधिकरणंसि उप्पन्नंसि तत्थ अणिस्सतोवस्सिए वा सिं तो अपक्ख-गाही मज्झत्थ-भावभूते सम्मं ववहरमाणे तस्स अधिकरणस्स खामणविओसमणताए सया समियं अब्भुढेत्ता भवइ, कहं नु साहम्मिया अप्प-सद्दा अप्प-झंज्झा अप्प-कलहा अप्प-तुमंतुमा संजम-बहुला संवर-बहुला समाहिबहुला अपमत्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणा णं एवं च णं विहरेज्जा, से तं भार-पच्चोरुहणताए ||४|| एसा खलु थेरेहिं भगवंतेहि अट्ठविहा गणि-संपया पन्नत्ता त्ति बेमि ।।
॥ चउत्थिया दसा सम्मत्ता || चू०-कतरा सा संपदा ? उच्यते-'सुतं मे आउसंतेणं भगवता एवमक्खायं जाव आयारसंपदा । किं पढमं आयारसंपदा ?, उच्यते-जेण पढमं पव्वाविज्जंतस्स चेव उवदेसो । एवं गंतव्वं चिट्ठितव्वं निसीयण-तुयट्टण-पडिलेहण-रयहरण-गहो य उवदिस्सिज्जंति । एतासिं आयार-संपदादीणं दुग-तिगचउ-पंच-छ सत्त-अट्ठगसंजोगेण भंगा कातव्वा, दुगसंजोगो आयारसंपन्ने णामेगे णो सुतसंपन्ने ४ एवमायार-सरीरेणवि ४ एवं जावाऽऽयार-संगह-परिण्णाएवि ४ । एवं सुतेणवि उवरील्लाणि पदानि भाणितव्वाणि जाव पओगमति-संपदाए संगहपरिणाए च चउभंगेण एवेते अट्ठावीसं दुगसंजोगा, एक्केक्क चउभंगो । तियसंजोगेण आयारसंपन्ने सुयसंपन्ने सरीरसंपन्ने अट्ठभंगा एवं छपण्णं तियसंजोगा कातव्वा, एक्केक्के अट्ठभंगा | आयारसंपन्ने सुयसंपन्ने सरीरसंपन्ने वयणसंपन्ने सोलसभंगा, एवं सत्तरि चउक्का संजोगा कायव्वा, सवत्थ सोलसभंगा । छप्पण्णं पंच संजोगा, सव्वत्थ बत्तीसं बत्तीसं भंगा । अठ्ठावीसं छक्कसंजोगा । सव्वट्ठ चउसट्ठिभंगा | अट्ट सत्त-संजोगा सव्वत्थ अठ्ठावीसुत्तरं २ भंगसतं । एक्को अट्ठसंजोगो तत्य बे सताणि छप्पण्णाणि भवंति । एत्थ पढमो अट्ठभंगो पसत्थो ।
आयारसंपदा चउव्विधा-संजम-धुवजोग-जुत्ते यावि भवति, पडिलेहणपप्फोडणादिसु, सतरसप्पगारो वा संजमो सो दुविधो, बाहिरो अभितरो य । बाहिरो चोद्दसविधो । अभितरो मणवयणकायजोगो ३ एतेसु ध्रुवो जोगो जस्स -नित्योपयोगो वा । चशब्दाद् नाणादीसु व नित्योपयोगः । अपिग्रहणात् परंपि ఉంంంంంంంంంంంంం 3 వంతయంతీయం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे गणि-संपदा-अध्ययनम्-४
योजयति , संजमधुवजोगेण जुत्तो जस्स अप्पा, स भवति संजमधुवजोगजुत्तो ।
असंपग्गहितप्प त्ति-अनुत्सेकः । अहसाचार्यो , बहुश्रुतस्तपस्वी वा, सामायारिकुसलो वा , जात्यादिमदेहि वा 'अम्मत्तः ।
__ अणियत-वत्तित्ति गामे एगरातिए णगरे पंचरातिए अन्नअन्नाए भिक्खायरियाए अडति, गिहं वा णिकेतं , तं जस्स णत्थि सो अणिकेतो अगृह इत्यर्थः । चउत्थादीहि वा एषणा-विसेसेहि वा जतति ।
विसुद्धसीलो निहतसीलो, अबालसीलो अचंचलसीलो मज्झत्यसील इत्यर्थः । एतेसिंपि चउण्हं पदाणं दुग-तिग-चउ-संजोगा भाणियव्वा । अपिग्रहणाद् वुड्डसीलो तरुणसीलो जंकिंचि कातव्वे संजमाहिकारिके गिलाणादिसु वा तप्पति । च समुच्चये । तस्सायार-संपण्णस्स सुतं दिज्जति ||१||
___ सा सुत्तसंपदा चउविधा-बहुस्सुते यावि भवति । बहुस्सुतो जुगे जुगे पहाणो सुतेण, अहवा बहुस्सुतो अजिंतर-बाहिरएहि, चशब्दाद् बहुचारिती, अपिशब्दाद् बहुपरियाए, जहन्नेण पंचवरिसो, उक्कोसेण एगूणवीसो परियागं प्रति । परिजितसुत्ते सुणेतस्स णाऽसमिता | विचित्तसुत्तो-बहूहिं परियाएहिं जाणति अत्येण वा विचित्तं सुत्तं, अहवा ससमय-परसमएहिं, उस्सग्गाववातेहिं वा । उक्तं च-चित्रं बर्थयुक्तं । ते घोषा उदात्तादी, तेहिं घोषानामेव विशुद्धी घोसविसुद्धी, घोसेहिं वा जस्स सुद्धं सुतं सो परस्सवि घोसविशुद्धिं करेति । एत्यवि दुग-तिग-चउक्क-संजोगा विभासियव्वा ।।२।।
से किं तं सरीरसंपदा सुत्तं-आरोहो दीर्घत्वं परिणाहोवि तत्तितो चेव । यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति । अणोतप्प-सरीरे, त्रपूष लज्जायां ण हीण-सरीरो अलज्जणिज्ज-सरीरो । थिरसंघयणो दढसंघयणो बलित-सरीर इत्यर्थः । बहपडिपुन्निंदिओ-संपुन्निंदिओ न काणो बहिरो वा, एत्थ दुगादि-संजोगा तहेव ||३||
से किं तं वयण-संपया सुत्तं-वचनसंपदा वचनोपेतता इत्यर्थः । आदिज्ज-वयणो ग्राह्य-वाक्यः अर्थावगाढं वा मधुरं अपरुष-वाक्यः, खीरासवादिलद्धिजुत्तो वा । निस्सितं कहं ? निस्सितो जधा कोव-निस्सितो । अहवा रागदोसादीहिं णिस्सितो । “असंदिद्धभासा सव्वभासा-विसारदः सुहं ग्राहयिष्यति, १. 'अमत्त' संभाव्यते । २. श्रृण्वतो नाऽशमिता स्यात्तथा श्रावयति अस्खलितगत्या । 'परिजियसुत्तो सणाममिव' पाठान्तरम् । ३. 'ण हीण सरीरेण' पाठान्तरम् । ४. असंदिद्धवयणो पाठान्तरम् । ఉండి ఉండి ఉంంతరం X ఉండియుందుంతుంతీయం
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आचार-श्रुत-शरीर-वचन-वाचना-मति-प्रयोग-संपदादीनां व्याख्यानम् ।
स्वयं च गृह्णाति । असंदिग्धत्वं अमंमण-वचनमित्यर्थः । अहवा जहा त्वं सिंधवमानय संदेहो भवति अश्व-पुरुषवस्त्र-लक्षणं वा सोऊं, ण एरिस-वयणं ब्रुवते, एत्थवि दुगादि-संयोगा भाणियव्वा ||४||
तेणैवं आयार-सुय-सरीर-वयण-संपण्णेणं सीसा परिक्खित्तु वाएतव्वा ।
से किं तं वायणासंपदा २ सुत्तं विजियं उद्दिसत्ति-विचिन्त्य २ जो जस्स जोगो तं तस्स उद्दिसति सुत्तमत्थं वा । परिणामिगादि परिक्खत्ति , अभायणं न वाएति जहा अपक्क-मट्टिय-भायणे अंब-भायणे वा खीरं न छुब्भति, जइ छुब्भइ विणस्सति । एवं अतिपरिणामे अपरिणामे य ण उद्दिसति । छेदसुत्तं विजियं वाएति । जत्तियं तरति सो गिण्हितुं 'परिणिव्वविया जाधे से परिजितं जायं ताहे से अण्णं उद्दिसति, जाहकवत् । अत्थणिज्जवए-अर्थाभिज्ञो अत्येण वा तं सुत्तं निव्वाहेति । अत्यपि तस्स कधेति, गीतत्थोत्ति भणितं भवति । इत्थवि तहेव दुगाइसंजोगा । जतियमतीय-उववेतो-उत्पन्नप्रतिभ इत्यर्थः । इतरथा हि-अन्यतीर्थिकैराक्षिप्तः प्रत्युत्तरासमर्थ दृष्ट्वा शिष्या विप्रतिपात्तिं गच्छेयुः । अभिणवसड्डो वा ||५||
से किं तं मतिसंपदा सुत्तं-मन ज्ञाने, मननं मतिः, मत्या संपदा मतिसंपदा सा चउव्विधा तं उग्गहमती इहामती अवायमती धारणामती य । से किं तं उग्गहमती ? उग्गहमती छविधा पन्नत्ता, तंजधा-खिप्पं उगिण्हंति उच्चारितमात्रमेव सिस्से पुच्छंते परपवादीण वा, उच्चारितमात्रं उगिण्हति । बहूगं पंचछग्गंथसयाणि | बहविधं नाम लहेति पहारेइ गणेति । अक्खाणयं कहेति अणेगेहि वा उच्चारितं उवगेण्हति । धुवं ण विसारेति । अणिस्सियं न पोत्थयलिहियं अहवा सोउं जइ कोइ अणुभासति ताधे गिण्हति । असंदिग्धं न संकितं । उग्गहितस्स ईहा, ईहितस्स अवायः, अवगतस्स धारणा | पोराणं पुरा पढितं, दुद्धरं भंगगुविलं, शेषं कण्ठ्यं । संजोगा तहेव ||६||
से किं तं पतोग-मती सुत्तं-जानात्येव वैद्यः तत्प्रयोगं येनाऽऽतुरस्य व्याधी छिद्यते । आतं "विदाय विद् ज्ञाने धम्मं कथेतुं वादं वा कातुं आत्मानं विदाय जानीते आत्मसामर्थ्यं । पक्ष-प्रतिपक्ष-परिग्रहो-वादः । परिसा उवासगादि जाणिया अजाणिया, पुव्वं परिसं गमेति । खेत्तं मालवादि पुरी वा । वत्थु वा परवादिनो वह्वागमा न वा, राजा राजामात्यो दारुणो भद्दओ वा सभावेण । उक्तं च-दव्वं खेत्तं कालं तहा आतं "विदाय समायारिं पयुंजित्ता समत्थो वा न वा । छट्ठादीण १. परिणमय्य । २. तंजहा-इत्यर्थः । ३. प्रधारयति । ४. विज्ञायेत्यर्थः । జంతుయుతమందుంతుంతం 34 అసురుతుంటుందం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे गणि-संपदा-अध्ययनम्-४
वा मासकप्पस्स वा । परिसा गीतत्था अगीतत्था वा । खेत्तं अट्ठाणमणट्ठाणं वा । वत्थु बाल-गिलाण-दुब्बल-खमगायरियादी रायादि पव्वइतो वा वसभाइ गीता अगीता ।।७।।
से किं तं संगह-परिण्णा सुत्तं ? संगहपरिण्णा चउविधा-दव्वादि, बहुजण-पायोग्गं बहजण-जोग्गं गच्छ-जोग्गं च वित्थिन्नं, अहवा बाल-वुड. दुब्बलक्खमगायरीयादीणं जोगवाही-अजोगवाहीण य । असंगहिया खेत्तादीएहिं गच्छंति अन्नत्थ पीढएण विणा णिसिज्जा मइलिज्जति विवरेण वा वासासु, अण्णं कालं अण्णत्थवि गम्मति, अतो वासग्रहणं । प्रतिहरणीयं प्रतिहार्यं फलगं एगंगियं, पीढफलगादीणं असतीए वासासु पाणा सीतलं कुंथु० गाथा | काले जं जंमि काले कृत्यं तं तस्मिन्नेव समानयितव्यं भवति । तं जहा-अज्झयण-पडिलेहणाए उवधि-उप्पादणाए वा पढितुं सोतुं वा भिक्खस्स वा चक्कवालसामायारी विभासितव्वा ।
एत्थ भावसंगहो । अधागुरूं-जेण पव्वाविओ जस्स वा पढति मूले जधा गुरवो अधागुरु जे तेसिं रातिणियतरगा तेसिं विणतो अभट्ठाण-डंडग-आहारउवधि-पंथ-विस्सामणादिसु संपूयणा भवति स एवं पगारो आयरितो ||८||
अंतेवासी चउविहाए 'चउप्पयाराए जता तेणं अण्णो गाहितो होति तदा णिरिण्णो भवति आयरितो, स-रिणो लोगेवि ताव गरहितो किमु लोउत्तरे ? सिसस्स वा विणयादिजुत्तस्स दितो निरिणो भवति । विणतो संजम एव पडिवत्ति-पगारो, विणएता गाहेत्ता इत्यर्थः । णिरिणत्वं गच्छति-प्राप्नोति, आयारसुय-विक्खेवण- दोसनिग्घायणादी-आयार-मंतस्स सुयं दिज्जति, तेणायारो पढमं । आयारविणओ चउव्विधो-संजमं समायरति स्वयं, परं च गाहेति, समाचारयति सीतंतं परं, उज्जमंतं च अणुवूहति ।
सो य सत्तरसविधो-पुढविकाय-संजमादि | पुढवि-संघट्टण-परितावणतोदवणादि परिहरितव्वं । तवो पक्खिय-पोसधिएस तवं कारवेति परं, सयं च करेति , बारसविहो तवो भाणितव्यो । भिक्खायरियाए निउंजति परं सयं च । सव्वंमि तवे परं सयं च णिसृजति | गणसामायारी गणं सीतंतं पडिलेहणपप्फोडण-बाल-दुब्बल-गिलाणादिसु वेतावच्चे य सीतंतं गाहेति उज्जमावेति, सयं च करेति । एगल्ल-विहार-पडिमादिषु सयमण्णं वा पडिवज्जावेति । आयारेणं चउप्पगारेणं आत्मानं परं च विनयति ||१||
आयारमंतस्स सुतं दिज्जति । सुतेण विनयति अप्पाणं परं च, सुत्तं १. विनयप्रतिपत्त्या । ఉరితీయవంతంగవంతం ఉండటంతంతమంత
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संग्रह परिज्ञा-संपदा । आचार्यस्य निरिणत्वभवने चतुष्प्रकार-विनयप्रतिपत्ति-व्याख्यानम् । शिष्यस्य विनयकरणप्रकाराः ।
वाएति पाढेति, अत्थं सुणावेति, गेण्हावेति हितं, वाएति हितं णाम जं तस्स जोग्गं । परिणामगं वाएति दोण्ह वि हितं भवति । अपरिणामगं अतिपरिणामगं वा ण वाएति तं अहितं तेसिं भवति, परलोगे इहलोगे य, निस्सेसं नाम-अपरिसेसं जाव समत्तं सूत्रं ||२||
___ वि नानाभावे, क्षिप प्रेरणे, पर-समयातो विक्खेवयति स-समयं तेण गाहिति अदिट्टधम्म दिट्टधम्मताए तत् धर्मः स्वभावः, सम्मदंसणमित्यर्थः । अद्दष्टं दृष्टवत्पुव्वंति पढमं ण दिह्रो दिठ्ठपुव्वताए जधा-भ्रातरं पितरं वा मिच्छादिलुिपि होंतगं, दिठ्ठपुव्वगो सावग इत्यर्थः । तं समानधर्मं कारयति पव्वावेति । चुतं-धम्मातो चुतो भट्ठो चस्तिधम्मातो वा दंसणधम्मातो वा, तंमि चेव धम्मे ठावयति । तस्सेवत्ति-कस्स चास्तिधम्मस्स हिताए जा तस्स वृद्धिर्भवति, अणेसणादी ण गेण्हति गिण्हतं वारेति । अहवा जं 'इध परे य हितं सुधाए जधा तस्स वृद्धिर्भवति जं हितं खमं निस्सेसाय मोक्खाय आणुगामियं अवितहकारी जहा इध भवति । संते णाणे एताणि अणुढेति धम्मस्स हितादीणि ।।३।।
दोसा कसायादी बंधहेतवो अथवा पगडीतो नियतं निश्चितं वा घातयति विनाशयतीत्यर्थः । कुद्धस्स सीतघर-समाणो वंजुलवृक्षवत् । दुट्ठो कसाय-विसएस माणदुट्ठस्स वा आयारसीलभावदोसा वा विणएति, तं दोसं उवसमेति विनाशयतीत्यर्थः । कंखा भत्तपाणे परसमए वा संखडिए णदीजत्ताए वा अण्णस्स य सन्नायगा तहिं एहिति ताहे तेण सद्धिं अण्णावदेसेण पत्थविज्जति । उक्तं चसंपण्णमेवं तु भवे गणित्तं जं कंखिताणंपि हणेति कंखं । आता सुप्पणिहिते यावि भवति आता-आत्मा स कहं सुप्पणिहितो होति ? उच्यते जदा सयं तेसु कोहदोस-कंखासु ण वट्टति, तदा सुप्पणिहितो भवति । पणिधानं वा पणिधी, सोभणा पणिधी सुप्पणिधी ||४||
एवायरिएण सिस्सो गाहितो सिस्सेणवि आयरियस्स विणतो पउंजितव्यो । तस्थिमं सत्तं तस्स णं एवं गणजातीयस्स अंतेवासिस्स इमा चउब्विहा विणयपडिवत्ती भवति । 'उवगरण-उप्पातणया...४', उवगरण-उप्पादणा ताव चउविधा पण्णत्ता । तं जधा-अणुप्पन्नाइं उवगरणाइं उप्पाइत्ता भवति । जति आयरितो सयमेव उवगरणं उप्पाएइ तो वायणादि ण तरति दातुं , अतो सिस्सेण उप्पाएतव्वं । उवगरणं चत्य-पत्त-संथारगादि । पोराणाइं उवकरणाइं सारक्खित्तासंगोवित्ता भवति सारक्खति । काले पाउणति । जुत्तं च सिव्वति विधीए पाउ१.इह 1 २. सुखाय । ఉండిందంతయుగుండం 30 ఉదంతంతువుందం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे चित्तसमाधि-अध्ययनम्-५
णति । वासत्ताणं कालादीए संगोवत्ति । जहा सेहादी ण हरंति । पस्तिं जाणित्ता पच्चुद्धस्तिा भवति । पस्तिो अप्पोव्वहितो सुद्धो वा । स-गणिच्चं अन्न-गणिच्चं वा साधुं आगतं उवगरणेण उद्धरति अहाविधिं संविभत्ता भवति । अहाविधिं जहा रातिणियाए जस्स वा जो जोग्गो अहवा उवसंपज्जति । गिलाणे० 'गाहा ||१||
सहायकृत्यं साहल्लता । सा चउव्विधा- अणुलोम-वइ-सहिए तावि भवति । आयरिएण वुत्ते एवमेतं, अथवा गुरवो जं पभासंति तत्थ खेप्पं समुज्जमो, न हि सच्छंदता सेया लोए किमुत उत्तरे । अणुलोम- काय - किरिया सीसं पढमं विस्सामेति । ततो सेसं, गणि जं वा भणंति । पडिरूप काय-संफासणता-जहा सहति तहा विस्सामेति । सव्वत्थेसु जोग्गाजोग्गेसु मिण गोणसंगुलीहिं० 'गाथा । से तं साहल्लया ॥२॥
वण्णसंजलता वर्ण क्रिया-गुण-वचनविस्तारेषु, आयरितो जातीकुलेण सुत्तेण भंगा अट्ठ । पढमे भंगे याथातथ्यानां वर्णं वदति, जो अवर्णं वदति तं पडिहणति, वर्णवादिं अणुवूहति गुणवानेव जानीते वक्तुं । आता वुड्ढसेवीया भवति । वुड्डो-आयरिओं तं निच्चमेव पज्जुवासति अविरहितं करेति, आसणद्वितोय इंगितागारेहिं जाणित्ता करेति ॥३॥
भार-पच्चोरुहणता जधा-राया अमात्यादीनां भारं न्यस्य भोगान् भुंक्ते जधा वा आयरिएण अण्णस्स आयरियस्स भारो पच्चोरुभितो, एवं आयरिस्स सुत्तत्थ-गण-चिंतणाभारो तं सीसो चेव सव्वं जं जं कायव्वं गच्छस्स तं तं करेति । सा चउव्विहा-असंगहितं परियणं संगेण्हित्ता भवति । असंगहितो रुट्टो बाहिर भावं वच्चति तं संगेण्हति । सेहं आयारगोयरं गाहित्ता भवति, आयारस्स गोयरो आयारगोयरो विषय इत्यर्थः । पडिलेहण-आवस्सग भिक्ख- पाढादि गाहेति । समाणधम्मिओ साधम्मिओ गिलाणो असुहिओ आगाढाणागाढेणं अधाथामं जधासत्तीए वेतावच्चं उव्वत्तण-मत्तग- वेज्जोसहाहारे य अहाथामं अब्भुट्टेति । साहम्मियाणं अहिगरणंसि सुत्तं उच्चरेतव्वं । समाणधम्मितो सरिसधम्मो वा साधम्मिओ अधिकरणं पुव्वं भणितं । तत्थ अणिस्सितोवस्सितेत्ति - निस्सा रागो उवस्सा दोसो, अहवाऽऽहारोवहिमादी णिस्सा मम सिस्सो कुलिच्चगो वा उवस्सा, अहवा सिस्सो णिस्सा, पडिच्छगो उवस्सा । ताहिं णिस्सोपस्साहिं पक्खं ण वहति, मज्झत्थभूते तुलासमेत्ति भणितं होति । तस्स अहिगरणस्स खामण-विओसमणट्ठताए सदा समितत्ति सदा नित्यकालं समितं, स दिवसे दिवसे उट्ठाए उट्ठाए अब्भुता भवति । कहं नु-केन प्रकारेण साहम्मिया अप्पसद्दा ण महता सद्देण बोलं करेज्ज, १. साक्षिगाथा संभाव्यते ।
३८ ever
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गच्छभारोत्तारणाय आचार्यस्य करण-प्रकारादि-स्वरुपम् ।
अप्पज्झंझा ण कोहाभिभूता झंझइत्ता अच्छंति । अप्पकलहा ण अक्कोसमादीहिं कलहेत्ति, अप्प-तुमंतुमत्ति ण पुणो अप्पं तुमंति, संजम-बहुलत्ति मनोवाक्कायगुप्ता अधवा सत्तरस-विधेणं संजमेण संवरबहलंति । दुविधो संवरो-इंदियसंवरो नोइंदियसंवरो य । इंदियसंवरो सोइंदियादिना । नोइंदियसंवरो कोधनिग्गहादि । समाधिबहुलत्ति नाण-दंसण-चस्ति-समाधी सेसं कण्ठं ||४||
|| गणिसंपदा नाम चउत्थं अज्झयणं सम्मत्तं ।।
*omotkomote komote towoktr अथ पंचमी दसा चित्त समाधि-ट्ठाण-ऽज्झयणं ।
चू०-समाधि-बहुला इत्युक्तं । इमा समाही चेव चित्तस्स समाही चित्तसमाधी । चित्तसमाधी ते ठाणा चित्तसमाहिठाणा | तस्स दारा उवक्कमादि चत्तारिवि वण्णेऊण अधिगारो चित्तसमाधीए । नामनिप्फन्नो निक्खेवो चित्तसमाहिट्ठाणा । समी(मा)हितस्स चितस्स स्थानं चित्त-समाधि-स्थानं त्रिपदं नाम-चित्तं समाधी हाणं च । तत्य चित्ते समाधीए य इमा गाथा-नामं ठवणा चित्तं० गाथा
नाम ठवणा चित्तं दवे भावे य होइ बोधव् | एमेव समाहीए निक्खेवो चउविहो होइ ॥३२।।
चित्तं नामादि चउव्विहं । नामं जहा चित्तो साधू । ठवणा अक्खनिक्खेवो । जीवो तु दव्व चित्तं० गाथा- .
जीवो उ दवचित्तं जेहिं च दब्वे जम्मि वा दवे । नाणादिसु सुसमाही य धुवजोगी भावओ चित्तं ॥३३॥
दव्वचित्तं जीव एव, चित्तं न जीवद्रव्यादन्यत्वे वर्तते न वा चित्तात् जीवोऽर्थान्तरभूतः । अथवा जीवो हि द्रव्यं, स चेतनाभिसंबन्धाद् गुणपर्ययोपगमादनुपयोगाद्वा दव्वचित्तं ।
दवं जेण व दवेण समाही आवितं च जं दव्वं । भावे समाहि चउबिह दंसण-नाण-तव-चरिते ||३४||
येन वा चित्तमुत्पद्यते तद् द्रव्य-चित्तं । यथा उष्णेन दुक्खमुत्पादितं उष्णमेव दुःखं । एवं सीतेनापि । अन्नेन सुखमुत्पादितं अन्नमेव सुखं । क्षुधितस्यान्नेन, पिपासितस्योदकेन येन वाऽभ्यवहृतेन मद्यादिना । अधवा 'मेध्येन १. शुद्धेन । addddddddddddal ३९ ddddddddddddda
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'श्रीदशाश्रुतस्कंधे चित्तसमाधि-अध्ययनम्-५
घृतादिना । यान्येव चित्तोत्पादकानि द्रव्याणि तान्येव चित्तं भवन्ति । जंमि वायथा स्त्रियां पुरुषस्य, जंमि वा दव्वे अवस्थितस्य चित्तोद्भवो भवति चित्त-उद्भूतिरित्यर्थः । जधा तीसे कम्मकारियाए घरे 'घुसलेंतीए महत्तरधूयं जायति, अण्णत्यआिण जायति । गतं दव्वचित्तं ।
भावचित्तं ज्ञानाद्युपयोगः । नाणं मण वइ-कात सहगतं । एवं दरिसणंपि ३ चस्तिंपि ३ । नाणादिसु समाहितो जोगो जस्स सो भवति नाणादिसु समाहितजोगो । आदिग्रहणाद्दंसणे चरिते य । सो जीवो भावतो चित्तं ।
अकुसलजोगनिरोहो कुसलाणं उदीरणं च जोगाणं । एवं तु भावचित्तं, होइ समाही इमा चउहा ||
समाहिद्वाणं जहा असमाधिट्ठाणेसु भणियाणि तहा भाणियव्वाणि । भावचित्तेण भावसमाधीए य अधिकारो । भावसमाधी चित्ते द्वितस्स० गाहा || भावसमाधी चित्ते द्वितस्स ठाणा इमे विसिट्ठतरा होइ । जओ पुण चित्ते चित्तसमाहीए जइयव्वं ||३५||
जता एतेसु अप्पा आहितो जुत्तो ट्ठवितो य भवति तदा इमे द्वाणा विसुद्धा विसुद्धतरा भवंति । इमे जे इदाणिं सुत्ते भणिहामि धम्मचित्तादि जाव केवलनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा | अहवा गिहत्थातो विसुद्वतरा भवंति- होंति पुण जतोत्ति-होंति यस्मात्कारणात् चित्ते तेण चित्तसमाधौ यतितव्यं घटितव्यं परिक्कमितव्वं गतो नामनिप्फन्नो ।
इदाणिं सुत्तागमे सुत्तं उच्चारेतव्वं । अक्खलितादि तं च इमं सुत्तं तेणं । पंचमीदशा चित्त-समाधि स्थाना-ऽध्ययन- मूलसूत्रम् ।
मू०- णमो सुतदेवताए भगवतीए । सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस चित्तसमाहिठाणा पन्नत्ता, कतराई खलु ताइं थेरेहिं भगवंतेहिं दस चित्तसमाहिट्ठाणाइं पन्नत्ताइं ? इमाई खलु थेरेहिं भगवन्तेहि दस चित्तसमाहिट्ठाणाइं पन्नत्ताइं तं जहा
ते काणं तेणं समयेणं वाणियगामे नगरे होत्या, एत्थ नगरवण्णओ भाणियव्वो तस्स णं वाणियग्गाम-नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे दूतिपलासए णामं चेइए होत्था, चेइय-वन्नतो भाणियव्वो, जितसत्तु राया तस्स णं धारणी देवी, एवं सव्वं समोसरणं भाणितव्वं जाव पुढवीसिलापट्टए
१. मथ्नन्त्याः ।
ॐ ४० sadd
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वाणियग्रामे नगरे साधु-साध्वीरुद्दिश्य चित्त-समाधि स्थान- प्ररूपणा भगवता कृता । धर्मचिन्ता-स्वप्नदर्शनादि - दश-वस्तु- प्रदर्शनम् ।
सामी समोसढे परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया । अज्जो इति समणे भगवं महावीरे समणा निग्गंथा य निग्गंथीओ य आमंत्तेता एवं वयासी ।
इह खलु अज्जो निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इरियासमियाणं भासासमियाणं एसणासमियाणं आयाणभंडमत्त-निक्खेवणासमियाणं उच्चार- पासवण - खेल-सिंघाण- जल्ल-पारिट्ठावणिता समिताणं मणसमिताणं वयसमियाणं कायसमियाणं मणगुत्ताणं वयगुत्ताणं कायगुत्ताणं गुत्ताणं गुत्तिंदियाणं गुत्तबंभया
आयी आय-हिताणं आय-जोतीणं आयपरक्कमाणं पक्खिय-पोसहिएसु समाधिपत्ताणं झियायमाणाणं इमाई दस चित्त-समाहिट्ठाणाइं असमुप्पन्न- पुव्वाइं समुप्पज्जिज्जा, तंजहा
धम्मचिंता वा से असमुप्पन्नपुव्वा समुप्पज्जेज्जा सव्वं धम्मं जाणितए ||१|| सण्णिणाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुपज्जिज्जा अहं सरामि ॥२॥ सुमिणदंसणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुप्पज्जिज्जा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए, जाईसरणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुप्पज्जेज्जा, अप्पणो पोराणियं जाई सुमरित ||३|| देवदंसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा दिव्वं देवड्डि दिव्वं देवजाइं (जुइं) दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए ||४|| ओहिणाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा ओहिणा लोयं जाणित्तए ||५|| ओहिदसणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुप्पज्जिज्जा ओहिणा लोयं पात्तिए ||६ ॥ मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुप्पज्जेज्जा अंतो मणुस्सखेत्ते अड्डातिज्जेसु दीवसमुद्देसु सण्णीणं पंचेंदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगते भावे जाणित्तए ||७|| केवलनाणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुप्पज्जेज्जा केवलकप्पं लोयालोयं जाणित्तए ||८|| केवलदंसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा केवलकप्पं लोयालोयं पासित्तए ||९|| केवलमरणे वा से असमुप्पन्नपुळे समुप्पज्जेज्जा सव्वदुक्ख पहाणाए ||१०||
ओयं चित्तं समादाय, झाणं समणुपस्सति । धम्मे द्विओ अविमणो, निव्वाणमभिगच्छइ ||१||
ण इमं चित्तं समादाए भुज्जो लोयंसि जायति । अप्पणो उत्तमं द्वाणं सण्णीणाणेण जाणइ ||२|| अधातच्चं तु सुविणं खिप्पं पासइ संवुडे । सव्वं च ओहं तरती दुक्खदोयवि मुच्चइ ॥३॥ ००ñas ४१ |sadddd
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- "श्रीदशाश्रुतस्कंधे चित्तसमाधि-अध्ययनम्-५
पंताइं भयमाणस्स विचित्तं (विवित्त) सयणासणं । अप्पाहारस्स दंतस्स देवा दंसेंति तातिणो ||४|| सव्वकाम-विरत्तस्स खमतो भयभेरवं । तओ से ओहिनाणं भवति संजतस्स तवस्सिणो ||५|| तवसा अवहडऽच्चिस्स दंसणं परिसुज्झति । उड्ढमहेतिरियं च सव्वं समणुपस्सति ।।६।। सुसमाहित-लेसस्स अवितक्कस्स भिक्षुणो । सबओ विप्पमुक्कस्स आया जाणति पज्जवे ।।७।। जता से णाणावरणं सलं होति खतं गयं । तदा लोगमलोगं च जिणो जाणति केवली ||८|| जया से दंसणावरणं सब् होइ खयं गतं । तया लोगमलोगं च जिणो पासइ केवली ॥९॥ पडिमाए विसुद्धाए मोहणिज्जे खयं गते । असेसं लोगमलोगं च पासति सुसमाहिए ॥१०॥ जहा मत्थयसूयीए हताए हम्मती तले। एवं कम्माणि हम्मंते मोहणिज्जे खयं गते ||११|| सेणावतिम्मि णिहते जधा सेणा पणस्सती । एवं कम्मा पणस्संति मोहणीज्जे खयं गते ।।१२।। धूमहीणे जधा अग्गी खीयति से निरंरिंधणे । एवं कम्माणि खीयंति मोहणिज्जे खयं गते ।।१३।। सुक्कमूले जधा रुक्खे सिच्चमाणे ण रोहति । एवं कम्मा न रोहंति मोहणिज्जे खयं गते ||१४|| जधा दड्डाण बीयाण न जायंति पुणंकुरा । कम्मबीयेसु दड्डेसु न जायंति भवांकुरा ||१५|| चिच्चा ओरालितं बोदिं नामागोत्तं च केवली । आउयं वेयणिज्जं च छित्ता भवति नीरजे ||१६|| एवं अभिसमागम्म चित्तमादाय आउसो । सेणिसोधिमुवागम्म आतसोधिमुवेहइत्ति बेमि ||१७||
पंचमा दसा सम्मत्ता ॥ ఉంఉంయంయంయంయంయుతం అంతంతమవంతం
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निग्रंथ स्वरूपम् । मोक्षगमन-योग्यता-प्रकाशनम् । कीदृशानां अवधि-केवलज्ञान प्राप्तिः ।
तेणं कालेणं २ सुत्तं उच्चारतव्वं । इहत्ति इहलोगे प्रवचने यथा-खलु विशेषणे निर्ग्रन्थानामेव नान्येषां । अज्जोति आमन्त्रणे । निर्गता ग्रन्थाद् निर्ग्रन्थाः । सबाह्याभ्यन्तरतो ग्रन्थातो निर्गताः, इरियासमिताणं जाव कायगुत्ताणं । एतानि कंठ्यानि । गुत्ताणं किं पुणो गुत्तग्रहणं करोति ? । उच्यते-एएहिं अट्ठहि वि ठाणेहिं गुत्तो भवति जावंति अ गुत्तट्ठाणाणि तेहिं सव्वेहिं गुत्तो गुत्तिंदिय सोतिंदियविसय-पयार-निरोधो वा सोतिंदियप्पत्तेसु वा अत्येसु रागदोस-निग्गहो, एवं पंचण्हवि । अथवा जहा कच्छपो स्वजीवित-परिपालनार्थं अप्पणो अंगाणि स एक्कतल्ले गोवेति, गमणादि-कारणे पुण सणियं पसारेति, तथा साधूवि संजमकडाहे इंदियपयारं कायचेटुं च निरंभति, गुत्तबंभचारीणंति न केवलं इंदिएसु गुत्ता, सेसेसुवि पाणवहादीसु गुत्ता अट्ठारसेसु वा सीलंगसहस्सेसु द्विता गुत्तबंभचारी भवति । आतट्ठिणंति-आत्मार्थी आयतार्थी वा । निगृहीतात्मानः न परित्यक्तात्मानः । आतहिताणंति हितं अहितं च शरीरे आत्मनि च भवति । शरीरे पथ्याऽपथ्याहारः, आत्मनि तु हिंसादिप्रवृत्तिर्निवृत्तिर्वा । अथवा आत्मानः अहिता तिन्नितिसट्ठा वावादुसयता | कहं ते आत्मानः अहिता ? उच्यते-जेण हिंसादिसु अट्ठारससु हाणेसु पवतंत्ति , अपथ्याहारे रोगिवत् । कतराणि अट्ठारस-ट्ठाणाणि ? उच्यते पाणातिवातो ५ कोधो ४ पेज्जो दोसो कलहे अब्भक्खाणे पेसुण्णे परपरिवाते अरतीरती मायामोसे मिच्छादंसणसल्ले । आतजोगीणंति-जस्स जोगा वसे वटुंति, आप्ता वा यस्य जोगा ३ आप्ता इल्ला कंता पिया । आतपरकम्माणंति-आत्मार्थं परक्कमंति न परार्थं , परव्वसो वा 'चारपालवत् । पक्खियं पक्खियमेव, पक्खिए पोसहो पक्खियपोसहो चाउद्दसि अट्ठमीस् वा । समाधिपत्ताणंतिनाणदंसणचारित-समाधिपत्ताणंति । झाणे वट्टमाणाणं झियायमाणाणं इमाइं दस चित्तसमाधिटाणाणि असमुप्पन्न-पुव्वाणि समुपज्जेज्जा । इमानीति वक्ष्यमाणानि । दसत्ति संख्या । चित्तसमाधिट्ठाणाइं ण कदाइ समुप्पन्नपुव्वाणि अतीते काले ।
__तं जधा-धम्मचिन्ता वा से सुत्तं-सेत्ति णिद्देसे तस्स एवंगुणजातीयस्स निग्रंथस्स धर्मः स्वभावः जीवद्रव्याणां अजीवद्रव्याणां च । अहवा सव्वे कुसमया असोभणा अनिर्वाहकाः, सर्वधर्मेषु शोभनतरोऽयं धर्मो जिनप्रणीतः एवं नायं भवति । (१) 'सन्निनाणे वा से' सुत्तं-संजानाति संज्ञा, यथा-पूर्वाणे गां द्रष्ट्वा, पुनरपराह्ने प्रत्यभिजानीते असौ गौरिति अहं सरामीति । अमुगोऽहं पुव्वभवे आसि, सुदंसणादिवत् । (२) 'सुमिणदंसणे वा से' सुत्तं-सुमिणदंसणं१. कारागृह-रक्षकवत् । సమంతయుతంగం 3 అంతంతంగం
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे चित्तसमाधि-अध्ययनम्-५
जधा भगवतो वद्धमाणसामिस्स पण्णत्तीए दस-सुमिणग-विभासा । अथवा इत्थी वा पुरिसो वा सुमिणते एगं महं हयपत्ति' वा तहेव सव्वं विभासितव्वं । अहातच्चेतियथा तथा फलं । (३) 'देवदंसणे वा से' सुत्तं तवस्सित्ति कातुं देवा से दंसंति अप्पाणं आउट्टा क्षपकवत् । (४)
'ओहिनाणे वा से' सुत्तं ओहिनाण-ओहिदंसणाणं युगपत्कालोत्पत्तित्वाद् एकत्वं? नेत्युच्यते यथा सम्यगज्ञानदर्शनानां पृथक्त्वम् । (५-६) शेषं कण्ठयम् । (७-१०)
गद्योक्तोऽयं पुनः श्लोकैरर्थः । ओयं चित्तं समादाय सिलोगो-रागद्दोसविरहितं चित्तं ओअंति भन्नति सुद्धं एकमेव सम्यग् आदाय समादाय गृहीत्वा झाणं धम्मं पस्सति करेतित्ति भणियं होइ । दिट्ठमन्नेहिं पस्सति, पुणो पुणो वा पस्सति समणुपस्सति । धम्मे हितो कयरंमि ? धर्मे, यथार्थोपलंभके, अथवा २आरुहते धम्मे हितो अविमणो ण कुसमएहिं मणो गच्छति संकादि वा जिणवयणे ण करेति । स एवं प्रकारो निव्वाणं सिद्धिं अभिगच्छति याति ||१||
___ ण इमं चित्तं समादाय' सिलोगो-अ-मा-नो-ना प्रतिषेधे ण इमं चित्तं आदाय गृहीत्वा कतरं जातस्मरणादि भुज्जो पुणो लोगंसि संसारे जायति उप्पज्जति । आत्मनः उत्तमंति जायइ-उप्पज्जई, जोऽहं परभवे आसि, अहवा उत्तमो संजमो मोक्खो वा, यत्र तमो अन्नाणं कम्मं वा ण विज्जति । अथवा श्रेष्ठं-निर्वाहकं हितं वा आत्मनः तज्जानीते ||२||
'अहातच्चं' सिलोगो अहातच्चं जहा चरिम-तित्थकरेणं दस-सुमिणा दिठ्ठा । तधा खिप्पं फलदं पासति । संवृतात्मा संवुडः आसवदारेहि । ओहो णरगादि संसारो सव्वो अपरिसेसे(सं) ण पुणो संसारी भवति । दुक्खंति वा कम्मति वा एगटुं | सारीर-माणसं वा दुक्खं संसारिगं वा विविधमनेकप्रकारं मुच्चति विमुच्चति ||३||
__ 'पंताइ भयमाणस्स’ सिलोगो । पंताणि आहारादीनि ३ । भज सेवायां विवित्तं इत्थि-पस-पंडग-विरहिताणि जीवेहिं वा विवित्तं, विचिर पृथग्भावे विवित्ताणि सयणासणाणि । अप्पाहारो, दंतो-इंदियणोइंदिएहिं । कतरे देवा ? जेहिं तेनैव प्रकारेण देवत्तं लद्धं, तातिणो- आत्मत्राती परत्राती उभयत्राती ||४||
'सव्वकामविस्तस्स०' सिलोगो । सर्वे कामाः शब्दादयः इहलोगिका पारलोगिका य विस्तो-ण तेसु रागं गच्छति । खमति मरिसेति सहतीत्यर्थः । १. घृतपात्रीम् । २. आर्हते । ३. आहार-शय्योपधि-लक्षणानि । ४. आत्मत्रायीत्यादि । daddidiaradasiddalanda ४४ adddddddddddddddd
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कीदशा निर्वाणमभिगच्छति ।
भयमेव भैरवं भयभेरवं । अहवा भयं जं किंचित् भेरवा सीह-वग्घ-पिसायादी खमति-सहति । उवसग्गा चउव्विधावि । ततो तस्सेवंगुणजातीयस्स ओहिणाणं भवति । केरिसस्स ? संजतस्स पुढवादि १७ । बारसविहे य तवे आसितस्स ||५||
'तवसा 'अवहडलेसस्स' सिलोगो । द्वादशप्रकारेण तपसा अपहृता असोभणा लेसा कण्हलेस्सादि ३ द्रव्यार्चिर्वह्निशिखा, दंसणं-ओहिदंसणं परिसुज्झति विसुज्झति, तेण किं पस्सति ? उच्यते-उड्डलोगं अहोलोगं तिरियलोगं च पस्सति, जे तत्थ भावा जीवादि, कम्माणि वा जेहिं तत्थ गम्मति सर्वात्मना सव्वदिसं वा ||६||
±सुसमाहड-लेसस्स सिलोगो । सुड्डु समाहितातो लेस्सातो जस्स स भवति सुसमाहडलेसो तेउ-पम्ह-सुक्कतो । अवितक्कस्स तक्का वीमंसा उहा, भिक्खणसीलो भिक्खू, सव्वतो विप्पमुक्कस्स अब्भितरसंजोगा बाहिरसंजोगा य तेण सव्वेण विप्पमुक्कस्स आता ज्ञानमेव पज्जवेति भावान् जानीते ||७|| केरिसस्स केवलनाणं भवति ? उच्यते- 'जता से णाणावरणं० ' सिलोगो कंठो ॥८॥
केरिसस्स केवलदंसण उप्पज्जति । उच्यते-जता से दंसणावरणं० सिलोगो कंठो ॥९॥
`पडिमाए विसुद्धाए० ́ सिलोगो । पडिमत्ति- जाओ मासिगादि-बारस भिक्खू-पडिमातो | अहवा इमातो चेव रयहरण-गोच्छग-पडिग्गह-धारिगा पडिमा । अहवा मोहणिय-कम्म-विवज्जितो अप्पा | अहवा विशुद्धा प्रतिज्ञा ण इहलोगपरलोग-निमित्तं असेसं-निरवसेसं जाणति अक्षयं तत् ज्ञानं सुसमाहिता सुटु आहिता समाधिता ||१०|| 'सेसा सिलोगा' कंठा ॥११- १५॥
'चिच्चा ओरालिया बोंदिं० ' सिलोगो । केवलि मरणं चेच्चा छेदेत्ता उरालियं बोंदिति सरीरं नामं गोत्तं च । चशब्दात् तेयगं कम्मगं च । उक्तं चउरालिय तेया कम्मगाइं सव्वाइं विप्पजहति आउयं वेदणिज्जं च चिच्चा भवति रतो । अरजा अकर्मा ||१६||
एवं अभिसमागम्म सिलोगो । एवमवधारणे । अभिराभिमुख्ये सं एगीभावे आङ मर्यादाभिविध्योः । गमृसृपृगतौ सर्व एव गत्यर्था धातवो ज्ञानार्था ज्ञेयाः । आभिमुख्यं सम्यग् ज्ञात्वेत्यर्थः । किं कायव्वं ? सोभणं चित्तं आदाय, १. 'अवहड-ऽच्चिस्स' पाठान्तरम् ।' २. `सुसमाहित-लेसस्स' पाठान्तरम् ।
४५
తరత
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे उपाशक-प्रतिमा-अध्ययनम्-६
कतरं चित्तं गेण्हितव्वं ? रागादि-विरहितं, आउसोत्ति आमंतणं । एताणि वा दस चित्तसमाधिठ्ठाणाणि आदाय किं कातव्वं ? उच्यते-सेणिसोधिमुवागम्म । सेणी दुविधा दव्वसेणी भावसेणी य । दव्वसेणी जीए पासादादि आरुभिज्जति, भावसेणी दुविधा विसुद्धा अविसुद्धा य । अविसुद्धा संसाराय इयरा मोक्खाय । उक्तं च-दव्वसिती भावसिती० गाथा | सोधयति कम्मं तेण सोही भण्णति । सोधिग्रहणादेव संजमसेढी गहिता | उक्तं च-अकलेवरसेणिमुस्सिया । उपागम्य ज्ञात्वा कृत्वा वा । उप सामीप्ये, तं प्राप्य किं भवति ? उच्यते-आत्तसोधी आत्मनः सोही आत्मसोधी । कर्माणि सोधयति तवसा संजमेण य । उवेहति पेक्खति जो एवं करेति एवं गणधर-तीर्थंकर आह । जंण भणितं तं कंठयम् ||१७||
|| पञ्चममध्ययनं चित्तसमाधि-स्थानाख्यं समाप्तम् ।।
अथ छट्ठी दसा उवासग-पडिमा-ऽज्झयणं
चू- एवं सम्मइंसणे लद्धे कोपि पव्वावति, कोइ उवासगो भवति । एतेणाभिसंबंधेण उवासगपडिमाओ संपत्ताओ । तासिं दारा उवक्कमादि । अहिगारो उवासगपडिमाहिं, नामनिप्फन्नो निक्खेवो उवासगपडिमातो, उवासगाण पडिमा उवासगपडिमा । दुपदं नामं उवासगा पडिमा य | उवासगपडिमा उपसामीप्ये आस-उपवेसने सो उवासातो चउव्विधो-दव्वं तदट्ठोवासग गाथा ।
दब-तदट्ठोवासक-मोहे भावे उवासका चउरो | दवे सरीरभविओ तदढिओ ओयणाइसु ||३६।।
दव्वोवासगो तदहोवासगो मोहोवासगो भावोवासगो । दव्वे सरीरभविउत्ति-जाणग-सरीर-भविय-सरीर-वतिस्तिो दव्वोवासगो तिविधो-एगभवितो बद्धाउतो अभिमुहणामगोत्तो, दव्वभूतो वा तदहितो ओदणादिसुत्ति-दव्वं जो उवासति सो तदहितो, सो तिविधो-सचित्तादि ३ सचित्ते दुपद-चतुष्पद-अपदेसु । दुपदे पुत्त-भज्ज-दासादि । चतुष्पदे गवाश्वादि । अपदे आराम-पुप्प-फलनिमित्तं । तदपि जदा पक्कं मिस्सं एताणि चेव सभंडमत्तोवगरणाणि वा । अचित्ते-ओदणादिआमंत्रणं उवासति । दव्वनिमित्तं वा राजादि उवासति सोऽहोवासतो | कुप्पवयणं० गाथा
कुप्पवयणं कुधम्म उवासए मोहुवासको सो उ ।
हंदि तहिं सो सेयंति मण्णती सेयं नत्थि तहिं ॥३७॥ १. मोघः निरर्थकः ఉంటుంంంంంంం ఉదయండించుటయయం
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द्रव्य श्रेणि-भावश्रेणि-स्वरूपम् । उपासक-निक्षेप: चतुःप्रकाराच । उपासका श्रावकाएवन मुनीश्वरा इति चर्चा।
कुप्पवयणं तिन्नि तिसठ्ठा कुधम्म-सता | जो तेहिं पण्णवितो उवासतित्ति मोघं तत्र फलं नास्ति । यदुक्तं भवति किं निमित्तं तान्युपासति ? | उच्यते-हंदि संप्रेषे अनुमतार्थे वा । तहिं कुप्पवयणे ण सेयो सग्गो अप्पवग्गो य । सोउं तं जो उवासति मन्यते वा चिन्तयति उपलभति वा, 'ताणि य तहिं नत्यि तेण मोहुवासगो । भावे उ सम्मद्दिट्टी० गाथा
भावओ सम्मद्दिट्टी संमणो जं उवासए समणे । तेण सो गोण्णं नाम उवासगो सावगो वत्ति ||३८||
भावुवासतो सम्मद्दिठ्ठी गुणेभ्यो जातं गोणं सो निर्देशे जो सम्मद्दिट्टी सम्ममणो समणे उवासति तेण कारणेण उवासतो श्रावयतीति श्रावकः । यद्येवं तेन गणधरादिः तीर्थकरं उवासंति श्रावयंति च तेषामपि उपासकत्वं श्रावकत्वं वाऽस्तु, उच्यते-कामं दुवालसंगं० गाथा .
कामं दुवालसंग पवयणमणगारगारधम्मो अ । ते केवलीहिं पसूआ प उवसग्गो पसूअंति ||३९।।
काममविवृतार्थे यद्यपि तुल्यं उपासकत्वं श्रावकत्वं वा तथापि दुवालसंगं गणिपिडगं, दुविधो-अणगारधम्मो सावगधम्मो य । ते अगार-अणगार-धम्मा केवलीतो पसूता षूङ् प्राणिप्रसवे प्र-उपसर्गः ।
तो ते सावग तम्हा उवासगा तेसु होति भत्तिगया । अविसेसंमि विसेसो समणेसु पहाणया भणिया ||४०||
तो ते श्रावका भवंति । तम्हत्ति-तस्मात्कारणात् जे तेसु भत्तिगता तेउवासगा सावगा य भवंति, साधू गिही वा । यद्येवमविशेषो भवति, तस्मादेकान्तेनैव गिहिणो सावगा उवासगा य भवंति । ण भवंति साधवो सावगा उवासगा वा इति । कथं ? उच्यते-प्राधान्यत्वात्, साधवस्तु केवलज्ञानोत्पत्तेः कृत्स्नश्रुतत्वाच्च चोद्दसपुव्वी जदा तदा णो उवासगा भवंति एकान्तेनैव श्रवंति उवासिज्जंति वा । श्रावकास्तु अकृत्स्न-श्रुतत्वात् नित्योपासनाच्च उवासगा एव भवंति, देशं श्रवंति श्रुतज्ञानस्य । इतरे चोद्दसपुव्वाणि श्रवंति, उपास्यंते चान्यैः, तेन ते श्रावका एव । तो ते गाथा ४० । कामं तु गाथा-उच्यते,
कामं तु निरवसेसं सव्वं जो कुणइ तेण होइ कयं ।
तंमि ठिताओ समणा नोवासगा सावगा गिहिणो ॥४१॥ १.श्रेयः प्रमृतीनि । ఉదయంయుతంగుతుంటయయం ఆధంతంతంతంతమయం
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे उपाशक-प्रतिमा-अध्ययनम्-६
काममेतदेवं, यदुक्तवानसि, किन्तु निरवशेषं न श्रवंति, न च नित्यकालं उपास्यंते । यो हि निरवशेषं श्रवति सो उवासतो भवति । दिलुतो पटकर्ता । इह हि यः पटस्य देशं करोति ण तेण पटो कतो भवति । जो हि सव्वपगारेहि करेंति ण तु उक्खेवणादि । एवं गिही देसं सुतनाणस्स जाणति ण निरवसेसं सुतं | समणा तु निरवसेसं सुतं करेति पढंतीत्यर्थः । तम्मि,य हितत्ति जया केवलमुप्पन्नं तदा न उवासंति, जाहे वा चोद्दसपुव्वी जाता ताहे न श्रावयंति । ठिया चेव अवितुं उपासितुं वा तो ते न श्रावकाः । श्रावकास्तु नित्यं उपासंति नित्यकालं च श्रावयन्ति तेन श्रावका भवन्ति । न तु श्रावका' भणिता उपासगा । इदाणिं पडिमा । सा नामादि चउव्विधा । दव्वपडिमा दव्वंमि सचित्तादि० गाथा
दव्वंमि सचित्तादी संजमपडिमा तहेव जिणपडिमा । भावोसंताण गुणाण धारणा जा जहिं भणिआ ||४२।।
दव्वे सचित्तादि ३ संजतपडिमा, दव्वलिंग पव्वइतुकामस्स गिहिस्स, उप्पव्वइतुकामस्स वा, जिणपडिमा तित्यगरस्स पव्वयंतस्स, भावपडिमा सत्तगुणधारणा, साधुस्स साहुगुणा अट्ठारसंग-सीलंग-सहस्स-गुणधारी साधू, तित्थगरे तित्थगरगुणा चोत्तीसं, बुद्धातिसेसा सत्या तथ्या अवितहा जा जहिं भणिया आयरिए आयरियगुणा, एवं उवज्झाएवि, सावगो सावगगुण-धरेति । सा च दुविधा० गाथा
सा दुविहा छबिगुणा भिक्खूण उवासगाण एगूणा । उवरिं भणिया भिक्खूणुवासगाणं तु वोच्छामि ||४३।।
सा भावपडिमा समासतो दुविधा पन्नत्ता-भिक्खूपडिमा उवासगपडिमा य । भिक्खूणं छ-बिगुणा बारस, उवासगाणं बारस-एगुणा एक्कारस भिक्खूणं उवरि भन्निहित्ति सत्तमज्झयणे । उवासगाणं ताव पभणामि । किं निमित्तं पिधारंभो ? उच्यते तत्थहिगारो० गाथा ,
तत्थहिगारो तु सुहं नाउं आइक्खिओ व गिहिधम्मं । साहूणं च तवसंजमंमि संवेगकरणाणि ||४४||
तत्थाऽधिकारो इमे साधू इमे उपासगा सुहं नाउं भवति । एरिसा सावगा एतेहिं गुणेहिं उववेता भवंति । एरिसा साधुणो गुणा सुहं च आइखिप्पंति । गिहिधम्मो एरिसो । एरिसो साधुधम्मो । किं चान्यत्-साधूणं तवसंजमंमि संवेगकरणाणि । जति ता० गाथा १. चतुर्दशपूर्वश्रोतारः । २. पृथगारम्भः । ఉంంంంంంంంంంంతం - ఉదయం ఉండటం
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प्रतिमानिक्षेपे भावप्रतिमा सत्त्वगुणधारणा तीर्थकरस्यादि । श्रावक-पडिमा सूत्राणि । अक्रियावादि-स्वरुपम् ।
जइ ता गिहिणो वि य उज्जमंति नणु साहुणावि कायदं | सव्वत्थामो तवसंजमंमि इअ सुट्ठ नाऊणं ।।४५|| 'दंसण-वय-सामाइय- पोसह-'पडिमा अबंभ- सच्चित्ते । 'आरंभ- पेस- उद्दि-वज्जए "समणभूए अ ||४६।।
जति ताव गिहत्था होंतगा उज्जमंति परलोगनिमित्तं सीलगुणेहिं । किमंग पुण साधुणा सव्वत्थामेण तवसंजमंमि उज्जमो न कायव्वो निज्जराणिमित्तं ? इय नाऊणं सुहु आयरेण कातव्यो । सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारतव्वं
षष्ठी दशा उपाशक-प्रतिमा-ऽध्ययन-मूलसूत्रम् ।
मू० सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खातं इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कारस उवासग-पडिमाओ पण्णत्ताओ, कयरा खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कारस उवासग-पडिमाओ पन्नत्ताओ ? इमाओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कारस उवासग-पडिमाओ पन्नत्ताओ,
तंजहा-अकिरियावादी यावि भवति नाहिय-वायी नाहिय-पन्ने णाहिय-दिट्ठी, नो सम्मावादी, नो नितियावादी, न संति परलोगवादी, णत्थि इहलोगे, नत्थि परलोए, णत्थि माता, णत्थि पिता, णत्थि अरहंता, णत्थि चक्कवट्टी, णत्थि बलदेवा, णत्थि वासुदेवा, णत्थि नेरइया, णत्थि सुकडदुक्कडाणं फलवित्तिविसेसे, णो सुचिन्ना कम्मा सुचिण्ण-फला भवंति, नो दुचिन्ना कम्मा दुचिन्नफला भवंति, अफले कल्लाण-पावए, नो पच्चायंति जीवा, नत्थि 'निरया, नत्थि सिद्धी, से एवं वादी, एवं पण्णे, एवं दिट्ठी, एवं छंदा रागमति-णिविढे आवि भवति, से य भवति महिच्छे, महारम्भे, महापरिग्गही, अहंमिए, अहम्माणुए, अहम्मसेवी, अहम्मिढे, अधम्मक्खाई, अहम्म-रागी, अधम्म-पलोई अधम्म-जीवी, अधम्म-पलज्जणे', अधम्म-सीलसमुदाचारे, अधम्मेणं, चेव वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ ।
__हण छिंद भिन्द वेकत्तए लोहियपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया उक्कंचण-वंचण-माया-निअडी-कूड-सातिसंपयोग-बहुला दुस्सीला दुपरिचया दुरणुणेया दुबया दुप्पडियानंदा निस्सीले निग्गुणे निम्मेरे निपच्चक्खाणपोसहोववासे असाहू सव्वातो पाणाइवायातो अप्पडिविरए जावज्जीवाए । १. निरजस्काः सिद्धाः । २. प्ररअनः अनुरागी । ३. 'वेकंत्तए' इति संभाव्यते । 'वेअंतके' पाठान्तरम् । ఉంగరంమంతయుతంతుయుం తంతుయుతంగురుమంతరం
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे उपाशक-प्रतिमा अध्ययनम्-६ एवं जाव सबाओ कोहाओ सातो माणातो सव्वातो मातातो सव्वातो लोभातो सव्वातो पेज्जातो दोसातो कलहातो अब्भक्खाणातो पेसुण्ण-परपरिवादातो अरतिरति-मायामोसातो मिच्छादसण-सल्लातो अपडिविरता, जावज्जीवाए सव्वातो कसाय-दंतकट्ठ-ण्हाण-मद्दण-विलेवण-सद्द-फरिस-रस-रूवगंध-मल्लालंकारातो अपडिविरता, जावज्जीवाए सव्वातो सगड-रह-जाणजुग-गिल्लि-थिल्लि-सीया-संदमाणिय-सयणासण-जाण-वाहण-भोयण'पवित्थरविधीतो अपडिविरता, जावज्जीवाए असमिक्खियकारी, सव्वातो आसहत्थि-गो-महिस-गवेलय-दासी-दास-कम्मकरपोरुसातो अपडिविरया, जावज्जीवाए सव्वातो कय-विक्कय-मासद्धमास-रूवग-संववाहारातो अपडिविरया, जावज्जीवाए सव्वातो हिरण्ण-सुवण्ण-धण-धन्न-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवालाओ अपडिविरया, जावज्जीवाए सवाओ कूडतुल-कूडमाणाओ अप्पडिविरया, सव्वाओ आरंभ-समारंभाओ अप्पडिविरया, सव्वाओ करण-कारावणाओ अप्पडिविरया, सव्वातो पयण-पयावणाओ अप्पडिविरया, सव्वातो कुट्टण-पिट्टणातो तज्जण-तालण-बंधवह-परिकिलेसतो, अपडिविरता, जावज्जीवाए जे यावन्ना तहप्पगारा सावज्जा अबोधिआ कम्मंता कज्जंति, परपाण-परिआवणकडा कज्जंति, ततोवि अ अपडिविरता जावज्जीवाए ।
से जहा नामए केइ पुरिसे कल-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-निफाव-चणकुलत्थ-आलिसंद हरिमंथ-जव एमाइएहिं अजते कूरे मिच्छादंडं पउंजइ ।
एवमेव तहप्पगारे पुरिसज्जाते तित्तिर-वट्टा-लावक-कपोत-कपिंजलमिय-महिस-वराह-गाह-गोध-कुम्म-सिरीसवादिएहिं अजते कूरे मिच्छादंडं पउंजइ ।
जावि य से बाहिरिया परिसा भवति तं दासेति वा पेसेति वा भतएति वा भाइल्लेति वा कम्मारए ति वा भोगपुरिसेति वा, तेसिंपिय णं अण्णयरंसि अधालघुसगंसि अवराधंसि सयमेव गरुयं दंडं वत्तेति ।
तंजहा-इमं दंडेह, इमं मुंडेह, इमं वज्जेध, इमं तालेध, इमं अंदुबंधणं करेह, इमं नियल-बंधणं करेह इमं हडिबंधणं करेह, इमं चारग-बंधणं करेह, इमं नियल-जुयल-संकोडिय-मोडितं करेह, इमं हत्थ-छिन्नं करेह, इमं पाद-छिन्नं करेह, इमं कन्नं, इमं नक्कं, इमं उर्ल्ड, इमं सीसच्छिन्नयं करेह, इमं मुखं, इमं 'वेयच्छा, इमं हितओपाडियं करेह, एवं नयण१. 'पवित्यरविधातो' पाठान्तरम् । २. वैकक्षं बन्धविशेषो यथा स्यात्तथा बध्नीत, यदिवा द्वे कक्षे छिन्ने स्यातां तथा कुरुत । ३. हृदयाऽवपाटितं कुरुत । ఉంటంటయయంతరం 40 మంటలేండింగంగంగం
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अक्रियावादि-जीवानां आरंभ-समारंभादि-करणप्रकाराः । मिथ्यात्वादि-स्वरुपम् अभ्यंतर-पर्षदामपि गुरुकं दण्डं वितरन्ति । दुःखादि-प्रकारैः कदर्थयित्वा नरके कृष्ण-पाक्षिकत्वेन उत्पादनम् । दसण-वयण-जिब्भ-उप्पाडियं करेह, इमं ओलंबितं करेह, इमं घंसिययं, इमं घोलिततं, सूलायितयं इमं सूलाभिन्नं, इमं खारवत्तियं करेह, इमं 'वब्भवत्तियं, इमं सीहपुच्छितयं, इमं वसभ-पुच्छतियं, इमं कडग्गि-दद्धयं, इमं काकिणि-मंस-खाविततं, इमं भत्तपाण-निरुद्धयं, इमं जावज्जीव-बंधणं करेह, इमं अन्नतरेणं असुभेणं कु-मारेणं मारेह ।
जावि य से अभितरिया परिसा भवति तंजहा-माताति वा पिताति वा भायाइ वा भगिणित्ति वा भज्जाति वा धूयाति वा सुण्हाति वा तेसिंपि य णं अण्णयरंसि अहालहुसगंसि अवराहसि सयमेव गरुयं डंडं वत्तेति ।
तंजहा-सीतोदगंसि कायं तो बोलित्ता भवति, उसिणोदग-वियडेण कायंसि ओसिंचित्ता भवति, अगणि-कायेन कायं ऊडहित्ता भवति, जोत्तेण वा वेत्तेण वा नेत्तेण वा कसेण वा छिवाडीए वा लताए वा पासाइं उद्दालित्ता भवति, डंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूएण वा कवालेण वा कायं आउडेत्ता भवति ।
तहप्पगारे पुरिसजाते संवसमाणे दुमणा भवंति, तहप्पगारे पुरिसज्जाए विप्पवसमाणे सुमणा भवंति ।
तहप्पगारे पुरिसजाए दंडमासी दंडगरुए दंडपुरक्खडे अहिये अस्सि लोयंसि, अहिए परंसि लोयंमि, ते दुक्खेत्ति ते सोयंति एवं जूति तति पिट्टेइ परितप्पंति । ते दुक्खण-सोयण-झुरण-तिप्पण-पिट्टण-परितप्पण-वहबंध-परिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवन्ति ।
एवामेव ते इत्थि-काम-भोगेहिं मुच्छिता गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना जाव वासाइं चउ-पंचमाइं "छ-दसमाणि वा अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं भुंजित्ता भोग-भोगाइं पसविता वेरायतणाइं संचिणित्ता बहइं पावाइं कम्माइं उसन्नं संभार-कडेण कम्मुणा से जहा नामए अयगोलेति वा सिलागोलेइ वा उदयंसि पक्खित्ते समाणे उदग-तलमतिवत्तिता अहे धरणि-तल-पतिट्ठाणे भवति ।
एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाए वज्जबहुले 'धुण्णबहुले पंकबहुले वेर१. हतः स्यात्तथा कुरुत यदिवा 'वद्ध' इत्यादि पाठः स्यात्तर्हि वध्रः चर्मरज्जुस्तया बध्नीत मेतार्यवत् । चूर्णिकृता तु 'बंभवत्तियं पाठो गृहीतः । २.उद्दहिता । ३. आकुट्टयिता | - ४ षड् दशादीनि वर्षाणि मकारः अलाक्षणिकः । ५. पापबहुलः। dadlandddddddddddal ५१ adddddddddddddddaladis
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे उपाशक-प्रतिमा-अध्ययनम्-६ बहुले दंभ-नियडि-अयस-बहुले अप्पत्तिय- बहुले उस्सण्णं तसपाणघाती कालमासे कालं किच्चा धरणितलमतिवतित्ता अधे णरग-तल-पतिट्ठाणे भवति ।
__ ते णं नरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्प-संट्ठाण-संट्ठिया निच्चंधकार-तमसा ववगय-गह-चन्द-सूर-नक्खत्त-जोइस-पहा मेद-वसा-मंसरुहिर-पूय-पडल-चिक्खिल्ल-लित्ताणुलेवणतला असुई । 'तीसा परमदुब्मिगंधा काऊअगणि-वण्णाभा कक्खड-फासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरयस्स वेदणा नो चेव णं नरएस नेरईया निदायंत्ति वा पयलायंत्ति वा सतिं वा रतिं वा धितिं वा मतिं वा उवलभंति ।
तेणं तत्थ उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं चंडं रुक्खं दुग्गं तिव्वं दुरहियासं नरएसु नेरईया निरय-वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरति ।
से जहा नामते रुक्खे सिया पव्वयग्गे जाते मूलच्छिन्ने अग्गे गुरुए जतो निन्नं जतो दुग्गं जतो विस ततो पवडति, एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाते गब्भतो गब्भं जम्मातो जम्मं मारातो मारं दुक्खातो दुक्खं दाहिणगामिए नेरइये किण्ह-पक्खिते आगमेस्साणं दुल्लभबोधितयावि भवति से तं अकिरियावादी यावि भवति ।
___ से किं तं किरियावादी यावि भवति तं जहा-आहियवादी आहिय-पन्ने आहिय-दिट्ठी सम्मावादी नीयावादी संति-परलोगवादी अत्थि इहलोगे अत्यि परलोगे अस्थि माता अस्थि पिता अत्थि अरहंता अस्थि चक्कवट्टी अत्थि बलदेवा अस्थि वासुदेवा अत्थि सुक्कड-दुक्कडाणं फलवित्तिविसेसे सुचिन्ना कम्मा सुचिन्नफला भवंति, चिन्ना कम्मा दृचिन्नफला भवंति, सफले कल्लाणपावए, पच्चायति जीवा, अत्थि निरया, अत्थि सिद्धी । से एवं वादी एवं पन्ने एवं दिट्ठी-च्छंद-राग-मति-निविढे आवि भवति से भवति महिच्छे जाव उत्तरगामिए नेरइये सुक्क-पक्खिते आगमेस्साणं सुलभ-बोधिएयावि भवति, से तं किरियावादी।
__सव्वधम्मरुइयावि भवति । तस्स णं बहूई सील-गुणवत-वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासाइं नो सम्मं पट्टविताई भवंति । से णं सामाइयं देसावकासियं नो सम्मं पट्टवितपुवाइं भवति । पढमा उवासगपडिमा ||१||
__ अधावरा दोच्चा उवासगपडिमा-सव्वधम्मरुई आवि भवति । तस्स णं
२. तस्या अशुच्याः । ३. स्मृतिं वा नोपलभन्ते । ఉండింతయతయుతమయం | AR తనయుతము మునుగుతుంటం
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क्रियावादि-प्रकाराः । प्रथमा-श्रावक प्रतिमायां सामायिक-देशावकाशिकौ नो सम्यक् प्रस्थापितौ भवतः । द्वितीयायां सम्यग् अनुपालकौ । तृतीयायां प्रतिपूर्णं पौषधोपवासं न सम्यग् पालयिता भवति । चतुर्थ्यादिसु चटत्प्रकारेण एकैक-नियम-पर्णता भवति । बहूई सीलव्वय-गुणव्वय-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं सम्मं पट्ठविताई भवंति । से णं सामाइयं देसावकासियं नो सम्मं अणुपालित्ता भवति । दोच्चा उवासगपडिमा ।।२।।
- अहावरा तच्चा उवासग-पडिमा-सव्वधम्म-रुई यावि भवति, तस्स णं बहूई सीलवय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं सम्मं पट्टवियाइं भवति । से णं सामाइयं देसावगासियं सम्मं अणुपालित्ता भवति । से णं चउदसिअट्ठमि- उद्दि-पुण्णमासिणीसु पडिपुन्नं पोसहोववासं नो सम्म अणुपालित्ता भवति । तच्चा उवासग-पडिमा ॥३॥
अहावरा चउत्था उवासग-पडिमा-सव्वधम्मरुई यावि भवइ तस्स णं बहुइं सीलवय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं सम्मं पट्टवियाइं भवति । से णं सामाइयं देसावगासियं सम्मं अणुपालित्ता भवइ । से णं चउदसि जाव सम्म अणुपालित्ता भवइ । से णं एगराइयं उवासगपडिमं णो सम्मं अणुपालेत्ता भवइ । चउत्था उवासग-पडिमा ||४||
___ अहावरा पंचमा उवासग-पडिमा | सवधम्म-रुईयावि भवति । तस्स णं बहई सील जाव सम्म पडिलेहियाइं भवंति । से णं सामाइयं तहेव से णं चाउद्दसि तहेव से णं एगराइतं उवासग-पडिमं सम्म अणुपालेत्ता भवति । से णं असिणाणए, वियड-भोई, मउलिकडे दिया बंभयारी, रत्ति परिमाण कडे, से णं एयारवेण विहारेण विहरमाणे जहन्नेन एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसे णं पंच मासे विहरेज्जा | पंचमा उवासग-पडिमा ||५|| __अहावरा छट्ठा उवासग-पडिमा, सव्वधम्म जाव से णं एगराइयं उवासग-पडिममणपालेत्ता भवति से णं असिणाणए वियड-भोई मउलियडे (रातोवरात) दिया वा रातो वा बंभचारि सचित्ताहारे से अपरिण्णाते भवति से णं एतारूवेण विहारेण विहरमाणे जाव जहन्नेण एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं छम्मासे विहरेज्जा । छट्ठा उवासगपडिमा ।।६।।
__ अहावरा सत्तमा उवासग-पडिमा-से सव्वधम्म जाव रातोवरातं ब्रह्मचारी सचित्ताहारे से परिणाते भवति । आरंभे अपरिण्णाते भवति । से णं एतारूवेण विहारेणं -विहरमाणे जहण्णेण एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं सत्तमासे विहरेज्जा । सत्तमा उवासग-पडिमा ||७||
- अहावरा अट्ठमा उवासग-पडिमा-सव्वधम्मरुचि यावि भवति जाव adddddddddddddddddal ५३ adddddddddddddddddddada
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'श्रीदशाश्रुतस्कंधे उपाशक-प्रतिमा अध्ययनम्-६
राओवरायं बंभचारी, सचित्ताहारे से परिणाए भवति । आरंभे से परिणाए भवति । पेस्सारंभे से अपरिणाए भवति । से एयारूवेण विहारेण विहरमाणे जाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्केसेणं अट्ठमासे विहरेज्जा । अट्ठमा उवासगपडिमा ||८||
अहावरा नवमा उवासग-पडिमा जाव आरंभे से वा परिणाए भवति । पेस्सारंभे से परिणाए भवति । उद्दिट्ठभत्ते से अपरिण्णाते भवति । से णं एतारूवेण विहारेण विहरमाणे जहण्णेण एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं नवमासे विहरेज्जा । नवमा उवासगपडिमा ।।९॥
अहावरा दसमा उवासग-पडिमा सव्वधम्म जाव पेस्सा से परिण्णाया भवंति उद्दिट्ठभत्ते से परिणाते भवति से णं खुर-मुंडए वा छिधलि-धारए वा तस्स णं आभट्ठस्स वा समाभट्ठस्स वा कप्पंति दुवे भासातो भासित्तए तंजधाजाणं अजाणं वा नोजाणं से एयारूवेण विहारेण विहरमाणे जहण्णेण एगाहं वा दयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं दस मासे विहरेज्जा दसमा उवासगपडिमा ||१०||
अधावरा एक्कारसमा उवासगपडिमा-सव्वधम्म जाव उद्दिभत्ते से णं परिण्णाते भवति । से खुर-मुंडे वा लुत्त-सिरए वा गहितायारभण्डगनेवत्ये जे इमे समणाणं निग्गंथाणं धम्मो तं सम्मं काएण फासेमाणे पालेमाणे पुरतो जुगमायाए पेहमाणे दट्टण तसे पाणे उद्धट्ठपाए रीयेज्जा साहट्ट पाए रीएज्जा वितिरच्छं वा पायं कट्ट रीयेज्जा सति परक्कमे संजयामेव परिक्कमेज्जा नो उज्जुयं गच्छेज्जा । केवलं से णातए पेज्जबंधणे अब्बोच्छिन्ने भवति एवं से कप्पति नायविधिं वत्तए, तत्थ से पुबगमणेणं पुवाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउत्ते भिलंगसूवे, कप्पति से चाउलोदणे पडिगाहित्तए नो से कप्पति भिलंगसूवे पडिगाहित्तए, जे से तत्थ पुवागमणेण पूव्वाउत्ते भिलिंगसूवे पच्छाउत्ते चाउलोदणे कप्पति से भिलंगसूवे पडिगाहेत्तए नो से कप्पति चाउलोदणे पडिगाहित्तए, तत्थ से पूवागमणेण दोवि पुवाउत्ताइं कप्पति से दोवि पडिगाहि. त्तए, तत्थ से पच्छागमणेणं दोवि पच्छाउत्ताइं णो से कप्पति दोवि पडिगाहित्तए, जे से तत्थ पुवागमणेण पच्छाउत्तं से णो कप्पति पडिग्गाहित्तए ।
तस्स णं गाहावइ-कुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स कप्पति एवं वदित्तए समणोवासगस्स पडिमापडिवन्नस्स भिक्खं दलयह तं चेव एयारू वेण विहारेण विहरमाणे णं कोइ पासित्ता वदिज्जा "केइ आउसो तुम" ? ఉదయండిఉండిఉందం, 4 అంగం ఉంటుంది
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सचित्ताहारादि-वर्जनप्रकारेण यावद् दश-मासिका दशमी प्रतिमा । एकादश-प्रतिमायां मुनिवत् क्रियाकरणप्रकाराः । गृहस्थकुले भिक्षाचर्यायां श्रमणोपासक-प्रतिमावान्नहमस्मीति स्पष्टभाषावादी । कृष्ण-पाक्षिक-शुक्लपाक्षिक-व्याख्या । वत्तवे सिया, ''समणोवासए पडिमापडिवन्नए अहमंसीति'' वत्तव् सिया । से णं एयारूवेण विहारेण विहरमाणे जहण्णेण एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं एक्कारस मासे विहरेज्जा । एक्कारसमा उवासग-पडिमा ।।११।। एयाओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कारस उवासगपडिमाओ पण्णत्ताउ त्तिबेमि || छट्ठा दसा सम्मत्ता ||
सुतं मे आउसंतेणं भगवता थेरा गणधरा तेहिं अक्खातं णवमे पव्वे, भद्दबासामिणा निज्जूढं ततो न कयं तं सयमेव, अत्थो भगवता भणितो सुत्तं गणधरेहिं कतं ।
तं जधा-अकिरियावादीयावि भवति । अकिरियावादित्ति सम्यग्दर्शन-प्रतिपक्षभूतं मिथ्यादर्शनं च वन्निज्जति । पच्छा सम्मइंसणं । पुव्वं वा सव्वजीवाण मिच्छन्तं , पच्छा केसिंचि सम्मत्तं । अतो पुव्वं मिच्छत्तं । तं मिच्छादंसणं समासतो दुविहं-अभिग्गहितं अणभिग्गहितं च ।
अभिग्गहितं-णत्थि (जीवो), ण णिच्चो, ण कुव्वति, कतं ण वेदेति, ण णिव्वाणं, णत्थि य मोक्खोवातो । छ मिच्छतस्स हाणाइं । अणभिग्गहितं असनीणं सण्णीणंपि केसिंचि । चशब्दाद् अण्णाणीओ वा ।
जो अकिरियावादी सो भवितो अभविओ वा नियमा किण्हपक्खिओ । किरियावादी णियमा भव्वओ नियमा सुक्कपक्खिओ । अंतो पुग्गल-परियट्टस्स नियमा सिज्झिहिति सम्मद्दिट्टी वा मिच्छद्दिट्टी वा होज्ज ।
मिथ्यादर्शनं प्रति अमी 'व्यपदेशा भवन्ति नाहियवादी-णत्थि ण णिच्चो न कुणति । नास्त्यात्मा एवं वदन-शीलः नाहियवादी । एवं प्रज्ञा एवं द्रष्टिः, ण सम्मावादी, मिथ्यावादीत्यर्थः । जो जधावत्थितं भणति स संमावादी । नितिओ मोक्खो तं भणितं णत्थि । नाणादी वा ३ णत्थि जेण मोक्खं गम्मति | संसारोवि णत्थि | णत्थि परलोगवादी । इहलोगो नत्थि, परलोगोवि नत्थि । लोगायतियाएतावानेव पुरुषो यावानिन्द्रिय-गोचरः । भद्रे वृकपदं ह्येतत् यद्वदन्त्यऽबहश्रुताः ||१|| स नास्तिकः किमाह-नत्यि इहलोगो नत्थि परलोगो । दोवि पडिसेहेति । हेतुप्रत्यय-सामग्री पञ्चविधाए वा सुण्णताए असिद्धी अयुक्तिः । शेषं कण्ठ्यं ।
जो व णत्थि णिरयादि ४ ण सिद्धी वा । अहवा णिरयो संसारो, स एवं वादि, सेत्ति णिद्देसे, जो सो अकिरियावादी आदौ वुत्तो एवं वादित्ति । यदुक्तंनाहियवादी पडिसमाणणे आलावगा णं करोति । १. प्रदेशा' पाठान्तरम् । addalaaaaaaaaaaa ५५ dadaaaaaaaaaaaa
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे उपाशक-प्रतिमा-अध्ययनम्-६
एवं छंदरागं-छंदो णामा-इच्छा लोभो, रागो नाम तीव्राभिनिवेशः । स एवं मिथ्यादृष्टिभूत्वा इमेसु आसव-दारेसु पक्त्तति । से य भवति महेच्छादी-सेत्तिजो सो भणितो अकिरियावादी तस्स निर्देशः, महती इच्छा जेसिं ते महिच्छाराज्य-विभव-परिवारादिषु महती इच्छा महिच्छा, महारंभो जीववह इत्यादि, महापरिग्रहा-राजानो राष्ट्रपतय इत्यादी । अधर्मेणाचरतीत्यधार्मिकः । अधर्ममनुगच्छतीत्यधर्मानुगः । आधर्मिकाणि कर्माण्यासेवत्यधर्मसेवी । अधर्मो इहो जस्स स भवति अधम्मिट्ठो । अधम्मं अक्खाइत्ति अधम्मक्खाई । अधम्मं पलोएतीति अधम्म-पलोइ । अधम्मेसु रजतीति अधम्म-रजणो । अधम्मे सील-समुदाचारो जस्स स भवइ अधम्म-सील-समुदाचारो |
अधम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणो विहरति, वृत्त्यर्थमेव च हण च्छिंद भिंद वेअंतए हणेति कस-लउड-लतादीहिं, छिंदति कण्णोणासिगा-सीसादीणि, भिंदइ सीस-पोट्टाइं, विकिंतति वज्झो, चंडो रोद्दो, असुरा चंडा रोद्दा, जे हिंसादीणि कम्माणि करेंति । क्षुद्रो णाम सयण-सहवासे वि ण मुंचति । असमिक्खित-कारी साहसितो | निच्चं मारेमाणस्स विकंतमाणस्स य, णीली-रयगस्स व णीलीए, एवं तस्स लोहित-पाणित्ति-लोहितपाणी ।
___ उक्कुंचणे कुंच कौटिल्येउद्भवोर्ध्वभावे पच्छेदनेषु, ईषत्कुंचनमाकुं चनं जधा कोति कंचि "सुण्हगं तत्य कोति माणुसाण विचक्खणो चिट्ठति, सो जाणति मा एस वंचिज्जंतं इमं दटुं आइक्खिति । एतस्स राउले वा कहेहिति । ता उक्कंचेऊण अच्छति जाव सो वोलेति, वंचू-प्रलंभने-वंचनं जधा-अभयो धम्मच्छलेण वंचितो पज्जोतस्स संतियाहिं गणियाहिं । मृगो हि गीतएण वंचिज्जति | अधिका कृति=निःकृति अत्युपचार इत्यर्थः । यथाप्रवृत्तस्योपचारस्य निर्वृत्तिर्दष्ट. लक्षणं, अत्युपचारोऽपि दुष्टलक्षणमेव । जधा कत्तिओ सेट्ठी रायाणएण अत्युपचारेण गहेतो । जं अलिय-विकल-विज्झल-धम्मज्झय-सील-सिडिलक्खेहि वीसंभकरणमधियछलेहिंति बेंति । नियडेत्ति देस-भासा-विवज्जय-करणं कवडं । जधाआसाढभूतिणा आयरितो उवज्झाय-संघाडइल्लग अप्पणो य चत्तारि मोयगा णिक्कालिता । कूडं कूडमेव लोकसिद्धत्वात् । जहा कूड-करिसावण-कूडतुलाकूटमाणमिति | सातिसय-संपओग-बहुला शोभनोऽतिशयः स्वातिशयन्यूनगुणा
१. अधर्मस्य इमानि आधर्मिकाणि । २. मूर्ख वञ्चमानस्य पार्श्वस्थविचक्षणपुरुषभयात् कञ्चित् कालं निश्चेष्टीभवनम् । ३. 'प्रच्छादनेषु' इति संभाव्यते । ४. सूक्ष्म विचक्षणमित्यर्थः । ५. 'निवृत्ति' संभाव्यते । ६. विह्वलादिः । adddddddddddddddddddddds ५६ addddddddddddddddda
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अक्रियावादि-स्वरूपम् । कपट-प्रकाराः । अष्टादश-पापस्थानका-ऽविरमणम् ।
नुभावस्स द्रव्यस्य यः सातिशयेन द्रव्येण सह संप्रयोगः क्रियते सो सातिशयसंपयोगो । अगुणवतश्च गुणानुशंसा गुणवदित्याह च । उक्तं च-सो होति सातिजोगो दव्वं जं उवहि-तण्ण-दव्वेसु । दोसो गुणवयणेसु य अत्थविसंवादणं कुणति ||
एते पुण उक्कंचणादयो सव्वे मायाए पज्जाय-सद्दा, यथा इंद्रशब्दस्य शक्र-पुरन्दर-शतमख-शब्दाः यद्यपि क्रियाविशिष्टास्तथापि नेन्द्रशब्दं व्यभिचरन्ति । एवं यद्यपि क्रियानिमित्ता अभिधानभेदाः, तथापि न मायामतिरिच्यन्ते । एवं जीवाग्निसूर्यचन्द्रमसां अभिधानभेदेऽपि नार्थभेदवत् । मायाया अभिधानभेदेऽपि न अर्थभेदः ।
दुस्सीलो दुटुं सीलं जस्स स भवति दुट्ठसीलः । दुपरिचया-परिचयजातावि खिप्पं विसंवदति । दुरणुणेया दारुण-स्वभावा इत्यर्थः । दुट्ठाणि व्वताणि जेसिं ते भवंति दुव्वता, जधा-जण्णदिक्खिताणं सिरमुंडणं अण्हाणगं दब्भसयणं च । एवमादीणि दुव्वताणि, तहवि छगलादीणि सत्ताणि घातयंति । आह हि षट्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ।।
___ टुणदि समृद्धौ, तस्यानंदो भवति, आनन्दितः कश्चिदन्येन यस्तस्यापि प्रत्यानन्दं करोति । प्रतिविजानीते प्रतिपूजयतीत्यर्थः । स तु सर्वकृतघ्नत्वान्नैव नन्दति दुप्पडियाणंदो भवति । आह हि प्रतिकर्तुमशक्तिष्टा नराः पूर्वोपकारिणां दोषमुत्पाद्य गच्छन्ति 'मद्गूनामिव वायसाः ।।
सव्वातो पाणातिवातोत्ति-जेवि लोगे गरहिता बंभण-पुरिसवहादी पाणातिवातः ततोवि अप्पडिविरता । एवं मुसावाते कूड-सक्खियादी । तेणे सहवास तेणादी, न्यासापहार, इत्थी-बालतेणादी वा । मेहुणे अगम्म-गमणादि । परिग्गहे जोणि-पोसगादि । सव्वातो कोहातो जाव मिच्छादंसणसल्लातो ।
__ सव्वतो ण्हाणुमद्दण कामं पुव्वं अभंगितो अणभंगितो वा उम्मदिज्जति पच्छा ग्रहाति तहावि सव्वतो पहाणुमद्दणं, कोइ पुण अणब्भंगितो वि निद्धेण उम्मद्दणएण उम्मद्दिज्जति, तेण अभंगणं गहितं, वण्णतो कुंकुमादि विलेवणचंदणादि, सद्दादी पंचविसया तेहिंतो अप्पडिविरता । मल्लं गुच्छं अगुच्छं वा एस चेव अलंकारो अण्णोवि वत्थलंकारादि ।
सव्वतो आरंभसमारंभातो त्ति विभासा-संकप्पो, संरंभो, परितापकरो भवे
१. जलवायसानां 'मडूनामिव' पाठान्तरम् । २. 'लोद्धेण’ पाठान्तरम् । adladalandidddddddas ५७ dadddddddddddddddddded
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे उपाशक-प्रतिमा-अध्ययनम्-६
समारंभो आरंभो उद्दवओ सव्वणयाणं विसुद्धाणं || सव्वतो करणं एतेसिं चेव जधुद्दिट्ठाणं पाणातिवातादीणं अण्णेसिं सावज्जाणं कारावणमन्नेहिं, इस्सरादीणं पयणं पयायणं च, चोरा सयं पयंति मंसादी, इस्सरा अण्णेहिं पाएंति, 'मीरासु य चोरे पाइंति । सव्वतो कुट्टणं कोइ चोरं अहिमरं वा णातुं पलं कोट्टेति पिट्टेति य, चिंचलता-कस-वेत्त-लउडादीहिं तज्जेति, तालिंति पादादीहिंतालिंति तलप्पहारा रेखीलपण्हिमादिएहिं | वधो मारेति वा । निगलादीएहिं बंधंति । एतेहिं चेव परिकिलेसं करेति । अण्णेहि य कर-डंडादीहिं किलेसेति परं । जे यावण्णे तहप्पगारा कित्तिया वुच्चिहिंति ? | गोग्गहण-बंदिग्रहण 'उद्दोहण-गामवह गामघात-महासमर-संगमादी सावज्जा, अबोधिकरा कम्मयोगा , कम्मत्ता इध परत्र च परेषां प्राणा: आयुःप्राणादि परेषां प्राणान् परिताउँति । दृष्टान्तः क्रियते निर्दयत्वात्तेषां ।
से जधा णामए केति पुरिसे कल-मसूर-कलावट्टचणगामसूराचणइयातो तिल-मुग्ग-मासा प्रतीता, निप्फावा वल्ला, कुलत्या चवलयसरिसा चिप्पिडया भवन्ति । आलिंसिंदगा चवलया, सेतीणातुवरी, पलिमंथा कालचणगा एते गुणंतो वा मंलंतो वा पीसंतो वा मुसलेणं वा उक्खले खंडिंतो वा रंधेतो वा ण तेसु दयं करेति । अजतणातो अजतो क्रूरो निघृणः मिच्छादंड इति, अणवरद्ध-कुद्धः एवामेव तहप्पगारे तित्तिरादिसु निरवेक्खो निद्दयो मिच्छादंडं पयुंजंति ।
जा वि य से-तत्य बाहिरिया परिसा भवति तं जधा दासेति वा पेस्सो अदासो दासवत् तेसु तेसु पेसुणेसु नियुंजति पेस्से । “ओलगादि-भतओ-भतीए घेप्पति । भाइलुगो भाग-हालितो कम्माकारगा जे लोग उवजीवंति घरकम्मपाणिय-वाहगादीहिं । ते वि राउले वेडिं कारिज्जति । तेसिं पि य णं अण्णतरंसि लहुसगा काइ आणत्तिया ण कता, तत्थ रुट्ठो गुरुयं अप्रवाह्यं इमं डंडे 'हक्कंतं ।
प्रायेण नियल-बंधणो हडिबंधणो य विणा विचारएण करेति । जधामालवए दासो वा मा पलायहिति, जूयामंकुण-पिसुगादीहिं जत्थ बद्धो वारि. ज्जति सो पुण चारओ । अण्णे पूण चारए छोढ़ णियलेहिं दोहिं तीहिं वा सत्तहिं वा णियल-जोगेहिं बज्झंति । संकोडिय-मोडितो णाम जो हत्येसु य पादेसु य गलएसु य बज्झति चारए अण्णत्थ वा सो नियलजुयलसंकोडितमोडिओ । इमं हत्थंच्छिण्णयं करेह एक्को वा दो वा हत्था छिज्जति । एवं पादा वि चोरादीणं,
१. बृहच्चुल्लीषु । २. 'खिप्पं' पाठान्तरम् । ३. उद्योहणम् 'उद्दहणं' पाठान्तरम् । ४. सेवकादिः भृतकः । ५. क्रन्दन्तम् । ६. 'पणासे' पाठान्तरम् । aadaaaaaaddddddal ५८ ddabadduddadidadidndia
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आरंभादि-स्वरूपम् । बाह्यपर्षदां शिक्षावर्णनम् । अभ्यंतर-पर्षदामपि लघुकेतराऽपराधे दण्डप्रकार-वर्णनम् ।
कण्ण-णक्कोट्टादि चारिय-दूताणं विरुद्ध-रज्ज-चारीण य इत्थियाणं च सीसं । अभिमर-वेरियाणमुरवो मज्झे छिज्जंति असिमादीहिं विअच्छते 'खंधे अ हंतुं बंभसुत्तएणवि छिज्जति , जीवंतस्स चेव हितयं उप्पाडेति, पुरोहितादी जाव जिब्मा ओलुपिज्जति । कूवे पव्वत-णदि-तडिमादिसु वा उल्लंबिंज्जति रुक्खे जीवंतो मारेतुं वा । सूलाइतउत्ति-सूलाए पोइज्जति । अहिट्ठाणे सूलं छोढ़ महेण निक्कालिज्जति । सूलाभिण्णो मज्झे सूलाए भिज्जति । खारवत्तियंति सत्येण कप्पेतुं २ लोणखारादिहि सिंचति । "बंभवत्तियंति बंभा अपि कप्पिज्जति पारदारिया | सीहपुच्छियंति-सीहो सीहीए ताव समं लग्गतो अच्छति जाव थामियाणं दोण्हं वि 'कदंताणं च्छिण्णणेत्तो भवति । एवं तस्स पुत्तयाच्छेतुं अप्पणए मुहे छुभति । कडग्गि-दद्धगा-कडएण वेढितुं पच्छा पलीविज्जंति । कागिणिमंसं खावितया कागिणि-मित्ताई मंसाइं कप्पेतुं कप्पेतुं खाविज्जति । अण्णतरेणंति-जे अन्ने ण भणिता सुणग-कुंभिपागादी, कुत्सिता मारा कुमारा । एवं ताव बाहिरपरिसाए दंडं करेति ।
जावि य से अभिंतरा परिसा भवति तंजधा-माताति वा । तेसिं पि य णं अधालहुसगोत्ति वयणं वा ण कयं, उवक्खरो वा कोपि णासितो हरावितो भिण्णो वा | सीतोदगंसि कायं ऊबोलित्ता भवति हेमंतरातीसु, उसिणोदगवियडेण वा कायं ओसिंचित्ता भवति गिम्हासु । वियड-ग्रहणात् उसिण-तेल्लेण वा उसिणकंजिएण वा अगणिक्काएण वा कायं उम्मएण वा तत्त-लोहेण वा काय उड्डहिता भवति, कडएण वा वेढेतुं पलीवेति, सो चेव कडग्गित्ति भण्णइ । आह हि शस्त्रेण वा केशवमायया वा विशेषेण गोविंदकडाग्निना वा छिवत्ति । सण्हतो कसो । सेसं कंठं । उद्दालेति ति निवमाई लंबावेति । डंडेत्ति लउडओ । अहित्ति कोप्परं तेण खीलं देति, अंगुटुंगुलि-तलसंघातो मुट्ठी, लेलू लेडगा लोलावयति प्रहारेणेत्ति लेलू कवाडं वंसकप्पडां अत्यर्थं कुट्टयतीति आउडेति ।
तहप्पगारे पुरिसे वसमाणे दुहिता भवंति, मार्जारे मूषकवत्, विप्पवसमाणे-सुहिता भवंति । तत एवं यथा मार्जार प्रवसिते मूषिका वीसत्था सुहंसुहेण विहरंति, एवं तंमि पवसिते वीसत्था घरेच्चया पाडवेसिया वा णागरगा गामिल्लगा वा सव्वो वा जणवतो वीसत्थो स्वकर्मानुष्ठायी भवति ।
तहप्पगारे पुरिसे डंडेनामृषयतीति डंडमासी, लोगो वि भणति-अमुगो १. खंबे' पाठान्तरम् । २. यज्ञोपवीतेन सहापि ब्राह्मणा अपि । ३. हृदयम् । ४. सूत्रगतं टिप्पणकं द्रष्टव्यम् । ५.द्वयोरपि क्रन्दतोः, 'विकटुंतो' पाठान्तरम् । ६. विषेण वा पाठान्तरम् ।
aadladduddadddddddae andaarddddddddddldiardias
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे उपाशक-प्रतिमा-अध्ययनम्-६
वरातो रायकुले छिन्नो डंडित इत्यर्थः । डंडगुरुएति-बंधति वा रुंभति वा, सव्वस्स हरणं वा करेति, हत्थच्छिन्नगादि वा करेति निव्विसयं वा । डंडपुरे. क्खडेत्ति-डंडं पुरस्कृत्य राया १अयोइल्लए हवेति । २अयोइल्लागावि दंडमेव पुरस्कृत्य करणे निवेसंति । अप्पणो चेव अहिते अस्सि लोगंसि कहं ? उच्यतेकिंचि डंडेति सोणं मारेति, अथवा पुत्तं अन्नं वा । से णीएल्लगं मारेति वा अथवा पुत्रं अन्नं वा अवहरति वा । अण्णं वा से किंचि अप्पितं करेति घरं वा डहति । सस्सं वा चउप्पदं वा से किंचि गोणं वा आसं वा महिसं वा धूरेति अपहरति वा । अहिते परलोगंसि-एवमादिएहिं पावेहिं कम्मेहिं सुबहुं पावकम्मकलिकलुसं समज्जिणित्ता णरग-तिरिक्ख-जोणिएसु बहुं कालं सारीर-माणुसाणि दुक्खाणि पच्चणभवंति । संजलणेत्ति-भस्मावस्थाया इंधनयोगादेव सोवि लहसएवि अवराधे खणे खणे संजलंतीति संजलणो, परं च संजलयति दुक्खसमुत्थेण रोसेण संजलण एव कोहणो वुच्चति । एगडिया दोवि | परं च अवकार-समुत्येण दुक्खुप्पातेण कोपयति । एवं ता उरंउरेण सयं करेति कारवेति वा । अण्णो पुण सयं असमत्थो रुट्ठोवि संतो परस्स दुक्खं उप्पाएउं पच्छा सो राउले वा अण्णत्थ वा तस्स पिट्ठीमंसं खायति चांपयतीत्यर्थः । पिट्ठीमंसं खायंतीति पिट्ठमंसितो । एवं ताव आधालहुसए अवराहे एरिसं डंडं वत्तेति ।
___महंते अवराहे दारुणं डंडं वत्तेति । कथं ? सपुत्त-दारस्स च यथो. क्तानि दंडस्थानानि च सीतोदकादीणि अतिरोसेण सयं करेंति वा, कारवेइ वा, सो दुक्खावेंति जाव अपडिविरते भवति ।
स पुण किं एवं करेति ? कामवसगते-काम-फरिसादिणो फरिससारा य, ते य इत्यिमादिणो तत उच्यते एवामेव ते इत्यिकामेहिं मुच्छिता जाव वासाइं भुंजित्तू भोगायतणाई पसवेतुं वेराणमायतणं कम्मं चेव बहूणि अट्ठ कम्माणि सुबहु-काल-द्वितीयाणि, ओसण्णंति-अणेगसो एक्केक्कं पावायतणं हिंसादि आयरंति । संभारो नाम गरुयत्तणं गहितं, से जहा णामतो अयो हि पात्रीकृतं तरति । सिला विच्छिण्णत्तणेण चिरस्स णिबुड्डति, गोलतो पुण खिप्पंति बुड्डति ।
एवामेव तहप्पगारे वज्जबहले पावे वज्जे । अयसोत्ति-एतेहिं चेव जधहिडेहिं उक्कंचण-वंचणादीहिं सहवास-द्रोहादीहिं अगम्म-गमणेहिंय अयसो होति । जेसिं च ताइं वंचण-हरण-कण्णच्छेद-मारणादीणि करेति तेसिं अपत्तियं होति । १. कारागृहे । २. कारागृहाधिकारिणः । ३. स्वजनम् । ४. अप्रियम् । ५. हन्ति पीडयति वा । ६. साक्षात् । ७. आतणणं पाठान्तरम् । ఉండి ఉతంతుయంతీయం అంతంతమవంతం
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कामभोगासक्ता नरकादिषु पतन्ति । क्रियावादिनो नियमात् शुक्लपाक्षिकाः, सर्वधर्मरूचिकाः भवन्तः प्रथम-दर्शनप्रतिमावन्तः ।। कालमासे णिच्चंधकारः नित्यकालमेवान्धकारः ।
__ अण्णोवि णाम अंधकारो भवति अप्पगासेसु गब्भघरोवरगादिसु ते पुण जच्चंधस्स व मेहछण्ण-कालद्धस्त इव तमसा, उज्जोतकराभावच्च तमसा । ते चोज्जोतकरा ज्योतिष्का येनोच्यन्ते । ववगय-गह-चंद परोप्परं च छिंदंताणं सरीरावयवेहिं मेदवसा । काऊणअगणि लोहे धम्ममाणे कालिया अग्गिजालाणीति, तारिसो तेसिं वण्णो । फासो य उसिणवेदणाणं कक्खडफासा | से जधा णामते असिपत्तेति वा दुक्खं अधियासिज्जंति दुरहियासा । असुभा णरगा, असुभा दरिसणेण सद्देण गंधेण फरिसणेण य वेदणातोवि असुभातो । नो चेव णं निद्दायंति वा, निद्दा सुहितस्स होति, निद्रा य विस्सामणा इति कृत्वा , तेण नत्थि, तं उज्जलं जाव वेदेति ।
___ एस ताव अयगोल-सिलोगो दिर्सेतो गुरुग- पडणत्तातो कतो । इमे अण्णो रुक्ख-दिलुतो-सो सिग्घ-पडणत्थं कीरति ।
से जधा णामते रुक्खे सिया पव्वयग्गे जाते । एवामेव सिग्घं कालमासे णरएसु उववज्जति । ततो उवट्टो गब्भवक्कंतिय-तिरिएसु य मणुएसु कम्मभूमगसंखेज्जवासाउएसु उववज्जति ततो चुते गब्मतो गब्भं जाव णरगातो णरगं दाहिण-गामिए जाव दुल्लभबोहिए यावि भवति ।
किरियावादी यावि भवति । आहियवादी एवं चेव अत्थि तेण भाणितव्वं जाव सेयं भवति । महिच्छे जधा अकिरियवादिस्स णवरं उत्तरगामिए सुक्कपक्खिए आगमिस्सेणं सुलभबोहिए आवि भवति ।
सव्वधम्मरुई यावि भवति । धर्मः स्वभाव इत्यनर्थान्तरं जीवाजीवयोर्यस्य द्रव्यस्य गति-स्थित्यवगाहनादि अथवा सर्वधर्मा आज्ञाग्राह्या हेतुग्राह्याश्च ते रोचति-सद्दहति । दसप्पगारो वा खमादि-समणधम्मो ।
तस्स णं बहुणि सीलव्वया-सीलं सामाइयं देसावगासियं पोसधोववासो अतिहि-संविभागो य । वताणि पंचाणुव्वताणि । गुणा इति तिन्नि गुणव्वया । पोसहो चउव्विहो-आहार-पोसधो, सारीरसक्कार-पोसहो, अव्वावार-पोसहो, बंभचेरपोसहो । नो सम्मं पट्टवित्ताइं-नोकारो पडिसेहे, नो सम्मं यथोक्तं पट्टवित्ताइंति प्रस्थापितानि आत्मनि, यथा प्रतिमा प्रस्थापिता देवकुले । प्रतिपत्तिः प्रतिमाणं वा पडिमा । दंसण-सावगोत्ति पढमा पडिमा ।।१।।
ఉండింతయంతంతమయం ఉతంతంతమవంతుతం
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे उपाशक-प्रतिमा-अध्ययनम्-६
दसण'वयसामाइय पोसह पडिमा अबंभ- सच्चित्ते । "आरंभ-'पेस-१°उद्दिट्ठवज्जए १'समणभूए अ ||११||
अथावरा दोच्चा अथेत्यानन्तर्ये । अपरा अन्या सामाइयं देसावगासियं नो संमं यथोक्तं ण सक्केति काएणं तिविधेणावि करणेन । काएण दुक्खं अणुपालिज्जति । तेण कायग्गहणं दोच्चा पडिमा ||२||
चउद्दसी अट्ठमी-अमावासा पडिपुण्णं आहारादी ४ तच्चा पडिमा ।।३।।
जद्दिवसं उववासो तद्दिवसं रत्तिं पडिमं पडिवज्जति, तं ण सक्केति चउत्थी पडिमा ||४||
पडिमं अणुपालेति 'अण्हाणए' ण ण्हाति, पंचमासे वियडभोयी प्रकाशभोई दिवसतो भुजति न रात्रौ, पंचवि मासे मउलिकडो-साडगस्स दोवि अंचलातो हेट्ठा करेति, कच्छं ण बंधति जाव पडिमा पंचमासिया ण समप्पति ताव दिवसतो बंभचारी रत्तिं परिमाणं करेति एवं दो तिन्नि वा अपोसधिओ । पोसधितो रत्तिपि बंभयारी । सेत्ति णिद्देसे जा हिट्ठा भणितो इदृग्-लक्षणेन एतारूवेण । अह दिवसो कहं ? एगाहं सयं पडिवन्नो कालगतो व संजमं वा गेण्हेज्जा, एतेणेगाहं वा दुआहं वा । इतरधा संपुण्णा पंचमासा अणुपालेतव्वा । एवं जधा भणिता । एसत्ति पंचमासिया ||५||
__ अधासुत्ता जहा सुत्ते भणिता । कप्पोत्ति-मज्जातो यथा तथ्यो मग्गोणाणादी ३ जधा मग्गो ण विराहिज्जति, नाणादी सम्मं, अट्ट-दुहट्टाणि ण चिंतेइ, स्पृष्टा-पा(फा)सिता, पालिता रक्खिता, सोभिता-ण भग्गा, तीरिता-अंतं णीता, किट्टिता-कीर्तिता आयरियाणं कथिता, आराहिता ण विराहिता, आणासुत-तदुपदेसेण, अण्णेहिं पालितं पालेति अणुपालेति भवति पंचमा पडिमा राओवरातंति रत्तिं दिया य, स्तीए (उवरमो) उवरिमो दिवसो | सच्चित्तं उदगं कंदादि वा अपरिण्णाता अपच्चक्खाता आधारेति अपोसधितो छठ्ठा पडिमा ।।६।।
आरंभं करण-कारावणे वाणिज्जादि जं से कम्मं तं करेति सयं परेण वि कारवेति अणुमोदेति वि अपोसाधिओ पोसहे अणुमोदति केवलं । सचित्तं नाहारेति उदगफलादि सत्तमा पडिमा ।।७।।
आरंभो सयं ण करेति किसि-वाणिज्जादि । पेस्सा-भतगा तेहिं कारवेति, पेसग्गहणा 'सतं ण करेति तेहिं कारवेति अट्ठमा पडिमा ||८||
१. एकं' संभाव्यते । २. स्वयम् । శరీరంగంగయంతరం Rఉంయంయంయంయంయం
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द्वितीयादि-दशमी-एकादशी-प्रतिमानां स्वरूपसूचनं वर्णनम् ।
_णवमासियाए अप्पणा परेण वि न करेति ण कारेति वि, जं पुण तं निमित्तं कोइ उवक्खडेइ तं भुंजति णवमा पडिमा ||९||
दसमाए उद्दिट्ठभत्तंपि ण भुजंति सगिहे चेव अच्छति, तहिं अच्छंतो खुरमुंडतो छिहलिं वा धरेमाणे छिहलीधरो जधा परिव्वायगाणं, आभट्ठो एक्कसि, समाभट्ठो पुणो पुणो, परिताभट्ठो वा, तेण किंचि दव्वजातं 'निक्खतगं तं चेव से पुत्तादी ण जाणंति सा माइ वा से ताधे पुच्छंति कहिं कतं तं दवित्तं(तं) ? जदि ण कहेति अंतरादियदोसा अचियत्तं च तेसिं, संकादि वा तेसिं, णूणं एस गिण्हितुं कामो, रेखइतं च णेण, तम्हा जति जाणति तो कहेति, अध य ण याणति तो भणति अहंपि न याणामि । एताउ दो भासातो । दसमा पडिमा ||१०||
एक्कारसमीए गिहातो निक्खमति से णं खुर-मुंडए वा लुत्त-सिरजो लोतो कतो, सिरे जायंति शिरजा केशा इत्यर्थः । गहितायारभंडगे-गहितं आयारभंडगं साधुलिंगं रयोहरणपात्रादि, विभासा णेवत्थं साधु-रूव-सरिसं तेसिं । जे इमे समणाणं धम्मं तारिसं धम्मं अणुपालेमाणा विहरंता रियासमितीए उवयुत्ता पुरतो जुगमात्रं आदाय गृहीत्वा रीयंति विहरंति, दलूण चक्खूसा तसा-बेइंदियादी पाणा । किं ? तेसिं मज्झेणं जाति, नेत्युच्यते-उद्धटु उक्खिवित्ता साहेटुसाहरिता वितिरिच्छं तिरिच्छं करेति । सतित्ति-जति अन्नो मग्गो विज्जति । संजतेत्ति जतणाए उवउत्तो रियासमित्तीए परक्कमेज्ज-गच्छेज्जा । अविज्जमाणे वा तेणेव जतणाए गच्छति । अधवा सति परक्कमे संते उट्ठाण-कम्म-बलविरिय-परक्कमे परिहारेण गच्छति जतणाए उवउत्तो रियासमितिए, अण्णो वा सपरक्कंमो पंथो णत्थि तेणा वा सावताणि वा सीहादीणि । सव्वं तेण परिचत्तं । केवलंति-तदेवेगं | सण्णायगा मायादी । पेज्जबंधणं राग इत्यर्थः । ताहे रेणायविधिं एति-तस्स णं तत्थाऽऽगमणेणं पुव्वाउत्ते विभासा | सो भिक्खं हिडंतो ण धम्मलाभेत्ति ।
तस्स णं गाधावतिं एवं वदति समणोपासयस्स पडिमा कंठा । एतारू वेण एतप्पगारेणं रूवसद्दो लक्खणत्यो । केचित्ति इत्थी वा परिसो वा पासित्ता पेक्खित्ता कस्त्वं ? किं ब्रवीति वा ? ब्रवीति-समणोपासगोऽहं ? किं तुमंत्ति जं भणध ? पडिमापडिवन्नोहमिति उपदर्शने ||११||
|| सम्मत्तं च उवासग-पडिमा-नाम छट्ठमज्झयणं ।। १.निखातं तद्गतं द्रव्यजातम् । २. उन्मूलितम् । ३. ज्ञातीनां सम्बन्धतया गच्छति । ఉదయంయంయంయంయంతం ఉతంతంతవుతుంతీయం
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे भिक्षु-प्रतिमा-अध्ययनम्-७
अथ सत्तमी दसा भिक्खु-पडिमा-ऽज्झयणं । चू०-भिक्खू पडिमाण दारा ४ । -- अधिकारो उवधाणेण । जतो आह-भिक्खूणं उवधाणे० गाथा ४७ ।। भिक्खूणं उवहाणे पगयं तत्थ व हवन्ति निक्खेवा । तिन्नि य पुबुद्दिट्ठा पगयं पुण भिक्खुपडिमाए ॥४७॥
पगयं अधिगारो णाम-निप्पण्णे, भिक्खू पडिमा य दुपयं णाम, भिक्खू वण्णेयव्यो पडिमा य । तत्थ भिक्षुत्ति तस्सि भिक्खूमि पडिमासु य णिक्खेवो णामादी ४ दोसुवि तिन्नि णाम-ट्ठवणा-दव्व-भिक्खू य पुबुद्दिष्ठा, स भिक्खूए अधिगारो भावभिक्खूए अधिगारो | भावभिक्खुणो तस्स वि पडिमासु तासि णामादि तिन्नि पुव्ववण्णित्ता उवासग-पडिमासु । पगतं अधिगारो भावपडिमाए सा च भावपडिमा पंचविधा, तं जधा-समाधि० गाथा ||
समाहि-उवहाणे य विवेक-पडिमाइया । पदिलीणा य तहा एगविहारे य पंचमीया ||४८||
समाधि-पडिमा, उवधाण-पडिमा, विवेग-पडिमा, पडिलीण-पडिमा, एगविधार-पडिमा । समाधि-पडिमा द्विविधा-सुत-समाधि-पडिमा चरित-समाधिपडिमा य, दर्शनं तदन्तर्गतमेव । सुतसमाधिपडिमा । छावहिं कहिं ? उच्यतेआयारे० गाथा० ४९।।
आयारे बायाला पडिमा सोलस य वन्निया ठाणे । चत्तारि अ ववहारे मोए दो दो चंदपडिमाओ ।।४९।।
आयारे बातालीसं कहं ? आयारग्गेहिं सत्ततीसं, बंभचेरेहिं पंच एवं बातालीसं आयारे, हाणे सोलस विभासितव्वा, ववहारे चत्तारि, दो मोयपडि. मातो खुड्डिगा महल्लिगा य मोयपडिमा, दो चंदपडिमा-जवमज्झा वइरमज्झा य । एवं एता सुय-समाधिपडिमा छावहिं ।
एवं च सुय-समाधिपडिमा छावट्ठिया य पन्नत्ता । समाईयमाईया चारित्त-समाहिपडिमाओ ||५०||
इमा पंच चारित-समाहिपडिमातो तं जधा-सामाइय-चरितसमाधिपडिमा जाव अधक्खात-चरित्तसमाधिपडिमा । उवहाणपडिमा दुविधा-भिक्खूणं० गाथा० ५१।
ఉరితీతంతంతమంతతం ఉంటుంతుంతంతంత
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भिक्षुप्रतिमा-प्रकाराः । षडधिका षष्टिप्रकाराः । श्रुतसमाधि-प्रतिमा-नामादि-वर्णनम् । षण्णवतिप्रकारासुभावप्रतिमासु उपधानप्रतिमा-ऽधिकारो, कीदृशः स निर्माता ? दृढसम्यक्त्व-णाण-चारित्रवान् परीसहादि-सहनशीलः ।
भिक्खूणं उवहाणे उवासगाणं च वन्निया सुत्ते । गण-कोवाइविवेगो सभितरबाहिरो दुविहो ||५१।।
भिक्खूणं उवहाणे बारसपडिमा सुत्ते वन्निज्जंति । उवासगाणं एक्कारस सुत्ते वण्णिता । विवेगपडिमा एक्का सा पुण कोहादि, आदिग्रहणात् सरीरउवधि-संसार-विवेगा । सा समासतो दुविधा-अभितरगा बाहिरा य । अभितरिया कोधादीणं । आदिग्रहणात् माण-माया-लोभ-कम्म-संसाराण य । बाहिरिया गणसरीर-भत्तपाणस्स य अणेसणिज्जस्स | पडिसंलीण-पडिमा चउत्था । सा एक्का चेव । सा पुण समासेण दुविधा-इंदिय-पडिसंलीण-पडिमा य नोइंदिय-पडिसंलीणपडिमा य । इंदिय-संलीण-पडिमा पंचविधा-सोतिंदियमादीया० गाथा
सोइंदियमादीआ पदिसलीणया चउत्थिया दुविहा । अद्वगुण-समग्गस्स य एगविहारिस्स पंचमिया ||५२।।
सोतिंदिय-विसय-पयार-णिसेहो वा सोतिंदिय-पजुत्तेसु वा अत्थेसु रागदोस-णिग्गहो । एवं पंचण्हवि । णोइंदिय-पडिसंलीणता तिविधा-जोग-पडिसंलीणता कसाय-पडिसंलीणता विवित्त-सयणासण-सेवणता जधा पन्नतीए । अहवा अभिंतरिया बाहरिगा य । एगविहारिस्स एगा चेव । सा य कस्स ? कप्पति आयरियस्स अट्टगुणोववेतस्स अट्ठगुणा आयारसंपदादी समग्रो उववेतो, किं सव्वस्सेव ? नेत्युच्यते-जो सो अतिसेसं गुणेति विज्जादि पव्वेसु' । उक्तं च-अंतो उवस्सगस्स एगरातं वा दुरातं वा तिरातं वा वसभस्स वा गीतत्थस्स विज्जादिनिमित्तं । एवं छण्णउतिं सव्वगेण भावपडिमा । एवं परूवितास् अधियारो भावपडिमासु । तत्थवि भिक्खु-उवधाण-पडिमासु अधिगारो, सेसा उच्चारिय-सरिच्छा। स केरिसो पडिवज्जति ताओ । उच्यते-दढं सम्मत्त० गाथा० ५३ ।।
दढसम्मत्त-चरित्ते मेधावि बहुस्सुए य अयले य । अरइ-रइसहे दविए खंता भयभेरवाणं च ॥५३।।
दढो णाम णिस्संकितादि, स-इंदएहिं वि देवेहिं ण सक्कति सम्मत्तातो चालेतुं, एवं चरितेवि | परिपठ्यते च-पढमं सम्मत्तं पडिवज्जति पच्छा चस्तिणाणो । मेहावी-तिविधो उग्गह-धारणा-मेरा-मेधावी य, जता य बहुस्सुतो जाव दसपुव्वा असंपुण्णा, जहन्नेण णवमस्स पुव्वस्स ततियमायारवत्थु कालन्नाणं १.दीपावली-शाश्वताष्टाह्निकादि-पर्वसु । అంతంతుయుతమతతతంగం 64 అంగుంతుంతుంతంతుతం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे भिक्षु-प्रतिमा-अध्ययनम्-७
तत्थ वन्निज्जति । अचलोत्ति थिरो नाणादिषु ३ थिरचित्तो, ण य भज्जति अरति-रतीहिं अणुलोमेहिं पडिलोमेहि य उवसग्गेहिं । दविउत्ति - रागद्दोस-रहितो हम्मंतो अक्कुस्संतो य सहति । खमति य भय-भेरवं, अहवा किंचि भएण भेरवं, अकस्माद्भयादि, भेरवं-सीहादि 'जति य इमेहिं गुणेहिं उववेतो भवति । परिचित० गाथा ५४ ।।
परिचिअकालामंतण खामण-तव-संजमे अ संघयणे । भत्तोवहि-निक्खेवे आवन्ने लाभगमणे य ॥५४॥
परिचितं- अप्पाणं परिक्कमेहिंति, तवेण सत्तेण सुत्तेण एगत्तेण बलेण य। तुलणा पंचधा वुत्ता पडिमं पडिवज्जतो || चउत्थ भत्तेहिं जतितुं छट्टेहिं अट्ठमेहिं दसमेहिं बारसमेहिं चोद्दसमेहिं धीरा धितिमं तुलेतव्वं । जह सीहो तह साहू, गिरिणदिसीहो तहोवमो साधू । 'वेयावच्चऽकिलंतो, "अभिण्णरागो य आयासे । दारं || पढमा उवस्सयंमि, बितिया बहिं, ततीया चउक्कम्मि, सुण्णघरंमि चउत्थी, तह पंचमिया मसाणंमि । दारं । “उक्कयितो 'दविताइं सुत्ताति करेति सो तु सव्वाइं मुहुत्तद्वपोरिसीए दिणे य काले अहोस्ता ।। अण्णो देहातो अहं नाणत्तं जस्स एवमुवलद्वं । सो किंचि आहिरिक्कं ण कुणति देहस्स भंगेवि ॥ आहिरिक्कं प्रतीकारं दारं । एमेव य देहबलं अभिक्खमासेवणाए तं होति । लंखग-मल्ले उवमा आसकिसोरे व जोग्गविते । दारं । पज्जोतमवंति-खंडकण्ण-साहस्सि-मल्ल-सारिच्छा । महकाल-पलसुर-घडताल- पिसाए करे मंसं । ण किलम्मति दीहेण वि तवेणा । ण य तासितोवि बीहेति । छण्णेवि द्वितो वेलं साहति पुट्ठाऽपुट्ठो अवितहं तु । पुर-पच्छ-संथुतेसु ण सज्जते दिट्ठिरागमादीसु दिट्ठीमुहवण्णेहि य | अज्झत्थबलं "समूहंति । उभयो किसो, किसदढो, दढकिसो यावि, दोहिंवि दढो य | बितिय चरिमो य पसत्था धिति-देह-समास्सिता भंगा | सुंत्तत्थ-झरिय-सारा कालं सुतेण सुट्टु नाऊण । परिजित-परिक्कमेण य सुड्डु तुलेऊण अप्पाणं ततो पडिवज्जंति । परिजितंति गतं ।।
कालेत्ति-सरयकाले पडिवज्जति 'अमवेत्ता वा कालं जाणंति सुत्तादिणा । गणं आमंतेऊण खामेति । तवेवि जो जहिं जोग्गो छट्टट्टमादि जाव सत्तमासावि । संजमे थिरो पडिलेहण-पप्फोडणादीसु, पढमबितिएसु वा संजमेसु । संघयणे १. भयं ण भेरवं मुद्रितप्रतौ । २. यदि । ३. वैयावृत्त्येऽक्लाम्यन् । ४. आयासे श्रमप्रधान-कार्येऽपि मुखरागो न भिद्यते यस्य स । ५. उत्कण्ठितः । ६. दयितानि । ७. समुद्वंति । ८. नालिकादिनाऽमीत्वा ।
ॐ ॐ ६६
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प्रतिमाधारि-भिक्षोः साधना । पूर्ण प्रतिमायां तस्य सत्कारादि-कार्यं कर्तव्यं । मूलसूत्रे प्रतिमा प्रतिपन्नस्स आचारवर्णनम् । पढम-बितिय-ततिएसु । भत्तं अलेवाडं । अधाकडएणं उवधिणा परिक्कमं करेति । पच्छा अण्णं अप्पणियाहिं 'दोहिं एसणाहिं उप्पाएंति । निक्खेवो-जति आयरितो इत्तिरियं गणनिक्खेवं करेति । उवज्झाओ उवज्झायत्तं जाव गणावच्छेइतो गणावच्छेइयत्तं निक्खिवति । जलादिसु वा उवधिं ण निक्खिवति जहिं से सुरो अत्थमेति । मणसाऽऽवण्णेवि से अणुग्घाता । लाभे सचित्ते ण पव्वावेति, उवदेसं पुण देति, जे सक्खेत्तंतो आसण्णा साधू तहिं विसज्जेति जहिं वा नित्थरति । गमणेत्ति भत्तं पंथो य ततियाए पोरिसीए ||
सम्मत्ताए पडिमाए उब्भामग-वसभग्गामे अप्पाणं दंसेति । आयरितो वि से तद्देवसितं वट्टमाणिं वहति चेव, ताधे डंडियादीणं कहिज्जति, ताहे सव्विड्डीए पवेसिज्जति, तवबहुमाणनिमित्तं सद्धानिमित्तं च तस्स सेसाण य । अतो पूया तस्स कीरति । असती दंडियादीणं पउर-जणवतो, तदभावे चाउवन्नो संघो, असति जाव गच्छो पवेसिति || सत्तमासियाए पडिमाए सम्मत्ताए अट्ठहिं मासेहिं वासावासजोग्गं खेत्तं पडिलेहेति उवहिं च उप्पाएति वासजोग्गं | सो य णियमा गच्छपडिबद्धो सव्वावि एसा अट्टहिं समप्पति । तिण्हं पडिमाणं आदिमाणं परिकम्म पडिवज्जणा य एगवरिसेण चेव होज्ज, मासियाए मासं परिः कम्म, जाव सत्तमासियाए सत्तमासा, जावतिए वा कालेण परिकम्मितो भवति । तिण्णवरि सेसाणं पडिमाणं अन्नंमि वरिसे परिक्कमणा अन्नंमि पडिवज्जणा, सोभणेसु दव्वादिसु पडिक्त्ती । तिन्नि सत्तरातिंदिया एक्कवीसाए रातिदिएहि अहोरातिया तिहिं पच्छा छटुं करेति । एगरातिया चउहिं, पच्छा अट्ठमं करेति । नामनिप्फणो गतो । सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारेतव्वं
सप्तमी दशा भिक्षु-प्रतिमा-ऽध्ययन-मूलसूत्रम् ।
मू०-सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खातं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं बारस भिक्खुपडिमाओ पन्नत्ताओ।
____ कतराओ खलु० ? इमाओ० तंजधा (१) मासिया भिक्खुपडिमा, (२) दो-मासिया भिक्खुपडिमा, (३) ते-मासिया भिक्खुपडिमा, (४) चउमासिया भिक्खुपडिमा, (५) पंच-मासिया भिक्खुपडिमा, (६) छ-मासिया १. ऊद्दिष्टादि द्वयं वर्ण्य । 'अप्पणिहियादि' इति पाठान्तरम् । २. स्व-क्षेत्रान्तः । ३. रात्रिन्दिनैरिति शेषः । 'जो अखेतंतो' इति पाठान्तरम् । 'जे से खेमं तो' इत्यपि पाठः ।
ఉంటుందటంతరం అంతంతంతంతంతుండి
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे भिक्षु-प्रतिमा-अध्ययनम्-७
भिक्खुपडिमा, (७) सत्त-मासिया भिक्खुपडिमा, (८) पढमा सत्त-रातिंदिया भिक्खुपडिमा, (९) दोच्चा सत्तरातिंदिया भिक्खुपडिमा, (१०) तच्चा सत्तरातिंदिया भिक्खुपडिमा, (११) अहोरातिन्दिया भिक्खुपडिमा, (१२) एगरातिया भिक्खुपडिमा ।
मासियण्णं भिक्खुपडिम पडिवन्नस्स अणगारस्स निच्चं वोसट्ठकाए चियत्तदेहे जे केइ उवस्सग्गा उप्पज्जंति तं (जधा) दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिक्ख-जोणिया वा ते उप्पन्ने सम्मं सहति खमति तितिक्खति अधियासिति ।
मासियण्णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पति एगदत्ती भोयणस्स पडिगाहेत्तए एगा पाणगस्स अन्नाउंच्छं सुद्धोवहडं निज्जूहित्ता बहवे दुपय-चउप्पय-समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए कप्पति से एगस्स भुंजमाणस्स पडिग्गाहेत्तए, नो दोण्हं नो तिण्हं नो चउण्हं, नो पंचण्हं, नो गुविणीए, नो बालवच्छाए, नो दारगं पेज्जमाणीए, नो अंतो एलुयस्स दोवि पाए साहट्ट दलमाणीए, नो बाहिं एलुयस्स दोवि पाए साहट्ट दलमाणीए, एगं पादं अंतो किच्चा एगं पादं बाहिं किच्चा एलुयं विक्खंभयित्ता एवं दलयति एवं से कप्पति पडिग्गाहेत्तए, एवं से णो दलयति एवं नो कप्पति पडिग्गाहेत्तए ।
___ मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स तओ गोयरस्स काला पन्नत्ता तंजहा-आदि-मज्झे चरिमे, आदि चरेज्जा णो मज्झे चरिज्जा णो चरिमे चरेज्जा, मज्झे चरिज्जा नो आदि चरेज्जा नो चरिमं चरेज्जा, चरिमं चरेज्जा नो आदि चरेज्जा नो मज्झे चरिज्जा ।
मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स छविधा गोयरचरिया पन्नत्ता तं (जधा)-'पेला, अद्धपेला, गोमुत्तिया, "पयंगविधिया, "संबुक्कावट्टा, "गंतुंपच्चागता ।
मासियं णं भिक्खपडिम पडिवन्नस्स अणगारस्स जत्थ केति जाणति गामंसि वा जाव मंडसि वा कप्पति से तत्थ एगरायं वसित्तए, जत्थ केइ न जाणति कप्पति से तत्थेगरातं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पति एगरायातो वा दुगरायातो वा परं वत्थए, जे तत्थ एगरायातो वा दुगरायातो वा परं वसति से संतराछेदे वा परिहारे वा ।
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प्रतिमा-वाहक-साधूनां त्रयो गोचरकालाः, षड्विधा पेडादिरीतिः । ग्रामादौ एकरात्रिस्थिरता । भाषा चतुर्विधा । त्रि-उपाश्रय-संथार-पडिलेहनादि । अग्नि-उपद्रवेऽपि न बहिर्गमनम् । नेत्रादपि रजो न निष्काशनादि ।
मासियं णं भिक्खुपडिमं (पडिवन्नस्स) कप्पंति चत्तारि भासातो भासित्तए तं (जधा)-'जायणी, 'पुच्छणी, अणुण्णवणी, "पुट्ठस्स वाकरणी ।
__ मासियं (णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स) कप्पंति ततो उवस्सया पडिलेहित्तए तं (जधा) अधे आरामगिहंसि वा, अधे वियडगिहंसि वा, अधे रुक्खमूलगिहंसि वा ।
मासियं (णं भिक्खु पडिमं पडिवनस्स) कप्पंति ततो उवस्सया अणुण्णवेत्तए तं (जधा)-अधे आरामगिहं अधे वियडगिहं अधे रुक्खमूलगिहं । मासियं (णं भिक्खु पडिमं पडिवन्नस्स) कप्पंति ततो उवस्सया 'उवाईणत्तए तं चेव ।
मासियं (णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स) कप्पंति ततो संथारगा पडिलेहेत्तए तं (जधा) पुढविसिलं वा कट्ठसिलं वा अधासंथडमेव । मासियं (णं मिक्खु पडिमं पडिवनस्स) कप्पंति ततो संथारगा अणुण्णवित्तए तं चेव । मासियं (णं भिक्षु पडियं पडिवन्नस्स) कप्पंति ततो संथारगा 'उवाइणित्तए
तं चेव ।
मासियं (णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स) इत्थी वा पुरिसे उवस्सयं उवागच्छेज्जा स इत्थि वा पुरिसे वा णो से कप्पंति तं पडुच्च निक्खमित्तए वा पविसत्तए वा ।
मासियं (णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स) केइ उवस्सयं अगणिकाएण झामेज्जा णो से कप्पति तं पडुच्च निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । तत्थ एणं कोइ बाहाए गहाय आगासेज्जा नो कप्पति तं अवलंबित्तए वा पच्चवलंबित्तए वा, कप्पति से आहारियं रियित्तए ।
मासियं (णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स) पायंसि खाणुं वा कंटए वा हीरए वा सक्करए वा अणुपविसेज्जा नो से कप्पति नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा कप्पते से अहारियं रीइत्तए ।
मासियं (णं भिक्खुपडिम पडिवन्नस्स) अच्छिसि वा पाणाणि वा बीयाणि वा रये वा परियावज्जेज्जा नो से कप्पति नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा कप्पति से आहारियं रियत्तए । --
मासियं (णं भिक्खुपडिम पडिवन्नस्स) जत्थेव सूरिये अत्थमज्जा १. याचितुम् २. आकर्षेत् । ఉపయుయువయువతయంతయుతం ఆయువుపయుగంవంవంవయం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे भिक्षु-प्रतिमा-अध्ययनम्-७ .
तत्येव जलंसि वा थलंसि वा दुग्गंसि वा निण्णंसि वा पव्वतंसि वा विसमंसि वा गड्डाए वा दरीए वा कप्पइ से तं रयणी तत्थेव 'उवातिणावित्तए, नो से कप्पइ पदमवि गमित्तए, कप्पति से कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव जलंते पाईणाभिमुहस्स वा पईणाभिमुहस्स वा दाहिणाभिमुहस्स वा उत्तराभिमुहस्स वा अधारियं रीएत्तए ।
मासियं (णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स) णो से कप्पति अणंतरहिताए पुढवीए निद्दाइत्तए वा पयलायइत्तए वा, केवली बूया आदाणमेयं, से तत्य निद्दायमाणे वा पयलायमाणे वा हत्थेहिं भूमिं परामुसेज्जा, अधाविधिमेव ट्ठाणं ठाइत्तए, उच्चारपासवणेणं 'उब्बाहिज्जा नो से कप्पइ उगिण्हित्तए वा। कप्पति से पुनपडिलेहिए थंडिले उच्चारपासवणं परिट्ठवित्तए तमेव उवस्सयं आगम्म अहाविहि ठाणं ठावित्तए ।
__ मासियं (णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स) नो कप्पति ससरक्खेणं कारणं गाहावति-कुलं भत्तए वा पाणए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा । अह पुण एवं जाणेज्जा ससरक्खे सेअत्ताए वा जल्लताए वा मल्लत्ताए वा पंकताए वा विद्धत्थे से कप्पति गाहावतिकुलं भत्तए वा पाणए वा निक्खमित्तए वा पविसत्तए वा ।
मासियं (णं भिक्षुपडिमं पडिवनस्स) नो कप्पति सीओदय-वियडेण वा उसिणोदय-वियडेण वा हत्थाणि वा पादाणि वा दंताणि वा अच्छिणि वा मुहं वा उच्छोलित्तए वा पधोइत्तए वा णण्णत्थ लेवालेवेण वा भत्तामासेण वा ।
___ मासियं (णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स) नो कप्पति आसस्स वा हत्थिस्स वा गोणस्स वा महिसस्स वा वग्घस्स वा वगस्स वा दीवियस्स वा अच्छस्स वा तरच्छस्स वा परासरस्स वा सीयालस्स वा विरालस्स वा 'केकित्तियस्स वा ससगस्स वा 'चिक्खलस्स वा सुणगस्स वा कोलसुणगस्स वा दुट्ठस्स वा आवडमाणस्स पदमवि पच्चोसक्कित्तए । अदुट्ठस्स आवडमाणस्स कप्पति जुगमित्तं पच्चोसक्कित्तए ।
मासियं (णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स) कप्पति छायातो सीयंति नो उण्हं इत्तए, उण्हातो उण्हति नो छायं एत्तए, जं जत्थ जया सिया तं तत्थ अधियासए । एवं खलु एसा मासिया भिक्खुपडिमा अधासुत्तं अधाकप्पं अधा१. गमयितुम् । २. उद्धाध्येत । ३. स्वेदतया । ४. आमृष्टं लग्नं भोजनं । ५. कोकंतियस्स' संभाव्यते लोमटिरूपस्य आचाराङ्गादौ तथा दर्शनात् । ६. 'चित्तगस्स' 'चिल्ललस्स' 'चित्तलस्स' वा संभाव्यते । ఉంటపండిండియుండటం ఆం ఉంటుంంంంంంంంంం
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यत्र सूर्योऽस्तमितः तत्रैव स्थातव्यम्, पदमपि गमनाय न कल्पते । पूर्वप्रतिलिखित- भूमौ मल-मूत्रपरिष्ठापनादि । हस्त-मुख-धोवनमकल्पं । सन्मुखागच्छतां दुष्ट- हस्ति- व्याघ्रादीनां पदमपि परावर्तितुं न कल्पते । यावन्तो मासा : तावन्त्यो दत्तयः । ग्रामाद् बहिः स्थानं उत्तानगादि-प्रकारेण । प्रतिलिखितभूल-मूत्र-परिष्ठापनं नान्यत्र । द्वितीया - सप्तरात्रि-दिवसायां उत्कटुतादिस्थानेन स्थातव्यम् ।
मग्गं अधासच्चं सम्मं कारणं फासित्ता पालित्ता सोभित्ता तीरिता किट्टित्ता आराधिता आणा अणुपालित्ता भवति ||१||
दोमासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स निच्चं वोसट्टकाअं चैव जाव दो दत्ती, तेमासियं तिन्नि दत्तीओ, चाउमासियं चत्तारि दत्तीओ, पंचमासिय पंचदत्तीओ, छमासियं छदत्तीओ, सत्तमासियं सत्तदत्तीओ, जति मासिया तत्तिया दत्तीओ ॥२-७॥
पढमा सत्त रातिंदियाणि भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स निच्वं वोसट्टकाये जाव अधियासेति । कप्पति ते चउत्थेणं भत्तेणं अप्पाणणं हिता गामस्स वा जाव रायहाणीए वा उत्ताणगस्स वा पासेल्लगस्स वा नेसज्जि - यस्स वा ठाणं ठाइत्तए । तत्थ दिव्व- माणुस - तिरिक्ख जोणिया उवस्सग्गा समुप्पज्जेज्जा ते णं उवस्सग्गा पयाल्लिज्ज वा पवाडिज्ज वा, नो से कप्पति पयलिएत्त वा पवडित्तए वा । तत्थ से उच्चारपासवणं उब्बाहेज्जा नो से कप्पति उच्चारपासवणं ओगिण्हित्तए वा, कप्पति से पुव्वपडिलेहियंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिठवित्तए अहाविधिमेव द्वाणं ठाइत्तए, एवं खलु एसा पढमा सत्तराइंदिया मिक्खुपडिमा अहासुयं जाव आणाए अणुपालित्ता भवति ॥८॥
एवं दोच्च-सत्तरातिंदियावि नवरं दंडातियस्स वा लगंडसाइस्स वा उक्कुडुयस्स वा द्वाणं ठाइत्तए सेसं तं चैव जाव अणुपालित्ता भवति ॥९॥ एवं तच्चा सत्त रातिंदिया भवति । नवरं गोदोहियाए वा वीरासणियस्स वा अंबखुज्जस्स वा ठाणं ठाइत्तए सेसं तं चैव जाव अणुपालित्ता भवति ||१०||
एवं अहोरातियावि, नवरं छणं भत्तेणं अपाणएणं बहिता गामस्स वा जाव रायहाणिस्स वा इसि पब्भार-गतेणं कारणं एगपोग्गल-गताए दिट्ठीए अणिमिस-नयणे अधापणिहितेहिं गत्तेहिं सव्विंदियेहिं गुत्ते दोवि पाए साहट्टु वग्घारिय-पाणिस्स द्वाणं ठाइत्तए । तत्थ से दिव्व- माणुस - तिरिच्छजोणिया जाव अधाविधिमेव ठाणं ठाइत्तए ||११॥
एगराइयण्णं भिक्खुपडिमं अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ दाणा अहिताए असुभाए अखमाए अणिस्सेस्साए अणाणुगामियत्ताए भवंति
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे भिक्षु-प्रतिमा-अध्ययनम्-७
तं (जधा)-उम्मायं वा लभेज्जा, दीहकालियं वा रोयातंकं पाउणेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा ।
एगराइयण्णं भिक्खुपडिमं सम्म अणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणा हिताए जाव अणुगामियत्ताए भवंति तं (जधा)-ओधिनाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, मणपज्जवनाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, केवलनाणे वा से असमुप्पन्नपुवे समुप्पज्जेज्जा।
एवं खलु एसा एगरातिया भिक्खुपडिमा अधासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अधातच्चं सम्मं कारणं फासित्ता पालित्ता सोहेत्ता तीरेत्ता किट्टेत्ता आराहिया आणाए अणुपालेत्ता यावि भवति ||१२|| एताओ खलु तातो थेरेहि भगवंतेहिं बारस भिक्खूपडिमातो पन्नत्तातोत्ति बेमि ।। सत्तमा दसा सम्मत्ता ॥
चू०-जाव मासियण्णं मासोऽस्याः परिमाणं मासिया, णंकारो पूरणार्थ, भिक्खूणं पडिमा भिक्खूपडिमा । भृशं प्रपन्नः प्रतिपन्नः । नास्य अगारं विद्यते सोऽयमनगारः । निच्चंति दिया य रातो य वोसट्टकाएत्ति वोसठ्ठो व्युत्सृष्ट इव । चीयतेऽसाविति कायः । वोसटुं दुविधं-दव्ववोसष्टुं भाववोसटुं च । दव्ववोसढे कुलवधु-दिटुंतो असिणाण-भूमिसयणा अविभूसा कुलवधू.पउत्थ-धवा रक्खति पतिस्स सेज्जं अणिकामा दव्ववोसट्ठा । भाववोसट्टे साधू वातिय-पेत्तिय-सिंभियरोगातंकेहिं । तत्थ पुट्ठोवि ण कुणति पडिकारं सो किंचिवि वोसट्टदेहो तु | चियत्तदेहोत्ति त्यक्त्तदेहः । सो दुविधो-दव्वतो भावतो य । दव्वतो जुद्धपरायित अट्टणफलहीमल्ले णिरुद्धपरिकम्मो गृहण मच्छियमल्ले ततियदिणे दव्वतो चत्तो । भावतो चत्तो, "बंधिज्ज व रुंभिज्ज व कोइ व हणेज्ज अहव मारेज्ज'' वारेति ण सो भगवं चियत्तदेहो अपडिबद्धो० | जइ केइत्ति यदि केचित् यदित्यब्भुपगमे, केचिदुपसर्गा दिव्वादि तिन्नि चउधा बारस एवं तु होतुवसग्गा | वोसट्टग्गहणेण तु आता संवेयणग्गहणं, हासा-प्पदोसा-वीमंसा पुढोवेमायं दिव्विया, चउरो, हास-प्पदोस-वीमंस-कुसीला रेणरसत्ता चउधा, भयतो पदोस-आहारानुबंध-ऽवच्च-लेण-रक्खडा तिरिया होति चउद्धा, एते तिविधा उवसग्गा || घट्टण-पवडण-थंभण-लेसण चउहा तु आत-संवेता । ते पुण सन्निपतंती वोसठ्ठदारेण इहयं तु । ते उप्पन्ने सम्मं सहतित्ति । मणवयणकायजोगेहिं तिहिं तु दिव्वमादि तिन्नि सम्मं अहियासेती ।
एत्थ सुण्हाए दिटुंतो । तीसे उक्कोस सासु-ससुरादी एते अपराधे कते १. आत्मसंवेदनग्रहणम् । २. नरकृता नरसत्का वा । ఉంంంంంంంంంంంం ఆ టవంతం ఉదంతం
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सम्यक्-पालने अवधि-मनः पर्यव-कैवल्य-प्राप्तिः । अन्यथा उन्मादादिदोष-प्रादुर्भावः । सम्यकपालने वधूद्रष्टान्त-दर्शनम् । दत्ती-स्वरुप-प्रकटनम् । बहसं खिसंति, सा खिंसिता अतीव लज्जति, जतिवि ताण दुक्खुप्पायगाणि वयणाणि दुरधियासाणि तधवि ताणि अहियासेति, जति णाधियासिस्सामि तो कुलस्स अवद्धंसो होहिति एहसायारो व अतिक्कंतो होहिति । मज्झिमा दियरा उल्लंठवयणाणि भणंति, जतिवि तेसिं सा ण लज्जति , तहवि ण पडिउल्लंठेति अहियासेति साहणिज्जा एते । जहण्णा या दासादीया दासा य ण्हुसं उल्लुंठेति, दासत्ति 'खलाकातुं किमेतेसिं वयणाणि गणेमि अधियासेति, पडिवयणं ण देति । एतं दव्वसहणं | भावसहणं साधुस्स | सासु-ससरोवमा खलु दिव्वा , दियरोवमा य माणुस्सा, दासत्याणीया तिरिया । ताहे संमं सोऽधियासेति ।
___ अथवा-दुधा वेते समासेण सव्वे सामण्ण-कंटका विसयाणुलोमिया चेव तहेव पडिलोमिया ।। वंदण-सक्कारादी अणुलोमा, वध-बंधण-पडिलोमा । तेवि य खमति सव्वे । एत्थ य रुक्खेणं दिलुतो । वासीचंदणकप्पो जह रुक्खो इय सुह-दुह-सहो तु राग-द्दोस-विमुक्को सहती अणुलोम-पडिलोमे ।
मासिय णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पति एगा दत्ती भोयणस्स सुत्तं-दत्तीपरिजाणणत्थं इमं सिलोगद्वयं भण्णति
हत्थेण व मत्तेण व भिक्खा होति समुज्जता । दत्ती उ जत्तिए वारे खिवती होति तत्तिया ||१|| अवोच्छिन्ननिपाता तु दत्ती होति 'दवेतरा | एगाणेगासु चत्तारि वि भंगा भिक्खासु दत्तिसु ||२||
एगा भिक्खा एगा दत्ती, तत्थ पढमभंगो दायएणं एगा भिक्खा अव्वोच्छिन्ना दिन्ना, बितियभंगे वोच्छिन्ना दिन्ना, तइयभंगो केइ पंथिया कम्मकरा वा एगत्थातो गासे वीसुं वीसुं उवक्खडेत्ता भुंजंति, तेसिं एक्को परिवेसतो, साहुणा य भिक्खट्टाए तत्थ धम्मलाभितं, ताहे सो परिवेसतो अप्पणयातो देमित्ति ववसितो । तहिं सेसएहिं भण्णत्ति, पत्तेयं पत्तेयं अम्हंच्चयातो वि देहि भिक्खं, ताहे तेण परिवेसएण सव्वेसिं तणयातो घेत्तुं एगट्ठा कातुं अव्वोच्छिन्नं दिन्नं एस ततितो भंगो । चउत्थो भंगो एवं चेव णवरि वोच्छिण्णं । एत्य दत्तीस एगाणेगविसेसणहाए अट्ठ भंगा परूविज्जंति । तं जधा-एगो दायगो एगं भिक्खं एक्कसिं देति । एगो एगं भिक्खं दुप्पभितिं वा तिप्पभितिं वा देति । एवं अट्ठभंगा कायव्वा ।
१. खला इति कृत्वा । २. प्रवाहिद्रव्यं तदितरच्च यत्र ।
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे भिक्षु-प्रतिमा-अध्ययनम्-७
अण्णाउंच्छं । उच्छं चउव्विहं णामादि । णामं ठवणातो गतातो । दबुच्छे गाथा
ठवणाए निक्खेवो छक्को दव्वं च दव्वनिक्खेवो । खेत्तंमि जम्मि खेत्ते काले कालो जहिं जो उ ||३|| उक्खल-खलगे दव्वी दंडे संडासए य पोत्तीया । आमे पक्के य तथा दव्युच्छे होति निक्खेवो ।।४।।
तावसादी उंच्छवित्तिणो जं 'उक्खल-कुंडियाए परिसडितं सालिकणादि तं उच्चिणित्ता रंधेति । खलए मद्दिते संवूढे य जं परिसडितं तं उच्चिणंति, दविए धण्णरासीतो अणुण्णवेत्ता जं दव्वीए एक्कसिं उप्पाडिज्जति तं गिण्हति । एवं अणत्थ वि प्रतिदिवसं डंडे धण्णराशीतो अणुण्णवेत्ता जं लट्ठीए उप्पाडि. ज्जति तं गिण्हंति । एवमण्णत्थवि प्रतिदिवसं, संडासएत्ति अंगुढ़-पदेसिणीहिं जं घेप्पति सालिमादि तं गिण्हंति, जतिवि बहं पासति सालिमादि तधवि ण मुहिँ भरिता गिण्हति । पोत्तीए धण्णरासीतो अणुण्णवेत्ता पोतिं तत्थ छुभंति जं पोत्तीए लग्गति तं गिण्हंति, एवमन्नत्थवि । एतं आमं पक्कं जं चरगादीआ भिक्खं हिंडति एयं दबुंछं ।
भावे जत्थ ण णज्जति, जधा एतस्स एत्तियातो दत्तीओ कप्पंति तं पुण अण्णाउंच्छं । सुद्धं उवहडं वा, सुद्धं नाम अलेवाडं सुद्धाहिं वा पंचहिं उद्धडादीहिं, उवहडा जा अन्नस्स भुंजितुकामस्स अट्ठाए उवणीता भिक्खायरस्स वा तेण य ण इच्छिया, दिण्णसेसावसेसो दव्वाभिग्गहो । खेत्ताभिग्गहो जं उवरि भणिहिति, एलुगं विक्कंभइत्ता | काले ततियाए पोरिसीए ।
___ भावे निज्जूहिता दुपद-चतुष्पदादि जाव णो दारगं पज्जेमाणीएत्ति । णिज्जूहिता णियत्तेसु दुपद-मणुस-पक्खी, चतुष्पदा गो-बलिवद्दाद्दी । समणा निग्गंथ-सक्क-तावस-गेरुय-आजीवगा पंच | माहणा मरुगा । अतिधी धूलीजंघा कप्पडियादि, किविणा-रंका, वणीमगा-साणमादी । अंतराइय-दोस-परिहरणत्थं एते परिहरिज्जंति । जं तं हेट्ठा भणियं, उवणीतं, तं जति एगस्स भुंजमाणस्स उवणीयं तो गिण्हति, न गेण्हे दुगमादीणं, अचियत्तं तु मा भवे । गम्विणीए गब्भो पीडिज्जति अपाओ य उत्त-णिवेसंतीए, जिणकप्पिया पडिमापडिवन्नगा य आवन्नमेत्तगाइ गब्भं परिहरंति, गच्छवासी अट्ठम-णवमेसु मासेसु परिहरंति, नो
१. उक्खलखंडियाए' पाठान्तरम् । ఉందంటతడి తందం ఆ
యువతరించడం
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उच्छ-निक्षेपः । क्षेत्राभिग्रहे अतिभूमिं न गन्तव्यम्, तत्र गमने दोषाः । उद्यान-घटा-भोज्येऽन्येषामप्रीति वर्जयित्वा ग्रहीतव्यम् ।
बालवच्छाए खीराहारं गच्छवासी, पडिमापडिवन्नगा जिणकप्पिया य कूराहारमवि निक्खवितुं दितीए णिच्छंति । एत्य दोसा सुगुमाल-सरीरस्स खरेहिं हत्येहिं सयणीए वा पीडा होज्ज, मज्झारादी वा साणो वा हरणं करेज्जा | नो दारगं पज्जेमाणीएत्ति थणयं पायंतीए' | भावाभिग्गहो गतो ।
खेत्ताभिग्गहो नो अंतो एलुगस्स सुत्तं-एलुगो-उंबरो साहत्ति-साहरिता गच्छगत-निग्गते वा लहगा गुरुगा य । एलुगा परतो आणादिणो य दोसा, दुविधा य विराधणा । इणमो
संकग्गहणे इच्छा दोन्नि विट्ठा अवाउडा, निहणुक्खणणविरेगे । तेणे अविदिन्न-पाहुडे, बंध-वध-उद्दवणे खिंसणा चेव निच्छुभणमेव उव्वेवं झंझुडिए दीणे अविदिण्ण-वज्जेण य पच्छित्ते आदेसा ।
(व्याख्या) संकित- निस्संकिते य गहणादी तेणे व चउत्थे संकिता गुरुगा, णिस्संकिते मूलं, गेण्हण-कट्टण-ववहार-पच्छाकदृड्डाह तध य निव्विसए । का णु हु इमस्स इच्छा ? अभितरमतिगतो जीए दोन्नि विट्ठा व होज्जाही । अवाउडा वा ५अगारी तु लज्जिता सावि हुज्जाहि, संका वा से समुभवे, किं मण्णे घेत्तुकामो एस ममं ? जेण तीति एरं, अण्णो वा संकेज्जा गुरुगा, मूलं तु निस्संके, आउत्थ-परुत्था वा उभयसमुत्था वा होज्ज दोसा तु उक्खणनिहणविरेगं च । तत्थ किंची करिज्जाही । दिटुं एतेण इमं , साहिज्जा मा तु एस अन्नेसिं, तेणोत्ति वए सो उ संकागहणादि कुज्जाहि, तित्थंगर-गिहत्येहिं दोहिवि अतिभूमिपविसणमदिन्नं, किं से दूरमतिगतो, असंखडं बंधवहमादी, खिंसेज्ज व, जह एते अलंभंत वराग अंतो पविसंति, गलए घेत्तूण च णं बाहरितो निच्छुभिज्जाहि, ताओ य अगारीओ विरल्लेणं व तासिता सउणी उव्वेवं गच्छिज्जा | झंझुडितो णाम उवचरतो, । अहवा भणिज्ज एते गिहिवासंमिवि अदिठ्ठ-कल्लाणा दीणा अदिन्नदाणा, दोसे ते णाउंणो पविसे | उंबर-विक्खंभंमिवि जति दोसा अतिगतंमि सविसेसा तहवि अफलं न सुत्तं , सुत्तनिवातो इमो जम्हा ।
उज्जाण-घडा-सत्थे सेणा-संवट्ट-वय-पवादीया । पडिनिग्गमणे जणे भुंजंति य जहिं पहिय-वग्गो | उज्जाणेत्ति उज्जाणियाए निग्गतो जणो तत्थ भुंजति । घडाभोज्जं-नाम-महत्तरग अणुमहतरग-ललिता-ऽसणिता कडग-दंडधार-परिग्गहिता
१. नेच्छन्ति इति शेषः । २. उपचरक उपपतिरित्यर्थः । ३. तथाच । ४. उपविष्टौ, दुर्निविष्टौ अस्त-व्यस्तोपविष्टौ भुलभोगौ वा । ५. अप्रावृता वा गृहस्थस्त्री । ६. उद्वेगम् । aladdddddddddadidaal ७५ andaaaaaaaaaaaaaaaaaa
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे भिक्षु-प्रतिमा-अध्ययनम्-७ गोट्ठी । सत्यो वा बहिं आवासितो | सेणा-खंधावारो । संवट्टो भएण जत्थ विसमादिसु संवट्टीभूतो लोओ । वइयत्ति-वइया सभाए, पयाए, भुंजति बाहिं वा जंनवाडे वा जहिं वा बाहिं पथियवग्गो भुंजति । एतेसु सो पडिमापडिवन्नओ हिंडति, तत्थिमा विधी गेण्हितव्वे, पासद्वितो एलुगमेत्तमेव पासति । न चेतरे दोसा निक्खम-पवेसणेवि य अचियत्तादी जढा । एवं तत्थ गंतुं निक्खमणपवेसे वज्जित्ता, इसित्ति पासे ठाति । जधा एलुगमित्तं पासति तहा हाति, उक्खेवं च जहा य पुव्युत्ता दोसा न भवंति तथा हाति । उज्जाण-घडादीणं असतीए जे सालापमुहे । कोट्टओ विसालो दूरट्टितेहिंवि, एलुगो उक्खेवो य दीसति, मण्डवे वा जत्थ परिवेसणा रसवतीए वा तं अगंभीरं पगासंति भणितं होति, तत्थवि निक्खमण-पवेसं वज्जेत्ता एलुगमित्तखित्ते उक्खेवनिक्खेवो य दीसंति तत्थ हाऊं गेण्हति । खेत्ताभिग्गहो गतो ।।
इदाणिं कालाभिग्गहे सुत्तं मासियण्णं-तओ गोयरकाला पण्णत्ता तं०आदिं चरेज्ज सुत्तं त्रय इति संख्या , गौरिव चरणं गोचरा जधा सो वच्छतो रूववतीए इत्थियाए चारिपाणिए उवणीते तीसे रूवादि-अस्तो अब्भवहरति ।
__ एवं सोवि भगवं सद्दादिसु अमुच्छितो ततियाए पोरिसीए अडति । तत्थ गाथाओ | पुव्वं वा चरति तेसिं, णियट्टचारेसु वा अडति पच्छा । जत्थ दोन्नि भवे काला चरती तत्थ अतित्थिए अणारद्धेव । अन्नेसु मज्झे चरति संजतो गिण्हंत-देंतयाणं तु वज्जयंतो अपत्तियं, जति अण्णे भिक्खयरा मज्झे अडंति तो सो पुव्वं भिक्खं अडति अहवा सन्नियट्टेस भिक्खयरेस पच्छा अडति । जत्थ दो भिक्खवेला, तत्थ पढमभिक्खवेले अतिक्कंते, बितियभिक्खवेले अप्पत्ते हिंडति, एवं मज्झे ।
. मासियण्णं-छविधा गोयरचरिया पण्णता । तं जहा १) पेडा य २) अद्धपेडा य ३) गोमुत्तिया-वंक-वंकं हिंडति । ४) पतंगो तिड्डो सो जहा-उप्फेडेंतो गच्छति । एवं घराणि छड्डिंतो हिंडति । ५) संबुक्कावट्टा दुविहा-पयाहिण-संबुक्कावट्टा य अपयाहिण-संबुक्कावट्टा य । ६) गंतुं पच्चागतित्ति एगाए ओलिए हिंडंतो गच्छति बितियाए ओलिए हिंडंतो पडिएति सेसं छड्डेति ।
मासियण्णं-जत्थ केइ जाणंति सुत्तं-जत्ति-जंमि गामंमि वा णगरम्मि वा, केइ-गिहत्था गिहत्थियातो वा जाणंति एस पडिमापडिवण्णतो संणातगादि वा कप्पति वट्टति सेत्ति तस्स पडिवन्नस्स निद्देसो तत्थ एगराइयं वसित्तए । एत्य एकरात्रिग्रहणात् दिवारत्तिपि वसति । सेसं कंठं | १. अन्य-तीर्थिकैरनारब्धे भिक्षाटने । Daddabaadaradabaddal ७६ addddddddddddara
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कालाभिग्रहे गोचरचर्या षड्विधा । यत्र सूर्योऽस्तमित: चतुर्थी पौरुषीं प्राप्तः सूर्यः, तत्रैव भाजनसहितेन कायोत्सर्गः कर्तव्यः ।
मासियंण्णं पडिमं पडिवन्नस्स चत्तारि भासातो जायणी ट्क (=४), १) जायति संथारगं उवस्सयं वा, २) पुच्छति कस्सोग्गहो सुत्तत्थे वा संदेहं, ३) अणुंणावेंति जे तेहिं पुव्वहिता उच्चार-तण-डगला वा अणुण्णवेति, ४) पुट्ठस्स वागरणी एगनातेण वा एगवागरेण वा ।
मासियण्णं तओ उवस्सया उवस्सयं पुव्वं पडिलेहेति सुद्धं अणुण्णवेति । पच्छा उवातिणति 'उवल्लियतित्ति भणितं होति ।
मासियं तओ संथारगा पुढविसिला पट्टगा, कट्ठसिला फलगाणि, अहासंथडा तह चेव द्विता ।
मासियं णं इत्थी उवस्सयं सुत्तं इत्थी-मेहुणसंगारदिण्णिया वा अधासंपत्तीए वा तं पड्डुच्च ति तं स्त्रीजुगलं वा ।
मासियं उवस्सयं अगणिकाएण सुत्तंअवलंबतित्ति- अक्खेवेति पच्चवलंबतित्ति पूणो पूणो । ४अधारियं रियत इति कडिज्जमाणो वि णातियरंति । पादंसि खाणु वा णीहरति उक्कड्डति, विसोहेति अवयवा अवणेति ण य दक्खतित्ति अच्छति अहारियमेव रीयंति । अच्छिसि पाणाणि वा पाणा मक्खिगादी, बीयाणि तिलादि, रओ-धूली परियावज्जति-लग्गति णीहरति 'उद्धरति विसोधेति धोवति अच्छीणि । ण य दुक्खतित्ति अच्छति अधारियमेव रीयति । गामेगरातियाए ।
मासियण्णं जत्थेव सूरिए अत्यमिज्ज सुत्तं-जत्यति विसंतए थलए वा तेसिं चउत्थिं पोरिसिं पत्तो सूरो अत्थं च भवति, जलं "अब्भग-वासियं, जहिं उस्सा पडति, थलं अडवीए दुग्गं गहणं कडिल्लं, णिण्णं-गड्डमादि विसमं निणण्णतं पव्वतोपव्वतए वा | णो पडिसेहे, से णिद्देसे । जो अधिकतो पडिमापडिवण्णतो, पदमात्रमपि अपिग्रहणात् अर्द्धपदमपि, “उवातिणावेत्तए । 'वसित्तए, अधारिया-जधारिया पदभेदादि ण करेति । अणंतरहिताए पुढवीए-तिरोऽन्तर्धाने न अंतरिया अणंतरिया अणंतरहिता-सचेतना इत्यर्थः । निद्दाइत्तए सुवित्तए य पयलाइत्तए-उंघित्तए, केवली बूया-केवली परं ते दोसे समत्थो णातुं वक्तुं वा जे तत्र संभवंति । अथवा केवलिवयणेण भणामि दोसे ण सच्छंदेण । कतरो केवली ? १. उपलीयते-आश्रयति । २. यथासंस्तृता-तथैव स्थिता । ३. आक्रोष्टुं आक्षेप्तुं वा न कल्पते । ४. ईर्यासमितिमनतिक्रम्य गच्छति । ५. नोद्धरतीत्यर्थः । ६. निवसन्आश्रयन् । ७. मेघवृष्टम् । ८. गमयितुम् । ९. 'वत्तित्तए' पाठान्तरं वर्तयितुं निवसितुम् । ఉంయంయంయంయంయంయంయం 90 ఉతంతంతుందంతం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८
सुतनाणकेवली बूया वक्तुं | आदाणं दोसाणं आयतणं वा, हत्येण अधियं सच्चित्तं भूमि परामुसिज्ज ।
___ मासियण्णं-ससरक्खण-काएण सुत्तं-सचित्त-रतो ससरक्खो, सेतो पस्सेतो, जल्लो मलो कद्दमीभूतो', मलो हत्यादिघट्टितो अवेति, सो चेव मलो जदा. सेएण उल्लितो भवति तदा पंको भवति । विद्धत्थो परिणतो अचित्तो जातो । सीतोदग-वियडेण वा, सीतं उदयं वियडं भंगा ४- (१) चउत्थ-रसियं (२) उसिणदवं वा सीतलगं (३) उसिणोदग-वियडं फासुगं (४) अवियडं नीवोदगादि । हत्थादीणि कंठाणि, लेवे देंतियाए लेवाडितं, असुइणा वा गाते, किंचि सउणगादिणा, भत्तामासे समुद्दिढे हत्यो धोवति । जहिं सूरो अत्यमेति जले भूमीए वा तहिं भाणे ण निक्खिवति, "लइतएहिं चेव ज्झायति ।
मासियण्णं गोणस्स वा सत्तं-गोणादि जाव एगा कंठा, दीविओ चित्ततो, अच्छो-अच्छभल्लो, तरच्छो तरक्ख, सेसा कंठा दुट्ठा मारणातो, उमत्तओ 'एरंडइतओ सेसावि तओ (रोसावितओ) वा वह परिणतो आपतति । पदमवि ण ओसरति, उव्वत्तति वा, अपि ग्रहणात् अर्द्धपदमपि, जति ओसक्कति तधावि हरिताणि मइंतो आगच्छति, तेण न ओसक्कति मा अधिकरणं भविस्सति । अदुढे ओसक्कति उवत्तत्ति वा, मा सो उव्वत्तंतो हरिताणि य मद्दिहिति मा अधिकरणं भविस्सति ।
मासियण्णं णो कप्पति छायातो सीतकालए मम सीतंति काउं उण्हं गच्छति, उण्हकालए वा उण्हमिति कृत्वा छायं गच्छति । जति सीतं उण्हं वा जत्थ ओगासे जता काले तं सीअं उण्हं वा तंमि खेत्ते जले थले वा उवस्सए वा तदा सीतकाले वा उण्हकाले वा एएण पणिधाणेण गच्छति भिक्खादि-कज्जेसु गच्छति ||१||
समत्ताए गच्छं पविसेज्जति विभवेण दो मासिया जाव सत्तमासिया । एयं चेव नाणत्तं दत्तीसु कालेण वा ।।२-७||
पढम-सत्तरातिंदियादिसु कालकतो उपधानकृतो य विसेसो, ण दत्तीपरिमाणं, चउत्यपारणए आयंबिलं, अपाणगं तवोकम्मं "सव्वासिं । णेसज्जितो अचेट्टतो, वग्घारित-पाणी (लंबियपाणी) ईसिपब्भार-गतो तडीए ठाति, ईसिं १. समर्थ इति शेष : | २. अधस्तनीम् भूमिम् । ३. 'कठिणीभूतो' पाठान्तरम् । ४. भक्तेन आमृष्टे स्पृष्टे लग्ने इति यावत् । ५. कायेन सह लगितैः संपृक्तैर्ध्यायति । ६. हडक्कयितःश्वा । ७. प्रतिमानाम् । dadidabaddududeddadaddual ७८ Jadududdadaduddadadududel
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प्रतिमा-धारिणामाचारः । यावदन्त्य-प्रतिमायामेक-पुद्गल-निरुद्ध-घष्टितया कायोत्सर्गे स्थातव्यम् । पर्युषणा-एकार्थिकानि नामानि । खुज्जगो वा, ईसिं दोवि पादे, पादस्स य पादस्स य अंतरं चउरंगुलं साहट्टसाहरिता, एगपोग्गल-निरुद्धदिट्ठी-रूविदव्वे कम्हिवि अचेयणे निवेसिया दिट्ठी, सचेतण 'अप्पाइव्वति, उम्मेसादीणिवि ण करेति सहमुस्सासं च । २अहापणिहिताणि जं जं धाविति सव्विंदियाणि सोतादीणि ण रागं ण दोसं गच्छति । सेसं कण्ठं ||
॥ भिक्खु-पडिमा नाम सत्तमज्झयणं सम्मत्तं ॥
अथ अट्ठमी दसा पज्जोसमणा-कप्पो अज्झयणं
चू०- संबंधो सत्तमासियं फासित्ता आगतो ताहे वासाजोग्गं उवधिं उप्पाएति वासाजोग्गं च खेत्तं पडिलेहेति । एतेण संबंधेण पज्जोसवणाकप्पो संपत्तो । तस्स दारा चत्तारि । अधिगारा वासावासजोग्गेण खेत्तेण य उवधिणा य जाव वासा समुज्जाता । नामणिप्फन्नो पज्जोसमणाकप्पो दुपदं नाम, पज्जोसमणा कप्पो य, पज्जोसमणाए कप्पो पज्जोसमणाकप्पो । पज्जायाणं तोसमणा पज्जोसमणा । अथवा परि सव्वतो भावे, उस निवासे, एस पज्जोसमणा |
- इदाणिं णिज्जुत्ती-वित्थारो । पज्जोसमणाए गाथाद्वयं । पज्जोसमणाए अक्खराइं होंति उ इमाइं गोण्णाइं। 'परियाय-ववत्थवणा 'पज्जोसमणा य पागइया ||५५|| "परिवसणा 'पज्जुसणा पज्जोसमणा य वासावासो य । "पढमसमोसरणं ति य 'ठवणा 'जेट्ठोग्गहेगट्ठा ।।५६।।
पज्जोसमणा एतेसिं अक्खराणं शक्रेन्द्र-पुरन्दरवदेकार्थिकानि नामानि गुणनिप्फण्णानि गोण्णानि, जम्हा पवज्जा-परियातो पज्जोसमणा-वरिसेहिं गणिज्जति तेण परियाग-ववत्थवणा भण्णति । जधा आलोयण-वंदणगादीसु जहा रातिणियाए कीरमाणेसु अणज्जमाणे परियाए पुच्छा भवति । कति पज्जोसमणातो गताओ उवठ्ठावितस्स ? जम्हा उडुबद्धिया दव्व-खेत्त-काल-भाव-पज्जाया इत्थ पज्जसविज्जंति उज्झिज्जतत्ति भणितं होइ (१) । अण्णारिसा दव्वादिपज्जाया वासास्ते आयरिज्जति तम्हा पज्जोसमणा भण्णति (२) । पागतियत्ति १.अप्रापितव्य इति । २.'अहापणिहाणि' पाठान्तरम् । ३. जं जहावि यं' पाठान्तरम् । ४. उपशमना क्रोधादिपर्यायाणाम् यदिवा ऋतुबद्धसत्कानां द्रव्यादिपर्यायाणामुज्झनं नवानां च वर्षारात्रे समाचरणम् । andidaduddidadduddada ७९ dddddddddddddedias
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८ पज्जोसवणत्ति एतं सव्वलोग-सामण्णं पागतिया (३) । गिहत्था एगत्य चत्तारि मासा परिवसंतित्ति परिवसणा (४) । सव्वासु दिसासु ण परिब्भमंतीति पज्जुसणा (५) । वरिसासु चत्तारि मासा एगस्थ अच्छंतीति वासावासो (६) । निव्वाघातेणं पाउसे चेव वासपाउग्गं खित्तं पविसंतीति पढम-समोसरणं (७) । उडुबद्धातो अण्णमेरा ठविज्जतीति ठवणा (८) । उडुबद्धो एक्केक्कं मासं खेत्तोग्गहो भवतित्ति । वरिसासु चत्तारि मासा एगखेत्तोग्गहो भवतित्ति जिट्ठोग्गहो (९) । एषां व्यंजनतो नानात्वं न त्वर्थतः । एषामेकं ठवणानामं परिगृह्य निक्खेवो कज्जति । ठवणाए निक्खेवो गाथा । ठवणाए निक्खेवो छक्को दवं च दवनिक्खेवो । खेत्तं तु जम्मि खेत्ते काले कालो जहिं जो उ ||५७।। ओदइयाईयाणं भावाणं जा जहिं भवे ठवणा | भावेण जेण य पुणो ठविज्जए भावठवणा उ ||५८||
नाम-ठवणातो गताओ, दव्वट्ठवणा जाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरिता, दव्वं च दव्वनिक्खेवो, जाइं दव्वाइं परिभंजंति जाणि य परिहरिज्जंति । परि जंति तणडगल-छार-मल्लगादि । परिहरिज्जति सचित्तादि ३ । सचित्ते सेहो ण पव्वाविज्जत्ति, अचित्ते वत्थादि ण घेप्पति, पढमसमोसरण (णे) मीसए-सेहो सोवहितो । खेत्तट्ठवणा सकोसं जोयणं, कारणे वा चत्तारि पंच जोयणाई । कालठ्ठवणा चत्तारि मासा , यच्च तस्मिन् कल्प्यं । भावठवणा कोहादि-विवेगो भासासमितिजुत्तेण य होतव्वं । एतेसिं सामित्तादि विभासा कातव्वा । तत्थ गाथा-सामित्ते० । सामित्ते करणम्मि य, अहिगरणे चेव होति छडमेया । एगत्त-पुहत्तेहिं, दवे खेत्त-ऽद्ध-भावे य ||५९॥
दव्वस्स हवणा दव्वट्ठवणा, दव्वाणं वा ठवणा दव्वट्ठवणा, दव्वेण वा ट्ठवणा, वरदव्वेहिं वा ठवणा, दव्वंमि वा ठवणा वरदव्वेसु वा ठवणा । एवं खेत्तकाल-भावेसुवि एगत्त-बहुतेहिं सामित्त-करणा-ऽधिकरणता भाणितव्वा । तत्थ दव्वस्स ठवणा जधा कोइ संथारगं गिण्हति, दव्वाणं जधा तिन्नि पडोगारेणं गिण्हति दव्वेणं जधा-वरिसास्ते चउसु मासेसु एक्कसिं आयंबिलेणं पारिता सेसं कालं अभत्तटुं करेति, दव्वेहिं मासेहिं मासेहिं चत्तारि आयंबिलपारणया एवं निव्विति ओदणंपि, दवम्मि जधा-एगंगिए फलए हातव्वं दव्वेसु जधा- 'दोमादी-कंबी१. ट्यादि-कंबी-निष्पण्ण-संस्तारके । ఉంంంంంంంంంంంం • యంతీయతతంగంతుతం
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स्थापना-निक्षेपः, द्वाराणि च । काल-स्थापना-स्वरुपम् । ऊनाधिक-कारण-मीमांसा ।
संथारए । खेत्तस्स एगगामस्स परिभोगो, खेत्ताणंत्ति गामादीणं अंतरपल्लीयादीणं, करणे एगत्त-पुहत्तेणं णत्थि । अधिकरणे एगे खेत्ते परं अद्धजोयण-मेराए गंतुं 'पडिएतए, पुहतेणं दुयमादीहिवि अद्धजोयणेहि गंतुं पडिएत्तए । कारणे कालस्स जा मेरा सा ठविज्जति अकप्पिया वासास्तकाले न परिघिप्पंति, कालाणंचउण्हं मासाणं, ठवणा कालेहिं-पंचाहे पंचाहे गते कारणे ठायंति कालम्मि पाउसे ठायंति, कालेसु आसाढपुण्णिमातो सवीसतीराए मासदिवसेस् गतेसु ठायंति कारणे | भावस्स उदयियस्स ठवणा, भावाणं खइयं भावं संकेतस्स सेसाणं भावाणं परिवज्जणा होइ । भावत्ति-भावेणं निज्जरझाए ठाति, भावेहिं निज्जरताए संगहठ्ठताए वेतावच्चं करेति, भावंमि खओवसमिए, भावेस् णत्थि अहवा खओवसमिए भावे सुद्धातो सुद्धतरं एवमादिसु परिणमंतस्स भावेसु ठवणा भवति । एवं ताव दव्वादि समासेण भणितं ।
इदाणिं एते चेव वित्थरेण भणिहामि । तत्थ ताव पढमं कालठ्ठवणं भणामि । किं कारणं ? जेण एवं सुत्तं कालठ्ठवणाए सुत्तादेसेणं परूवेतव्वं । कालो समयादीओ गा० कालो समयादीओ पगयं समयम्मि तं परूविस्सं । निक्खमणे य पवेसे, पाउससरए य वोच्छामि ||६०||
___ असंखेज्ज-समया आवलिया । एवं सुत्तालावएणं जाव संवच्छरं । एत्थ पुण उडुबद्धण वासास्तेण य पगतं अधिगार इत्यर्थः । तत्थ पाउसे पवेसो वासावास-पाउग्गे खेत्ते । सरते तातो निग्गमणं । ऊणातिस्ति० गाथा उणाइरित्त-मासऽट्ट विहरिऊण गिम्ह-हेमंते । एगाहं पंचाहं मासं च जहा समाहीए ॥६१।।
चत्तारि हेमंतिया मासा चत्तारि गिम्हमासा एते अट्ठ विहरंति । ते पुण अट्ठ मासा ऊणया अतिरित्ता वा विहरिज्ज । कथं पुण ऊणा वा अतिरिता वा भवंति ? | तत्थ ताव जधा ऊणा भवंति तधा भण्णति । काऊण पुव्वद्धं० गाथा काऊण मासकप्पं तत्थेव उवागयाण ऊणा ते । चिक्खल वास रोहेण वा वि तेण ट्ठिया ऊणा ।।६२।।
आसाढचाउमासियं पडिक्कंते जति अण्णत्थ वासावासपाउग्गं खेत्तं णत्थि ताहे तत्येव ठिता वासावासं, एवं ऊणा अट्टमासा, जेण सत्तमासा विहस्तिा । १. 'पडिनियतए' पाठान्तरम् । అందుతుయుతులు ముందుంటుం దయతంతుయుతుయుతుందం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८
अथवा इमेहिं पगारेहिं ऊणा अट्टमासा होज्ज । चिक्खल्ल पच्छद्धं । जत्थ वासास्तो कतो, ततो कत्तियचाउम्मासिए न निग्गता इमेहिं कारणेहिं पंथो चिक्खल्लो तत्य खुपिज्जति , वासं वा ण 'तोरमती, रोहगो वा जातो जाव मग्गसिरं सव्वं ण णिग्गआ, ताहे पोसे निग्गंताणं पोसादीया आसाढंता सत्तमासा विहरिता एवं ऊणा भवंति ।
इदाणिं जधा अतिस्तिा अट्ठमासा विहरिता होज्जा तधा भण्णति-वासाखेत्तालंभे० गाथा || वासाखेत्तालंभे अद्धाणादीसु पत्तमहिगातो । असाहग-वाघाएण व अपडिक्कमिउं जइ वयंति ।।६३॥
साहुणो आसाढचाउम्मासिए पडिक्कंते वासावास-पातोग्गं खेतं मग्गंता ण लभंति ताहे तेहिं मग्गंतेहिं ताव ण लद्धं जाव आसाढचाउम्मासियातो सवीसतिरातो वा मासो गतो । णवरं भद्दपद-जोण्हस्स पंचमीए लद्धं खेत्तं तंमि दिवसे पज्जोसवितं, एवं नवमासा सवीसतिराया विहरिता | अथवा साहू अद्धाणपडिवन्ना सत्थवसेणं आसाढचाउम्मासियातो परेणं पंचाहेण वा दसाहेण वा जाव सवीसतिराते वा मासे खेत्तं पत्ता एवं अतिरिता अट्टमासा विहरिता ।
अहवा जत्थ वासावासो कतो ततो खेत्तातो आरतो चेव कत्तियचाउम्मासियस्स निग्गच्छंति इमेहिं कारणेहिं कत्तियपुन्निमाए आयरियाणं णक्खत्तं असाहगं, अन्नो वा कोइ तद्दिवसं वाघातो भविस्सति, ताहे अपुण्णे कत्तिए निग्गच्छंता अतिरिते अट्टमासे विहरिति । एगाहं पंचाहं मासं वा जधासमाधीए । अस्य व्याख्या-पडिमापडिवंनाणं गाथापडिमापडिवन्नाणं एगाहं पंच होतऽहालंदे । जिणसुद्धाणं मासो निक्कारणओ य थेराणं ॥६४।।
ताव पडिमापडिवन्ना उडुब्बद्धे एक्केक्कं अहोरतं एगखेत्ते अच्छंति । अहालंदिया पंच अहोस्ता एगखेत्ते अच्छंति । जिणकप्पिया मासं | मासं सुद्धपरिहारिया । एवं चेव थेरकप्पिया णिव्वाघाएण मासं, वाघाते ऊणं वा अतिरितं वा मासं । उणाइस्ति-मासा गाथाऊणाइरित्त-मासा एवं थेराण अट्ठ णायव्वा । इयरे अट्ठ विहरिउं णियमा चत्तारि अच्छन्ति ॥६५॥
इतरे णाम पडिमापडिवन्नया अहालंदिया एते एवं रीइत्ता उडुबद्धे कहिं पुण ठातव्वं ? वासास्ते य चत्तारि मासा सव्वेवि अच्छंति एगखेत्ते । आसाढपु१. उपरमति । శువంటంతంతయంతం ఉంయయంతయుగయుతం
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ऋतुबद्ध-काले प्रतिमा धारिण एकक्षेत्रे एकदिवसं, अथालंदिका: पंचदिवसं, जिनकल्पिका मासं, स्थविरकल्पिकास्तु निर्व्याधातेन मासं वसन्ति । अनभिगृहीत-अभिगृहीतयोः स्वरुपम् । न्निमाए वासावासंमि होति ठातव्वं गाथा-आसाढपुन्निमाए वासावासं ठातव्वंआसाढ-पुण्णिमाए वासावासं तु होति ठातव् । मग्गसिर-बहुल-दसमीउ जाव एगम्मि खेत्तम्मि ॥६६॥ चिक्खल्ल पाण थंडिल्ल वसहि गोरस जणाउले विज्जे । ओसह निवयाहिवइ पासंडा भिक्ख सज्झाए ।।६७।। बाहिं ठिता वसभेहिं खेत्तं गाहेत्तु वासपाओग्गं | कप्पं कहेतु ठवणा सावणऽसुद्धस्स पंचाहे ||६८॥
बाहिं ठित्तति-बाहि ठिता जत्थ आसाढ-मासकप्पो तत्थ दसमीए आरब्भ जाव आसाढमास-पण्णरसी ताव वासावास-पायोगे खेत्ते संथारय-डगल-खारमल्लगादी गिण्हता वसभा भावेति य क्खेत्तं साधुभावणाए, ततो आसाढपुन्निमाए वासावास-पाउग्गे खेत्ते गंतुं आसाढ-चाउम्मासियं पडिक्कमंति, पंचहिं दिवसेहिं पज्जोसवणाकप्पं कड्डेति सावण-बहुलस्स पंचमीए पज्जोसवेंति ।
अध बाहिडितेहिं वसभेहिं ण गहिताणि छारादीणि, ताहे कप्पं कहेंता चेव गिण्हंति मल्लगादीणि । एवं आसाढपुन्निमाए ट्ठिता जाव मग्गसिर-बहुलस्स दसमी ताव एग्गंमि खेत्ते अच्छेज्जा, तिन्निं वा दसराता । एवं तिन्नि पुण दसराता चिक्खल्लादीहिं कारणेहिं, एत्य उ० गाथा एत्थ तु अणभिग्गहियं वीसतिरायं स-वीसती-मासं | तेण परमभिग्गहिअं गिहि-णातं कत्तिओ जाव ||६९।।
एत्यत्ति पज्जोसविते स-वीसति-रायस्स मासस्स आरतो जति गिहत्था पुच्छंति तुब्भे अज्जो वासास्तं ठिता अध णो ताव ठाध, एवं पुच्छितेहिं जति अभिवड़ित-संवत्सरे जत्थ अहिमासतो पडति तो आसाढपन्निमाओ वीसतिराते गते भण्णति ठितामोत्ति, आरतो ण कप्पति वोत्तुं ठितामोत्ति ।
अध इतरे तिन्नि चंदसंवत्सरा तेसु सवीसतिराते मासे गते भण्णति ठितामोत्ति, आरतो ण कप्पति वोत्तुं ठितामोत्ति । किं कारणं असिवादि० गाथा ।। असिवाइ-कारणेहिं अहवा वासं ण सुट्ट आरद्धं ।। अहिवड्डियम्मि वीसा इयरेसु सवीसई मासो ||७०||
कताइ असिवादीणि कारणाणि उप्पज्जेज्जा, जेहिं निग्गमणं होज्ज, ताहे गिहत्था मन्नेज्ज, ण किंचि एते जाणंति, मुसावातं वा उल्लाति, जेणं ठितामोत्ति भणित्ता निग्गता । अहवा वासं ण सुहु आरद्धं तेण लोगो भीतो धण्णं ఉయం ఉండి ఉంటయం ఉందంతయుతమయం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८
'झंपितुं ठितो, साहूहिं भणितं ठियामोत्ति जाणंति एते-वरिसिस्सति तो मुयामो धण्णं विक्किणामो, अधिकरणं घराणि यच्छत्ति', हलादीण य संठप्पं करेंति । जम्हा एते दोसा तम्हा वीसतिरातें अगते सवीसतिराते वा मासे अगते ण कप्पति वोत्तुं ठितामोत्ति । एत्थ तु० गाथा ।
एत्थ तु पणगं पणगं कारणियं जा सवीसतीमासो । सुद्धदसमीडियाण व आसाढीपुण्णिमोसरणं ॥ ७१ ॥
आसाढपुन्निमाए ठिताणं जति तण डगलादीणि गहियाणि पज्जोसवणा कप्पो य कथितो तो सावणबहुलपंचमीए पज्जोसवेंति । असति खेत्ते सावणबहुलदसमीए, असति खेत्ते सावणबहुलस्स पण्णरसीए, एवं पंच पंच ओसारेंतेण जाव असति भद्दवयसुद्धपंचमीए, अतो परेणं न वट्टति अतिकमेतुं, आसाढपुन्निमातो आढत्तं मग्गंताणं जाव भद्दवया जोण्हपंचमीए एत्यंतरे जति ण लद्धं ताहे जति रुक्खहेट्टे ठितोवि पज्जोसवेतव्वं । एतेसु पव्वेसु जधालंभे पज्जोसवेयव्वं अप्पव्वे ण वट्टति, कारणिया चउत्थीवि अज्जकालएहिं पवत्तिता । कहं पुण ?
उज्जेणीए णगरीए बलमेत्त-भाणुमेत्ता रायाणो । तेसिं भाइणेज्जो अज्जकालएण पव्वावितो, तिहिं राईहिं पटुहिं अज्जकालतो निव्विसतो कतो । सो पतिट्ठाणं आगतो । तत्थ य सातवाहणो राया सावगो | तेण समण-पूयणछन्नो पवत्तितो, अंतेपुरं च भणितं अमावासाए उपवासं काउं पारणए साधूण भिक्खं दातुं पारिज्जह |
अन्नया पज्जोसमणा-दिवसे आसणे आगते अज्जकालएण सातवा - हणो भणितो- 'भद्दवत- जोण्हस्स पंचमीए पज्जोसवणा भवति ।' रन्ना भणितो, तद्दिवसं मम इंदो अणुजातव्वो होहिति, तो ण पज्जुवासिताणि चेतियाणि साधुणो वा भविस्संतित्ति कातुं तो छट्टीए पज्जोसवणा भवतु । आयरिएण भणितं न वट्टति अतिक्कामेउं । रन्ना भणियं तो चउत्थीए भवतु । आयरिएण भणितं एवं होउत्ति चउत्थीए कता पज्जोसवणा । एवं चउत्थीवि जाता कारणिता । `सुद्धदसमी ठिताण च आसाढी पुन्निमोसरणंति'' जत्थ आसाढ मासकप्पो कतो, तं च क्खेत्तं वासावासपाउग्गं, अण्णं च खेत्तं णत्थि वासावासपाउग्गं । अथवा अब्भासे चेव अन्नं खेत्तं वासावासपाउग्गं सव्वं च पडिपुन्नं संथारडगलगादीय भूमी य बद्धा, वासं च गाढं अणोरयं आढत्तं, ताहे आसाढपुन्निमाए चेव
१. पिधानादिना संगोपयितुम् । २. छादयन्ति । ३. उत्सवः । ४. चिक्खलरहितेत्यर्थः । sassess[ ८४ ]ssssse
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पर्वसु एव पर्युषणा कार्या । चतुर्थी कारण-प्रवर्तिता । कालकसूरिकथा । ज्येष्ठावग्रह-स्वरूपम् ।
पज्जोसविज्जति ।
एवं पंचाह-परिहाणिमधिकृत्योच्यते-इय सत्तरी० गाथा ।। इय सत्तरी जहण्णा असीति णउती दसुत्तरसयं च । जइ वासति मिग्गसिरे दस राया तिण्णि उक्कोसा ।।७२||
इय त्ति उपप्रदर्शने । जे आसाढ-चाउम्मासियातो सवीसतिराते मासे गते पज्जोसवेंति, तेसिं सत्तरीदिवसा जहण्णतो जेट्टोग्गहो भवति । कहं पुण सत्तरी ? चउण्हं मासाणं सवीसं दिवस-सतं भवति, ततो सवीसतिरातो मासो पण्णासं दिवसा सोधिता सेसा सत्तरं दिवसा । जे भद्दवय-बहलस्स दसमीए पज्जोसवेंति तेसिं असीति दिवसा जेट्टोग्गहो, जे सावण-पुन्निमाए पज्जोसविति तेसिं णं णउत्ति दिवसा मज्झि जेटोग्गहो, जे सावण-बहल-दसमीए ठिता तेसिं दसुत्तरं दिवस-सतं जेट्ठोग्गहो, एवमादीहिं पगारेहिं वरिसास्तं एगखेत्ते अच्छिता कत्तिय-चाउम्मासिए णिगंतव् । अथ वासो न ओरमति तो मग्गसिरे मासे जद्दिवसं पक्कमट्टियं जातं तद्दिवसं चेव णिग्गंतव्वं , उक्कोसेण तिन्नि दसराया न निग्गच्छेज्जा । मग्गसिरपुन्निमा एत्तियं भणियं होइ मग्गसिरपुन्निमाए परेण जइवि प्लवंतेहिं तहवि णिगंतव्वं । अध न निग्गच्छंति ता चउलहगा । एवं पंचमासिओ जेठोग्गहो जाओ । काऊण गाथा० काऊण मासकप्पं तत्येव ठियाण जाव मग्गसीरे । सालम्बणाण छम्मासितो तु जेट्ठोग्गहो होति ॥७३॥
आसाढमासकप्पं काउं जइ अन्नं वासावासपाउग्गं खेत्तं नत्यि, तं चेव वासावासपाओग्गं, जत्थ आसाढमासकप्पो कतो, ते तत्थेव पज्जोसवेंति आसाढपुन्निमाए वा । सालंबणाणं मग्गसिरंपि सव्वं , वासं ण ओरमति तेण, ण निग्गता, असिवादीणि वा बाहिं एवं सालंबणाणं छम्मासितो जेट्ठोग्गहो, बाहिं असिवादीहिं जइ वाघातो अण्णवसहीए टुंति, जतणाविभासा कातव्वा । जति अत्थि पदविहारो० गाथा'जइ अत्थि पयविहारो चउपाडिवयम्मि होइ गंतव्वं । अहवावि अणितस्सा आरोवण पुबनिद्दिट्ठा ||७४।।'
___कंठा । कुत्रचिद्दिवा निसीथोक्ता । अपुण्णेवि चाउम्मासिए निग्गमेज्ज इमेहिं कारणेहिं । काईय० गाथा
१. प्रक्षेपगाथा संभाव्यते । anandidabadduddahatial ८५ dalandddddddddddha
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८
काईयभूमी संथारए य संसत्त दुल्लहे भिक्खे । एएहिं कारणेहिं अपत्ते होइ निग्गमणं ।।७५।। राया सप्पे कुंथू अगणि गिलाणे य थंडिलस्सऽसति । एएहिं कारणेहिं अपत्ते होइ निग्गमणं ७६॥
काइयभूमी संसत्ता उदएण वा पिल्लिता, संथारगा संसत्ता , अन्नातोवि तिन्नि वसधीउ णत्थि, अथवा तासुवि एस चेव वाघातो, राया वा पदुट्ठो, गिलाणो वा जाओ | वेज्जनिमित्तं अतिक्कंते वि अच्छिज्जति ।
वासं वा ण ओरमती० गाथाद्वयं कंठ्यं । वासं व न ओरमई पंथा वा दुग्गमा सचिक्खल्ला । एएहिं कारणेहिं अइक्कंते होइ निग्गमणं ||७७|| असिवे ओमोयरिए राया दुढे भए व गेलण्णे | एएहिं कारणेहिं अइक्कंते होति निग्गमणं ।।७८।।
एस कालट्ठवणा । इदाणिं खेत्तट्टवणा- उभतो० गाथा । उभओ उ अद्धजोयण सअद्धकोसं च तं हवति खेत्तं । होइ सकोसं जोयण, मोत्तूण कारणज्जाए ॥७९॥
जंमि खेत्ते वासावासं ठावंति तत्य उभतो-सव्वतो संमंता सकोसं जोयणं उग्गहो कातव्यो । कथं पुण सव्वतो समंता छद्दिसातो ? पुव्वा दाहिणा अवरा उत्तरा उड्डा अधा, चत्तारि विदिसातो असंववहारिणीओ एगपदेसियाउत्ति काउं मुक्काओ । तासु छस दिसासु एक्केक्काए अद्धजोयणं अद्धकोसं च भिक्खायरियाए गम्मति गत-पडियागतेणं सकोसं जोयणं भवति ।
कहं पुण छद्दिसातो भवंति ? उच्यते-उड्ढमहे० गाथा उड्डमहे तिरियम्मि य, सकोसयं सव्वतो हवति खेत्तं । इंदपयमाइएसुं छद्दिसि 'इयरेसु चउ पंच ||८०|| तिण्णि दुवे एक्का वा वाघाएणं दिसा हवइ खेत्तं । उज्जाणाओ परेणं छिण्णमंडबं तु अखेत्तं ।।८१||
इन्दपदे गयग्गपदे पव्वतते उवरि पि गामो हिहावि गामो | उड् च तस्स मज्झमिवि गामो । मझिमेल्ल-गामस्स चउसुवि दिसासु गामा । मज्झिमेल्ल-गामे विताणं छद्दिसातो भवंति । आदिग्गहणेणं जो अन्नोवि एरिसो पव्वतो होज्ज १. सेसेसु पाठान्तरम् । ఉండి ఉంటుందటండియటం అంతంతమంతయంతం
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अपूर्णे चतुर्मासे विहार-कारणाणि । क्षेत्र-स्थापनायामवग्रहः सक्रोशयोजनम् । द्रव्य-स्थापनायां आहारविकृति-आदि-सप्त-द्वाराणि । तस्सवि छद्दिसातो भवंति । मोत्तुंत्ति-एरिसं पव्वत्तं मोत्तुं अण्णंमि खेत्ते चत्तारि वा दिसातो उग्गहो भवति पंच वा । ण केवलं एत्तियाओ च्चेव । तिन्नि दुवे एक्का वा दिसा वाघातेण होज्ज | को पुण वाघातो ? अडवि उज्जाणातो परेण पव्वतादिविसमं वा पाणियं वा एतेहिं कारणेहिं एतातो दिसातो रुद्धियातो होज्जा जेण गामो णत्थि, सतिवि गामे अगम्मो होज्जा । छिन्न-मडंबं णाम-जस्स गामे वा णगरेसु वा सव्वासु दिसासु उग्गहे गामो णत्थि, तं च अक्खित्तं नातव्वं । जाए दिसाए जलं ताए दिसाए इमं विधिं जाणिज्जा । दगघट्ट० गाथादगघट्ट तिन्नि सत्त च उडुवासासु ण हणंति तं खेत्तं । चउरठ्ठाति हणंती जंघद्धक्कोवि उ परेणं ।।८।।
दगसंघट्टो नाम-जत्थ जाव अद्धं जंघाए उदगं, उडुबद्धे तिन्नि संघट्टा जत्थ भिक्खायरियाए गतागतेणं छ, वासासु सत्त ता ते गतागतेणं चोद्दस भवति । एतेहिं ण उवहम्मति खेत्तं । खेत्तट्ठवणा गता |
दव्वट्ठवणा इदाणिं दव्वट्ठवणाहार गाथादवट्ठवणाऽऽहारे १ विगई २ संथार ३ मत्तए ४ लोए ५ । सच्चित्ते ६ अचित्ते ७ वोसिरणं गहण-धरणाइं ।।८३॥ पुवाहारोसवणं जोग विवड्डीय सत्तिउग्गहणं । संचइय असंचइए दवविवड्डी पसत्था उ ||८४||
__दव्वट्ठवणाए आहारे चत्तारि मासे निराहारो अच्छतुं ण तरति तो एगदिवसूणो एवं जति जोगहाणी भवति तो जाव दिणे दिणे आहारेतुं जोगवुड्डीजो णमोक्कारेणं पारेंतओ सो पोरिसीए पारेतु, पोरिसिङ्तो पुरिमुडेण, पुरिमड्डइत्तो 'एक्कासणाएण । किं कारणं ? वासासु चिक्खल्ल चिलिश्चिलं दुक्खं सण्णाभूमि गम्मति, थंडिल्लाणि यण पउराणि, हरितकाएण उवहयाणि । गता आहारट्ठवणत्ति ।
इदाणिं विगतिट्ठवणा- संचइय असंचइये दव्वविवड्डी य । पसत्था तु विगती दुविधा संचइया असंचइया य । तत्थ असंचइया खीर-दधि-मंस-णवणीय
ओगाहिमगा य, सेसातो घय गुल मधु मज्ज खज्जग-विधाणातो संचइयातो । तत्थ मज्जविधाणातो अप्पसत्थातो, सेसातो पसत्थातो ।
आसामेकतरां परिगृह्योच्यते-विगति० गाथा
१. एक्कासणएण' संभाव्यते । dachhadaaaaaaaaa ८७ dadabadibadabbia
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८
विगतिं विगतीभीओ विगइगयं जो उ भुंजए भिक्खू । विगई विगयसभावं विगती विगतिं बला नेइ ||८५ ॥
T
तं आहारिता संयतत्वादऽसंयतत्वं विविधैः प्रकारैः गच्छिहिति विगति, विगतीभीतोत्ति-संयतत्वादसंयतत्वगमनं तस्स भीतो, विगतिगतं भत्तं पाणं वा विगतिमिस्सं न भोत्तव्वं । जो पुण भुंजति तस्स इमे दोसा-विगति पच्छद्धंविगतीए विगतो संयतभावो जस्स सो विगती, विगतसभावो तं विगती विगतसभावं सा विगती आहारिता, बला विगतिं णेति । विगती नाम असंयतत्वगमनं जम्हा एते दोषा तम्हा णव रसविगती ओगाहिम- दसमाओ नाहारेतव्वाओ, ण तहा उडुबद्धे जथा वासासु, सीयले काले वा अतीव मोहुब्भवो भवति गज्जित - विज्जुताईणि य दडुं सोउं वा । भवे कारणं आहारेज्जावि । गेलण्णेणं आयरियबाल-वुड्ढ-दुब्बल-संघयणाण गच्छोवग्गहट्ठताए घेप्पेज्जा | अहवा सड्डा णिब्बंधेण निमंतेति पसत्याहि विगतीहिं । तत्थ-पसत्थविगतीगहणं० गाथा || पसत्थ विगईगहणं गरहिय-विगतिग्गहो य कज्जम्मि । गरहा लाभपमाणे पच्चय पावप्पडीघाओ ॥८६॥
ताहे जाओ असंचईआउ खीर- दहीतोगाहिमगाणि य ताओ असंचइयातो घेप्पंति संचइयातो ण घेप्पंति घत-तिल-गुल-णवणीतादीणि । पच्छा तेसिं खते जाता कज्जं भवति तदा ण लब्धंति तेण ताओ ण घेप्पंति । अह सड्ढा णिबंधेण निमंतेति ताहे भण्णति । जदा कज्जं भविस्सति तदा गेण्हीहामो । बालादिबाल-गिलाण-वुड्ढ-सेहाण य बहूणि कज्जाणि उप्पजंति, महंतो य कालो अच्छति, ताहे सड्ढा तं भणंति-जाव तुब्भे समुद्दिसध ताव अत्थि चत्तारि वि मासा । ताहे नाऊण गेण्हंति जतणाए, संचइयंपि ताहे घेप्पत्ति जधा तेसिं सड्डाणं सड्ढा वड्डति, अवोच्छिन्ने भावे चेव भांति होतु अलाहिं पज्जत्तंति । सा य गहिया थेरबाल-दुब्बलाणं दिज्जति, बलिय-तरुणाणं न दिज्जति, तेसिं पि कारणे दिज्जति, एवं पसत्थविगतिग्गहणं । अप्पसत्था ण घेत्तव्वा । सावि गरहिता विगती कज्जेणं घिप्पति इमेणं- वासावासं पज्जोसविताणं अत्थेगतियाणं एवं वुत्तपुव्वं भवति, अत्थो भंते गिलाणस्स, तस्स य गिलाणस्स वियडेणं पोग्गलेण वा कज्जं से य पुच्छितव्वे- केवतिएणं से अट्ठो ? जं से पमाणं वदति एवतिएणं मम कज्जं तप्पमाणतो घेत्तव्वं । एतंमि कज्जे वेज्जसंदेसेण वा अणत्थ वा कारणे आगाढे जस्स सा अत्थि सो विण्णविज्जति तं च से कारणं दीविज्जति । एवं जाइते समाणे लभेज्जा जाधे य तं पमाणं पत्तं भवति जं तेण गिलाणेण भणितं ताहे
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विकृतिस्त्याज्या, कारणे ग्रहणविधिः । संस्तारक-मात्रक-ग्रहण-परिभोग-विधिः । चतुर्मासेऽवश्यं लोचः कार्यः । पुराण-भावित-श्राद्धे मोक्तुं दीक्षा न कर्तव्या । भण्णति-होउ अलाहित्ति वत्तव्वं सिया, ताहे तस्यापि प्रत्ययो भवति सुव्वत्तं एते गिलाणट्ठयाए मग्गंति, न एते अप्पणो अट्ठाए मग्गंति । जति पुण अप्पणो अट्ठाते मग्गंता तो दिज्जंतं पडिच्छंता जावतियं दिज्जति, जेवि य पावा तेसिं पडिघातो कतो भवति । तेवि जाणंति, जधा तिन्नि दत्तीओ गेण्हंति सुव्वत्तं गिलाणट्टाए । से णं एवं वदंतं अण्णा हि पडिग्गहेहि भंते तुमंपि भोक्खसि वा पाहिसे वा, एवं से कप्पति पडिग्गाहितए, नो से कप्पति गिलाण-णीस्साए पडिग्गाहित्तए ।।
एवं विगतिढवणा गता । इदाणिं संथारतित्ति-कारण० गाथाकारणओ उडुगहिते उज्झिऊण गेण्हंति अण्णऽपरिसाडी । दाउं गुरुस्स तिण्णि उ सेसा गेण्हंति एक्केक्कं ||८७||
संथारा जे उडुबद्धिया कारणे गहिता ते वोसिरिज्जंति । अन्नेसिं गहणं धारणं च संथारेत्ति गतं । इदाणिं मत्तएत्ति उच्चार० गाथा उच्चार-पासवण-खेलमत्तए तिण्णि तिण्हि गिण्हंति । संजय-आएसट्ठ भुजेज्जऽवसेस उज्झंति ||८८||
उच्चार-पासवण-मत्तया जे उडुबद्ध कारणेणं गहिता खेलमत्तो य ते वोसरिज्जति । अन्नेसिं गहणं धारणं च । एक्केक्को तिन्नि उच्चार-पासवणखेल-मत्तगे गिण्हति, उभओकालंपि पडिलेहिज्जंति, जति वुट्टी ण पडति ण परिभंजंति, दिया रातो वा परि जंति मासलहं । जाहे वासं पडति ताहे परिभुजति । जेण अभिग्गहो गहितो सो परिहवेति । जता णत्थि तदा अप्पणा परिट्ठवेति । ताव सो निव्विसितव्वो जाव कज्जं करेति । उल्लतो ण णिखिप्पति विसुयावेत्ता णिखिप्पइ, सेह-अपरिणताणं ण दाविज्जति । मत्तएत्ति गतं ।। धुवलोओ उ० गाथा० धुवलोओ उ जिणाणं णिच्चं थेराण वासावासासु । असहू गिलाणस्स व, णातिक्कामेज्ज तं रयणिं ||८९।।
धुव-केस-मंसुणा भवितव् गच्छनिग्गताणं धुवलोतो निच्चं, गच्छवासीणंपि थेरकप्पियाणंति वासावासे उस्सग्गेणं धुवलोतो कायब्वो । अध न तरति असहू वा, ताहे सा रयणी णातिक्कमेतव्वा । लोएत्ति गतं ।। मुत्तुं पुराणगा० मोत्तु पुराण-भावियसडढे संविग्ग सेस पडिसेहो । मा निद्दओ भविस्सइ भोयणमोए य उड्डाहो ||९०॥ १. उपभोक्तव्यो रक्षणीयो वा यावत् वर्षोपरमः । २. विशोष्य । ఉతంతువంతంంంంం యంతయంతం వంతం
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सचित्तं-सेहं वा सेही वा जति पव्वावेति चऊगुरुं आणादि विराहणा, सो ताव जीवे ण सद्दहति, कथं ? जति भण्णति-एते आउक्काइया जीवा तं च कालं ते पुणो दुक्खं परिहरितुं, ताहे सो भणति-जति एते जीवा, तो तुब्मे णिवयमाणे किं हिंडध, तुब्भे किर अहिंसया ? एवं ण सद्दहति । पादे ण धोव्वंति जाति ताहे सो भणति समल-चिक्खल्लं मदिऊण पादेवि ण धोवंति ताहे दुगच्छति, किं एतेहिं समं अच्छतेण असुईहित्ति गछेज्जा । अहवा धोवंति सागारियंति बाउसदोसा, वासे पडते सो पडिस्सयातो ण णीति, सो य उवस्सगो' डहरगो, ताहे जति मंडलीए समुद्दिसते पासंति तो उड्डाहं करेति, विप्परिणमेति य, अण्णेहि य संसठ्ठयं समुद्दिसावितो पच्छा वच्चति । अथ मंडलीए ण समुद्दिसति तो सामायारिविराहणा, समता मेरा य ण कता भवति ||
जति वा विसज्जमाणे मत्तएसुं उच्चारपासवणाणि आयरंति तं दट्टण गतो समाणो उड्डाहो करेज्ज । अथ धरंति तो आयविराहणा, अथ निसर्गतेवि णिंति तो संजमविराहणा एवमादी दोसा जम्हा, तम्हा ण पव्वावेतव्यो ।
भवे कारणं पव्वावेज्जा । पुराणो वा अभिगतसो वा, अथवा कोऽपि राया रायामच्चो वा अतिसेसी वा अव्वोच्छित्ति वा काहिंति पव्वाति । ताधे पुण विचित्ता वसधी महती य घेप्पति, जति जीवे चोदेति तत्थ पणविज्जति, पादाण य से कप्पो कीरति, समुद्देसे उच्चारादिसु य जयणाए जतंति आयरिति, अण्णपडिस्सयं वा घेत्तूण जतणाए उवचरिज्जति ।
इदाणिं अच्चित्ताणं गहणं- छार-डगलय-मल्लयादीणं उडुबद्धे गहिताणं वासासु वोसिरणं, वासासु धरणं छारादीणां , जति ण गिण्हति मासलहुं, जा य तेहिं विणा विराधणा गिलाणादीण भविस्सति । भायणविराधणा लेपेण विणा तम्हा घेत्तव्वाणि, छारो एक्के कोणे पुंजो घणो कीरति । तलिया विकिंचिज्जति जदा ण विकिंचिताओ तदा छारपुंजे णिहम्मति मा रेपणइज्जिस्संति, उभतो काले पडिलेहिज्जंति ताओ छारो य, जता अवगासो भूमीए नत्थि छारस्स तदा कुंडगा भरिज्जंति, लेवो समाणेऊण भाणस्स हेट्ठा कीरति, छारेण उग्गुंडिज्जति, स च भायणेण समं पडिलेहिज्जति । अथ अच्छंतयं भायणं णत्थि ताहे मल्लयं लेवेउणं भरिज्जति, "पडिहत्थं पडिलेहिज्जति य । एवं एसा सीमा भणिता, काणइ गहणं काणइ धरणं काणइ वोसिरणं काणइ तिन्निवि ।। || दवढवणा गता || इदाणिं भावट्ठवणा । इरिएसण० गाथा१. उपाश्रयो लघुः । २. वर्षति सति । ३. मा पनकीभवन्तु ४. भृतम् । addadadddddddddddddddl ९० Laddataduddadidadadadded
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छार-लेप-ग्रहण-परिभोगविधिः । समितौ गुण-दोष-स्वरूप-प्रकटनम् । पंच समिति-दृष्टान्ताः ।
इरिएसण भासाणं मण वयसा काइए य दुच्चरिए । अहिगरण-कसायाणं संवच्छरिए विओसवणं ।।९१।।
इरि-एसण-भासागहणेण आदाणणिक्खेवणासमिती-परिहावणिया समितीतोवि गहितातो भवंति । एतासु पंचसुवि समितीसु वासासु उवउत्तेण भवितव्वं । एवमुक्तो चोदक आह-उडुबद्धेण किं असमितेण भवितव्वं ? जेणं भण्णति वासासु पंचसु समितीसु उवउत्तेण भवितव्वं । उच्यते-कामं० गाहा ।। कामं तु सव्वकालं पंचसु समितीसु होइ जइयव्वं । . वासासु अहीगारो बहुपाणा मेइणी जेणं ॥९२।।
काममनुमतार्थं, यद्यपि सर्वकालं सदा समितेण होतव्वं , तहावि वासासु विसेसो कीरति जेणं तदा बहुपाणा पुढवी आगासं च, एवं ताव सव्वासिं सामण्णं च भणितं ।
इदाणिं एक्केक्काएवि असमितस्स दोसा भण्णंति-भासणे० गाथा । भासणे संपाइमवहो दुण्णेओ नेहछेओ तइयाए । इरियचरिमासु दोसुवि अपेहअपमज्जणे पाणा णं ।।९३।। - अणाऊतं भासं भासंतस्स संपादिमाणं पाणाणं वाघातो भविस्सति । आदिग्गहणेणं आउक्काय-फुसिताउ सचित्तवातो य मुहे पविस्सति, ततिया णाम एसणासमिती अणाऊत्तस्स उदउल्लाणं हत्यमत्ताणं छेदो णाम उदतोल्लविभत्ति दुक्खं णज्जति, चरिमातो णाम- आयाणनिक्खेवणा समिती पारिट्ठावणिया समिती य। इरियासमिती-अणुवउत्तो सहमातो मंडक्कलियादीओहरिताणि य न परिहरति । आदाणनिखेवणासमितीए पारिट्ठावणियासमितीए य अणुवउत्तो पडिलेहणपमज्जणासु दुप्पडिलेहितं दुपमज्जितं करेति, ण वा पमज्जेज्ज पडिलेहिज्ज वा । समितीणं पंचण्हवि उदाहरणाणि । इरियासमितीए उदाहरणं
एगो साहू इरियासमितीए जुत्तो सक्कस्स आसणं चलितं । सक्केण देवमज्झे पसंसितो । मिच्छाद्दिट्ठी देवो असद्दहंतो आगतो । मक्खितप्पमाणातो मंदुक्कलियाओ विउव्वति । पिट्टतो हत्यिभयं गतिं ण भिंदति । हत्थिणा य उक्खिवितं पाडितो ण सरीरं पेहति सत्ता मारितत्ति जीवदयापरिणतो, अथवा इरियासमितीए अरहन्नतो देवताए पादो छिन्नो । अन्नाए संधितो य ।
भासासमितीए-साहूणगररोहए वट्टमाणे भिक्खाए निग्गतो पुच्छितो भणति'बहुं सुणेति कन्नेहिं सिलोगो । ఉండండింతయంతరం ఆయతనవంతుడియం
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एसणा समितीए णंदिसेणो वसुदेवस्स पुव्वभवो कथेतव्यो । अथवा इमं दिद्विवातियं, पंच संजता महल्लातो अद्धाणातो तण्हाछुहा किलंता निग्गया वियालितं गता पाणियं मग्गंति अणेसणं लोगो करेति ण लद्धं कालगता पंचवि ।
आदाणभंडमत्तनिक्खेवणासमितीए उदाहरणं-आयरिएण साधू भणितो, गामं वच्चामो | उग्गाहिते संते केणवि कारणेण द्विता । एक्को एताहे पडिलेहितंति कातुं द्ववेउमारद्धो । साधूहिं चोदितो भणति, किं एत्थ सप्पो भविस्सति ? | संनिहिताए देवताए सप्पो विगुम्वितो एस जहन्नो असमितो ।
अन्नो तेणेव विहिणा पडिलेहिता ठवेति, सो उक्कोसतो समितो ।
उदाहरणं-एगस्सायरियस्स पंच-सिस्स-सयाइं । एत्थ एगो सेट्ठिसुतो पव्वइतो । सो जो जो साधू एति तस्स दंडयं निक्खिवति । एवं तस्स उडिंतस्स अच्छंतस्स अन्नो एति अण्णो जाति तहावि सो भगवं अतुरितं अचवलं उवरिं हिट्ठा य पमज्जित्ता ठवेति । एवं बहुणावि कालेणं न परिताम्मति ।
पंचमाए समितीए उदाहरणं धम्मरुई, सक्कासण-चलणं पसंसा, मिच्छाद्दिट्ठीदेव-आगमणं पिपीलिया विगुव्वणं, काइयाए संजता 'बाहाडितो य मत्ततो, निग्गतो पेच्छति संसत्तं थंडिल्लं, साधू परिताविज्जंतित्ति य पीतो देवेण वारितो, वंदितुं गतो । बितिओ चेल्लतो काइयाडो ण वोसिरति देवताए उज्जोतो कओ एस समितो ।
इमो असमितो चउव्वीसं उच्चारपासवणभूमीतो तिन्नि य कालभूमितो न पडिलेहेति, चोदितो भणति, किं एत्थ उट्टो भविज्जा ? देवता उट्टरूवेण थंडिले ठिता, बितियए गतो तत्यवि एवं , ततियएवि ताहे तेण उडवितो ताहे देवताए पडिचोदितो सम्म पडिवन्नो ।
इदाणिं मणवयसा काइए य दुच्चरिएत्तित्ति । अस्य व्याख्या. मणवयणकायगुत्तो दुच्चरियाइं तु खिप्पमालोए । अहिगरणम्मि दुरुयग पज्जोए चेव दमए य ||९४||
___ मणपुव्वद्ध कंठं गुत्तीणं उदाहरणाणि-मणोगुत्तीए एगो सेट्ठिसुतो सुन्नघरे पडिमं ठितो पुराणभज्जा से सन्निरोहमस्सहमाणी उभामइल्लेण समं तं चेव घरमतिगता पल्लंक-खिल्लएण य साधुस्स पादो विद्धो तत्थ अणायारं आयरंति, ण य तस्स भगवंतो मणो विणिग्गतो सट्ठाणातो । १. भृतश्च मात्रकः । saedardarasiderederivederal ९२ d dddddddd ddress
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समिति - गुप्तिषु दृष्टान्ताः । अधिकरणं न कर्तव्यं, प्रथमभूतमपि शमितव्यम् । कुम्मकार - दृष्टान्तः ।
·
वतिगुत्तीए-सण्णातय-सगासं साधू पत्थितो, चोरेहिं गहितो वुत्तो य, मातपितरो से विवाहनिमित्तं एंताणि दिट्ठाणि तेहिं नियत्तितो, तेण तेसिं वइगुत्तेण ण कहितं, पुणरवि चोरेहिं गहिताणि । साहू य पुणो 'णेहिं दिट्ठो । स एवायं साधुत्ति भणिऊण मुक्को । इतराणवि तस्स वइगुत्तस्स माता पितरोत्ति काउं मुक्काणि ।
कायगुत्ती साहू हत्यि-संभमे गतिं ण भिंदति अद्वाण - पडिवन्नो वा । इदाणिं अधिकरणेत्ति दारं । असमितस्स वोसिरणं समितत्तणस्स गहणं ॥ अधिकरणं न कातव्वं । पुव्वुप्पन्नं वा न उदीरेतव्वं वितोसवेतव्वं, दिट्टंतो कुंभकारेणएगबइल्ला भंडी पासह तुब्भे य डज्झ खलहाणे । हरणे झामणजत्ता, भाणगमल्लेण घोसणया ||१५|| अप्पिणह तं बइल्लं दुरुतग्ग ! तस्स कुंभयारस्स । मा भे डहीहि गामं अन्नाणि वि सत्त वासाणि ॥९६॥
एक्को कुंभकारो भंडिं कोलालभंडस्स भरेऊण दुरुतयं नाम पच्चंतगामं गतो । तेहिं दुरुत्तइच्चेहिं गोहेहिं तस्स एगं बइल्लं हरिउकामेहिं वुच्चति, पेच्छह इमं अच्छेरं, भंडी एगेण बइल्लेण वच्चति, तेण भणितं पेच्छह इमस्स गामस्स खलधाणाणि डझंतित्ति । तेहिं तस्स सो बइल्लो हरितो, तेण जाइता देह बइल्लं, ते भणिन्ति तुमं एक्केणं चेव बइल्लेण आगतो । जाहे ण दिंति ताहे तेण पतिवरिसं खलीकतं धण्णं सत्तवासाणि झामियं । ताहे दुरुतयगामेल्लएहिं एगंमि महामहे भाणओ भणितो उग्घोसेहि, जस्स अवरद्धं तं मरिसावेमो, मा
सकुले उच्छादे, भाणएण उग्घोसितं, ततो कुंभकारो भणति- 'अप्पिणध तं बइल्लं गाथा । पच्छा तेहिं विदिन्नो खामितो । जति ताव तेहिं असंजतेहिं अण्णाणीहिं होंतएहिं खामिता एत्तिया अवराहा, तेणवि य खमियं, किमंग पुण संजतेहिं नाणीहिं होंतएहिं जं कतं तं सव्वं पज्जोसवणाए उवसामेतव्वं ।
अहवा दिट्टंतो उद्दायणो राया तारिसे अवराहे पज्जोतो सावतो त्ति
चंपा कुमारनंदी पंचऽच्छर थेरनयण दुम वलए । विह पासणया सावग इंगिणि उववाय णंदिसरे ॥ ९७ ॥ बोहण पडिमा उदयण पभावउप्पाय देवदत्ताते । मरणुयवाए तावस, णयणं तह भीसणा समणा ॥ ९८ ॥
१. चोरैः । २ . भाणकः = उद्घोषकः । ३. अर्पयत । heads ९३ Ssssss
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गंधार गिरी देवय, पडिमा गुलिया गिलाण पडियरेण । पज्जोयहरण दोक्खर रण गहणा मेऽज्ज ओसवणा ।।९९।। दासो दासीवतितो छत्तट्ठिय जो घरे य वत्थव्वो । आणं कोवेमाणो हतब्बो बंधियब्बो य ||१००।
___ तारिसे अवराधे पज्जोओ सावगोत्ति काऊण मोत्तूण खामितो । एवं साधुणावि पज्जोसवणाए परलोगभीतेण सव्वस्स खामेयव्वं ।। अहवाखद्धाऽऽदाणियगेहे पायस दट्टण चेडरूवाइं । पियरोभासण खीरे जाइय रद्धे य तेणा उ ||१०१।। पायसहरणं छेत्ता पच्चागय दमग असियए सीसं । भाउय सेणावति खिसणा य सरणागतो जत्थ ।।१०२।।
___ एगो दमओ पच्चंत-गामवासी तेण सरतकाले चेडरूवेहिं जाइज्जंतेण दुद्धं मग्गिउण पायसो रद्धो । तत्थ चोरसेणा पडिया । तेहिं विलोलियं । सो य पायसो १स-त्थालीतो हरितो तेणेहिं । सो य अडवीतो तणं लुणिऊण अज्ज तेहिं संमं पायसं भोक्खमीति जाव इंतस्स चेडरूवेहिं रुयमाणेहिं सिटुं, कोधेण गंतुं तेसिं चोराण वक्खेवेणं सेणावइस्स असियएण सीसं छिंदिऊण णट्टो । ते य चोरा हय-सेणावतिया णट्टा । तेहिं गंतूण पल्लि तस्स डहरओ भाया सेणावती अभिसित्तो । ताहे ताओ 'माता (भ) भइणीओ तं भणंति, तुम्ह अम्हं वइरियं अमारेऊण इच्छसि सेणावइत्तणं काउं? तेण गंतूण सो आणितो दमगो जीवगज्झो वराओ । तेसिं पुरओ णिगलियं बंधिऊण भणितो धणुं गहाय भणइ, कत्थ ? आहणामि सरेण भाइमारगा ? तेण भणियं-जत्थ सरणागया विज्झंति । तेण चिंतिऊण भणियं-कइयावि नो सरणागता आहम्मंति, ताहे सो पूएऊण विसज्जितो | जति ताव तेण धम्म अयाणमाणेण मुक्को, किमंग पुण साधुणा परलोगभीतेण अब्भुवगतस्स सम्मं सहितव्वं खमियव्वं ।। वाओदएण राई णासइ कालेण सिगयपुढवीणं । णासइ उदगस्स राई, पन्वयराती उ जा सेलो ||१०३।। उदय सरिच्छा पक्खेणऽवेति चउमासिएण सिगयसमा । वरिसेण पुढविराई आमरण-गती अ पडिलोमा ||१०४॥ १. स-स्थालीकः । २. 'माता-भाईणीओ' 'पाठान्तरम् अन्यथा’ माता-भाइ-भईणीओ संभाव्यते । ३. सिकतासमा ఉండిఉండిందండింతంత ఉతంతపండితంతంతం
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क्षमापनायां उदायन-चण्डप्रद्योतौ । चौर-द्रमकौ च दृष्टान्ताः । उदक-रेखादि-कषायस्वरूपम् । क्रोधे द्रमकोदाहरणम् ।
सेलहि थंभ दारुय लया य वंसी य मिंढगोमुत्तं । अवलेहणीया किमिराग कद्दम कुसुंभय हलिद्दा ||१०५।। एमेव थंभकेयण , वत्येसु परूवणा गईओ य । मरुयऽच्चकारिय पंडरज्ज मंगू य आहरणा ||१०६।।
___इदाणी कसायत्ति-तेसिं चउक्कओ निक्खेवो जधा नमोक्कार-निज्जुत्तीए तहा परूवेऊण कोधो चउविधो उदग-राइ-समाणो वालुग-पुढवि-पव्वयो जो तद्दिवसं चेव पडिक्कमण-वेलाए उवसमइ जाव पक्खियं ताव उदगराइसमाणो । चाउम्मासिए जो उवसमइ वालुगा-राति-समाणो । सरते जधा पुढवीए फुडिता दालीतो वासेणं संमिलंति एवं जाव देवसिय-पक्खिय-चाउम्मासिएस् ण उवसमति संवच्छरिए उवसमेति तस्स पुढवि-राय-समाणो कोधो । जो पज्जोसमणाए वि ण उवसमति तस्स पव्वय-राई समाणो कोधो । जधा पव्वतराईए न संमिलति तधा सोवि । एवं सेसावि कसाया परूवेतव्वा ।
तत्थ कोहे उदाहरणं एसेव दमतो, अथवाअवहंत गोण मरुए चउण्ह वप्पाण उक्करो उवरिं। छोढुं मए सुवट्ठाइऽतिकोवे णो देमो पच्छित्तं ।।१०७।।
एक्को मरुतो, तस्स इक्को बइल्लो । सो तं गहाय केयारे मलेऊण गतो, सो सीतयाए ण तरति उठेतुं । ताहे तेण तस्स उवरिं तोत्तओ भग्गो ण य उठेति ताहे तिण्हं केयाराणं डगलएहिं आहणति, ण य सो उठेति । चउत्थस्स केयारस्स डगलएहिं मतो सो | उवहितो 'धियारे, तो तेहिं भणितो- नत्थि तुज्झ पच्छितं, गोऽवज्झो जेण एरिसा कता एवं सो रसलागपडितो जातो । एवं साहुणावि एरिसो कोहो ण कातव्वो.। सियत्ति-होज्जा ताहे उदगराइसमाणेण होतव्वं । जा पण पक्खिय-चाउम्मासिय-संवच्छरिएसु ण उवसंतो तस्स विवेगो कीरति । माणे अच्चकारियभट्टा । वणिधूयाऽच्चंकारिय भट्टा अट्ठसुयमग्गओ जाया । वरग पडिसेह सचिवे, अणुयत्तीह पयाणं च ||१०८।। णिवचिंत विगालपडिच्छणा य दारं न देमि निवकहणा । खिंसा णिसि निग्गमणं चोरा सेणावई गहणं ।।१०९।। • वक्रवस्तु मायार्थम् । १. द्विजानिति सभाव्यते, 'वियारे' पाठान्तरम् । २. शलाका समाजपंक्तिस्ततः पतितः । addddddddddddal ९५ adddddddddddddias
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८
नेच्छइ जलूगवेज्जगगहण तम्मि य अणिच्छमाणम्मि उ । गिण्हावइ जलूगा धणभाउग कहण मोयणया ||११०|| सयगुणसहस्स पागं, वणभेसज्जं जइस्स जायणता । तिक्षुत्त दासीभिंदण ण य कोवो सयं पदाणं च ||१११।।
एगा अट्टण्हं पुत्ताणं अणुमग्गओ जाइया सेद्विधूता सा अमच्चेण जाइता, तेहिं भणितं-जति अवराधेवि न चंकारेसि तो देमो । तेण पडिसुतं, आमं ण चंकारेमि । दिण्णा तस्स भारिया जाता | सो पुण अमच्चो जामे गते रायकज्जाणि समाणेऊण एति । सा दिवसे दिवसे खिंसति । पच्छा अन्नदा कदापि दारं बंधिऊण अच्छति, अमच्चो आगतो । सो भणति उग्घाडेहि दारं । सा ण उग्घाडेति । ताहे तेण चिरं अच्छिऊण भणिया-मा तमं चेव सामिणी होज्जाहि । सा दारं उग्घाडेऊण अडविहुत्ता माणेण गता । चोरेहिं घेत्तुं चोरसेणावतिस्स उवणीता । तेण भणिता महिला मम होहित्ति । सा णेच्छति । तेवि बलामोडिए ण गेण्हति । तेहिं जलोगवेज्जस्स हत्थे विक्कीता । तेणवि भणिता मम महिला होहित्ति । सा णेच्छति । रोसेण जलोगाओ पडिच्छसुत्ति भणिता | सा तत्य णवणीतेणं मक्खिया जलोगाओ गिण्हति । तं असरिसं करेति । ण य इच्छति । अन्न-रूव-लावण्णा जाता | भाउतेण य मग्गमाणेण पच्चभिन्ना | या मोएउण नीता । वमणे विरेअणेहि य पूण १णवीकाऊण अमच्चेण नेताविता । तीसे य तेल्लं •सतसहस्सपागं पक्कं तं च साधुणा मग्गितं । ताए दासी संदिट्ठा आणेहि, ताए आणंतीए भायणं भिन्नं, एवं तिन्नि वारे भिण्णाणि, ण य रुडा तिस सतसहस्सेस् विणद्वेसु | चउत्थ वारा अप्पणा उद्वेतुं दिन्नं | जति ताव ताए मेरुसरिसोवमो माणो निहतो किमंग पुण साधुणा, निहणियव्वो चेव । पासत्थि पंडरज्जा परिण गुरुमूल णायअभिओगा । पुच्छति य पडिक्कमणे, पुबब्भासा चउत्थम्मि ||११२।। अपडिक्कम सोहम्मे अभिओगा देवि सक्कओसरणं । हत्थिणि वायणिसग्गो गोतमपुच्छा य वागरणं ||११३।। महुराए मंगू आगम बहुसुय वेरग्गी सड्ढपूया य । सातादिलोभ णितिए, मरणे जीहा य णिद्धमणे ||११४।।
१. 'णवा काऊण' पाठान्तरम् । . 'सतपाग-सहस्सपागं' इति पाठान्तरम् । ఉయంతం ఉతం తం ఉతం ఉండిఉంటంతంతంతతం
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माने अच्चंकारियभट्टा । मायायां पाण्डुरार्या-दृष्टान्तः । संयमे आत्मा योजयितव्यः । पुरिम-चरिमाणकप्पो मंगलम्...। अब्भुवगत गतवइरे, णाउं गिहिणो वि मा हु अहिगरणं । कुज्जा हु कसाए वा अविगडितफलं च सिं सोउं ||११५||
मायाए पंडरज्जा नाम साधुणी सा विज्जासिद्धा आभिओग्गाणि बहूणि जाणति । जणो से पणय-कर-सिरो अच्छति । सा अण्णदा कदापि आयरियं भणति भत्तं पच्चक्खावेह, ताहे गुरुहिं सव्वं छड्डाविता पच्चक्खातं । ताहे सा भत्ते पच्चक्खाते एगाणिया अच्छति, ण कोइ तं आढाति ताहे ताए विज्जाए आवाहितो जणो आगंतुमारद्धो पुप्फगंधाणि घिलूण | आयरिएहिंदोवि पुच्छिता वग्गा भणंतिण याणामो । सा पुच्छिता भणति-आमं मए विज्जाए कतं । तेहिं भणितं-वोसिर । ताए वोसटुं । द्वितो लोगो आगंतुं । सा पुणो एगागी । पुणो आवाहितं सिद्धं (टुं) च । ततियं अणालोइतुं कालगता सोधम्मे कप्पे एरावणस्स अग्गमहिसी जाता | ताहे आगंतूण भगवतो पुरतो ठिच्चा हत्थिणी होउं महता सद्देण वाउक्कायं करेति । पुच्छा उठ्ठित्ता, वागरितो भगवता पुव्वभवो से । अण्णोवि कोपि साधू साधूणी वा मा एवं काहिति । सोवि एरिसं पाविहित्ति 'मत्तितेण वा तं करेति । तम्हा माया ण कायव्वा । लोभे लुद्धणंदो फालइतो जेण अप्पणो पादा भग्गा । तम्हा लोभो ण कातव्यो । पच्छित्ते बहुपाणो कालो बलितो चिरं तु ठायव्वं । सज्झाय संजमतवे धणियं अप्पा णिओतब्दो ||११६।।
एतेसिं सव्वेसिं पज्जोसवणाए वोसमणत्यं एत्थ वासास्ते पायच्छित्तं अट्ठसु उडुबद्धिएसु मासेसु जं पच्छित्तं संचियं तं वोढव्वं । किं निमित्तं ? तदा बहुपाणं भवति । हिंडंताण य विराहणा तेसिं होति । अवि य बलिओ कालो । सुहं तदा पच्छित्तं वोढुं सक्कइ । चिरं च एगंमि खेत्ते अच्छितव्वं । अवि य सीतलगणेण बलियाइ इंदियाइ भवंति, तेण दप्पणीहरणत्थं इत्थ वासास्ते पायच्छिन्तं तवो कज्जति, वित्थरेण य सज्झाए संजमे य सत्तरसविधे धणितं अप्पा जोएतव्यो । पुरिम-चरिमाण कप्पो मंगल्लं वद्धमाणतित्थंमि । इह परिकहिया जिण-गणहराइ-थेरावलि चरित्तं ||११७||
पुरिम-चरिमाण य तित्यगराणं एस मग्गो चेव । जहा-वासावासं पज्जोसवेतव्वं , पडउ वा वासं मा वा । मज्झिमगाणं पुण भयणिज्जं । अवि य १. 'मातित्तेण’ पाठः संभाव्यते तथा च मायित्वेनेत्यर्थः २. राज्ञा विदारितः । ఉయువతరంతరంగయయం " ఆంతంతంతుయుతతం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८
वद्धमाणतित्थंमि मंगलनिमित्तं जिण-गणधरावलिया सव्वेसिं च जिणाणं समोसरणाणि परिकहिज्जति । सुत्ते० गाथा । - - सुत्ते जहा निबद्धं वग्घारिय भत्त-पाण अग्गहणं । णाणट्ठी तवस्सी अणहियासि वग्घारिए गहणं ||११८॥
सुत्ते जहा निबंधो-'नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वग्घारितदुट्टिकायंसि गाथावतिकुलं भत्ताए वा पाणाए वा पविसित्तए वा निक्खमित्तए वा ।' वग्घारियं नाम जं भिन्नवासं पडति, वासकप्पं भेत्तूण अंतो कायं तिम्मेति । एवं वग्घारितं तत्थ ण कप्पति, 'कप्पति से अप्पट्टिकायंसि संतरुत्तरस्स०' गाथा ११८ ।। जता पुण साधू णाणट्टी कंचि सुतखंधं दरपढितं, सो य ण तरति विणा आहारेण चाउक्कालं पोरिसिं कातुं । अहवा तवस्सी तेण विगिटुं तवोकम्म कतं, तद्दिवसं च वासं पडति जद्दिवसं पारिततो, अथवा कोइ छुहालुतो अणहियासओ होज्जा, एते तिन्निवि वग्घारितेवि पडते हिंडेंति 'संतस्त्तरा | संजमखेत्तचुयाणं णाणट्ठि-तवस्सि-अणहियासाणं । आसज्ज भिक्खकालं, उत्तरकरणेण जतियव् ||११९।।
ते य पुणो कतायि संजमखेत्तचुता णाम-जत्थ वासकप्पा उन्निया लब्भंति, जत्य पादाणि अण्णाणि य संजमोवगरणाणि लब्भंति तं संजमखित्तं, ते य तओ संजमखित्ताओ चुया असिवाई कारणेहिं गता अन्नखेत्तं संक्कंता जत्य संजमोवगरणाणि वासकप्पा य दुल्लभा । ताहे जद्दिवसं वासं पडति तद्दिवसं अच्छंतु । जदा नाणट्ठी तवस्सी अणधियासया भवति, तदा आसज्ज भिक्खाकालं उत्तरकरणेण जतंति । उण्णियवासाकप्पो लाउयपायं च लब्भए जत्थ । सज्झाएसणसोही वरिसति काले य तं खित्तं ।।१२०|| पुब्बाहीयं नासइ, नवं च 'छातो अपच्चलो घेत्तुं । खमगस्स य पारणए वरिसति असहू य बालाई ॥१२१॥ वाले सुत्ते सुई कुडसीसग छत्तए य पंचमए । णाणट्ठी तवस्सी अणहियासि अह उत्तरविसेसो ॥१२२।।
॥ पज्जोसमणा कप्पनिज्जुत्ति सम्मत्ता ॥ १. आन्तरः सौत्रः कल्प उत्तर और्णिकस्ताभ्यां प्रावृत्ताः । २. द्वितीयपदेन यथा नियुक्तिगाथा । ३. बुभुक्षितः । ४. 'न पच्चलो' पाठान्तरम् । అంయంయంయంయంయం : ఉదయంయుతుండటంతరం
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ज्ञानार्थि - तपस्वि - असहनशील - साधूनां वर्षति मेघेऽपि यतनया गोचरी ग्राह्या । प्रभु वीर - चरित्रम् |
काल समय व्याख्या ।
जति उन्नियं अत्थि तेण हिंडंति, असति उन्नियस्स उट्टयेणं, उट्टियस्स असति कुतवेण, जाहे एवं तिविधंपि वालगं णत्थि ताहे जं सोत्तियं पंडरं घणमसिणं तेण हिंडंति । सुत्तियस्स असतीए ताहे तालसूचीं वा उवरिं काउं, जाधे सूचीवि णत्थि, ताहे 'कुडसीसयं सागस्स पलासस्स वा पत्तेहिं काऊण सीसे च्छुभित्ता हिंडंति । कुडसीसयस्स असतीए छत्तएण हिंडंति । एस नाणट्ठी तवस्सिअणधियासाण य उत्तरविसेसो भणितो । एवं पज्जोसवणाए विही भणितो ।
नामनिप्फन्नो गतो । सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारेतव्वं, अक्खलियादि
मू० तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणे भगवं महावीरे पंच हत्युत्तरे होत्था तंजहा, हत्थुत्तराहिं चुए, चइत्ता गब्मं वक्कंते, हत्थुत्तराहिं गब्भातो गब्मं साहरिते, हत्थुत्तराहिं जाते, हत्युत्तराहिं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारितं पव्वइए, हत्थुत्तराहिं अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने, सातिणा परिनिब्बुए भयवं 'जाव भुज्जो भुज्जो उवदंसेइ त्ति बेमि । पज्जोसवणाकप्प-दसा अट्ठमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥
तेणं कालेणं तेण समएणं समणे भगवं० तेणं कालेणंति-जो भगवता उसभसामिणा सेसतित्थकरेहि य भगवतो वद्धमाणसामिणो चयणादीणं छण्हं वत्थूणं कालो णातो दिट्ठो वागरितो य । तेणं कालेणं तेणं समएणं कालान्तर्गतः समयः, समयादिश्च कालः, सामन्नकालतो एस विसेसकालो समओ, हत्थस्स उत्तरातो जातो तातो हत्थुत्तरातो । गणणं वा पडुच्च हत्थो उत्तरो जासि तातो हत्थुत्तरातो उत्तरफग्गुणीतो ॥ छट्ठी पक्खेणं छट्ठी अहोस्तस्स रत्तीए पुव्वस्तावस्तंसीति-अद्धस्तेण । चयमाणे ण जाणति, जतो एगसमइतो उवओगो णत्थि । चोद्दस महासुमिणे ओरालेतेति पहाणे, कल्लाणे आरोग्गकरे, सिवेउवद्दवोवसमणे, धन्ने धण्णावहे, मंगल्ले पवित्ते, सस्सिरीए, सोभाए मणोहरे || सक्के देविंदे मघवंति, महामेहा ते जस्स वसे संति से मघवं, पागे बलवगे अरी जो सासेति सो पागसासणो, कत्तू पडिमा तासिं सतं फासितं कत्तिय-सेट्ठित्तणे जेण सो सयक्कओ । सहस्सक्खेत्ति - पंचण्हं मंति-सताणं सहस्समक्खीणं । असुरादीणं पुराणि दारइत्ति पुरंदरो । महताइत्ति पधाणेण गीत-वाइत-रवेणंत्ति
१. पर्णनिष्पन्नं । २. तालपत्रीय पुस्तके संपूर्ण-संवच्छरी (पज्जोसमणा-) सूत्रं लिखितमस्ति । अन्यप्रतौ प्रथमसूत्रमेव लिखितमस्ति । ३. देवविशेषाः ।
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८
'सिलिहिति । आह तेणंति निच्चाणबद्धेणं-अक्खाणग-बद्धेण वा एवंवादिणा, णट्टेण नच्चिरेणं, गीएणं संसद्दितेण, वादितेणं आतोज्जाभिघातसद्देणं, आतोज्जेकदेसोयं, तंति एता तंत्री प्रतीता, तलं-हत्थपुडं, तालं कंसालिया, तुडियाणि-वादित्ताणि, एतेसिं घणोवमेण मुरवाणय पडुणा विसद्देणं पवाइतरवेणं । हिताणुकंपएणं देवेणंति हितो सक्कस्स अप्पणो य अणुकंपतो भगवतो ।।
अट्टणसाला वायामसाला । सतं वाराउ जं पक्कं तं सयपागं सतेणं वा काहावणाणं । पीणणिज्जेहिंति-रसादिधातुसमकारीहिं, दीवणिज्जेहिं-अग्गिजणणेहिं, दप्पणिज्जेहिं-बलकरहिं, मदणिज्जेहिं चम्मट्ठि-वद्धणेहिं, तिप्पणिज्जेहिं मंसोवचयकरेहि, छेया- बावत्तरीकलापंडिता, दक्खा कज्जाणं अविलंबितकारी, पट्टा-वाग्मिनः, निउणा क्रीडाकुशला, सुद्धोदकं उन्होदकं, गणणायगा प्रकृतिमहत्तरया, दंडनायका इसरा, भोइया तलवर-पट्टबद्धा, तलवरा राज-स्थानीया इत्यर्थः । माडंबिया-पच्चंत-राइणो, कोडुंबिया गाममहत्तरा, ओलग्गगा इभा, णेगमादिणो वणिया, सेट्ठी पट्टवेठ्ठणो२, तदधिवो महामंती हत्थिसाहणोवरिगो, गणगा भंडारिया, अमच्चो रज्जाधिटायगो, चेडगा पादमूलीया, पीढमद्दा-अत्थाणीए आसणासीण-सेवगा, णगरमिति पगतीओ, निगमा कारणिया, संधिवाला-रज्जसंधि-रक्खगा । जीवितारिहं पीतिदाणंति जावज्जीवं पहुप्पितुं जोग्गं । पेत्तेज्ज इति पित्तियए । आतोधिएत्ति अब्भंतरोधी । पाईणगामिणी पुव्वद्दिसा-गामिणी छाया ।। 'मंजुमंजुणा घोसेण अपडिबुज्झमाणे' ति ण णज्जति, को किं जंपति । वियावत्तस्स चेतियस्स वियावत्तं णामेणं, वियावत्तं वा व्यावृत्तं 'चेतियत्तणाओ जिण्णुज्जाणमित्यर्थः । कट्टकरणं-क्षेत्रं । आवीकंमं-पगासकतं, रहोकम्म-पच्छन्नकतं सेसं कंठं जाव अट्ठियग्गाम-णीसाए पढमं अंतरावासं वासावासं उवागते, अंतरे वासा अंतरवासा इति वासारात्रस्याख्या । उक्तं च-६अंतरघण-सामलो भगवं । पावा देवेहिं कतं णाम , जेण तत्थ भगवं कालगतो ।
रज्जुगा लेहगा तेसिं सभा रज्जुगसभा अपरिभुज्जमाणा करणसाला | छउमत्थकाले जिणकाले य एते वासास्ता । पणियभूमि-"वज्जभूमि । कत्तिए मासे कालपक्खे चरिमा रतणी अमावसा कालं अंतं गतः कालगतः कायद्वितिकालात् भवहितिकालाच्च वीतिक्कंतो संसारातो संमं उज्जातो, ण जधा अन्ने, समस्तं १. सिलिट्टत्ति' पाठः संभाव्यते, तथा च गीतवादित्ररवेण संगत इत्यर्थः । “मुरजानाम् । २. बद्धवेट्टणो इति पाठान्तरम् ३. पितृव्यः सुपार्श्व : ४. 'आहोवियेत्ति' पाठान्तरम् । 'आभोतिए' पाठः संभाव्यते, आभ्यन्तरः अवधिः । ५. चेत्यत्वात् । ६. वर्षारात्रघनश्यामल इत्यर्थः । ७. अनार्यदेशः । ఉండి ఉంటుంతీం 00 అతీతీతంంంంం
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सूत्रस्य कतिचित्पदानां व्याख्या । भगवतानिर्वाण-समये अन्य-प्रतिबोधाय श्रीगौतमस्य प्रेषणं । तत्र भगवनिर्वाणं ज्ञातं । प्रभाते केवलज्ञान-प्राप्तिः । श्री सुधर्मा-स्वामिने गणप्रदानम् ।। वा उद्यातः जातिजरामरणस्स य, बंधणं कम्मं तं छिण्णं, सिद्धः साधितार्थः, बुद्धो ज्ञः, मुक्तो भवेभ्यः, सर्वभावेन निर्वृतः परिनिर्वृतः, अंतकृतः सर्वदुःखाणि संसारियाणि पहीणाणि सारीराणि माणसाणि य । बितितो चंदो संवत्सरो, पीतिवद्धणो मासो, णंदिवद्धणो पक्खो, अग्गिवेसो दिवसो, उवसमो वि से णाम, देवाणंदा रयणी निरतित्तिवि वुच्चति, लवस्स अच्चो णामं, पाणस्स मुहत्तो, थोवस्स सिद्धो, णागं करणं णामं, सव्वट्ठसिद्धो मुहत्तो । पारं आभोएति प्रकाशेति पाराभोग: 'पोसहो अवामंसाइत्ति । तंमि णातए पिज्जबंधणं-नेहो, तं वोच्छिण्णं ।
गौतमो भगवता पट्टवितो अमृगग्गामे अमगं बोधेहि तहिं गतो, वियालो य जातो, तत्येव वुच्छो, णवरि पिच्छति रत्तिं देवसन्निवातं, उवउत्ते णातं जहा भगवं कालगतो, ताहे चिंतेति-अहो भगवं निप्पिवासो, कहं वा वीतरागाण णेहो भवति । णेहरागेण य जीवा संसारे अडंति । एत्यंतरा णाणं उप्पण्णं । बारसवासाणि केवली विहरति जहेव भगवं, नवरं अतिसयरहितो, धम्मकथणा परिवारो य तहेव ।
पच्छा अज्जसुधम्मस्स निसिरति गणं दीहाउत्ति काउं । पच्छा अज्जसुधम्मस्स केवलनाणं उप्पण्णं । सोवि अट्ठवासेहिं विहरेता केवलिपरियाणेण अज्जजंबुणामस्स गणं दातुं सिद्धिं गतो | कुर्भूमी तस्यां तिष्ठतीति कुंथू अणुं सरीरं धरेति अणुंधरी । दुविधा-अंतकरभूमित्ति । अंतः कर्मणां, भूमि कालो सो दुविधो पुरिसंतकरकालो य परियायंतर(कर)कालो य । जाव अज्ज जंबुणामो ताव सिवपंथो, एस जुगंतरकालो । चत्तारि वासाणि भगवता तित्थे पवत्तिते तो सेज्झितुमारद्धा एस परियायंतरकरकालो । ततिए पुरिसजुगे जुगंतकरभूमी || पणपण्णं पावाणं, पणपण्णं कल्लाणाणं । तत्येगं मरुदेवा । णव गणा एक्कारस गणधरा । दोण्हं दोण्हं पच्छिमाणं एक्के गणो । जीवंते चेव भट्टारए णवहिं गणधरेहिं अज्ज सुधम्मस्स गणो णिक्खित्तो दीहाउगोत्ति णातुं || समणे भगवं महावीरे चंदसंवत्सरमधिकृत्योपदिश्यते जेणं जुगादी सो ।
वासाणं सवीसतिराते मासे, किं निमित्तं ? पाएण सअट्ठा कडिताई पासेहितो, उक्कंपिताणि उवरिं लित्ता, कुड्डा घट्ठा, भूमी मट्ठा लण्हिकता, समंता मट्ठा संमट्ठा, खत्ता उदग-पधा निद्धमण-पधा य, सअट्ठा जे अप्पणो निमित्तं परिणामियकताइं घरा | पव्वइया ठित्तत्ति काउं दंताल-छेतकरिसणघरछयणाणि य करेति तत्थ अधिकरणदोसा, सवीसतिराते मासे गते ण भवंति । १. भवाब्धिपारप्रापकः अथवाऽष्ट-प्राहरिकः पोषधस्तम् । २. 'अमावसाए' इति पाठः संभाव्यते तथा च अमाव स्यायाम् । ఉంయయయ యయయవంతం అంతంతయతయతయతయుతం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८ 'वासावास-पज्जोसविते कप्पति' सुत्तं । सव्वतो समंतत्ति सव्वतो चउद्दिसिंपि-सकोसं जोयणं खेत्तं कप्पपमाणं अडवी-जलकारणादिसु ति-दिसि बि-दिसि एगदिसिं वा भयितं, आहालंदमवि-अधेत्ययं निपातः, लंदमिति कालस्याख्या, जहण्णं लंदं उदउल्लं, उक्कोसं पंचरातिदिया, तयोरंतरं मध्यं । 'यथा प्रकृतिरपि अथप्रकृतिरपि एवं लंदमपि मासो जाव छम्मासो जेट्ठोग्गहो ||
वासावासं सकोसं जोयणं गंतु पडिनियत्तए 'दगघट्ठा ७ एरवति कुणालाए अद्धजोयणं वहति । तत्थवि ण उवहमति थलागासं ण विरोलेंतो वच्चति । अत्येगतिया आयरिया दाए भंते ! दावे गिलाणस्स मा अप्पणो पडिग्गाहे | चाउम्मासिगादिसु पडिग्गाहे भंतेत्ति अथ णो पडिग्गाहो अज्ज गिलाणस्स, अण्णो गिण्हित्ति, ण वा भुंजति । अथ दोण्हवि गेण्हति तो पारिठ्ठावणिया दोसा, अपरिहवेंते गेलण्णादि । दाए पडिग्गाहे गिलाणस्स अप्पणोवि एवायरिय-बालवुड्ड-पाहुणगाणवि वितिण्णं स एव दोसो मोहुब्भवो खीरे य धरणा, धरणे आतसंजमविराधणा ।।
___ "वासा अत्येगतिया' आयरियं वेयावच्चकरो पुच्छति, गिलाणं वा इतरहा पारिठ्ठावणियदोसा | गिलाणोभासिअं मंडलीए ण छुब्भति । अणोभासितं छुब्भति, से य वदेज्जा, अढे अमुएण एवतिएण वा सेत्ति वेयावच्चकरे विन्नवेति, ओभासति से य पमाणपत्ते, दाता भणति, पडिग्गाहे तुमंपि य भोक्खसि ओदनं, दवं पाहिसि, गरहित-विगतिं पडिसेहेति, अगरहितं जाणेत्ता णिब्बंधं तं च फासुगं अत्थि ताहे गिण्हति, गिलाण-णिस्साए ण कप्पति घेत्तुं ।
'वासावासं०' अत्थि तहप्पगाराइं अदुगुंछितानि कुलानि कडाणि तेण अण्णेण वा सावगत्तं गाहिताणि दाणसवृत्तं वा, पत्तियाइं-धृतिकराई, थिज्जाइंथिराइं, प्रीतिं प्रति दाणं वा, वेसासियाणि-विस्संभणीयाणि, तहिं च धुवं लभामि अहं, ताणि असंसयं देंति, संमतो सो तत्थ पविसंतो, बहुमताई बहूणवि संमतो ण एगस्स दोण्हं वा, बहूणं वि साहूण दिति, अणुमताई दातुं चेव । तत्थ से णो कप्पति अद्दटुं वइत्तए-'अत्थि ते आउसो इमं वा इमं वा' । जति भणति को दोसो ? बेइ, तं तुरितं श्रद्धावान् सड्डी । ओदण-सत्तुग-तलाहणिया वा पुव्वकड्तेि उण्होदए ओदणो पेज्जा वा सगेहे परगेहे वा पुव्वतावितेण उसिणद्दवेण समितं तिम्मंति, तलाहणियातो आवणातो आणिंति, सत्तुगा किणंति, पामिच्चं वा करेति ।
एगं गोयरकालं सुत्तपोरिसिं कातुं अत्यपोरिसं कातुं एक्कं वारं कप्पति १. यथा रेफप्रकृतिरप्यरेफप्रकृतिरपि इति संभाव्यते । २. उदकसंघट्टा । ఉదంతయుగయుగయుగంటయం 07 ఉంటుందనుకుంటుంది
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पंचाशद्-दिवसे पर्युषणा कर्तव्या । तस्याः कारणानि दर्शितानि सामाचारि-सूत्राणां कतिचित्पदव्याख्या । उपाश्रयात्सप्त-गृहगणना-मतान्तरम् । चउत्यभत्तियस्सत्ति । अयमिति प्रत्यक्षीकरणे एवतिएत्ति वक्ष्यमाणो विसेसो, पातोत्ति प्रातः ण चरिमपोरिसीए, वियडं-उग्गमादिसुद्धं, णण्णत्थ आयरिय-उवज्झायगिलाण खुड्डतो वा संलिहिता संपमज्जिता धोवित्ता, पज्जोसवित्तए परिवसित्तए ण संथरति, थोवं तं, ताहे पुणो पविसति ।
छट्ठस्स दो गोयरकाला, किं कारणं ? सो पुणोवि कल्लं उववासं काहिति, जति खंडिताणि तत्तियाणि चेव कप्पंति । किस एगवारा गिण्हितुं ण धरेति ? उच्यते-सीतलं भवति संचय-संसत्त-दीहादी दोसा भवंति । भुत्ताणुभुत्ते य बलं भवति, दुःखं च धरितित्ति ।
एवं अट्टमस्सवि तिन्नि । व्यपगतं अष्टं व्यष्टं 'विकृष्टं वा तिन्निवि गोयरकाला सव्वे चत्तारिवि पोरिसितो आहाराणंतरं पाणगं निच्चभत्तिगस्स सव्वाइं जाणि पाणेसणाए भणिताणि, अथवा वक्ष्यमाणानि नव वि उस्सेदिमादीणि | चउत्थभत्तियस्स तयो-उस्सेदिमं पिटुं 'दीवगा वा, संसेदिम-पण्णं उक्कड्डेउं सीतलएणं सिच्चति, चाउलोदगं चाउलधोवणं । छठे तिलोदगं लोविताणवि तिलाण धोवणं, मरहठ्ठादीणं तुसोदगं वीहिउदगं, जवउदगं-जवधोवणं जवोदगं । आयामगं-अवस्सावणं, सोवीरगं-अंबिलं, सुद्धवियडं उसिणोदगं । भत्तपच्चक्खातस्स ससित्ये आहारदोसा, अपरिपूते कट्ठादि, अपरिमिते अजीरगादिदोसा |
संखादत्तिओ परिमितदत्तिओ लोणं थोवं दिज्जति, जइ तत्तिलगं भत्तपाणस्स गेण्हति सावि दत्ती चेव || पंचत्ति णेम्मं 'चउरो तिन्नि दो एगो वा, छ सत्त वा मा एवं संच्छोभो, कताइ तेण पंच भोयणस्स लद्धातो तिन्नि पाणगस्स, ताहे ताओ पाणगच्चियातो भोयणे संछुभंति तन्न कप्पति, भोयणच्चियातो वा पाणे संछुब्भंति, तंपि ण कप्पति ।
वासावासं तंमि वासावासे पज्जोसविते णो कप्पति उवस्सतातो जाव सत्त घरंतरं संन्निवताइतुं, आत्मानं अन्यत्र चरितुं चारए । सह उवस्सयातोत्ति सह सेज्जातरघरेणं सत्त एताणि । अन्नो भणति सेज्जातरघरं वज्जेत्ता सत्त, अण्णो भणति सेज्जातरघरातो परं परंपरेण अन्नाणि सत्त ।
वासावासं जं किंचि कणगफुसितं उसा महिता वासावासं पडति उदगविराधणत्ति कातुं । अगिह अब्भावगासो तत्थ अद्धसमुद्दिट्ठस्स बिंदू पडेज्ज । १. अष्टमस्योपरि । २. महाराष्ट्रेषु प्रतीताः ३. लवितानामपि छेदितानामित्यर्थः । ४. अगालिते । ५.सीमा । adddddddddddda१०३dddddddddddddha
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८ णणु तेण च उवओगो कतो पुव्वं जयति ? उच्यते-छउमत्थितो उवतोगो तहा वा अण्णहा वा होज्जा | पज्जोसवित्तए आहारेत्तए स्यात् कथंचित् आगासे भुंजेज्ज वासं व होज्ज, तत्थ देसं भोच्चा आहारस्स देसं आदाय गृहीत्वा तं देसं पाणिणा पिहिता उरेण वा निलेज्जेज्ज' ओहाडेज्ज, कक्खंसि वा आदद्यात् आदाय वा, ततः किं कुर्यात् ? अधाछण्णाणि ण संजतट्टाए छण्णाणि | बहवो बिंदवो उदकं, बिंदुमात्रं उदगरओ, तदेगदेसो दगफुसिता । वग्घारितवुट्ठिकाओ जो वासकप्पं गालेति अछिण्णाए धाराए । कप्पति से संतस्तरस्स-अंतरं रयहरणं पडिग्गहो वा उत्तरं पाउरणकप्पो स अंतरेण उत्तरस्स ||
वासासुत्तं-निग्गिज्जइ २ ठाइउं २ वरिसति कप्पति से अहे उवस्सयं वा अप्पाणं उवस्सयं अण्णेसिं वा संभोइयाणं इयरेसिं वा । तेसिं असति अधे वियडगिहे तत्थ वेलं णाहिति ठितो वा वरिसति वा असंकणिज्जे य रुक्खमूलं निग्गलं करीरादि । तत्य से वियडगिहे रुक्खमूले वा ठितस्स आगमनात् पूर्वकालं पुवाउते तिन्नि आलावगा, पुव्वाउत्ता आरुभितं केसिंचि समीहितं तु जं तत्थ । एते ण होति दोन्निवि पुव्वपक्त्तं तु जं तत्थ ||१|| पुव्वाउत्तं केइ भणंति जं आरुभितं चुल्लिए । केइ भणंति-जं समीहितं नाम जं तत्थ ढोइ तिल्लगं पागहाए ।।२।। एते दोवि अणादेसा । इमो आतेसो जं तेसिं गिहत्थाणं पव्वपक्तं जतियं उवक्खडिअं तयं एतं पुव्वाउत्तयं ।। कहं पुण ते दोवि अणादेसा ? अत उच्यते-पुव्वारुहिते य समीहिते य किं छुब्भती ? ण खलु अन्नं । तम्हा जं खलु उचितं तं तु पमाणं, ण इतरं तु ।
बालगपुच्छादीहिं णातु (तुं) आदरमणादरेहिं च । जं जोग्गं तं गेण्हति, दव्वपमाणं च जाणेज्जा ||१||
तत्य अच्छंतस्स कतायि वरिसं न चेव ठाइज्जा, तत्थ किं कातव्वं ? का वा मेरा ? कप्पति से "वियडं भोच्चा'' वियडं उग्गमादिसुद्धं, एगायतं-सह सरीरेण पाउणित्ता, वरिसंतेवि उवस्सयं एत्ति(ति) । तत्थ वसंते बहू दोसा । एगस्स आतपरोभयसमुत्था दोसा, साहू व अद्दण्णा होज्जा ||
एत्थ वियडरुक्खमूलेसु कहं अच्छितव्वं ? तत्थ 'नो कप्पति एगस्स निग्गंथस्स एगाए य निग्गंथीए ।' एवं एगाणितो संघाडइल्लतो अब्भत्तद्वितो असुहितो कारणिओ वा । एवं निग्गंथीणवि आतरपरोभयसमुत्था दोसा संकादओ य भवंति । अह पंचमतो खुद्दतो खुद्दिया वा छक्कण्णं रहस्सं ण भवति तत्थ वि
१. पिदध्यात् २. आरोपितं चुल्ल्याम् । dardnandadaddedrandedas[ १०४Jasdadddddddddddddddddedia
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वर्षति मेघे वियडगृह-वृक्षमूले स्थातव्यम् । सायंकाले अविरते मेघे विधिना उपाश्रयमागन्तव्यम् । अष्ट सूक्ष्मानि पुन: पुन: द्रष्टव्यानि । आचार्यादिं पृष्ट्वा कार्यं कर्तव्यम् ।
1
अच्छंतो, अन्नेसिं धुवकम्मयादीणं संलोए सपडिदुवारे सपsिहुतं दुवारं सव्वगिहाण वा दुवारे खुद्दतो साधूणं, संजतीणं खुड्डिया, साधू उस्सग्गेणं दो, संजी तिन्नि चत्तारि पंच वा । एवं अगारीहिं ||
अप्पडिपण्णत्तो-ण केणइ कुत्तो मम आणिज्जासि, अहं वा तव आणेस्सामि, ण कप्पति । कहं ? अच्छतित्ति गहितं, सोवि 'तोतिन्नो अहियं गहितं भुंजंते गेलन्नदोसा परिद्ववेंत आउहरितविराहणा ॥ वासावास से इति स भगवांस्तीर्थकर : किमाहु-दोसमाहु-आयतणं उदगस्स, पाणी पाणिलेहातो-पाणी पाणिरेव पाणिरेहा आयुरेहा सुचिरतरं तत्थ आउक्कातो चिट्ठति । णहो सव्वो णहसिहा-णहग्गलयं, उत्तरोट्ठा-दाढियाओ, भमुहरोमाई, एत्थवि चिरं अच्छति ।
"
वासावासं अट्ठसुहुमाइंति-सूक्ष्मत्वात् अल्पाधारत्वाच्च अभिक्खणं पुणो पुणो जाणियव्वाणि, सुत्तोवेदेसेणं पासितव्वाणि चक्खुणा, एतेहिं दोहिं वि जाणित्ता य पासित्ता य परिहरितव्वाणि । पाणसुहुमे पंचविहे, पंचप्रकारे एक्केक्के वणे सहस्ससो भेदा, अन्ने य बहुपगारा संजोगा, ते सव्वेपि पंचसु समोतरंति किण्हादिसु | नो चक्षुप्फासं । जे णिग्गंथेण अभिक्खणं अभिक्खणं जत्थ
निसीयणाणि चेतेति आदाणं गहणं निक्खेवं वा करेति । पणओ-उल्ली `चिरुग्गतो तद्दवसमाणवन्नो जाहे य उप्पज्जति । बीयसुहुमं- सुहुमं जं व्रीहियबीयं बीयं तंदुलकणियासमाणगं । हरितसुहुमं पुढविसरिस किण्हादिना अचिरुग्गतं । पुप्फसुहुमं अल्पाधारत्वात्, अथवा उट्ठितगं सुहुमं सुण्हगं उंबरपुष्पादि, अहवा पल्ल्वादिसरिसं । अंडसुहुमं पंचविधं, उद्दंसंडे - मधुमक्खियादीणं अंडगाणि, पीविलिगा-मुइंगंडाणि, उक्कलियंडे - लूतादि पुडगस्स, हल्लिया घरतोलिया तीसे अंडगं, हल्लोहलिया अहिलोंडि सरडीवि भण्णति तेसिं अंडयं । लेणसुहुमे लेणं आश्रयः सत्त्वानां उत्तिंग-लेणं गद्दभग-उक्केरो । भूमिए भिगू फुडियादाली, उज्जुगं बिलं तालमूलगं हेट्टा विच्छिण्णं उवरिं तणुगं संबुक्काक्तं भमंतयं ।
`वासावासं' इदाणिं सामण्ण-सामायारी दोसुविं कालेसु विसेसेण वासासु । आयारियो दिसायरितो सुत्तत्थं "वादेति, उवज्झातो सुत्तं वाएति । पव्वती नाणादिसु पव्क्त्तेति, नाणे पढ परियट्टेहि सुणेहि उद्दिसावेहि, एवं दंसणे दंसणसत्थाइं पढ परियट्ठेहि सुणेहि वा चरिते पच्छितं वहाहि अणेसणदुप्पडिलेहिताणि करेंत वारेति, बारसविहेण तवेण जोआवेति, जो जस्स जोग्गो । थेरो एतेसु चेव १. गोचर्याम् अवतीर्णः । २. `'अचिरुग्गतो' संभाव्यते । ३. गृहकोकिला ४. वाचयति ।
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८
णाणादिसु सीतंतं थिरं करेति पडिचोदेति, उज्जमंतं अणुबूहति । गणी अण्णे आयरिया सुत्तादिनिमित्तं उवसंपन्नगा | गणावच्छेइया साधू घेत्तुं बाहिरखेत्ते अच्छंति उद्धावणा-पहावण-खेत्तोवहि-मग्गणेसु असिवादिसु उज्जुत्ता, अण्णं वा जं पुरतो कट्ट पुरस्कृत्य, सहदुक्खिया परोप्परं पुछंति, खेत्तपडिलेहगा वा दुगमाती गता ते अन्नमन्नं पुरतो काउं विहरंति । अणापुच्छाए ण वमृति । किं कारणं ? वासं पडिज्ज पडिणीतो वा, अहवायरिय-बाल-खमग-गिलाणाणं घेत्तव्वं , तं च ते अतिसयजुत्ता जाणमाणा कारणं दीवेत्ता, पच्चवाता सेहसणायगा वा, असंखडयं वा केणति सद्धिं, पडिणीतो वा । एवं वियारेवि पडित-मुच्छिताति पच्चवाता | गामाणुगामं कारणितो दुतिज्जति । अण्णतरं वा विगतिं खीरादि एवदीयं- एत्तियं परिमाणेणं, एवतिक्खुत्तो- एत्तियवाराओ दिवसे वा, मोहुब्भवदोसा, खमगगिलाणाणं अणुण्णाता । अण्णयर तेगिच्छं वातित-पित्तिय-सिंभिय-सण्णिवाता आउरो विज्जो पडिचरतो ओसध-पत्थ-भोअणं आउट्टित्तए करेत्तए । करणार्थे आउट्टशब्दः ।
अण्णतरं अद्धमासादि उरालं महल्लं, समत्यो असमत्थो, वेआवच्चकरो पडिलेहणादि करेंतओ अत्थि, पारणगं वा संधुक्कणादि अत्थि | भत्तपच्चक्खाणे नित्थारतो नत्थि समाधिपाणगं निज्जवगा वा अत्थि, निप्फती वा अत्थि नत्थि अण्णतरं उवहेंति वत्थपत्तादिकं ।
अथासन्निहिता अणायावणे कुत्थणं पणतो अह णत्थि पडियरगा उल्लति हीरेज्ज वा उदगवहो जायते तेण विणा हाणी ।
वासावासं अणभिग्गहित-सिज्जासणियस्स, मणि-कुट्टिम-भूमीएवि संथारो सो अवस्स घेतव्वो । विराहणा-पाणा-सीतल-कंथू' सीतलाए भूमीए अजीरगादिदोसा, आसणेण विणा कुंथूसंघट्टो, निसिज्जा मइलिज्जति , उदगवधो मइलाए उवरि हिट्ठावि आयाणं कर्मणां दोसाणं वा ।
उच्चं च 'कुच्चं च उच्चाकुच्चं न उच्चाकुच्चं अणुच्चाकुच्चं, भूमीए अणंतरे संथारए कए अवेहासेपि पीपिलिकादि-सत्तवहो दीहाजादिओ वा डसिज्ज, तम्हा उच्चो कातव्यो । उक्तं च-हत्थं लंबति सप्पो० गाथा । 'कुच्चे संघट्टएण कुंथू-मंकुणादिवधो । अणट्टाबंधी पक्खस्स तिन्नि चत्तारि वाराउ वा बंधंति, सज्झायादिपलिमंथो पाणसंघट्टणा य, अथवा अणट्टाबंधी सत्तहिं छहिं पंचहिं वा अड्डएहिं बंधति । अमियासणितो अबद्धासणितो ठाणातो ठाणसंकमं करेमाणो १. 'अकुच्चं' संभाव्यते, तथा च परिस्पन्दरहितः । २. सपरिस्पन्दे । అంతయతయతయుతమందం 6 గురు యువతువుతుంటుంది
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महत्तपस्कर्ता वैयावृत्यकर्तरि सति स्वीकार्यः । चर्तुमास्यां नियमितासनवताभाव्यम् । समिति-अपालने संयमविराधना । स्थंडिलभूमि-स्वरूपम् । किमर्थं लोचोऽवश्यं कर्तव्यः । सत्ते वहेति । अणातावियस्स संथारगपादादीणं पणगकंथूहि संसज्जते, तक्कज्जअणुवभोगो, उवभोगनिरत्यए य अधिकरणं । उवभुंजमाणस्स जीववधो । असमितो इरियादिसु । भासणे संपातिमवधो । दुण्णेयो णेहच्छेदो ततियाए । पढमचरिमासु दोण्हं अपेह अपमज्जणे दोसो नेहो-आउक्कातो चेव, नेहच्छेदोपरिणतो वा ण वा व्विन्नेओ ततियाए एसणाए समितीएत्ति । अभिक्खणं २ ठाण-निसीअण-तुअट्टण उवहि आदाणनिक्खेवे जधा जहा एताणि हाणाणि संथारादीणि ण परिहरंति तहा तहा संजमे दुआराधए | जो पुणअभिग्गहितसेज्जासणितो भवति तस्य अनादानं भवति कर्मणां असंयमस्य वा । उच्चो कातव्वो, अकच्चो बंधितव्वो, अट्ठाए एक्कसिं पक्खस्स, अड्डगा चत्तारि, बद्धासणेणं होतव्वं कारणे उठेति, संथारगादी आतावेतव्वा, पमज्जणासीलेण य भवितव्वं , जधा जधा एताणि करेति तहा तहा संजमो सुट्ट आराहितो भवति, सुकरतो वा, ततो मोक्खो भवति ।।
वासावासं तओ उच्चार तउत्ति-अंतो तओ अहियासिताओ, अणहियासियाओ वि तओ, आसन्ने मज्झे दूरे एक्केक्का वाघातनिमित्तं एवं बाहिपि ३ । ओस्सन्नं-प्रायशः प्राणा बीजा बगा संखणग इंदगोवगादिः प्राणा । अहुणुभिण्णा बीजा तो हरिता जाता, आयतनं-स्थानं । वासावासं तओ मत्तया ओगिण्हित्तए तं उच्चारमत्तए ३ वि । वेलाए धरिते आयविराहणा वाऽसंते संजमविराहणा य, बाहिं णितस्स गुम्मियादि-गहणं, तेण मत्तए वोसिस्तिा बाहिं णिता परिठ्ठवेंति, पासवणेवि आभिग्गहितो धरेति, तस्सासति जो जाहे वोसिरति सो ताहे धरेति ण णिक्खिवति । सुवंतो वा उच्छंगे ठितयं चेव उवरि दंडए व दोरेण बंधति गोसे असंसत्तियाए भूमीए अण्णत्य परिहवेति ।
__वासावासं नो कप्पति णिग्गंथा २ परं पज्जोसवणातो गोलोमपमाणमेत्तावि केसा जाव संवच्छरियथेरकप्पे उवातिणावेत्तएत्ति अतिक्कमितए, केसेसु आउक्कातो लग्गति, सो विराधिज्जेति, तेस्य उल्लंतेसु छप्पितियातो समुच्छंति, छप्पईयाओ य कंड्यंतो विराधेति, अप्पणो वा क्खतं करेति, जम्हा एते दोसा तम्हा गोलोमप्पमाणमेत्तावि ण कप्पंति, जति च्छुरेण कारेति कत्तरीए वा, आणादी ताओ छप्पितियातो छिज्जंति, पच्छा कम्मं च पहावितो करेति, ओभामणा, तम्हा लोतो कातव्वो, तो एते दोसा परिहरिता भवंति । भवे कारणं, ण करेज्जा वि लोयं । असहू ण तरति अहियासेत्तुं लोयं, जति करेति अन्नो वा उवद्दव्वो भवति, बालो रुएज्ज वा धम्मं वा छड्डेज्जा, गिलाणो वा, तेण लोओ न adddddddddddddd[१०७ ddddddddddddda
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पर्युषणाकल्प-अध्ययनम्-८
कीरति । जति कत्तरी कारेति पक्खे पक्खे कातव्वं, अध च्छुरेण मासे मासे कातव्वं, पढमं छुरेण पच्छा कत्तरीए, अप्पणा दवं घेत्तूण तस्सवि हत्थधोवणं दिज्जति एस जयणा । धु्रवलोय उ जिणाणं, थेराण पुण वासासु अवस्स कायव्वो, पक्खियारोवणा व ताणं सव्वकालं, अहवा संथारयदोराणं पक्खे २ बंधा मोत्तव्वा पडिलेहेतव्वा य, अथवा पक्खिया आरोवणा केसाणं कत्तरीए अण्णधा पच्छितं, मासिए खुरेणं, लोतो छण्हं मासाणं उक्कोसेणं थेराणं, तरुणाणं चाउम्मासितो । संवच्छरिउत्ति वा वासारत्तिउ वा एगट्टं, उक्तं चसंवच्छरं वावि परं पमाणं बीयं च वासं न तहिं वसेज्जा |
एस कप्पो मेरा-मज्जाया कस्स ? थेराणं भणिता । आपुच्छ-भिक्खायरियादि विगतिपच्चक्खाणं जाव मत्तगंत्ति । जिणाणवि एत्थं किंचि सामन्नं पारणं पुण थेराणं ।
वासावासं नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पज्जोसवणातो अधिकरणं वदित्तए अतिक्रामयित्वा इत्यर्थः । वदित्तए जधा अधिकरणसुत्ते, 'कताइ ठवणा दिवसे चेव अधिकरणं समुप्पन्नं होज्ज, तं तद्दिवसमेव खामितव्वं, जो परं पज्जोसवणातो अधिकरणं वदति सो अकप्पो अमेरा, निज्जूहितव्वो गणातो तंबोलपत्र-ज्ञातवत्, उवसंत-उवट्ठिते मूलं ।
वासावासं पज्जोसविताणं इह खलु पवयणे अज्जेव पज्जोसवणादिवसे कक्खडे महल्लसद्देण, कडुए-जकार-मकारेहिं, वुग्गहो कलहो सामायारीवितहकरणो, तत्थावराहे सेहेण रातिणितो खमितव्वो पढमं, जतिवि रातिणिओ अवरद्धो, पच्छा रातिणितो खामेति, अह सेहो अप्पुट्ठ-धम्मो ताहे रातिणितो खामेति । पढमं खमितव्वं सयमेव खामितव्वो परो, उवसमितव्वं अप्पणा, असििं उवसमो कातव्वो । उवसमेतव्वं संजताणं संजतीण य । जं अज्जितं समीखल्लएहिं० गाथा । तावो भेदो० गाथा । संमती-सोभणा मती संमती रागदोसरहिता । संपुच्छणत्ति-सज्झायाउत्तेहिं होतव्वं । अहवा संपुच्छणा सुत्तत्थेसु कातव्वा । ण कसाया वोढव्वा | अहवा जो खामितो वा अखामितो वा उवसमिति तस्स अस्थि आराधणा नाणादि ३, जो न उवसमति तस्स नत्थि । एवं ज्ञात्वा तम्हा अप्पणा उवसमितव्वं-जति परो खामितो न उवसमति तम्हा किं निमित्तं ? जेण उवसमसारं उवसमप्पभवं उवसममूलमित्यर्थः समणभावो सामण्णं ।
वासासु वाघातनिमित्तंति तिन्नि उवस्सया घेत्तव्वा । का सामायरी ? १ . कदाचित् ।
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क्षमापनाऽवश्यं कर्तव्या । उपाश्रय-त्रय-ग्रहण-कारण-निरूपणम् । चतुर्मास्यां ग्लानादि-कारणे चतुः पंच योजनानि गन्तुं कल्पते परं कार्यं कृत्वा तत्र वासो न कार्यः । सामाचारि-पालन-फलम् । उच्यते-विउव्विया पडिलेहा-पुणो पुणो पडिलेहिज्जति संसत्ते, असंसत्ते वि तिन्नि वेलाओ-पुव्वण्हे भिक्खं गतेसु वेतालियं, जे अन्ने दो उवस्सया तेसिं वेउव्विया पडिलेहा दिणे दिणे निहालिज्जत्ति पडिलेहा, मा कोइ ठाइत्ति ममत्तं वा काहित्ति, ततिए दिवसे पादपुंछणेण पमज्जिज्जति ।
वासावासं अन्नतरं दिसिं वा अणुदिसिं वा अभिगिज्झ भिक्खं सन्नाभूमि वा गमित्तए कहेउं आयरियादीणां सेसाणंपि, एवं सव्वत्थ विसेसेण-वासासु जेण ओसण्णं प्रायशः तवसंपत्तिा छट्ठादी पच्छितनिमित्तं संजमनिमित्तं च चरति, चरन्तं योऽन्यश्चरति स पडिचरति-पडिजागरति गवेसति अणागच्छंतं दिसं वा अणुदिसं वा संघाटगो ।
वासावासं पज्जोसवियाण चत्तारि पंचजोयणत्ति 'संथारगोवस्सग-णिवेसणसाही-वाडग-वसभग्गाम-भिक्खं कातुं अद्दिठे(s) वसिऊण जाव चत्तारि पंच जोयणा अलब्भंते, एवं वासकप्प-ओसधनिमित्तं गिलाणवेज्जनिमित्तं वा, नो से कप्पति तं रयणिं जहिं से लद्धं तहिं चेव वसित्तए । अहवा जाव चत्तारि पंचजोयणाइं गंतुं अंतरा कप्पति वत्थए ण तत्थेवं(व) जत्थ गम्मति । कारणितो वा वसेज्ज |
इच्चेयं संवत्सरीयं इति । उप प्रदर्शने एस जो उक्तो भणितो सांवच्छरिकश्चातुर्मासिक इत्यर्थः । थेरकप्पो-थेरमज्जाता थेरसामायारी, ण जिणाणं अथवा जिणाणवि किंचि एत्य जधा अगिहंसि । अहासुत्तं जहासत्ते भणितं, न सूत्रव्यपेतं । तथा कुर्वतः अहाकप्पो भवति । अन्नहा अकप्पो । अधामग्गं कहं ? मग्गो भवति एवं करेंतस्स नाणादि ३ मग्गो । अधातच्च-यथोपदिष्टं, सम्यक् यथावस्थितकायवाङ्मनोभिः फासित्ता आसेवेत्ता, पालेत्ता-रक्खित्ता, सोभितं-करणेण कतं, तीरितं णीतं अंतमित्यर्थः । यावदायुः आराहेत्ता अणुपालणाए य करेंतेण सोभितं किट्टितं पुन्नं चाउम्मासितं तेणेवं करेंतेण उवदिसतेण य आराहितो भवति ण विराहितो, आणाए उवदेसेण य करेंतेण अणुपालितो भवति , अण्णेहि वि पालितं, जो पच्छा पालेति सो अणुपालेति, तस्सेवं पालेंतस्स किं फलं ? उच्यते-तेणेव भवग्गहणेण सिज्झंति, अत्येगइया दोच्चेणं एवं उक्कोसियाए आराहणाए, मज्झिमियाए तिहिं, जहन्नियाए सत्तट्ट ण वोलेंति । किं स्वेच्छया भणति ? नेत्युच्यते तं निद्देसो कीरति पुणो
'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे णगरे १. संस्तार कोपाश्रय इत्यादि । ఉండించటంతటవంతుతం 8 ఉంటుందండివంటంతం
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''श्रीदशाश्रुतस्कंधे मोहनीय-स्थान-अध्ययनम्-९
सदेवमणुयासुराए परिसाए' उद्घाट्यशिरः परितः सर्वतः सीदति परिषत् मज्झे द्वितो मज्झगतो एवं आइक्खइ-एवं यथोक्तं कहेति, भासति वाग्योगेन, पण्णवेति-अणुपालियस्स फलं परूवेंति,प्रति प्रति रूवेति परूवेति, पज्जोसवणाकप्पोत्ति वरिसास्त-मज्जाता, अज्जोत्ति-आमंत्रणे द्विग्रहणं निकाचनार्थे एवं कर्तव्यं नान्यथा, सह अत्येणं सार्थं, सहेतुं न निर्हेतुकं, सनिमित्तं सकारणं, अणणुपालिंतस्स दोसा, अयं हेतुः, अपवादो कारणं, जहा-सवीसतिराते मासे वितिक्कंते पज्जोसवेतव्वं, किं ? निमित्तं-हेतुः । पाएणं अगारीहिं अगाराणि सहाए कडाणि कारणे उ आरेणवि पज्जोसवेति आसाढपुन्निमाए । एवं सव्वसुत्ताणं विभासा दोसदरिसणं हेतुः, अववादो कारणं, सहेतुं सकारणं भुज्जो भुज्जो पुणो पुणो उवदंसेति, परिसग्रहणात् सावगाणवि कहिज्जति समोसरणे कड्डिज्जति पज्जोसवणाकप्पो ||
|| पज्जोसमणाकप्प-नाम अट्ठमं अज्झयणं सम्मत्तं ।।
. अथ नवमी दसा मोहणिज्ज-ट्ठाण-अज्झयणं ।
चू०-संबंधो जो एतं वितथं करेति थेरकप्पं संवच्छरियं वा स मोहणिज्जे वट्टति, तस्स चत्तारि दाराणि, अधिगारो मोहणिज्जट्ठाणं जाणित्ता वज्जेयव्वा । नामनिप्फन्ने निक्खेवे मोहणिज्जट्ठाणं दुपदं, मोहणिज्जं हाणं च, मोहणिज्जस्स ट्ठाणं मोहणिज्जहाणं, जेहिं वा ठाणेहिं प्रकारेहिं मोहणिज्जं बज्झति तं मोहणिज्जट्ठाणं मोहे भवं मोहणीयं, नामट्ठवणा० गाथा नि०-नामं ठवणा मोहो दब्वे भावे य होति बोधवो । ठाणं पुबुद्दिष्टं पगयं पुण भावठाणेणं ||१२३।। दव्वे सच्चित्ताती सयण-धणादी दुहा हवइ मोहो । ओघेणेगा पयडी अणेगपयडी भावमोहो ||१२४।।
___मोहो नामादि चउव्विहो । हवणाए अन्धलतो लिहितो । दव्वे सचित्तादि० गाथा आदिग्रहणात् अचित्तंपि । सचित्ते धत्तुरग-विस-कोद्दवादि अहवा सयणादि, जो तहिं सयणे धणे दोसं ण पेच्छति सो मूढो, अचित्ते मज्जादी धणादि वा । भावमोहो दुविधो ओहो विभागे य, ओहे एगा पगडी विभागे सव्वमेव कम्मं मोहो । उक्तं च-कहण्णं भंते जीवो अट्टकम्मपगडीतो बंधंति गोतमा ! णाणावरणिज्जकम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मं नियच्छति, दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स aaaaaaaaaaaaaaaaara ११० Jaaaaaaaaaaaaaaadia
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पर्युषणाकल्पः समवसरणे पर्षदायां भगवता प्ररूपितः । पर्युषणाकल्पं न पालयति स मोहनीय-स्थाने वर्तते । मोहस्य निक्षेपः । मोहनीयस्य एकार्थिक-नामानि । उदएण दंसणमोहं कम्मं नियच्छंति, दंसणमोहणिज्जस्स उदएण मिच्छतं नियच्छति । मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं एवं खलु जीवा अट्ठकम्मपगडीतो बंधंति, तेण मोहणीयमेवं ओहेणं, विभागेणं अणेगाओ अट्ठविध० गाथा० अट्ठविहं पि य कम्मं भणि मोहोत्ति जं समासेणं । सो पुव्वगते भणिओ तस्स य एगडिआ इणमो ||१२५।।
सो मोहो कहिं भणितो ? कम्मप्पवायपुव्वे तस्स एगट्टिया तस्स कम्मस्स, पावे वज्जे वेरे० गाथा पावे वज्जे वेरे पणगे पंके खुहे असाए य । संगे सल्ले अरए निरए धुत्ते अ एगट्ठा ||१२६।। कम्मे य किलेसे या समुदाणे खलु तहा माइल्ले य । माइणो अप्पाए अ दुप्पक्खे तह संपराए य ।।१२७|| असुवे दुहाणुबंधं दुम्मोए खलु चिरद्वितीए य ।। घणचिक्कण निवेआ मोहे य तहा महामोहे ||१२८ कहिया जिणेहिं लोगो पगासिया भारिया इमे बंधा ।। साहु-गुरु-मित्त-बंधव-सेट्टी-सेणावइ-वधेसु य ॥१२९॥ एत्तो गुरुआसायण-जिण-वयण-विलोवणेसु पडिबंधं । . असुहे दुहाण बंधित्ति तेण तो ताई वज्जेज्जा ||१३०॥
॥ इति मोहणिज्जस्स निज्जुत्ती ।।९।। पासयति पातयति वा पापं, वजनीयं-वज्जं सेसं कंठं । भावट्ठाणेण उदइएणाधिकारो, लोगप्पगासा इमे । साधू उवहितं गुरु आयरिया मित्त सहाहेतुं बंधवा । 'सप्पी जधा अंडपडं जिणवयण-विलोमणो प्रतिलोमे वट्टति । असुभाणि जाणि दुहाणि वा अणुबंधति ततो तातिं वज्जेज्जा । सुत्ताणुगमे सुतं उच्चारेतव्वं
नवमी दशा मोहनीय स्थान नामाऽध्ययन मूलसूत्रम् ।
मू०-तेणं कालेणं तेणं समयेणं चम्पा नाम नयरी होत्था वण्णओ पुण्णभद्दे नाम चेइए वण्णओ, कोणिये राया धारिणी देवी, सामी समोसढे, परिसा निग्गया धम्मो कहितो परिसा पडिगया | अज्जोत्ति समणं भगवं
१. सर्पिणी प्रसवसमये निजशिशूनपि भक्षयतीति । అరుంయంయంయంయంయం ఉయయంత తీయం తంతుయుత
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे मोहनीय-स्थान-अध्ययनम्-९
महावीरे बहवे निग्गंथा य निग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वदासी, एवं खलु अज्जो तीसं मोहट्ठाणाई जाई इमाई इथिओ वा पुरिसा वा अभिक्खणं आयरमाणे वा समायरेण वा मोहणिज्जत्ताए कम्मं पकरेंति तंजहाजे केइ तसे पाणे वारिमज्झे विगाहित्ता । उदएणाऽऽकम्म मारेइ महामोहं पकुव्वति ||१|| पाणिणा संपिहित्ताणं सोयमावरिय पाणिणं । अंतो नदंतं मारेइ महामोहं पकुव्वइ ।।२।। जायतेयं 'समारब्भवेउं ओलंभिया जणं । अंतो भोग मारेंति महामोहं पकुव्वइ ।।३।। सीसम्म जो फ्हणति उत्तमंगम्मि चेतसा । विराज सत्यग पाले महामोहं पकुब्वइ ||४||
टेप जै केहीवेढेत्ति अभिक्खणं । र असुहसमायास महामोहं पकुवइ ।।५।।
चू-जावणी कई तसा पाणा सिलोगो, यः कच्छित् इत्थी पुरिसो गिही पसिंह वा त्रसीः सल्चा ते शस्त्राभावाद् दुःखोत्पादकेन मारेण मारेति, विगाह्य परिजकवत् उदरण तोएण ओकम्म उदएण ओक्कमित्ता पाएहिं अच्छति । महत माह महामोहम्मं महामोहो वा संसारो जहा सो होति तं प्रति तं प्रति करेति चतुर्वनिः१॥
पाणिणा संपिहिताणं सिलोगो० पाणी हस्तः तेण पिहित्ता आवस्त्तिा प्राणिनं सत्त्वं अंतो णदंतं 'णद अव्यक्ते शब्दे' अंतो घुरुघुरेंतं अभिंतरगलएण व णदति ||२||
___ जाततेयं सिलोगो-तेजेण च सह जायति जाततेजो, जायमाणस्स वा तेजः जाततेजाः तं समारभ्य प्रज्वाल्य गृहे बिले वा अंतो धूमेण ||३||
सीसंमि सिलोगो 'श्रृता तस्मिन् प्राणा इति शिरः सीसंमि जो पहणति चेतसा-तीव्राभिनिवेशेन विभज्य द्वेधा कृत्वा |४||
सीसावेढेण सिलोगो-मेतज्जवत् तिव्वं वेदणं उप्पाएति । उदीरेति तिव्वेण परिणामेण तिव्वं कम्मं बंधेति, घणं चिक्कणं ||५|| १.निजन्तः प्रयोगः "जायतेय-समारंभा बहुं ओलंमिया जणं" इत्यपि पाठः । २. श्रिता इत्यर्थः । శవంతంంంంంంంంంంంంంంంంంంంం
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भिन्न-भिन्न-प्रकारेण मारयिता, मिथ्या स्वोत्कर्ष-दर्शयिता, अन्याय-वर्णनं, प्रच्छन्न-पाप-सेवनम् मिथ्यावादी च महामोहं प्रकुर्वति । पुणो पुणो पणिहीए बाले उवहसे जणं । फलेणं अदुवा डंडेण महामोहं पकुव्वइ ।।६।। गूढाचारी णिमूहिज्जा मायं मायाए छायए । असच्चवाई णिहाइ महामोहं पकुव्वइ ।।७।। धंसति जो अभूतेणं अकम्मं अत्तकम्मणा । अदुवा तुममकासित्ति महामोहं पकुव्वति ||८|| जाणमाणो परिसाए सच्चामोसाणि भासति । अक्खीणझंझे पुरिसे महामोहं पकुव्वइ ॥९॥ अणायगस्स नयवं दारे तस्सेव धंसिया । विउलं विक्खोभइत्ताणं किच्चाणं पडिबाहिरं ।।१०॥
पुणो पुणो सिलोगो-पणिधी-उवधी मायेत्यर्थः । जहा गलागर्ता वाणिगवेसं करेता पथं गच्छति पच्छा अद्धपहे मारेति, उवहसंता णंदीति मंणंति-फलं'पडालं मुट्ठी वा डंडो खीला ||६||
गूढायारसिलोगो-मुसावायनिमित्तं जहा ते सउणमारगा छादेहि अप्पाणं आवस्तिा सउणे गिण्हंति अप्पणियाए मायाए ताहे चिय मायं छादेंति, जेणंति असच्चवादी मुसावादी निण्हवति मूलगुणउत्तरगणे आसेक्त्तिा परेण पडिचोदितो भणति-ण पडिसेवामि । अहवा सुत्तत्ये गिण्हितुं णिहाति अवलवइवि ||७||
धंसेति सिलोगो-भगं देति जहा अंगरिसी रुद्दएण अत्तकम्मं आत्मकृतं तस्सोवरि छुभति, अथवा तुम अण्णेण कृतं ओधारिएण भणति त्वया कृतमेतत् ।।८।।
____ जाणमाणे सिलोगो-जाणमाणे जधा अनृतमेतत् परिसा-गतो बहुजनमध्ये सच्चामोसा इति किंचित्तत्र सत्यं प्रायसो अनृतमेव । अक्षीणझंझो उ अक्षीणकलहो झंझा-कलहो, बालो विसोत्तिया ॥९॥
अणायगस्स सिलोगो-अणायगो राया णयवं तस्स अमच्चो नान्यो नायको विद्यत इत्यनायकः अस्वामीत्यर्थः । अमच्चो तस्स दारे द्रुह्यति महिलायां गुरुतल्पगा अहवा आगमद्वारं हिरण्यादीनां यथा प्रियंकरगल्लकेन विपुलं विक्खोभइत्ताणं, कवडकोट्टं करेता, संखोभ जणझ्ता, परिसाभेदं करइत्ता बाहिरगं तं करेता अप्पणा अधिटेति अधिढेइत्ता भोगान् विपुलान् भुंक्ते ||१०|| १. कुन्तादेरग्रम् । २. कलङ्कितं करोति । addddddddaadaasa११३ dadaaaaaaaaaaa
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'उव्वकसंतंपि झंपेत्ता पडिलोमाहिं वग्गुहिं । भोगभोगे वियारेति महामोहं पकुव्वति ॥११॥ अकुमारभूते जे केइ कुमारभुतेत्ति हं वदे । इत्थीविसयसेवीए महामोहं पकुव्वइ ||१२|| अबंभचारी जे केइ बंभचारित्तिहं वदे | गद्दभो व्व गवं मज्झे विस्सरं णदती णदं ॥१३॥ अप्पो अहियं बालो मायामोसं बहुं भसे । इत्थीविसयगेहीए महामोहं पकुव्वति ||१४|| जं णिस्सितो उव्वहती जससाऽहिगमेण य । तस्स लुब्भति वित्तंसि महामोहं पकुव्वइ || १५॥
'उवक्कमंतंपि सिलोगो कोइ सव्वस्स हरणो कतो, अवराहे अणवराहे वा सो उट्ठितो पाहुडेण अणुलोमेहिं विन्नवेति दीणकलुणेहिं, जधा अगारी अहं पच्छा तं झंपेति सत्यानृताहिं वग्गूहिं- एरिसे तारिसो तुमं पडिलोमाहि पडिकूलाहि भोगभोगे वियारेति हरति सद्देणऽडगादिरूवं तेसिं चेव, एवं पंचलक्खणे विसए ||११||
अकुमारभूते सिलोगो-अकुमार बंभचारी भणति अहं कुमार-बंभचारी स च इत्थीहिं गिद्धे गढिते मुच्छिते तव्विसए महामोहं ॥१२॥
अबंभचारी सिलोगो | कोइ भोगे भोत्तुं भणति संयतमहं बंभचारी स च पच्छण्णं पडिसेवति । स च भणंतो ण सोभति सतां मध्ये | कहं ? जह-जधा गद्दभो गवां मध्ये बीभत्सं विस्वरं । वृषभस्य निद्धो गंभीरो नीहारी य सोभते । एवं सो बंभचारीण मज्झे स एव अनृतं कुर्वन् ||१३||
अप्पणो अहिते सिलोगो । कस्याऽहित उच्यते अप्पणी अहिते बालमूढ अन्नाणी तद्विपाकजान् दोषान्न बुध्यंते, तेन चारु ब्रुवता भासितं ण फलेन योजितं । किं निमित्तं ? जेण अबंभयारी इत्थीविसयगेही य गिद्धो पकुव्वति भृशं अत्यर्थं च बद्धपुवं निहत्त - णिकाइतं करेति ||१४||
जं निस्सिओ सिलोगो-जं णिस्सितो अणिस्सितो वा रातं राजामात्यं वा जीविकां उद्वहते आत्मानं जससा अहंताहंवाओ अभिगमेन एतस्स, तस्सेव लुब्भति वित्तंसि हिरण्णादि, महा०३ ||१५||
१. `उवकसिंतंपि ́ पाठान्तरम्, 'निर्विषयाऽऽज्ञप्तमपि सन्निहिताऽऽगतम् इत्यर्थः संभाव्यते ।' २. अवटादि-कूपादिरूपम् । ३. महामोहं पकुव्वईत्यर्थः ।
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ईर्ष्यालुः, स्वामि-नायकादि-हन्ता मायामृषावादी च महामोहं प्रकुर्वति । इस्सरेण अदुवा गामेण अणिस्सरे इस्सरीकए । तस्स संपरिग्गहितस्स सिरी य तुलमागता ।।१६।। इस्सादोषेण आइडे कलुसाविलचेतसा | जे अंतरायं चेतेति महामोहं पकुव्वति ॥१७॥ सप्पी जहा अंडउडं भत्तारं जो विहिंसइ । सेणावतिं पसत्थारं महामोहं पकुव्वति ||१८|| जे नायगं च रहस्स नेतारं निगमस्स वा । सिद्धिं च बहरवं हंता महामोहं पकुव्वति ॥१९॥ बहुजणस्स नेतारं दीवं ताणं च पाणिणं । एतारिसं नरं हंता महामोहं पकुव्वइ ॥२०॥
इस्सरेण सिलोगो-इस्सरो पभू तेण गामेण वा तत्थ जो सो अणिस्सरो तस्स तु परिगहीतस्स सिरी ऐश्वर्यं अतुल्यं आगतं प्राप्तं ।।१६।।
इस्सादोसेण सिलोगो । तस्स ईसरस्स गामस्स वा ईर्ष्या द्वेषेण आविष्टं यथा ग्रहाविष्टः कलुषेणावृतं चेतः तस्य लोभनेत्यर्थः द्वेषेण वा जे अंतरायंति अंतरायं च ऐश्वर्य-जीवित-भोगानां चेतेति करेति जो 'उव्वहगं हणेति तस्स सेसेसु का सन्ना ? सो इस्सस्तं चेव ण लब्भत्ति । सो महामोहं ।।१७।।
सप्पी जहा सिलोगो | अंडान्येव पुडं अंडयोर्वा पुडं निरंतरं । अहवा पुड प्रमर्दने, अंडानि प्रमर्दयति स्वानीत्यर्थः । बिभर्तीति भर्ता पोषयिता पोषयितारं वा, यथा सेणावति पालति पतिः-स्वामीत्यर्थः, सेनापति राजा प्रशस्तानि काणि कुर्वन्ति । अमच्च-धम्मपाढगा तम्मि मारिते राया रज्जं च दुक्खितं तद्भातृपुत्रादयश्च ||१८||
जो नायगो च सिलोगो-णायगो णेता प्रभुरित्यर्थः जारिसो से लाभो णच्चा वा, निगमस्स वा णेतारं, निगमा वाणिया तेसिं नेता सेट्टी, बहुरवंनिग्गतजसं बहुगुणं वा बहुभिः सेव्यते तेसि हंता एताणि हाणाणि न पावति ।।१९।।
बहुजणस्स सिलोगो । बहुजणस्सत्ति-पञ्चानामपि यो नेता दीवंति यथा उह्यमानानां नद्या सागरश्रोतैर्वा द्वीपो आश्रयः त्राणं आश्वासश्च भवति, एवं सो सत्ताणं त्राणं त्रायइतारं शरणभूतं एवंगुणजुत्तं च तारिसं हंता ण कताइ पुणो एरिसो भवति ॥२०॥
१. भर्तारमित्यर्थः संभाव्यते । addddddddddddd ११५ dddddddddddddh
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उवट्ठियं पडिविरयं संजयं सुसमाहियं । विउक्कम्म धम्माओ भंसेति महामोहं पकुव्वइ ||२१|| तवाणतणाणीणं जिणाणं वरदंसिणं ।
तेसिं अवण्णिमं बाले महामोहं पकुव्वइ ||२२| णेयाउयस्स मग्गस्स दुट्ठे अवहरइ बहुं । तं तिप्पयंतो भावेति महामोहं पकुव्वति ॥२३॥
उवट्ठितं सिलोगो । उवट्ठितं पव्वइतुकामं पडिविरतं पव्वइतयं चेव सुड्डु अत्यर्थं तपे सुश्रितं सुतवस्सितं विविधैः प्रकारैराक्रम्य बला इत्यर्थः । धर्म्मात् चारित्रधर्माद् भ्रंशयति अपनयतीत्यर्थः । स एवं कुव्वंतो महामोहं अचरित्री भवति, न भूयः चारित्रं पाविति सुबहुणावि कालेणं ||२१||
तव तणाणीणं सिलोगो दव्वादि अनंतं जाणंति 'णेतं जिणा तथा वरदंसिणंति केवलदंसणमित्यर्थः, अनंतं ज्ञानमेव न विद्यते, ण य केइ सव्वण्णू, ज्ञेयस्यानन्तत्वात् । उक्तं च
अज्जवि धावति णाणं अज्ज वि लोगो अणंतो होइ । अज्जवि ण तुहं कोई पावति सव्वण्णुतं जीवो ॥१॥ ..
अथ पावति तं सांतो पत्तो, एगंतमुप्पातो अण्णोण्णावरणक्खए जिणाणंति । पाहुडियं उवजीवति । एवं करेंतो दंसणातो भस्सति ॥२२॥
याउगस्स मग्गस्स सिलोगो णयणसीलो णेयाउतो स च णाणदंसणचरित्रात्मकः । नाणे-काया वता य ते च्चिय ते च्चेव पमादअप्पमादा य । मोक्खाहिकारियाणं जोतिसजोतीहिं किंचि पुणो || दंसणे एते किर सिं जीवा एरिसगा, चारित्रे जीवबहुत्वे अहिंसा न विद्यते, तदभावाच्चारित्राभावो दृष्टः । अपकारं कुरुते अपकुरुते अहवा अवहरति ततो विप्परिणामेति जो सासणं जइणं दूसेति, सयं पसंसति, तं तिप्पयंतोत्ति तं निंदमाणेण तिप्पति, भावेतित्ति एवमात्मानं परं च भावेति णिंदया द्वेषेण वा, एवं करेंतो तं णेआउयं मग्गं ण लब्भति ॥२३॥ आयरिय सिलोगो-सुतं सज्झायं विणयं चरित्रं गाहितो सिक्खावितो ते चेव खिंसति अप्पसुतो ग्वप्पज्झविउ, दंसणे अन्नउत्थियसंसग्गिं करेति, ण य सद्दहति, चरित्रे, मंदधम्मो पासत्थादिट्ठाणेसु वट्टति, अहवा डहरो अकुलीणोत्ति अथवा जातिकुलादीसु । एताइ ठाणाणि न लभति ||२४||
*`अवयरइ ́ पाठान्तरम् । १. ज्ञेयम् । २. निंदमाणेण तृप्यति=निन्दया तुष्टिमाप्नोति । ३ . अल्पाऽध्यात्मविद्वा ।
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संयम-धर्म-च्यावयिता, न्यायमार्ग-विपरीतता । महामोह-प्रकाराः ।अतपस्व्यपि तपस्वितया कथयिता महामोहं प्रकुर्वति । आयरिय-उवज्झाएहिं सुयं विनयं च गाहिए । ते चेव खिंसति बाले महामोहं पकुव्वइ ॥२४॥ आयरिय-उवज्झायाणं सम्मं ण परितप्पति । अपरिपूयते थद्धे महामोहं पकव्वति ॥२५॥ अबहुस्सुते वि जे केइ सुतेणं पविकत्थइ । सज्झायवायं वयइ महामोहं पकुव्वइ ॥२६॥ अतवस्सिते य जे केइ तवेणं पविकत्यति । सबलोगपरे तेणे महामोहं पकुब्वइ ।।२७।। साहारणट्ठा जे केइ गिलाणंमि उद्विते । पभू ण कुब्बती किच्चं 'मज्झंपेस ण कुब्बइ ।।२८।। सढे नियडिपण्णाणे कलुसाउलचेतसे । अप्पणो य अबोहिए महामोहं पकुवइ ।।२९।।
आयरिय सिलोगो-आयरिओ सुत्तेण तप्पति सिस्सगिलाणस्स वा वट्टति, पच्छा सो सीसो ण तप्पति विणयाहारोवधिमादीहिं, थद्धो जात्यादीहिं ॥२५॥
___ अबहस्सुते सिलोगो-कत्थ श्लाघया गणी अहं वाचकोऽहं, अथवा कोइ भणेज्जा सो तुमं गणी वायगो वा भणति आमं, सज्झायवादं वदति-अहं विसुद्धपाढो बहुस्सुतो वा ||२६||
एवं तवस्सीवि । तेणो व जीवति । आहारोवहिमादी सव्वलोगे जे तेणा तेषां परः परमः भाव-स्तेनत्वात् । स एवं कुव्वंतो बहुस्सुत-तवसित्तणाणि न लभति ||२७||
___साहारणट्ठा सिलोगो-साहारयिष्यति मां ग्लानं गिलाणोऽहमिति उपस्थितः कश्चिदाचार्यम् । प्रभुत्ति-समत्यो स्वयमन्यैश्च कारापयितुं उवदेसेण पभू ओसहं उप्पाएतं(तुं) चउभंगो दोहिवि पभू किच्चं जं तस्स करणिज्जं गिणालस्स, किमत्थं ण करेति ? द्वेषेण- ममवि एसो ण करेति । लोभात-नायं ममोपकारे समर्थो भविष्यति बालोऽयं स्थविरो वा असमर्थत्वात्, स एवं गुणजुत्तो । सढे नियडि सिलोगो-शठ कैतवे प्रतिप्रकारं प्रतिकृतिः अधिका कृतिः निकृतिः गिलाणवेसं
अद्देति यद्यप्येवं प्रज्ञां करोति चिंतयति, किमंग पुण ? किमु णावट्टति ? अप्पणो अबोधीए ण परस्स ||२८-२९|| १. ममाऽपि एष । २. आद्रियते । andidaadaasarddddddddddre| ११७ Janaadedsardddddddddddddalaa
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे मोहनीय-स्थान-अध्ययनम्-९
जा तह
जे तहाधिकरणाइं पउंजे पुणो पुणो । ... सवतित्थाण भेताए महामोहं पकुवति ||३०|| .... जे य आहम्मिए जोए संपउंजे पुणो पुणो । 'सहाहेउं सहीहेउं महामोहं पकुवति ||३१|| जे य माणुस्सए भोगे अदुवा पारलोइये । तेऽतिप्पयंतो आसयति महामोहं पकुव्वति ||३२|| इड्वी जुत्ती जसो वण्णो देवाणं बलवीरियं । तेसिं अवण्णिमं बाले महामोहं पकुवइ ॥३३॥ अपस्समाणो पस्सामि देवा जक्खा य गुज्झगा । अण्णाणी जणपूयट्ठी महामोहं पकुव्वई ॥३४॥
जो तहा सिलोगो-अधिकरणं जधा 'दारियविवादे छेतं कसध, गोणे *णत्येध, अथवा 'जाए कधाए अधिकरणं उप्पाडेति, कहं ? देशकधादि अहवा 'कोडेल्लगमासुरुक्खादि कड्डेति सयं पउंजे उवदिसति । एवं वदमाणो सव्वतित्थाण भेदाए विणासाए, कहं ? तावो भेदो गाधा-सव्वाणि तित्याणि नाणादीणि ३ ॥३०॥
जे य आधम्मिए सिलोगो-निमित्तं कोण्टल-विण्टलादीणि किं निमित्तं ? श्लाघाहेतुं, सहजातका सहमित्तादि ३ ||३१||
जो य माणुस्सए सिलोगो मणुस्सए सद्दादि ५ इह लोए जधा धम्मिल्लो परलोइया दिव्वा जधा बंभदत्तो ते "तिप्पंतो न तिप्पति आसयति पत्थयति पीहतति अहिलसति ||३२||
इड्डीजुती सिलोगो-इड्ढी सामाणिग-विमाणाभरणेहिं, जुत्ती-दीप्ति , जधासक्केण अंगुलीए, यशःकीर्ति, वर्ण शरीरस्स, जधा सेता पउम पम्हगोरा, बलमेव वीर्यं प्रभुरभ्यंतरो इन्द्रः ।।३३।।
अपस्समाणो सिलोगो-अपस्समाणो तो ब्रवते-अहं पस्सामि देवा जक्खा वा पच्चक्खं सुमिणे वा । कोइ अण्णाणि भणति, अहं जिणो जधा गोसालो अजिणो जिणप्पलावी, किं निमित्तं एवं भणति ? पूया निमित्तं ||३४||
१. आशंसत इत्यर्थः संभाव्यते । २. छिन्ने विवादे सति । ३. कृषत क्षेत्रम् । ४. न्यस्यत बलिवान् । ५. तत्त्वनिर्णयलक्षणायां वादकथायां जातायां सत्याम् ।६. कौटिल्यम् , यद्वातिकुपितः सन्नाशु रुक्षादि परुषादि भाषते । ७. लिप्सया स्मरन् । ८. न तृप्यति । ९. आशंसते ।
ఉదంతంతమంతయంతం
ఉంటుందంతయునదయయుం
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पूजानिमित्तं अपश्यन्नपि देवादीन् पश्यामीति मिथ्यावादी, अजिणो जिणप्रलापी महामोहं प्रकुर्वति । वर्जयित्वा दोषान् गुणा ग्राह्याः ।
एते मोहगुणा वुत्ता कम्मंता वित्तवद्धणा । जे तु भिक्खु विवज्जेत्ता चरेज्जऽत्तगवेसए ||३५|| जंपि जाणे इतो पुलं किच्चाकिच्चं बहु जढं । तं वंता ताणि सेविज्जा जेहिं आयारवं सिया |३६।। आयारगुत्तो सुद्धप्पा धम्मे ठिच्चा अणुत्तरे | ततो वमे सए दोसे विसमासीविसो जहा ||३७||
एते मोहगुणा सिलोगो- एते मोहगुणा ते उक्ता गुणत्ति बंधं प्रति न मोक्षं प्रति, अगुणा वा मोक्षस्य, कम्मंता कम्मट्ठाणा जधा, छुधा कम्मंता, एवं मोह कम्मंता, वित्तवद्धणत्ति मोहवित्तस्य असुभस्य वा यथा 'करोत्पादो तावत्, अथवा कर्मणा मनसा वाचा जे तु भिक्खू यान्-मोहप्रकारान् वर्जयित्वा छड्डेत्ता चरेज्ज धम्मं दसप्पगारं किं निमित्तं ? आत्मानं गवेसमाणं जो अप्पाणं इच्छति, अहवा २अत्तं गवेसइत्ति, जो अत्ताणं वयणं गवेसयत्ति । अत्ता तित्थगरा । उक्तं चआगमो ह्याप्तवचनं ||३५||
जंपि जाणे सिलोगो-जं जाणिय ज्ञाते तद्दोषान् यमिति वक्ष्यमाणं इतं अस्मात् प्रव्रज्याकालात् पूर्व कृत्यमिति- "सोय-सुत-घोर-रणमुह-दारभरण-पेतकिच्चमइएसु सग्गेसु च संमाणं जो अप्पणो-इच्छति देहपूयणा चिरंजीवण दाण तित्थेसु अथवा अपत्योत्पादनं । अकृत्यं चोरहिंसादि । अहवा कताकतं हिरण्यादि बहं छड्डितं जलं, अहवा मातापितादि-सयण-संबंधः तं वंता ताणि वंता-छड्डत्ता, तं सेविज्जा करेज्जा जेहिं आयार-बंभचेर-चरित्रवानित्यर्थः ।।३६।।
आयारगुत्ते सिलोगो- स एवायारजुत्तं पंचविह-नाणायार-दंसणायारचस्तिायार-तवायार-वीरियायारेहिं गुत्तो इंदिय-णोइंदिएहिं, धम्मे ठिच्चा दसविहे अणुत्तरे अतुल्ये, ततः ततो वमे छड्डे सयानात्मीयान् दोषान् कषायान्विषयान्विसं जधा-सप्पो उदए निसरति डसित्ता वमित्ता च ण पुणो आदियति । ततः किं. भवति ? ॥३७॥
१. शुल्कस्योत्पादः २.आर्तं ग्लान वैयावृत्त्यार्थं गवेषयति । ३. आप्तानाम् । ४. इदम् । ५. शौचः । ६. आददाति आपिबति वा । addhaddddddddddda ११९ dddddddddddddar
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पापनिदान-स्थान-अध्ययनम्-१०
'सुचत्तदोसे सुद्धप्पा धम्मट्टी विदिताऽपरे । .. इहेव लभते कित्तिं पेच्चा य सुगतिवरं ॥३८॥ ...
एवं अभिसमागम्म सूरा दृढपरक्कमा ।
सवमोह-विणिमुक्का जातीमरण-मतिच्छिया त्ति बेमि ।। मोहणीयट्ठाणं णवमा दसा सम्मत्ता ॥
सुधंत सिलोगो- सुधंतदोसेहि सुद्धप्पा भवति रागद्दोस-वज्जित्तो मोहवज्जितो वा सुद्धप्पा भवति । धम्मट्ठी-चस्तिधम्मट्ठी, विदितं पूर्वमपरं च संसारे मोक्ष इत्यर्थः । स इहेव लभति कित्तिं वंदणिज्जो पूयणिज्जो आमोसादि-लद्धीतो पेच्चा य सुगतिं सिद्धिगतिं अणुत्तरगतिं वा वरा-प्रधाना श्रेष्ठा इत्यर्थः ||३८||
एवं अभिसमागम्म सिलोगो-एवमवधारणे आभिमुख्ये वा सं एकीभावे आङ मर्यादाभिविध्योः गमूसृप गतौ सर्वे हि गत्यर्था धातवो ज्ञानार्था ज्ञेयाः, किं ज्ञातुं ? वंतावंत-गुणदोषान्, सूरा तपसि,ण वा परिसहाणं बीभेति, दढपरक्कमत्ति जं तपोवहाणं गिण्हंति तं न भंजंति अहवा मणे जो करणतो य गहितो ज्ञात्वा कुर्वति, ततो किमस्स फलं एवं कुव्वंतस्स ? उच्यते-सव्वो मोहो अठ्ठपगडीतो रमुच्ल मोक्षणे जदा निरवसेसो मोहो खवितो भवति तदा किं होति ? कारणाभावात् कार्यस्याभावो भवति तंतुपटवत्, कारणं मोहो कार्यं जातिजरामरणे अतिच्छिए अतीते काले, अतिच्छतित्ति सांप्रतं, अतिच्छिस्संति भविस्से स्वतःभगवान् ब्रवीति अर्थं, सूत्रं गणधराः ।।
|| मोहणिज्ज-ट्ठाण-नाम नवममज्झयणं सम्मत्तं ॥
अथ दसमी दसा नव-पाव-नियाण-डाण-ऽज्झयणं ।
चू०-संबंधो जो मोहणिज्जट्ठाणे वट्टति सो आयातिठाणे-संसारे वट्टति जो वा पडिसिद्धाणि आयरति । तस्स चत्तारि दाराणि अधिगारो निदाणट्टाणेहि तद्दोसेहिं य । ताणि जाणित्ता वज्जेतव्वाणि । नाम निप्फन्नो आयातिट्ठाणं दुपयं नाम हाणं पुबुद्दिठं आयादि णामादि चउव्विहाणामं ठवणा जाई दव्वे भावे य होइ बोधब्बा । ठाणं पुबुद्दिलं पगयं पुण भावट्ठाणेणं ||१३१।। १. 'सुधंतदोसे' पाठः चूर्णिकृता गृहीतः । २. मुञ्चति । అంతవయంవరం మరియు ఉదయంయం
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आयाति-स्थानस्य निक्षेपो णामादि चतुर्विधः । न मोक्षोऽसंयतस्स । सदाऽप्रमतः श्रमणो मोक्षं प्राप्नोति । दव्वं दवसभावो भावो अणुभवण ओहतो दुविहो । अणुभवण छबिहो ओहओ उ संसारिओ जीवो ||१३२।।
दव्वायातित्ति-द्रव्यात्मलाभः यथोत्पन्नस्य घटद्रव्यस्य घटात्मलाभः, यथा नारकस्य नारकत्वेनात्मलाभः, क्षीरस्स वा दधित्वेनोत्पत्तिः । एवं सर्वत्र । भावायातिअणुभवणा सा दुविहा-ओहतो विभागतो य । विभागतो छविहा-यो हि यस्य भावस्यात्मलाभ : औदयिकादे: स भावाजाती होति । उदयिकस्य गति-कषायलिंग-मिथ्यादर्शना-ऽज्ञाना-ऽसंयता-ऽसिद्ध-लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैक-षड्-भेदाः । नारकादि-गतित्वेनात्मलाभः, औपशमिकस्य औपशमिकत्वेन, एवं शेषाणामपि भावानां । ओहतो को भावाजातिः ? उच्यते-ओहे संसारितो जीवो भावाजातिः, न तस्मात् संसारिकभावाद् जीवोऽर्थान्तरभूतो, मृतस्य जातिमरणं । तदुक्तंअकाममरणिज्जा, इह तु आजातिर्वर्ण्यते सा तिविधा-जातीआ० जाती आजातीया पच्चाजातीय होइ बोधव्वा । जाती संसारत्या आजाती जम्ममन्नयरं ||१३३।।
जाती संसारत्थाणं नरकादि ४ आजातिः जन्ममन्यतरंति । सम्मूर्छनगर्भोपपातं जन्म | पच्चायाति-जत्तो चुओ० गाथा सिद्धा । जत्तो चुओ भवाओ तत्थे य पुणोवि जह हवति जम्मं । सा खलु पच्चायायी मणुस्स तेरिच्छए होइ ॥१३४।।
कामं असंजतस्स० गाथा कामं असंजयस्सा णत्थि हु मोक्खे धुवमेव आयाई । केण विसेसेण पुणो पावइ समणो अणायाई ॥१३५।।
____ काममवधृतार्थे एकान्तेनैव असंजतस्स नास्ति मोक्षः । हुः पादपूरणे । ध्रुवमेव निच्छएण आयाति- त्रिविधा । केणंति कतरेण विसेसेण पुण दाणि पावति प्राप्नोति समणो भूत्वा अनाजातिर्मोक्ष इत्यर्थः । उच्यते-मूलगुणउत्तरगुणा० गाथामूलगुण-उत्तरगुणे अप्पडिसेवी इहं अपडिबद्धो । भत्तोवहि-सयणासण-विवित्त-सेवी सया पयओ ||१३६।।
___पंच ता मूलगुणा, उत्तरगुणाः पिंडस्स जा विसोधी गाथा । आदौ प्रतिपत्तिः मूलगुणानां पच्छा उत्तरगुणानां', संजमघाती मूलगुणाः क्रमेण उत्तरगुणाः, १. प्रतिपत्तिः । ఉంటుందమయంతరం Rahయయతతంగమంతం
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"श्रीदशाश्रुतस्कंधे पापनिदान-स्थान-अध्ययनम्-१० ते दोवि ण पडिसेवति नाचरति, नाचरति-ण विनाशयतीत्यर्थः । इहं ति लोए विसएस अप्पडिबद्धो विहरति गामादिसु । किंच-भत्तोवधि-सयणासण उग्गमादिसुद्धा वासासु उडुबद्धेवि करणे, वसही विवित्ता इत्थी-पसु-पंडग-विरहिता आहारादीणि वा जीवविक्त्तिाणि सेवति । सदा नित्यकालं पयतो-प्रयत्नवान् अप्रमत्त इत्यर्थः । दंसणे तित्थगर० गाथातीत्थंकर-गुरु-साहूसु भत्तिमं हत्थ-पाय-संलीणो । पंचसमिओ कलह-झंझ-पिसुण-ओहाण-विरओ अ पाएण ||१३७।।
तित्थकर-गुरु-आयरिय-साहसु भत्तिमं हत्थ-पाद-पडिसलीणो गुरुसकासे हत्थपादग्रहणात् कायसंलीणता गृहीता । एगग्गहणे सेसावि इंदिया विभासियव्वा । पंचसु समितीसु इंदिएसु वा, कलहविरतो संजमरतो ओहाणविरतो थिरसंजमो । पाएण एरिसो गाथापाएण एरिसो सिज्झइति कोइ पुणा आगमेस्साए । केण हु दोसेण पुणो पावइ समणो वि आयाई ॥१३८||
__एतेहिं गुणेहि उववेतो नाणदंसणचस्तिगुणेहिं य पाएण सिज्झति । जो न सिज्झति तेणेव भवग्गहणेणं, सो केण हु दोसेण ? पच्छद्धं० गाथा || उच्यते-जाणि भणिताणि गाहाजाणि भणिआणि सुत्ते तहागएसं तहा निदाणाणि । संदाण निदाणं 'नियपच्चोति य होति एगट्ठा ।।१३९।।
जाणि भणिताणि सुत्ते वक्ष्यमाणानि तथागता-तित्थगरा तेहिं भणिताणि तहा तहति निदाणहाणाणि निदाणप्रकारा वा, ते णवविहा । पठ्यते च-णव य णिदाणाणि, अथवा तथागतेहिं निदाणाणि जाणि भणिताणि ताई कुर्वन् पुणो समणो आयातिं पावेति । एगडिया-संताणंति वा निदाणंति वा बंधोत्ति वा । तेण बंधं चेव निक्खेविस्सामि । स च णामादि छव्विधो | दव्वप्पओग० गाथादव्वप्पओग-वीससाप्पओग-समूलउत्तरे चेव । मूलसरीर-सरीरी साती य अणादिओ चेव ॥१४०।।
दव्वबंधो दुविधो पयोगबंधो वीससाबंधो य । पयोगबंधो तिविधो-मणादि ३ | मणस्स मूलप्पओगबंधो जे पढमसमए गेण्हंति पोग्गला मणेतकामो मणपज्जत्तीए वा । सेसो उत्तरबंधो । एवं वयीए वि । जो सो कायप्पओगबंधो सो दुविधो मूलबंधो य उत्तरबंधो य । मूलबंध सरीरसरीरिणो जो संजोगबंधो स मूलबंधो सव्वबंधो वा । उत्तरबंधो निगलादि० १. 'विय बंधोति' पाठः चूर्णिकृता गृहीतः । addddddddddddda १२२ ddddddddddddda
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नव-निदानानि प्रभु-भणितानि । बन्ध-निक्षेपश्च । भावबन्धस्य वर्णनम् । निआण-दोसेण उज्जमन्तोवि विणिवायं पावइ । णिगलादि उत्तरो वीससाउ साई अणादिओ चेव । खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते काले कालो जहिं जो उ ||१४१।।
वीससाबंधो सादीओ अणादीओ य । गतो दव्वबंधो । खेत्तबंधो जो जम्मि खेत्ते बद्धो , जधा पुरिए निग्गमो वारितो चारए वा, जम्मि वा खेत्ते बंधो वन्निज्जति । कालबंधो पंचस्तउणबंधो पंचविंशकः, जम्मि वा काले बंधो वन्निज्जति । दुविहो य भावबंधो गाथा । दविहो अ भावबंधो जीवमजीवे अ होइ बोधब्बो । एक्केक्कोवि तिविहो विवाग-अविवाग-तदुभयगो ||१४२।।
भावबंधो दुविधो-जीवभावबंधो अजीवभावबंधो य । अजीवभावबंधो चउदसविहो-तं उरालियं वा सरीरं ओरालिय-सरीर-परिणामितं वा दव्वं । वेउव्वियं वा सरीरं वेउव्विय-सरीर-परिणामियं वा दव्वं । आहारगं वा सरीरं आहारगसरीर-परिणामियं वा दव्वं । तेयगं वा सरीरं तेयग-सरीर-परिणामियं वा दव्वं । कम्मयं वा सरीरं कम्मय-सरीर-परिणामितं वा दव्वं । पयोग-परिणामिते वण्णे गंधे रसे फासे | जीवभावप्पओगबंधो मिथ्यादर्शना-ऽविरति-प्रमाद-कषाय-जोगबंधाः ।
__ अजीवभावप्पयोगबंधो दुविधो विपाकजो अविपाकजो य । विपाकजो जो सुभत्तेण गहिताणं पोग्गलाणं सुभो चेव उदतो । अविपाकजो जाण चेव उदओ अण्णहा वा उदयो । अहवा अजीवभावबंधो द्वयोः परमाण्वो: परस्परबद्धयोर्य उत्तरकालं वण्णादीहिं, 'नाऽसहबंधजोगो सो अजीवभावबंधो भवति कम्मपोग्गला | जीवभावप्रयोगबंधो तिविधो-विपाकजो अविपाकजो उभयो, जीवभाव-विपाकजो जेण चेव भावेण गहिता तेण चेव वेदेति एस विपाकजो । अविपाकजो अन्नधा वेदेति । अथवा तेसिं चेव पोग्गलाणं उदओ वेदणा । सा दुविधा-विपाकजा अविपाकजा य । तेसिं पोग्गलाणं सति भावे भवति अभावे ण भवति । अहवा जे बद्धपुट्ठनिधत्ता, सो विपाकजो अविपाकजो वा । जो पुण निकाचितो सो नियमा विपाकजो । अथवा भावतो कसायबंधो० गाथाभावे कसायबन्धो अहिगारो बहुविहेसु अत्येसु । इहलोगपारलोगिय पगयं परलोगिए बन्धे ||१४३|| पावइ धुवमायाति निआणदोसेण उज्जमन्तोवि । विणिवायंपि य पावइ तम्हा अनियाणता सेआ ||१४४||
अहिगारो बहुविहेसु अत्येसु, के ते बहुविहा अत्था ? इहलोइया परलोइया १. न असहबंध इति सहबंधः प्रवाहतोऽनादित्वात् । ఉంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంంతం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे पापनिदान-स्थान- अध्ययनम् - १०
य । इहलोए धम्मिलादीण सुभा, असुभा मियापुत्ते य गोत्तासे परलोइया, एते चेव बंभदत्तादीणं वा । ' तथागतेसु दसहा निदाणाणि एवं वा वत्तव्वं विणिवातंपि पावति । विणिवातो संसारो तद्दोषांश्च पावति, यस्मादेवं तस्मात् अनिदानता श्रेया । कहं विणिपातं ण पावति ? उच्यंते अपासत्थाए० गाथा | कंठा अपासत्थाए अकुसीलयाए अकसाय- अप्पमाए य । अणिदाणयाइ साहू संसारमहन्नवं तरई || १४५॥
निज्जुत्ती समत्ता । नामनिष्पन्नो गतो । सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारेतव्वं । ( दशमी दशा नव-पाप-निदान स्थानाऽध्ययन-मूलसूत्रम् ।)
मू० तेणं कालेणं तेणं समयेणं रायगिहं नामं नयरे होत्था, वण्णओ गुणसिलए चेइए रायगिहे नगरे सेणिए नामं राया होत्था, रायवन्नओ एवं जहा उववातिए जाव चेलणाए सद्धिं विहरति, तए णं से सेणिए राया अण्णा कयाइ हाए कय-बलिकम्मे कय- कोउग-मंगल- पायच्छित्ते - सिरसा ण्हाए कंठे मालकडे आविद्ध-मणिसुवन्ने कप्पिय-हारद्ध-हार-तिसरत - पालंबपलंबमाण-कडिसुत्तय-कय-सोमे पिणिद्ध-गविज्जे अंगुलेज्जग जाव कप्परुक्खए चेव अलंकित-विभूसिते नरिन्दे सकोरंट - मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं जाव ससिव्व पियदंसणे नरवइ जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति २ त्ता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे निसीयति निसीइत्ता कोटुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी ।
गच्छहणं तुभे देवाणुप्पिया जाई इमाइं रायगिहस्स नगरस्स बहिता तंजहा-आरामाणि य उज्जाणाणि य आएसणाणि य आयतणाणि य देवकुलाणि य समातो य पणियगेहाणि य पणियसालतो य छुहाकम्मंताणि य धम्मकम्मंताणि य कट्ठकम्मंताणि य दब्भकम्मंताणि य इंग्रालकम्मंताणि य वणकम्मंताणि य जे तत्थ वणमहत्तरगा अण्णाता चिट्ठति ते एवं वदध ।
एवं खलु देवाणुप्पिया सेणिए राया भिंभिसारे आणवेति जता-णं समणे भगवं महावीरे आदिकरे तित्थकरे जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेज्जा, तया णं तुम्मे भगवतो महावीरस्स अहापडिरुवं उग्गहं अणुजाणध, अधा २त्ता सेणियस्स रण्णो भिभिसारस्स एयमहं पिअं निवेदध ।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिएण रन्ना भिंभिसारेणं एवं वुत्ता १. अर्हत्पद-विषयक-निदानेन सह यदिवा तथागता बौद्धास्तेषां दशधा निदानानि संभाव्यन्ते । १२४
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राजगृहे श्रेणिकराज्ञा सेवकानामादेशः कृतः ।भगवदागमनेऽवग्रहो दातव्यः । प्रभोरागमने श्रेणिकस्य समाचारकथनम् । पार्श्वस्थता-कुसीलता-कषाय-प्रमाद-नियाण-वर्जनेन संसारं तरति । समाणा हट्ठजाव हयहियता कय जाव एवं सामित्ति आणाए विनयेणं पडिसुणंति - एवं २ त्ता सेणियस्स अंतियातो पडिनिक्खमंति पडि० २ ता रायगिहं नगरं मज्झं मज्झेणं निगच्छन्ति णि त्ता जाइं इमाइं रायगिहस्स बहिता आरामाणि य जाव जे तत्थ महत्तरया अण्णाता चिटुंति, एवं वदन्ति-जाव सेणियस्स रण्णो एयमद्वं पियं निवेदेज्जा से प्पियं भवतु दोच्चं पि तच्चं पि एवं वदन्ति, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं नगरस्स परिगता ||
तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे जाव गामाणुगामं दूइज्जमाणे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तते णं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर जाव परिसा निग्गता जाव पज्जुवासेति तते णं ते चेव महत्तरगा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति तेणेवर त्ता समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो वंदन्ति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता णामागोयं पुच्छन्ति णामं गोत्तं पधारेंति २ ता एगततो मिलन्ति एगरत्ता एगंतमवक्कमन्ति एगंतंरत्ता एवं वदासि ।
जस्स णं देवाणुप्पिया सेणिए राया भिंभिसारे दंसणं कंखति, जस्स णं देवाणुप्पिया सेणिअ राया दंसणं पीहेति, जस्स णं देवाणुप्पिया सेणिए राया दंसणं पत्थेति जाव अभिलसति, जस्स णं देवाणुप्पिया सेणिए राया णामगोत्तस्सवि सवणताए हट्ठतुट्ठ जाव भवति से णं समणे भगवं महावीर आदिकरे तित्थकरे जाव सम्वन्नू सव्वदरिसी पुनाणुपुदि चरमाणे गामाणुगामं दुतिज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरन्ते इहमागते, इह संपत्ते जाव अप्पाणं भावेमाणे सम्मं विहरति, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया सेणियस्स रन्नो एयमढे निवेदेमो पियं भे भवउत्ति कट्ट एयमढे अण्णमण्णस्स पडिसुणेन्ति २ ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छन्ति तेणे २ त्ता रायगिहं नयरं मज्झंमज्झे णं जेणेव सेणियस्स रण्णो गेहे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सेणियं रायं करयल-परिग्गहियं जाव जएणं विजएणं वद्धाति २ ता एवं वयासी ।
जस्स णं सामी दंसणं कंखइ जाव से णं समणे भगवं महावीरे गुणसिलए चेइए जाव विहरति, तेणं देवाणुप्पियाणं पियं निवेदेमो, पियं भे भवतु
___ तए णं से सेणिए राया तेसिं पुरिसाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा निसम्म हद्वतु जाव हियए सीहासणाओ अब्भुढेइ २ त्ता जहा कोणितो जाव वंदति
ఉంచుతుందంతయుగం 24 తతంగంతుకుతువుందం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे पापनिदान-स्थान-अध्ययनम्-१०
णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता ते पुरिसे सक्कारेति सम्माणेति २ ता विपुलं जीवियारिहं पितिदाणं दलयति २ ता पडिविसज्जेति २ ता नगरगुत्तिए सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी
खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! रायगिह नगरं सब्मित्तरं बाहरियं आसित्तसम्मज्जितोवलित्तं जाव पच्चपिणंति |
तते णं से सेणिए राया 'बलवाउयं सद्दावेइ २ ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हय-गय-रह-जोह-कलियं चाउरंगिणं सेण्णं सण्णाहेह जाव से पच्चपिणति । तए णं सेणिये राया जाणसालियं सद्दावेति २ त्ता एवं वदासी- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! धम्मियं जाणपवरं जुत्तामेव उवट्ठवेहि उवट्ठवेत्ता मम एतमाणत्तियं पच्चपिणाहि । तते णं से जाणसालिए सेणिएण रन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ट जाव हितए जेणेव जाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता जाणसालं अणुपविसति २ त्ता जाणगं पच्चुवेक्खति जाणगं पच्चोरुमति जाणगं संपमज्जति २ ता जाणगं नीनेति २ त्ता दूसं पवणेति २ ता 'जाणाई समलंकरेति २ त्ता जाणाइं वरमंडियाइं करेति २ ता जेणेव वाहणसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता वाहणसालं अणुप्पविसति २ त्ता वाहणाई पच्चुवेक्खेइ २ त्ता वाहणाइं संपमज्जइ २ त्ता वाहणाई णीणेति २ त्ता वाहणाइं अप्फालेइ २ त्ता दूसे पवणेति २ त्ता जाणाइं सालंकारेइ २ त्ता वाहणाई वरभंडमंडिताई करेति २ त्ता जाणाइं जोएति २त्ता वट्टमग्गं गाहेति २ त्ता पओगलट्ठिए धरए य आरुहइ २ त्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता करयल जाव एवं वदासी-जुत्ते ते सामी धम्मिए जाणप्पवरे आइडे भदं तद्रूहाहि ।
तए णं से सेणिए राया भिंभिसारे जाणसालियस्स अंतिए एयमटुं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव मज्जणघरं अणुपविसइ जाव कप्परुक्खए चेव अलंकित-विभूसिते णरिन्दे जाव मज्जणघरातो पडिनिक्खमति २ त्ता जेणेव चेल्लणादेवी तेणेव उवागच्छति २ त्ता चेल्लणं देविं एवं वदासि
___ एवं खलु देवाणुप्पिये ! समणे भगवं महावीरे आदिकरे तित्थकरे जाव पुवाणुपुलिं जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तं महाफलं देवाणुप्पिये ! तहारुवाणं अरहंताणं जाव गच्छामो देवाणप्पिये ! समणे भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवतं चेतियं पज्जुवासामो, एतेणं इधभवे य परभवे य हिताए सुहाए खमाए १. सैन्यव्यापारपरायणम् । २. बलिवर्दादीन् । ३. सुस्थं करोति ।। ఉంగరంతంరంతరం REఉదంతంభంంంం
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चेल्लणादेवी-कथनम् । गत्वा भगवत्पार्श्वे वन्दना पर्युपासना । धर्मे कथिते पर्षदा गता । नगरगुप्तिकस्य बलवाहकस्य यानशालिकस्य चाऽऽदेशः । सज्जे याने मज्जनगृहप्रवेशः । निसेसाए जाव अणुगामियत्ताए भविस्सति ।
तते णं सा चेल्लणादेवी सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्ठजाव पडिसुणेति, २ त्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता ण्हाता कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगलपायच्छित्ता किं ते वर(पाय)पत्तणेउर-मणि-मेहल-हाररइय-उवचिय-कडग-खुड्डएगावलीकंठ-मुरगय-तिसरतवरवलय-हेमसुत्तय-कुंडल-उज्जोयवियाणणा रयण-विभूसियंगी चीणंसुयवत्थपरिहिता दुगुल्ल-सुकुमार-कंत-रमणिज्ज-उत्तरिज्जा सम्बोउय-सुरभिकुसुमसुंदर-रयित-पलंबसोहंकंतविकंत-विकसंत-चित्तमाला वरचंदण-चच्चिया, वराभरण-भूसियंगी कालागुरु-धूवधूविया सिरी-समाणवेसा बहूहिं खुज्जाहिं चिलातियाहिं जाव महत्तर-वंद-परिक्खिता जेणेव बाहरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छति ।
. तए णं से सेणिए राया चेल्लणाए देवीए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ २ ता सकोरिण्ट-मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं उववाइगमेण नेयव्वं जाव पज्जुवासइ । एवं चेल्लणा देवी जाव महतरग-परिक्खित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता समणं भगवं वंदति नमसंति सेणियं रायं पुरो काउं ठितिया चेव जाव पज्जुवासति ।
तए णं समणे भगवं महावीरे सेणियस्स रन्नो भिभिसारस्स चेल्लणाए देवीए तीसे महतिमहालियाए परिसाए मुणिपरिसाए जतिपरिसहा(सा)ए मणुस्सपरिसहा(सा)ए देवपरिसहा(सा)ए अणेगसहाए जाव धम्मो कहितो परिसा पडिगया, सेणितो राया पडिगतो ।
तस्थ एगतियाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य सेणियं रायं चेल्लणं देविं पासित्ताणं इमेतारुवे अब्भत्थिते जाव संकप्पे समुपज्जित्था । अहो णं सेणिए राया महिड्डीए जाव 'महेसक्खे जे णं हाते कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ते सवालंकार-भूसिते चेल्लणादेवीए सद्धिं उरालाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरति । ण मे दिट्ठा देवा देवलोगंसि सक्खं खलु अयं देवे, जति इमस्स तवनियमबंभचेर-फलवित्तिविसेसे अत्यि, वयमवि आगमेस्साणं इमाई एताइं उरालाई एयारुवाइं माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरामो, सेत्तं साहू |
अहोणं चेल्लणा देवी महिड्डिया जाव महेसक्खा जा णं ण्हाया १. महासौख्यवानित्यर्थः यदिवा महेश इत्याख्या यस्य स महेशाख्य इत्यप्यर्थः संभाव्यते । ఉదయంయంయంయంయయం 29 ఉపయంతంండియటం
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे पापनिदान-स्थान-अध्ययनम्-१०
कयबलिकम्मा जाव सव्वालंकार-विभूसिता सेणिएण रन्ना सद्धिं उरालाई जाव माणुस्सगाइं भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरति न मे दिट्ठा देवीओ देवलोगंमि, सक्खं खलु इयं देवी, जइ इमस्स सुचरियस्स तवनियम-बंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, वयमपि आगमिस्साणं इमाइं एयारुवाइं उरालाइं जाव विहरामो, सेत्तं साहुणी ।
अज्जोत्ति समणे भगवं महावीरे तं बहवे निग्गंत्थाण निग्गंथीओ य आमंत्तेत्ता एवं वदासि-सेणियं रायं चेल्लणं देविं पासित्ता इमेतारुवे अब्भत्थिते जाव समुपज्जित्था | अहो णं सेणिए राया महिड्डीए जाव सेत्तं साहू | अहो णं चेल्लणा देवी महिड्डिया सुंदरा जाव सेत्तं साहू | से णूणं अज्जो अत्थे समढे ? हंता अत्थि ।
एवं खलु समणाउसो मए धम्मे पन्नत्ते इणमेव निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे पडिपुण्णे केवलिए संसुद्धे णेआउए सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे अवितधमविसंदिद्धे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे इत्थं ठिया जीवा सिज्झन्ति बुज्झंति मुच्चन्ति परिनिव्वायन्ति सबदुक्खाणमंतं करेन्ति ।
जस्स णं धम्मस्स निग्गंथे सिक्खाए उवट्ठिए विहरमाणे पुरा दिगिच्छाए पुरा पिवासाए पुरा वाताऽऽतवेहिं स पुरा पुढे विरूवरूवेहिं परिसहोवसग्गेहि उदिण्णकामजाए यावि विहरेज्जा, से य परिक्कम्मेज्जा, से य परिक्कम्ममाणे पासेज्जा
जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया भोगपुत्ता महामाउया तेसिं अन्नतरस्स अतिजायमाणस्स निज्जायमाणस्स पुरओ महं दासी-दास-किंकर-कम्मकरपुरिसा पायत्तपरिक्खित्तं छत्तं भिंगारं गहाय निगच्छंति
तदनन्तरं च णं पुरतो महं आसा आसवरा उभओ तेसिं नागा नागवरा पिट्ठओ रहा रहवरा संगिल्लिसेन्नं उद्धरिय-सेयछत्ते अब्भुग्गतभिंगारे पग्गहियतालियंट्टे पवियत्त-सेयचामरा वालवीयणिए अभिक्खणं २ अभिजातियणिजातिय-सप्पभासे पुवावरं च णं ण्हाते कयबलिकम्मे जाव सब्दालंकारभूसिते महतिमहालियाए कूडागारसालाए महतिमहालयंसि सीहासणंसि जाव सब्बरातिणिएणं जोतिणा ज्झियायमाणेणं इत्थीगुम्म-परिखुडे महताहत-णट्टगीत-वाइत-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुत्तिंग-मद्दल-पडुप्पवाइय-रवेणं ओरालाई
ఉండి తీశంత తంతం ?? ఉంటదంతంతుయుతం
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निदानमनालोच्य कालं कृत्वा देवीभूय मनुष्यभवे केवलि - प्रज्ञप्त-धर्म-श्रवणेऽयोग्यो जायते । निदानफलम् । भगवान् साधु-साध्वी - रामन्त्र्य वदति । भो श्रेणिकं चेल्लणां च दृष्ट्वा किं भवतां निदान स्वरुप- संकल्प उत्पन्नोऽस्ति ?
माणुस्सगाइं भोगभोगाइ भुंजमाणे विहरति ।
तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच अवुत्ता चेव अब्भुट्ठेति । भण देवाणुप्पिया किं किं करेमो ? किं आहरामो ? किं उवणेमो ? किं चेट्ठामो ?, किं भे हितं इच्छितं ? किं मे आसगस्स सदति ?
जं पासित्ता निग्गंथे निदाणं करेति । जइ इमस्स तवनियमबंभचेरवासस्स तं चेव जाव साहू । एवं खलु समणाउसो निग्गंथे निदाणं किच्चा तस्स द्वाणस्स अणालोइयऽपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति महिडिएसु जाव चिरद्वितीएसु ।
तत्थ देवे भवति महड्डिए चिरट्ठिए । ततो देवलोगातो आउखतेणं द्वितिखतेणं अणंतरं चयं चइत्ता जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया भोगपुत्ता महामाउया तेसिं णं अण्णतरंसि कुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाति ।
सेणं तत्थ दारए भवति सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे, तए णं से दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमित्ते जोव्वणुगमणुपत्ते सयमेव पेइयं दायं पडिवज्जति । तस्स णं अतिजायमाणस्स वा पुरओ जाव महं दासी दास जाव किं ते आसगस्स सदति ?
तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजातस्स तहारूवे समणे वा माहणे वा उभओ कालं केवलिपन्नत्तं धम्ममाइक्खेज्जा ? हंता आइक्खेज्जा, से णं पडणेज्जा ? नो इणट्ठे समत्थे, अभविए णं से तस्स धम्मस्स सवणयाए । सेय भवइ महिच्छे महारंभ महापरिग्गहे अहाम्मिए जाव दाहिणगामी नेरइय आगमिस्साणं दुल्लहबोहिए यावि भवइ, तं एवं खलु समणाउसो तस्स णिदणस्स इमेतारूवे फलविवागे जं णो संचाएति केवलिपन्नत्तं धम्मं पडिणित्ते ||१||
एवं खलु समणाउसो मए धम्मे पन्नत्ते इणमेव निग्गंथे पावयणे जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । जस्स णं धम्मस्स निग्गंथी सिक्खाए उवट्ठिया विहरमाणी पुरा दिगिंच्छाए उदिन्नकामजाया विहरेज्जा सा य परक्कमेज्जा, साय परक्कम्ममाणी पासेज्जा से जा इमा इत्थिया भवति एगा एगजाया एगाभरण-पिहाणा 'तेल्लकेलाइ व सुसंगोप्पिता 'तेल्लपेलाइ व सुसंपरिग्गहिया रयणकरंडग-समाणा तीसे णं अतिजायमाणीए वा निज्जायमाणीए वा पुरतो १. तैलभाजनानि ।
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे पापनिदान-स्थान-अध्ययनम्-१० महं दासी दास चेव जाव किं भे आसगस्स सदति ? जं पासित्ता निग्गंथी णिदाणं करेति । जति इमस्स सुचरियस्स तवनियम जाव भुंजमाणी विहरामि सेत्तं साधुणी ।
एवं खलु समणाउसो निग्गंथी णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय-ऽपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति महिड्डिएस जाव सा णं तत्थ देवे भवति जाव भुंजमाणी विहरति । सा णं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं द्वितिक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता जइ इमे उग्गपुत्ता महामाउया भोगपुत्ता महामाउया एतेसि णं अण्णतरंसि कुलंसि दारियत्ताए पच्चायाति सा णं तत्थ दारिया भवति सुकुमाल जाव सुरूवा | तते णं तं दारियं अम्मापियरो ऊमुक्क-बालभावं विण्णाय-परिणयमित्तं जोवणुगमणुप्पत्तं पडिरूवेणं सुकेण पडिरूवस्स भत्तारस्स भारियत्ताए दलयन्ति सा णं तस्स भारिया भवति । एगा एगजाता इट्ठा कंता जाव रयणकरंडग-समाणा तीसे जाव अतिजायमाणीए वा निज्जायमाणीए वा पुरतो महं दासी-दास जाव किं ते आसगस्स सदति ?
___ तीसे णं तहप्पगाराए इत्थियाए तहारूवे समणे माहणे वा उभय कालं केवलिपन्नत्तं धम्म आइक्खेज्जा ? सा णं भंते पडिसुणेज्जा ? णो इणढे समत्थे, अभविया णं सा तस्स धम्मस्स सवणयाए । सा च भवति महिच्छा महारंभा महा-परिग्गहा अहम्मिया जाव दाहिणगामिए नेरइए आगमिस्साए दुल्लभ-बोहियाए भवति । एवं खलु समणाउसो ! तस्स निदाणस्स इमेयारुवे पाव-कम्म-फलविवागं जं णो संचाएति केवलिपन्नत्तं धम्म पडिसुणेत्तए ।।२।।
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते इणामेव निग्गंथे पावयणे तह चेवं जस्स णं धम्मस्स निग्गंथे सिक्खाए उवद्विते विहरमाणे पुरा दिगिच्छाए जाव से य परक्कममाणे पासेज्जा- इमा इत्थिका भवति एगा एगाजाता एगा जाव किं ते आसगस्स सदति ? जं पासित्ता निग्गन्थे निदाणं करेति दुक्खं खलु पुमत्तणए जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया भोगपुत्ता महामाउया एतेसिं णं अण्णतरेसु उच्चावएसु महासमर-संगमेसु उच्चावयाइं सत्थाई उरसि चेव पडिसंवेदेन्ति, तं दुक्खं खलु पुमत्तणए, इत्थित्तणयं साहू | जइ इमस्स तवनियम-बंभचेरवासस्स फलवित्तिविसेसे अत्थि वयमवि आगमेस्साणं जाव से तं साधू ।
___ एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथे निदाणं किच्चा तस्स हाणस्स అతీంతంతమంతయయం అంతంతుయుతుందం
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स्त्रीत्वनिदान-फलम् । दुर्लभबोधिकत्वम् । नरकगामित्वम् । धर्म श्रवणा ऽयोग्यता च । एवं पुरुषत्वनिदानफलमपि ज्ञेयम् ।
अणालोइय-अपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु जाव से णं तत्थ देवे भवति महिड्डीए जाव विहरति । से णं देवे ततो देवलोगाओ आउक्खएणं जाव अण्णत्तरंसि कुलंसि दारियत्ताए पच्चायाति जाव तेणं तं दारियं जाव भारित्ताए दलयन्ति सा णं तस्स भारिया भवति एगा एगजाता जव तव सव्वं भाणियव्वं तीसे णं अतिजायमाणीए वा जाव किं ते आसगस्स सदति ?
ती णं तहप्पगाराए इत्थिकाए तहारूवे समणे वा माहणे वा जाव णं पडिसुणेज्जा ? णो इणट्ठे समट्ठे, अभविया णं सा तस्स धम्मस्स सवणताए । साय भवति महिच्छा जाव दाहिणगामिए नेरइए आगमेस्साणं दुल्लभबोहियावि भवति तं एवं खलु समणाउसो ! तस्स निदाणस्स इमेतारूवे पावते फलविवागे भवति जं णो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्मं पडिसुणेत्तए ||३||
एवं खलु समाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते इणामेव निग्गंथे पावयणे सेसं तं चेव जाव जस्स धम्मस्स निग्गंथी सिक्खाए उवट्ठिता विहरमाणी पुरा दिगिंच्छाए पुरा जाव उदिण्ण कामजाता यावि विहरेज्जा, सा य परक्कमेज्जा सा य परक्कममाणी पासेज्जा से जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया भोगपुत्ता महामाउया जाव किं ते आसगस्स सदति ? जं पासित्ता णिग्गंथी निदाणं करेत्ति दुक्खं खलु इत्थित्तणए दुस्संचाराइं गामंतराइं जाव सन्निवेसंतराइं ।
से जाता मए अंबपेसियाति वा अंबाडगपेसियाति वा मंसपेसियाति वा उच्छुखंडयाति वा संबलिफालियाति वा बहुजणस्स आसायणिज्जा पत्थणिज्जा पीहणिज्जा अभिलसणिज्जा एवामेव इत्थिकावि बहुजणस्स आसायणिज्जा जाव अभिलसणिज्जा । तं दुक्खं खलु इत्थित्तणए, पुमत्तणए साहू जइ इमस्स तवनियमस्स जाव साहू |
एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथी निदाणं किच्चा तस्स द्वाणस्स अणालोइय-अपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा अण्णत्तरेसु देवत्ताए उववत्तारा भवति, से णं तत्थ देवे भवति महिड्डिए जाव चइत्ता जे इमे उग्गपुत्ता तहेव दारए जाव किं ते आसगस्स सदति ? तस्स णं तधप्पगारस्स पुरिसजातस्स जव अभविणं से तस्स धम्मस्स सवणताए । से य भवति महिच्छाए जाव दाहिणगामिए जाव दुल्लभबोहिए यावि भवति एवं खलु जाव पडिसुणेत्तए || ४ || एवं खलु समणाउसो ! मए धम्में पण्णत्ते, इणामेव निग्गंथे पावयणं
१३१
එයට
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे पापनिदान-स्थान-अध्ययनम्-१०
तहेव जस्स णं धम्मस्स निग्गंथो निग्गंथी वा सिक्खाए उवट्ठविए विहरमाणे पुरा दिगिच्छा जाव उदिण्ण-कामभोगे जाव विहरेज्जा से य परक्कमेज्जा से य परक्कममाणे माणुस्सेहिं कामभोगेहिं निवेयं गच्छेज्जा,
माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा अणितिया असासता सडण-पडणविद्धंसण-धम्मा उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-वंत-पित्त-पूत-सुक्क-सोणियसमुभवा दूरूव-उस्सास-निस्सासा दुरूव-मुत्त-पुरीस-पुण्णा वंतासवा पित्तासवा खेलासवा पच्छा पुरं च णं अवस्सं विप्पजहणिज्जा संति ।
उर्दु देवा देवलोगंमि ते णं तत्थ अण्णेसिं देवाणं देवीओ अभियुजिय २ परियारेन्ति, अप्पणो चेव अप्पणं विउवित्ता २ परियारेन्ति, 'जति इमस्स तव० तं चेव सव्वं भाणियन्वं जाव वयमवि आगमिस्साणं इमाई एतारूवाई दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरामो, सेत्तं साहू ।
__एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथो वा निग्गंथी वा निदाणं किच्चा तस्स ट्ठाणस्स अणालोइय-अपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा अन्नतरेसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति, तं जधा-महिड्डिएसु जाव पभासेमाणेणं अण्णं देवं अन्नं देवीं तं चेव जाव पवियारिति, से णं तातो देवलोगातो तं चेव पुमत्ताए जाव किं ते आसगस्स सदति ? तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजातस्स तथारूवे समणे वा माहणे वा जाव पडिसुणेज्जा ? से णं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा ? नो इणढे समढे । अभविए णं से तस्स धम्मस्स सद्दहणताए ।
से य भवति महिच्छे जाव दाहिणगामिए णेरइए आगमेस्साए दुल्लभबोहियाए यावि भवति । एवं खलु समणाउसो तस्स निदाणस्स इमेतारुवे पावए फलविवागे जंणो संचाएति केवलिपन्नत्तं धम्मं सद्दहित्तए वा ३ ॥५॥
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पन्नत्ते तं चेव से य परक्कममाणे माणुस्सए कामभोगेसु निव्वेदं गच्छेज्जा, माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा अणितिया तहेव जाव संति उद्धं देवा देवलोगंसि ते णं तत्थ णो अन्नदेवा नो अन्नदेविं अभिमुंजिय २ परियारेन्ति, अप्पणच्चियाए देवीए अमिजुंजिय परियारेन्ति, अप्पणा चेव अप्पाणं विउविय परियारेन्ति । - 'जति इमस्स तव० तं चेव सवं जाव से णं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा ? १. सति पाठान्तरम् । ఉదయం మయం గడుపుతుం
టుంగతురతతం
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सप्तमे निदाने सद्दहणादिर्भवति, व्रतस्वीकारो न जायते । देवत्व निदानस्वरुपम् । पंचमे निदाने धर्म श्रद्धादिर्न भवति । षष्ठे निदाने केवलि-कथित-धर्मश्रद्धादिर्न भवति ।
णो इट्टे समट्टे णण्णत्थरुयी रुयिमादाए से य भवति ।
से जे इमे आरण्णया आवसिया गामणियंतिया कण्हयिरहस्सिया नो बहुसंजता नो बहुपडिविरता पाणभूतजीवसत्तेसु ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विप्पडिवन्ति, अहं ण हंतव्वो अन्ने हंतव्वा, अहं न अज्जावेतव्वो अन्ने अज्जावेतव्वा, अहं ण परियावेतव्वो अण्णे परियावेतव्वा, अहं ण परिघेतव्वो अन्ने परिघेतव्वा, अहं ण उद्दवेतव्वो अण्णे उद्दवेतव्वा एवामेव इत्थिकामेहिं मुच्छिया गढिया गिद्धा अज्झोववन्ना जाव कालमासे कालं किच्चा अन्नतराइं किब्बिसयाइं द्वाणाइं उववत्तारो भवन्ति । ते ततो विमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए पच्चायंति तं खलु समणाउसो ! तस्स निदाणस्स जाव णो संचाएति केवलिपन्नत्तं धम्मं सद्दहितए वा ३ ॥ ६॥
एवं खलु समणाउसो ! मे धम्मे पन्नत्ते जाव माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा, तहेव संति उड्डुं देवलोयंसि अण्णं देवं अण्णं च देविं अभियुंजिय २ परियारेति नो अप्पणा चेव अप्पाणं वेउव्विय परियारेन्ति 'जइ इमस्स तवनियम० तं चेव जाव एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथो वा निग्गंथी वा निदाणं किच्चा अणालोइय तं चैव जाव विहरति ।
से णं तत्थ अन्नं देवं णो अन्नं देविं अभियुंजिय २ परियारेति नो अप्पणा चेवं अप्पाणं विउव्विय २ परियारेन्ति से णं ताओ देवलोभाओ आउक्खएणं भवक्खएणं तं चैव वत्तव्वं नवरं हंता सद्दहेज्जा पत्तीइज्जा रोज्जा ? सेणं सीलव्वतगुण- वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासाइं पडिवज्जेज्जा ? नो तिणट्ठे समट्टे,
से णं दंसणसावए भवति अभिगत- जीवाजीवे जाव अट्ठिमिंजप्पेमाणुरागस्त्ते सेसे अणट्टे, से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूइं वासाई समणोवासग-परियागं पाउणई, बहूइं० पा. २ कालमासे कालं किच्चा अण्णत्तरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति ।
एवं खलु समणाउसो । तस्स निदाणस्स इमेतारूवे पावए फलविवागे जं ो संचाति सीलव्वतगुण-पोसहोववासाइं पडिवज्जित ||७||
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पन्नत्ते तं चैव सव्वं जाव से य
१.
सति पाठान्तरम्
१३३ seeds.dded
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे पापनिदान-स्थान-अध्ययनम्-१०
परक्कममाणे दिब्वमाणुस्सेहिं कामभोगेहि निव्वेदं गच्छेज्जा, माणुस्सगा कामभोगा अधुवा जाव विप्पजहणिज्जा, दिवावि खलु कामभोगा अधुवा अणितीया असासता चला चयणधम्मा पुणरागमणिज्जा पच्छा पुलं च णं अवस्स विप्पजहणिज्जा,
'जति इमस्स तवनियमस्स जाव अत्थि वयमवि आगमेस्साणं जे इमे भवंति उग्गपुत्ता महामाउया जाव पुमत्ताए पच्चायति तत्थ णं समणोवासए भविस्सामि अभिगत-जीवाजीवे जाव फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइमसाइमे णं पडिलाभेमाणे विहरिस्सामि सेत्तं साधू |
___एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथो वा निग्गंथी वा निदाणं किच्चा तस्स ट्ठाणस्स अणालोइय जाव देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति जाव किं ते आसगस्स सदति ? तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजातस्स जाव सद्दहेज्जा, से णं सीलब्बय जाव पोसहोववासाइं पडिवज्जेज्जा ? हंता पडिवज्जेज्जा । से णं मुण्डे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वएज्जा ? णो इणढे समढे ।
से णं समणोवासए भवति अभिगतजीवा जाव पडिलाभेमाणे विहरइ । से णं एतारूवेण विहारेण विहरमाणे बहूणि वासाणि समणोवासग-परियागं पाउणति, बहू० २ आबाहंसि उप्पण्णंसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई हंता पच्चक्खाइ हंता बहूइ भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता आलोइय पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति तं एवं खलु समणाउसे ! तस्स निदाणस्स इमेतारूवे पावए फलविवागे जं णो संचाएति सव्वातो सब्बताए मुण्डे भवित्ता अगारातो अणगारियं पवइत्तए ।।८॥
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पन्नत्ते जाव से य परक्कममाणे दिव्वमाणुस्सएहिं कामभोगेहि निव्वेयं गच्छेज्जा, माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा जाव विप्पजहणिज्जा, दिव्वावि खलु कामभोगा अधुवा जाव पुणरागमणिज्जा, 'जति इमस्स तव-नियम जाव वयमवि आगमेस्साणं जाई इमाइं अंतकुलाणि वा तुच्छ-कुलाणि वा दरिद्दकुलाणि किविणकुलाणि भिक्खागकुलाणि एएसिं अण्णतरंसि कुलंसि पुमत्ताए पच्चायिस्सामि एस मे आता परियाए 'सुणीहडे भविस्सति सेत्तं साधू ।
१. सति पाठान्तरम् । २. सुनिर्हतः सुनिर्गत इत्यर्थः । పరంపంతంత పంతం 17 adadadadadada
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अष्टमे निदाने श्रावकव्रत-स्वीकारो भवति; सर्वविरति स्वीकाराऽयोग्यता । नवमे निदाने दीक्षा स्वीकारो जायते, न मोक्ष: । निर्निदानता श्रेष्ठा । भगवदुपदेशं प्राप्य वंदित्वा च कृत- निदान संकल्पस्य प्रायश्चित्त-स्वीकारः ।
एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथो वा निग्गंथी वा नियाणं किच्चा तस्स द्वाणस्स अणालोइय- अपडिक्कंते सव्वं तं चेव जाव से णं मुण्डे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वज्जा, से णं तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झेज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अन्तं करेज्जा ? णो इणट्टे समट्टे,
भवइसे जे अणगारा भगवंतो इरितासमिता जाव बंभचारी, से णं एतेण विहारेणं विहरमाणा बहूइं वासाइं सामन्न-परियागं पाउणंति, बहू० २त्ता अबाहंसि उप्पण्णंसि वा जाव भत्तं पच्चाइक्खित्ता जाव कालमासे कालं किच्चा अण्णत्तरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवतीति । एवं समणाउसो ! तस्स निदाणस्स इमेतारूपेण पावए फलविवागे जं णो संचाएति तेणेव भवगहणेणं सिज्झेज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ॥९॥
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पन्नत्ते इणामेव निग्गंथं जाव से परक्कमेज्जा जाव सव्व-काम-विरते सव्व-राग-विरत्ते सव्व-संगातीते सव्वसिणेहातिक्कंते सव्वचारिते परिवुडे तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेण अणुत्तरेणं दंसणेणं जाव परिनिव्वाण-मग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स अनंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणंदसणे समुपज्जेज्जा । ततेां से भगवं अरहा भवति जिणे केवली सव्वन्नू सव्वदरिसी सदेव मणुयाऽसुराए जाव बहूइं वासाइं केवलिपरियागं पाउणति, बहूइं० २ त्ता अप्पणो आउसेसं आभोएति, आभोएत्ता भत्तं पच्चक्खाति, भ० २ ता बहूइं भत्ताइं अणसणाए छेदेति, २ त्ता ततो पच्छा सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ।
एवं खलु समणाउसो ! तस्स अनिदाणस्स इमेयारुवे कल्लाणफलविवागे जं तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । तणं बहवे निग्गंथा य निग्गंथीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मट्ठे सोच्चा निसम्म समणं भगवं महावीरं वंदन्ति णमंसन्ति वंदित्ता णमंसित्ता तस्स द्वाणस्स आलोएंति पडिक्कमन्ति जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जंति ।
तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नगरे गुणसिलए ये बहूणं समाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं साविगाणं बहूणं देवाणं बहूणं देवीणं सदेवमणुआसुराए परिसाए मज्झंगते एवं भासति एवं
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे पापनिदान-स्थान-अध्ययनम्-१०
परूवेति आयातिट्ठाणं णामं अज्जो अज्झयणे सअटुं सहेउयं सकारणं सुत्तं च अत्थं च तदुभयं च भुज्जो भुज्जो उवदरिसेति त्ति बेमि । । नव पावनियाणट्ठाणदसा-दसमज्झयणं सम्मत्तं समत्ता आयारदसाओ ॥
तेणं कालेणं कालान्तर्गतः समयादी यो कालो रायगिहे नगरे गुणसिलए चेतिए सेणिए राया भिंभिसारे, कहं भिंभिसारो ? कुमारभावे णिययघरे पलिते रमणयं भिंभयं घेत्तूण निग्गतो, अवसेसा कमास आभरणादि । पिउणा पुच्छिया, सव्वेहिं कहितं जेहिं जं णीणियं मया भिंभिया णिणिता, पसेणइणा भणितोतुज्झ किं एस सारो ? तेण भणियं-आमंति । ततो से रन्ना भिंभिसारो णाम कतं । सेसं कंठं |
नवरं च वणकम्मंता आरामपोसगाणं गिहाणि, जे तत्थ वणपा-वणं पांतीति वणपा आरामरक्षका इत्यर्थः, महत्तरगा तेसिं अधिया-आज्ञातो अत्यर्थं णाता । 'वाहणाई अप्फालणा ते य वाहणा | इंगित-पत्थित-चिंतित-वियाणिताहिं. इंगितेण चिंतितेण य पत्थित्तं-अभिलसितं जाणंति । वरिसधरा-वद्धितया, कंचुगपरिरिता-कंचुइज्जा महत्तरपरिक्खित्तं प्रयत्नपरिग्रहः ।
अहो चिल्लणादेवी जाव सतित्ति सतः शोभनस्य वा, इमस्सत्ति जतिणस्स', तवो-बारसविधो, नियमो दुविधो-इंदिय-दमो नोइंदिय-दमो य । बंभ-अट्ठारसविधं सीलंगाणि वा साधु सोभनं से णूणं भे अज्जो अत्ये समढे ? हंता अस्थि ।
एवं खलु समणाउसो मए धम्मे पन्नत्ते इणमेव निग्गंथे पावयणे-इणमोत्ति इदं प्रत्यक्षीकरणे तमेव पागतेण इणमोत्ति भवति किं ? तदुच्यते-निग्गंथे पावयणे, निग्गंथा जहा पण्णत्तीए निग्गंथानामिदं नैग्रंथ बारसंगं गणिपिडगं, तं च इमेहिं गुणेहिं उववेतं-सच्च-सच्चं नाम सद्भूतं, अणुत्तरं सव्वुत्तिमं, केवलं तदेवैकविधं नान्य-द्वितीयं प्रवचनमिति, पडिपुण्णं णाणादीहिं गुणेहिं, पुव्वावरविसुद्धं, नयनसीलं नैयायिकं मोक्षं नयति, संसुद्धं समस्तं सुद्धं संसुद्धं, सल्लकत्तणं सल्लो-कम्मबंधो खवणा, सिद्धिमग्गं सिद्धीए मग्गो, पवयणं चरित्रादिरित्यर्थः । सोत्ती णिज्जाणं निव्वाणं च एगट्ठियाणि | मग्गो पवयणमेव अवितहति-तथ्थो मोक्षमार्ग इत्यर्थः । अविसंधि-संधानं संधिः संसार इत्यर्थः, विविधा संधी विसंधी न विसंधी अविसंधी, किं तत्प्रवचनं सव्वदुक्ख-प्पहीणमग्गं प्रवचनमेव ।
१. बलिवर्दादीनामुतेजना ततस्ते यानेषु योज्यन्ते इति शेषः । २. यतिजनस्य । ३. प्राकृतभाषया । అతీతంగేరీతీంతంతంత 6 అంతంలేశం తంతంత
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सूत्राणां कतिचित्पदानां अर्थः । निग्रंथ-प्रवचनस्य विशेषणानि । माला-मुकुट-तंती-तुडित-विततादिस्वरूपम्।
जस्स णं धम्मस्स चरितधम्म-सिक्खाए-दुविधाए गहणसिक्खाए आसेवणसिक्खाए य । विहरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणो पुरा दिगिंच्छिएछुहाए पुरापुढे वातातपेहिं सीतोसिणेहिं सेसा परिसहोवस्सग्गा विरूवरूवा गहिता । उद्दिण्ण-काम-जातो मोहणिज्जेणं यथा द्रव्यजाते से य परक्कमेज्ज तपसि सयमेव , से य परक्कममाणे पासेज्जा, से उदिन्नकामे ।
जे इमे उग्गपुत्ता कुलं, महामाउगा माति चउवंसातो उभतो जातिविसुद्धा, एवं भोयपुत्ता वि सेसं कंठं जाव सपुवावरं च णं पुव्वण्हे अवरण्हे पहाते कतबलिकम्मेअच्चणियं करेति कुलदेवतादीणं ।
कोउगाणी-'सीसपज्जोहार लोण-डहणादीणि, मंगलाइं सिद्धत्ययहरितालियादीणि सिसे करेंति सुवन्नमादीणि वा छिवंति, पायच्छितं दुस्सुमिणघात-निमित्तं अग्गिहुणण, गाधा तित्यादिसु वा धीयराण दिति, शिरसा बहाणादीहिं ससीसो ग्रहाति । ततो अलंकारो-कंठे मालकडेत्ति फलहियाहारादि, आविद्धमणिसुवण्णे, चूलामणी सोवि हेट्ठा सुवण्णेण बज्झति, सुवन्नाभरणेसु य प्रायेण मणितो विज्जति, कप्पितं-घडितं, माला नक्खत्तमालादि, मोली-मउडो सो पुण कमल-मउल-संठितो मउली वच्चति, तिहिं सिहरेहिं मउडो वुच्चति, चउरस्सो तिरीडी । वग्घारितं लबितं ज्ञापकं (झुंबकं), आसत्तोसत्त-वग्घारित-सोणिसुत्तमल्लदाम-कलावे सोणी-कडी, सोणिसत्तगं-कडिसत्तगं, मालिज्जतिति मल्लं, सिरिदाम-गंडादि, कलावोत्ति कलावीकताणि मल्लीगादीणि । इत्थिगुम्मो-समूहो । महताहतं-आहतं-नाम आख्याणक-निबद्धं नचिज्जति गिज्जति वाइज्जति य जहा नाडगं प्रबंधा वा, तंती वीणा, "पवीसगादि ततंति भणंति । तलः हस्ततलः । ताला कंसालगादि । तुडितं सव्वमेव आतोद्यं । घणं लत्तिगा । लकुडगादि मुतिगं विततादि । पटू जाणगा, पडूहिं पवाइयं पडुप्पवाइयं , रवो-निग्घोसो, घणवाइतंघणा मेघा तेसिं निग्घोसो मेघरव इत्यर्थः । उरालाणि उदाराणि |
___ आज्ञामुखं तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स अब्भुट्टिता भणंति, भण सामी-किं आहारामो ? दूरामो-दूराओ उवणेमों समीवत्थं चेष्टगं प्रयुंजामो कतरं किं भे हितं-इच्छितं सद्दादीणं सूपकारा भणंति-किं भे आसगस्स सदति-अस्यते अनेनेति आस्यकं-मुखं | जं पासित्ता निग्गंथे णिद्देसेज्ज-निदाणं करेति । २ । से य भवति । १. मंगलार्थं शीर्षाऽऽभरणविशेषः संभाव्यते । २. स्फाटिकहारादि । ३. स्त्रीसमूहेन परिवृतः । ४. 'वप्पासगादि' पाठान्तरम् । dddddddddddddda|१३७ adddddddddddhana
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श्रीदशाश्रुतस्कंधे पापनिदान-स्थान-अध्ययनम्-१०
जे इमे आरन्निया सुत्तं उच्चारेतव्वं-अरन्ने वसंतीति आरन्निया तावसा इत्यर्थः । ते पुण केइ रुक्खमूले सुवंति । केइ उदगमूलेसु, अण्णे आवसहेसु । तेसु आवसहेसु वसंतीत्यावसहिकाः | ग्रसति बुद्ध्यादीन् गुणानिति ग्रामः, अंतिकमभ्यासे ग्रामस्य ग्रामयोः ग्रामाणं वा अंतीए वसतीति गामणियंतिया, खल-भिक्खादीहिं ग्राममुपजीवन्तीत्यर्थ: । कण्हइ-रहस्सियत्ति-रह त्यागे, किंचिद्रहस्यमेषां भवति जधा होमं मंत्राश्च आरण्यकं चेत्यादि सर्वे च वेदा एषां रहस्यं येनाऽब्राह्मणाय न दीयंते, अहवा कण्हुयि-रहस्सियत्ति-संजता णो बहएस जीवेस संजमंति, पंचींदिए जीवे ण मारिति, एगिंदिय-पुढवि-मूलकंदादि उदयं अगणिकायं च वधंति । संजमो नाम यत्नः विरतिर्विरमणं जधा मए अमुगो ण हंतव्वोत्ति, पच्छा तेसुं चेव जेसु विरतो तेसु जतणं करेति,मा ते मारिस्सामित्ति । अथवा संजमो विरती य एगट्टा, कुत्र विरतो ? उच्यते-सव्वपाण-भूत-जीवसत्तेसु अणुकंपापरा संजता, केइ छटुं छठेणं पारणए परिसडिय-पंडुपत्ताहारा अन्ने अट्ठमं अट्टमेण सेवालादि आहारेंति । ते अप्पणा सच्चामोसाइं पउंजंतिसच्चो संजमो मोसं असंजमो, ते पारणयंमि निज्जीवं सेवालं परिसडिय-पंडुपत्ताणि य आहारेंति, एतं सच्चं, जं पुण सचित्तोदगं पडिसेवंति, एतं मोसं असंजम इत्यर्थः । अहवा असच्चामोसं-अहं न हंतव्यो, अण्णे हंतव्वा यथाब्राह्मणा ण हंतव्वा, ब्राह्मणघातकस्य हि न संति लोकाः, शुद्रा हन्तव्याः, शूद्र मारयित्वा प्राणायाम जपेत् विहसितं वा कुर्यात् किंचिद्वा दद्यात् । अनस्थिकानां सत्त्वानां सकटभरं मारयित्वा ब्राह्मणान् भोजयेत् । हणणं पिट्टणं, आज्ञापनं अमुगं कुरु गच्छ देहि एवमादि, परितावणं दुक्खावणं, परिघेत्तव्वंति दासमादी परिगिण्हति । उद्दवणं-मारणं | जधा हिंसातो अणियत्ता तथा मुसावातातो अदिण्णादाणातो य । जधा एतेसु तिसुवि आसवदारेसु अणियत्ता, एमेव ते इत्थिकामेसु । अन्ने सद्दादओ कामा तेहिंतो सव्वेहिंतोवि इत्यिकामा गुरुतरा, जेण भणितं
मूलमेतमधम्मस्स महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं निगंथा वज्जयंति णं ।। आह चशिश्नोदरकृते पार्थ ! पृथिवीं जेतुमिच्छसि ।
जय ! शिश्नोदरं ! पार्थ ! ततस्ते पृथिवी जिता ।। १. बृहदारण्यादिका रहस्यग्रन्थाः । ఉంటుందంగం మందం ఉండివం ఉంటుందడం
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संयमो विरतिरेकार्थो । तापसादीनां चर्या-हिंसादिप्रवृत्तिः । अनिवृत्त-भोगाशादीनां तापसादीनां मरणानन्तरमुपपातो भवनपति-व्यन्तरेषु भवति ।
अथवा इत्यिकामा सद्दादयो पंचवि कामा विज्जंते इति विभासितव्वा । उक्तं च
पुष्पफलाणं च रसं सुराए मंसस्स महिलियाणं च । जाणंता जे विरता ते दुक्करकारए वंदे ||
मुच्छितत्ति जधा वेदेणत्तो मुच्छितो ण किंचि जाणति, एवं ते इत्थिकामेसु मुच्छिया विव ण इत्थिदोसे पिच्छंति । गिद्धाः तदभिलाषिणः । ग्रथिता बद्धा ण तेभ्योऽपसर्पति । अज्झोववन्ने-तीव्रस्तदभिनिवेशः जाव वासाइं चतुः पञ्च छ दसमाणि वा व्रतं चरणं जाव चरंति ताव महल्लीभूया पच्छा परिणति जाव पुणो पुत्ते पाढेंति, कुप्पंता य बाधिंति, ताहे थेवं आउसेसं वासाइं चत्तारि पंच वा छ वा दस वा । अप्पतरोत्ति-चउण्हं वासाणं हेला जाव एक्को दिवसो | भुज्जतरोत्ति दसण्हं वासाणं परेणं जाव वासशतं बालपव्वतिताणं यथा शुक्रस्य व्यासपुत्रस्य । एवं ताव ते पव्वइता अणियत्त-भोगासा यथा शास्त्रोक्तान् आहाकम्म-आहारा वा आवसह-सयणासण-छादण-गंधमल्लादि-भोगान् भुंजते ।
तए णं अणियत्त-कामासा कालमासेत्ति मरणकालमासे मरणपक्खे जाव मरणदिवसे कालंति-मरणकालं किच्चा अण्णतरेसु जत्थ सूरो नत्थि भवणवंतराणं, अथवा जत्थ आसुरो भावो कोहणसीलता 'आतावएसु असुरकुमारेसु उववज्जंति । जति किहवि उड्डलोए देवेसु उववज्जति तहावि किल्बिसिएसु उववज्जति । किल्विषं-पापमित्यर्थः । किल्बिषबहुला किल्बिषिकाः । ततो किल्बिसियत्तातो वियुज्जमाणा जति विय कहवि अणंतरं परंपरं वा माणुसत्तणं लहइ तथावि एलमूयताए एलतो जहा बुब्बुएत्ति एवंविधा तस्स भासा भवति । तमुक्कायत्ता इति जात्यन्धो भवति । बालंधो वा जात्यन्धः । सेसं कंठं । जाव णयावि जाव करणणओ सव्वेसिपि णयाणं गाथा ।
दशानां चूर्णी समाप्ता || ग्रंथागू २२२५ ।।
१. आतापकेषु-परमाधार्मिकेषु इत्यर्थः संभाव्यते । dadabbabidadddd१३९ dddddddddddada
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