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प्रस्तावना
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धार उमास्वामीका तत्त्वार्थसूत्र, पूज्यपादकी सर्वार्थ सिद्धि तथा अकलंकस्वामीका राजवार्तिक जान पड़ता है। समवसरणका विस्तत वर्णन जिनसेनके महापराण पर आधारित है।
वर्धमानचरितकी साहित्यिक सुषमा रसका परिपाक, अलंकारोंका यथास्थान विनिवेश और छन्दोंकी रसानुगणता साहित्यिक सुषमाके प्रमुख अंग हैं। वर्धमानचरितमें इन तीनों अंगोंका सुन्दरतम विकास हुआ है।
१. रस काव्यको आत्मा है । जिस प्रकार आत्माके रहते हुए ही मानवशरीरपर अलंकारोंकी उपयोगिता होती है उसी प्रकार काव्यमें रसके रहते हुए ही अलंकारोंकी उपयोगिता होती है। वर्धमानचरितका अङ्गीरस शान्तरस है क्योंकि उसका समारोप शान्तरससे ही हुआ है । अङ्गरसके रूपमें शृङ्गार, भयानक तथा वीररस आये हैं। शृंगाररसके दो भेद है-संयोगशृङ्गार और विप्रलम्भशृङ्गार । इनमेंसे वर्धमानचरितमें संयोगशृङ्गारके ही प्रसंग आये हैं, विप्रलम्भके नहीं। विप्रलम्भशृङ्गारका वर्णन करनेवाला मात्र एक श्लोक दशम सर्गमें आता है जिसमें त्रिपृष्ठका मरण होनेपर शोकविह्वल स्वयंप्रभा मरने के लिये उद्यत बतलाई गयी है
स्वयंप्रभामनमरणार्थमद्यतां बलस्तदा स्वयमुपसान्त्वनोदितैः ।
इदं पुनर्भवशतहेतुरात्मनो निरर्थकं व्यवसितमित्यवारयत् ।। ३०८७ संयोगशृङ्गारके प्रसंग भी अत्यन्त सीमित हैं।
स्वयंप्रभा और त्रिपृष्ठका विवाह होते ही अश्वग्रीवके कुपित होनेका वर्णन आ जाता है जिससे शृङ्गाररसकी धारा क्षीण होकर धीरे-धीरे वीररसकी धारा प्रवाहित होने लगती है। अश्वग्रीवने जब विद्याधरोंको यह समाचार सुनाया कि ज्वलनजटी विद्याधरने अपनी स्वयंप्रभा कन्या भूमिगोचरी त्रिपृष्ठको दी है तब इसके उत्तरमें विद्याधर राजाओंने जो गर्वोक्तियाँ प्रकट की हैं उनसे वीररसकी उद्भति होती है। जब अश्वग्रीवका दूत राजा प्रजापतिकी सभामें जाकर कहता है कि त्रिपृष्ठ स्वयंप्रभाको अश्वग्रीवके पास भेजकर शान्तिसे रहे तब इसके उत्तरमें विजय और त्रिपृष्ठने उस दूतके माध्यमसे अश्वग्रीवको जो लताड़ दी है उससे वीररसका संपोषण होता है और रणक्षेत्रमें जब दोनों ओरकी सेनाओंका घनघोर युद्ध होता है तब वीररसका परिपाक होता है। इसके लिये वर्धमानचरितके अष्टम और नवम सर्ग द्रष्टव्य हैं।
विश्वनन्दीको आता देख भयसे काँपता हुआ विशाखनन्दी जब कपित्थके वृक्षपर चढ़कर प्राण संरक्षण करना चाहता है तब भयानकरसका दृश्य साकार हो जाता हैदेखियेआयान्तमन्तकनिभं तमुदग्रसत्त्व
मालोक्य वेपथुगृहीतसमस्तगात्रः । तस्थी कपित्थतरुमेत्य विशाखनन्दी
मन्दोकृतद्युति वहन् वदनं भयेन ।। ७७ सर्ग ४ अश्वग्रीवकी सेनाका प्रयाण भी भयानकरसके दृश्य उपस्थित करता है। काव्यमें शान्तरसके अनेक प्रसंग आये हैं और कविने पूर्ण मनोयोगके साथ उन्हें पल्लवित किया है। जैसे राजा नन्दिवर्धन आकाशमें विलीन होते हुए मेघको देखकर संसारसे विरक्त होता हुआ वैराग्यका चिन्तन करता है (सर्ग २ श्लोक १०-३४), प्रजापतिका वैराग्यचिन्तन (सर्ग ९ श्लोक ३२-५८, सर्ग १० श्लोक ४८-५८), राजा धनञ्जयका वैराग्यचिन्तन (सर्ग १४ श्लोक ४०-५३), तीर्थकर महावीरका निष्क्रमणकल्याणक (सर्ग १७ श्लोक १०२-११६)।