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वर्धमानचरित
प्रसन्नताका पार नहीं रहा । देवियाँ आकर उसकी सेवा करने लगीं। चैत्रशुक्ल त्रयोदशी सोमवार के दिन प्रियकारिणीके पुत्र उत्पन्न हुआ। यह पुत्र भरतक्षेत्रका चौबीसवां तीर्थंकर हुआ। चतुणिकायके देवोंके साथ आकर सौधर्मेन्द्रने उनका जन्माभिषेक किया। बालकका नाम वर्धमान रक्खा गया। पीछे चलकर विशिष्ट प्रसंगोंपर इनके सन्मति, वीर, अतिवीर और महावीर नाम भी प्रसिद्ध हुए। इन्होंने ३० वर्षकी अवस्थामें दीक्षा ले ली और कठिन तपश्चरण कर बारह वर्षके बाद अर्थात् ४२ वर्षकी अवस्थामें ऋजुकूला नदीके तटपर वैशाखशुक्ल दशमीको केवलज्ञान प्राप्त किया।
___ कुबेरने समवसरणकी रचना की। गणधरके अभावमें ६६ दिन तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी। पश्चात् गौतम गणधरके निश्चित होनेपर श्रावणकृष्ण प्रतिपदाके दिन राजगृहके विपुलाचलपर प्रथम देशना हुई । देशनामें सात तत्त्व, नौ पदार्थ तथा षट् द्रव्य आदिका स्वरूप प्रकट किया गया। ३० वर्ष तक विविध देशोंमें विहार कर उन्होंने धर्मोपदेश दिया। अन्तमें कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रिके अन्तमें पावापुरसे निर्वाण प्राप्त किया। वर्धमानचरितका महाकाव्यत्व
उपर्युक्त पौराणिक वृत्तको काव्यके साँचेमें ढालकर कविने इसे महाकाव्यका नाम दिया है । परमार्थसे यह महाकाव्यके लक्षणोंसे युक्त है भी । इसमें महाकाव्यके वर्णनीय समस्त वस्तुवृत्तोंका अत्यधिक रोचक ढंगसे वर्णन किया गया है। धीरोदात्त नायकके गणोंसे युक्त क्षत्रियवंशोत्पन्न वर्धमान तीर्थकर इसके नायक हैं। शान्तरस अङ्गीरस है, शेषरस अङ्गरसके रूपमें यथास्थान संनिविष्ट हैं। मोक्ष इसका फल है, नमस्कारात्मक पद्योंसे इसका प्रारम्भ हुआ है। १८ सर्गोंगे इसकी रचना हुई है। सर्गोकी रचना एक छन्दमें हुई है और सर्गान्तमें छन्दोवैषम्य है। नवम, दशम, पञ्चदश और अष्टादश सर्गकी रचना नानाछन्दोंमें हुई है । देश, नगर, राजा, राज्ञी, पुत्रजन्म, ऋतु, वन, समुद्र, मुनि, देवदेवियाँ, युद्ध, विवाह, दूतसंवाद, संध्या, चन्द्रोदय, सूर्योदय, तपश्चरण और धर्मोपदेश आदि सभी वर्णनीय विषयोंका इसमें अच्छा वर्णन हुआ है। पौराणिक वृत्तकी रक्षा करते हुए कविने अलंकारोंकी सुषमासे समग्र ग्रन्थको सुशोभित किया है।
कथावस्तुका मूलाधार
दिगम्बराम्नायमें तीर्थंकर आदि शलाका पुरुषोंके चरित्रके मूलस्तम्भ, प्राकृत भाषाके तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थमें मिलते हैं। इसके चतुर्थ महाधिकारमें तीर्थकर किस स्वर्गसे चय कर आये, उनके नाम, नगरी और माता-पिताका नाम, जन्मतिथि, नक्षत्र, वंश, तीर्थंकरोंका अन्तराल, आयु, कुमारकाल, शरीरकी ऊँचाई, वर्ण, राज्यकाल, वैराग्यका निमित्त, चिह्न, दीक्षातिथि, नक्षत्र, दीक्षावन, षष्ठ आदि प्राथमिक तप, साथमें दीक्षा लेनेवाले मुनियोंकी संख्या, पारणा, कुमारकालमें दीक्षा ली या राज्यकालमें, दानमें पञ्चाश्चर्य होना, छद्मस्थकाल, केवलज्ञानकी तिथि-नक्षत्र-स्थान, केवलज्ञानकी उत्पत्तिका अन्तरकाल, समवसरणका साङ्गोपाङ्ग वर्णन, विहार, निर्वाणतिथि और साथमें रहनेवाले मुनियोंकी संख्या आदि प्रमुख स्तम्भोंका विधिवत् संग्रह है। इसी संग्रहके आधार पर शलाका पुरुषोंके चरित्र विकसित हुए हैं। जिनसेनने अपने महापुराणका आधार परमेष्ठीकविकृत वागर्थसंग्रहपुराणको बतलाया है। पद्मपुराणके कर्ता रविषेण और हरिवंशके कर्ता जिनसेनने भी तीर्थंकर आदि शलाका पुरुषोंके विषयमें जो ज्ञातव्य वृत्त संकलित किये हैं वे तिलोयपण्णत्ति पर आधारित हैं । वृत्तवर्णनके रूपमें वर्धमानचरितके कथानकका आधार गणभद्रका उत्तरपुराण जान पड़ता है क्योंकि उत्तर पुराणके ७४वें पर्वमें वर्धमान भगवान्की जो कथा विस्तारसे दी गयी है उसका संक्षिप्त रूप इसमें उपलब्ध होता है। इतना अवश्य है कि असगने उस पौराणिक कथानकको काव्यका रूप दिया है । तत्त्वोपदेशका मूला